भागसूचना
एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जाजलिकी घोर तपस्या, सिरपर जटाओंमें पक्षियोंके घोंसला बनानेसे उनका अभिमान और आकाशवाणीकी प्रेरणासे उनका तुलाधार वैश्यके पास जाना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
तुलाधारस्य वाक्यानि धर्मे जाजलिना सह ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
तुलाधारस्य वाक्यानि धर्मे जाजलिना सह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! धर्मके विषयमें जाजलिके साथ तुलाधार वैश्यकी जो बातें हुई थीं, उसी प्राचीन इतिहासका विद्वान् पुरुष यहाँ उदाहरण दिया करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने वनचरः कश्चिज्जाजलिर्नाम वै द्विजः।
सागरोद्देशमागम्य तपस्तेपे महातपाः ॥ २ ॥
मूलम्
वने वनचरः कश्चिज्जाजलिर्नाम वै द्विजः।
सागरोद्देशमागम्य तपस्तेपे महातपाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालमें जाजलि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो वनमें ही रहते और विचरते थे। उन महातपस्वी जाजलिने समुद्रके तटपर जाकर बड़ी भारी तपस्या की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियतो नियताहारश्चीराजिनजटाधरः ।
मलपङ्कधरो धीमान् बहून् वर्षगणान् मुनिः ॥ ३ ॥
मूलम्
नियतो नियताहारश्चीराजिनजटाधरः ।
मलपङ्कधरो धीमान् बहून् वर्षगणान् मुनिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे नियमसे रहते, नियमित भोजन करते और वल्कल, मृगचर्म एवं जटा धारण किया करते थे। वे बुद्धिमान् मुनि बहुत वर्षोंतक शरीरपर मैल और कीचड़ धारण किये खड़े रहे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिन्महातेजा जलवासो महीपते।
चचार लोकान् विप्रर्षिः प्रेक्षमाणो मनोजवः ॥ ४ ॥
मूलम्
स कदाचिन्महातेजा जलवासो महीपते।
चचार लोकान् विप्रर्षिः प्रेक्षमाणो मनोजवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर किसी समय समुद्रतटस्थ जलयुक्त प्रदेशमें निवास करनेवाले वे महातेजस्वी विप्रर्षि सम्पूर्ण लोकोंको देखनेके लिये मनके समान तीव्र गतिसे विचरण करने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चिन्तयामास मुनिर्जलवासे कदाचन।
विप्रेक्ष्य सागरान्तां वै महीं सवनकाननाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
स चिन्तयामास मुनिर्जलवासे कदाचन।
विप्रेक्ष्य सागरान्तां वै महीं सवनकाननाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वन और काननोंसहित समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका निरीक्षण करके समुद्रतटवर्ती सजल प्रदेशमें निवास करते समय जाजलि मुनि कभी इस प्रकार विचार करने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मया सदृशोऽस्तीह लोके स्थावरजङ्गमे।
अप्सु वैहायसं गच्छेन्मया योऽन्यः सहेति वै ॥ ६ ॥
मूलम्
न मया सदृशोऽस्तीह लोके स्थावरजङ्गमे।
अप्सु वैहायसं गच्छेन्मया योऽन्यः सहेति वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस चराचर जगत्में मेरे सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य नहीं है, जो मेरे साथ जलमें विचरने और आकाशमें घूमने-फिरनेकी शक्ति रखता हो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृश्यमानो रक्षोभिर्जलमध्ये वदंस्तथा ।
अब्रूवंश्च पिशाचास्तं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥ ७ ॥
मूलम्
अदृश्यमानो रक्षोभिर्जलमध्ये वदंस्तथा ।
अब्रूवंश्च पिशाचास्तं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंसे अदृश्य रहकर जलयुक्त प्रदेशमें निवास करनेवाले जाजलि मुनिने जब इस प्रकार कहा, तब अदृश्य पिशाचोंने उनसे कहा, ‘मुने! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुलाधारो वणिग्धर्मा वाराणस्यां महायशाः।
सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं द्विजसत्तम ॥ ८ ॥
मूलम्
तुलाधारो वणिग्धर्मा वाराणस्यां महायशाः।
सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं द्विजसत्तम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! काशीमें महायशस्वी तुलाधार रहते हैं, जो वणिक्-धर्मका पालन करते हैं; किंतु वे भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी आज आप कह रहे हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैः प्रत्युवाच महातपाः।
पश्येयं तमहं प्राज्ञं तुलाधारं यशस्विनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैः प्रत्युवाच महातपाः।
पश्येयं तमहं प्राज्ञं तुलाधारं यशस्विनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अदृश्य भूतोंके ऐसा कहनेपर महातपस्वी जाजलिने उनसे कहा—‘क्या मैं उन ज्ञानी एवं यशस्वी तुलाधारका दर्शन कर सकता हूँ’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवाणं तमृषिं रक्षांस्युद्धृत्य सागरात्।
अब्रुवन् गच्छ पन्थानमास्थायेमं द्विजोत्तम ॥ १० ॥
मूलम्
इति ब्रुवाणं तमृषिं रक्षांस्युद्धृत्य सागरात्।
अब्रुवन् गच्छ पन्थानमास्थायेमं द्विजोत्तम ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहते हुए उन महर्षिको समुद्रतटवर्ती जलप्रदेशसे बाहर निकालकर राक्षसोंने उनसे कहा—‘द्विजश्रेष्ठ! इस मार्गका आश्रय लेकर काशीपुरी चले जाइये’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैर्जगाम विमनास्तदा ।
वाराणस्यां तुलाधारं समासाद्याब्रवीदिदम् ॥ ११ ॥
मूलम्
इत्युक्तो जाजलिर्भूतैर्जगाम विमनास्तदा ।
वाराणस्यां तुलाधारं समासाद्याब्रवीदिदम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अदृश्य भूतोंके ऐसा कहनेपर जाजलि मुनि उदास होकर काशीमें गये और तुलाधारके पास पहुँचकर उससे इस प्रकार बोले॥११॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृतं दुष्करं तात कर्म जाजलिना पुरा।
येन सिद्धिं परां प्राप्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १२ ॥
मूलम्
किं कृतं दुष्करं तात कर्म जाजलिना पुरा।
येन सिद्धिं परां प्राप्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! पूर्वकालमें जाजलिने कौन-सा ऐसा दुष्कर कार्य किया था, जिससे वे परम सिद्धिको प्राप्त हो गये, यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव तपसा युक्तो घोरेण स बभूव ह।
तथोपस्पर्शनरतः सायं प्रातर्महातपाः ॥ १३ ॥
अग्नीन् परिचरन् सम्यक् स्वाध्यायपरमो द्विजः।
वानप्रस्थविधानज्ञो जाजलिर्ज्वलितः श्रिया ॥ १४ ॥
मूलम्
अतीव तपसा युक्तो घोरेण स बभूव ह।
तथोपस्पर्शनरतः सायं प्रातर्महातपाः ॥ १३ ॥
अग्नीन् परिचरन् सम्यक् स्वाध्यायपरमो द्विजः।
वानप्रस्थविधानज्ञो जाजलिर्ज्वलितः श्रिया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! जाजलि मुनि महान् तपस्वी थे और अत्यन्त घोर तपस्यामें लगे हुए थे। वे प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल स्नान एवं संध्योपासना करके विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते और वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहते थे। ब्रह्मर्षि जाजलि वानप्रस्थके धर्मकी विधिको जानने और पालनेवाले थे, वे अपने तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने तपस्यतिष्ठत् स न च धर्ममवैक्षत।
वर्षास्वाकाशशायी च हेमन्ते जलसंश्रयः ॥ १५ ॥
वातातपसहो ग्रीष्मे न च धर्ममविन्दत।
दुःखशय्याश्च विविधा भूमौ च परिवर्तते ॥ १६ ॥
मूलम्
वने तपस्यतिष्ठत् स न च धर्ममवैक्षत।
वर्षास्वाकाशशायी च हेमन्ते जलसंश्रयः ॥ १५ ॥
वातातपसहो ग्रीष्मे न च धर्ममविन्दत।
दुःखशय्याश्च विविधा भूमौ च परिवर्तते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वनमें रहकर तपस्यामें ही लगे रहते, किंतु अपने धर्मकी कभी अवहेलना नहीं करते थे। वे वर्षाके दिनोंमें खुले आकाशके नीचे सोते और हेमन्त-ऋतुमें पानीके भीतर बैठा करते थे। इसी तरह गर्मीके महीनोंमें कड़ी धूप और लूका कष्ट सहते थे; परंतु उनको वास्तविक धर्मका ज्ञान नहीं हुआ। वे पृथ्वीपर ही लोटते और तरह-तरहसे इस प्रकार सोते, जिससे दुःख और कष्टका ही अधिक अनुभव होता था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचित् स मुनिर्वर्षास्वाकाशमास्थितः।
अन्तरिक्षाज्जलं मूर्ध्ना प्रत्यगृह्णान्मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः कदाचित् स मुनिर्वर्षास्वाकाशमास्थितः।
अन्तरिक्षाज्जलं मूर्ध्ना प्रत्यगृह्णान्मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर किसी समय वर्षा-ऋतु आनेपर वे मुनि खुले आकाशके नीचे खड़े हो गये और आकाशसे जो जलकी मूसलाधार वृष्टि होती थी, उसके आघातको बारंबार अपने मस्तकपर ही सहने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तस्य जटाः क्लिन्ना बभूवुर्ग्रथिताः प्रभो।
अरण्यगमनान्नित्यं मलिनोऽमलसंयुतः ॥ १८ ॥
मूलम्
अथ तस्य जटाः क्लिन्ना बभूवुर्ग्रथिताः प्रभो।
अरण्यगमनान्नित्यं मलिनोऽमलसंयुतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! उनके सिरके बाल बराबर भींगे रहनेके कारण उलझकर जटाके रूपमें परिणत हो गये। सदा वनमें ही विचरण करनेके कारण उनके शरीरपर मैल जम गयी थी; परंतु उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिन्निराहारो वायुभक्षो महातपाः।
तस्थौ काष्ठवदव्यग्रो न चचाल च कर्हिचित् ॥ १९ ॥
मूलम्
स कदाचिन्निराहारो वायुभक्षो महातपाः।
तस्थौ काष्ठवदव्यग्रो न चचाल च कर्हिचित् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, वे महातपस्वी जाजलि निराहार रहकर वायु-भक्षण करते हुए काष्ठकी भाँति खड़े हो गये, उस समय उनके चित्तमें तनिक भी व्यग्रता नहीं थी और वे क्षणभरके लिये भी कभी विचलित नहीं होते थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य स्म स्थाणुभूतस्य निर्विचेष्टस्य भारत।
कुलिङ्गशकुनौ राजन् नीडं शिरसि चक्रतुः ॥ २० ॥
मूलम्
तस्य स्म स्थाणुभूतस्य निर्विचेष्टस्य भारत।
कुलिङ्गशकुनौ राजन् नीडं शिरसि चक्रतुः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वे चेष्टाशून्य होनेके कारण किसी ठूँठे पेड़के समान जान पड़ते थे। राजन्! उस समय उनके सिरपर गौरैया पक्षीके एक जोड़ेने अपने रहनेके लिये एक घोंसला बना लिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तौ दयावान् ब्रह्मर्षिरुपप्रैक्षत दम्पती।
कुर्वाणौ नीडकं तत्र जटासु तृणतन्तुभिः ॥ २१ ॥
मूलम्
स तौ दयावान् ब्रह्मर्षिरुपप्रैक्षत दम्पती।
कुर्वाणौ नीडकं तत्र जटासु तृणतन्तुभिः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विप्रर्षि बड़े दयालु थे, इसलिये उन्होंने उन दोनों पक्षियोंको तिनकोंसे अपनी जटाओंमें घोंसला बनाते देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी—उन्हें हटाने या उड़ानेकी कोई चेष्टा नहीं की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न स चलत्येव स्थाणुभूतो महातपाः।
ततस्तौ सुखविश्वस्तौ सुखं तत्रोषतुस्तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
यदा न स चलत्येव स्थाणुभूतो महातपाः।
ततस्तौ सुखविश्वस्तौ सुखं तत्रोषतुस्तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे महातपस्वी ठूँठे काठके समान होकर जरा भी हिले-डुले नहीं, तब अच्छी तरह विश्वास जम जानेके कारण वे दोनों पक्षी वहाँ बड़े सुखसे रहने लगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीतास्वथ वर्षासु शरत्काल उपस्थिते।
प्राजापत्येन विधिना विश्वासात् काममोहितौ ॥ २३ ॥
तत्रापातयतां राजन् शिरस्यण्डानि खेचरौ।
तान्यबुध्यत तेजस्वी स विप्रः संशितव्रतः ॥ २४ ॥
मूलम्
अतीतास्वथ वर्षासु शरत्काल उपस्थिते।
प्राजापत्येन विधिना विश्वासात् काममोहितौ ॥ २३ ॥
तत्रापातयतां राजन् शिरस्यण्डानि खेचरौ।
तान्यबुध्यत तेजस्वी स विप्रः संशितव्रतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! धीरे-धीरे वर्षा-ऋतु बीत गयी और शरत्काल उपस्थित हुआ। उस समय कामसे मोहित होकर उन गौरैयोंने संतानोत्पादनकी विधिसे परस्पर समागम किया और विश्वासके कारण महर्षिके सिरपर ही अण्डे दिये। कठोर व्रतका पालन करनेवाले उन तेजस्वी ब्राह्मणको यह मालूम हो गया कि पक्षियोंने मेरी जटाओंमें अण्डे दिये हैं॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्वा च स महातेजा न चचाल च जाजलिः।
धर्मे कृतमना नित्यं नाधर्मं स त्वरोचयत् ॥ २५ ॥
मूलम्
बुद्ध्वा च स महातेजा न चचाल च जाजलिः।
धर्मे कृतमना नित्यं नाधर्मं स त्वरोचयत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बातको जानकर भी महातेजस्वी जाजलि विचलित नहीं हुए। उनका मन सदा धर्ममें लगा रहता था; अतः उन्हें अधर्मका कार्य पसंद नहीं था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहन्यहनि चागत्य ततस्तौ तस्य मूर्धनि।
आश्वासितौ निवसतः सम्प्रहृष्टौ तदा विभो ॥ २६ ॥
मूलम्
अहन्यहनि चागत्य ततस्तौ तस्य मूर्धनि।
आश्वासितौ निवसतः सम्प्रहृष्टौ तदा विभो ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! चिड़ियोंके वे जोड़े प्रतिदिन चारा चुगनेके लिये जाते और फिर लौटकर उनके मस्तकपर ही बसेरा लेते थे, वहाँ उन्हें बड़ा आश्वासन मिलता था और वे बहुत प्रसन्न रहते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अण्डेभ्यस्त्वथ पुष्टेभ्यः प्राजायन्त शकुन्तकाः।
व्यवर्धन्त च तत्रैव न चाकम्पत जाजलिः ॥ २७ ॥
मूलम्
अण्डेभ्यस्त्वथ पुष्टेभ्यः प्राजायन्त शकुन्तकाः।
व्यवर्धन्त च तत्रैव न चाकम्पत जाजलिः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अण्डोंके पुष्ट होनेपर उन्हें फोड़कर बच्चे बाहर निकले और वहीं पलकर बड़े होने लगे, तथापि जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रक्षमाणस्त्वण्डानि कुलिङ्गानां धृतव्रतः।
तथैव तस्थौ धर्मात्मा निर्विचेष्टः समाहितः ॥ २८ ॥
मूलम्
स रक्षमाणस्त्वण्डानि कुलिङ्गानां धृतव्रतः।
तथैव तस्थौ धर्मात्मा निर्विचेष्टः समाहितः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले वे एकाग्रचित्त धर्मात्मा मुनि उन पक्षियोंके अण्डोंकी रक्षा करते हुए पूर्ववत् निश्चेष्टभावसे खड़े रहे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु कालसमये बभूवुस्तेऽथ पक्षिणः।
बुबुधे तांस्तु स मुनिर्जातपक्षान् कुलिङ्गकान् ॥ २९ ॥
मूलम्
ततस्तु कालसमये बभूवुस्तेऽथ पक्षिणः।
बुबुधे तांस्तु स मुनिर्जातपक्षान् कुलिङ्गकान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर उन सब बच्चोंके पर निकल आये, मुनिको यह बात मालूम हो गयी कि चिड़ियोंके इन बच्चोंके पंख निकल आये हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचित् तांस्तत्र पश्यन् पक्षीन् यतव्रतः।
बभूव परमप्रीतस्तदा मतिमतां वरः ॥ ३० ॥
तथा तानपि संवृद्धान् दृष्ट्वा चाप्नुवतां मुदम्।
शकुनौ निर्भयौ तत्र ऊषतुश्चात्मजैः सह ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः कदाचित् तांस्तत्र पश्यन् पक्षीन् यतव्रतः।
बभूव परमप्रीतस्तदा मतिमतां वरः ॥ ३० ॥
तथा तानपि संवृद्धान् दृष्ट्वा चाप्नुवतां मुदम्।
शकुनौ निर्भयौ तत्र ऊषतुश्चात्मजैः सह ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संयमपूर्वक व्रतके पालनमें तत्पर रहनेवाले, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जाजलि किसी दिन वहाँ उन पंखधारी बच्चोंको उड़ते देख बड़े प्रसन्न हुए तथा अपने बच्चोंको बड़ा हुआ देख वे दोनों पक्षी भी बड़े आनन्दका अनुभव करने लगे और अपनी संतानोंके साथ निर्भय होकर वहीं रहने लगे॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातपक्षांश्च सोऽपश्यदुड्डीनान् पुनरागतान् ।
सायं सायं द्विजान् विप्रो न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
जातपक्षांश्च सोऽपश्यदुड्डीनान् पुनरागतान् ।
सायं सायं द्विजान् विप्रो न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बच्चोंके पंख हो गये थे, इसलिये वे दिनमें चारा चुगनेके लिये उड़कर निकल जाते और प्रतिदिन सायंकाल फिर वहीं लौट आते थे। ब्राह्मणप्रवर जाजलि उन पक्षियोंको इस प्रकार आते-जाते देखते, परंतु हिलते-डुलते नहीं थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचित् पुनरभ्येत्य पुनर्गच्छन्ति संततम्।
त्यक्ता मातापितृभ्यां ते न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३३ ॥
मूलम्
कदाचित् पुनरभ्येत्य पुनर्गच्छन्ति संततम्।
त्यक्ता मातापितृभ्यां ते न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी समय माता-पिता उनको छोड़कर उड़ गये। अब वे बच्चे कभी आकर फिर चले जाते और जाकर फिर चले आते थे, इस प्रकार वे सदा आने-जाने लगे। उस समयतक जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा ते दिवसं चापि गत्वा सायं पुनर्नृप।
उपावर्तन्त तत्रैव निवासार्थं शकुन्तकाः ॥ ३४ ॥
मूलम्
तथा ते दिवसं चापि गत्वा सायं पुनर्नृप।
उपावर्तन्त तत्रैव निवासार्थं शकुन्तकाः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अब वे पक्षी दिनभर चरनेके लिये चले जाते और शामको पुनः बसेरा लेनेके लिये वहीं आते थे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिद् दिवसान् पञ्च समुत्पत्य विहङ्गमाः।
षष्ठेऽहनि समाजग्मुर्न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३५ ॥
मूलम्
कदाचिद् दिवसान् पञ्च समुत्पत्य विहङ्गमाः।
षष्ठेऽहनि समाजग्मुर्न चाकम्पत जाजलिः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी-कभी वे विहंगम उड़कर पाँच-पाँच दिनतक बाहर ही रह जाते और छठे दिन वहाँ लौटते थे, तबतक भी जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमेण च पुनः सर्वे दिवसान् सुबहूनथ।
नोपावर्तन्त शकुना जातप्राणाः स्म ते यदा ॥ ३६ ॥
मूलम्
क्रमेण च पुनः सर्वे दिवसान् सुबहूनथ।
नोपावर्तन्त शकुना जातप्राणाः स्म ते यदा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्रमशः वे सब पक्षी बहुत दिनोंके लिये जाने और आने लगे, अब वे हृष्ट-पुष्ट और बलवान् हो गये थे। अतः बाहर निकल जानेपर जल्दी नहीं लौटते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिन्मासमात्रेण समुत्पत्य विहङ्गमाः ।
नैवागच्छंस्ततो राजन् प्रातिष्ठत स जाजलिः ॥ ३७ ॥
मूलम्
कदाचिन्मासमात्रेण समुत्पत्य विहङ्गमाः ।
नैवागच्छंस्ततो राजन् प्रातिष्ठत स जाजलिः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! एक समय वे आकाशचारी पक्षी उड़ जानेके बाद एक मासतक लौटकर नहीं आये, तब जाजलि मुनि वहाँसे अन्यत्र चल दिये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेषु प्रलीनेषु जाजलिर्जातविस्मयः ।
सिद्धोऽस्मीति मतिं चक्रे ततस्तं मान आविशत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
ततस्तेषु प्रलीनेषु जाजलिर्जातविस्मयः ।
सिद्धोऽस्मीति मतिं चक्रे ततस्तं मान आविशत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पक्षियोंके अदृश्य हो जानेपर जाजलिको बड़ा विस्मय हुआ, वे मन-ही मन यह मानने लगे कि मैं सिद्ध हो गया, फिर तो उनके भीतर अहंकार आ गया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथा निर्गतान् दृष्ट्वा शकुन्तान् नियतव्रतः।
सम्भावितात्मा सम्भाव्य भृशं प्रीतमनाऽभवत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
स तथा निर्गतान् दृष्ट्वा शकुन्तान् नियतव्रतः।
सम्भावितात्मा सम्भाव्य भृशं प्रीतमनाऽभवत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले वे सम्भावितात्मा महर्षि उन पक्षियोंको इस प्रकार गया हुआ देख अपनी सिद्धिकी सम्भावना करके मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नद्यां समुपस्पृश्य तर्पयित्वा हुताशनम्।
उदयन्तमथादित्यमुपातिष्ठन्महातपाः ॥ ४० ॥
मूलम्
स नद्यां समुपस्पृश्य तर्पयित्वा हुताशनम्।
उदयन्तमथादित्यमुपातिष्ठन्महातपाः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर नदीके तटपर जाकर उन महातपस्वी मुनिने स्नान किया और संध्या-तर्पणके पश्चात् अग्निहोत्रके द्वारा अग्निदेवको तृप्त करके उगते हुए सूर्यका उपस्थान किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भाव्य चटकान् मूर्ध्नि जाजलिर्जपतां वरः।
आस्फोटयत् तथाऽऽकाशे धर्मः प्राप्तो मयेति वै ॥ ४१ ॥
मूलम्
सम्भाव्य चटकान् मूर्ध्नि जाजलिर्जपतां वरः।
आस्फोटयत् तथाऽऽकाशे धर्मः प्राप्तो मयेति वै ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ जाजलि अपने मस्तकपर चिड़ियोंके पैदा होने और बढ़ने आदिकी बातें याद करके अपनेको महान् धर्मात्मा समझने लगे और आकाशमें मानो ताल ठोंकते हुए स्पष्ट वाणीमें बोले, मैंने धर्मको प्राप्त कर लिया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्तरिक्षे वागासीत् तां च शुश्राव जाजलिः।
धर्मेण न समस्त्वं वै तुलाधारस्य जाजले ॥ ४२ ॥
वाराणस्यां महाप्राज्ञस्तुलाधारः प्रतिष्ठितः ।
सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं भाषसे द्विज ॥ ४३ ॥
मूलम्
अथान्तरिक्षे वागासीत् तां च शुश्राव जाजलिः।
धर्मेण न समस्त्वं वै तुलाधारस्य जाजले ॥ ४२ ॥
वाराणस्यां महाप्राज्ञस्तुलाधारः प्रतिष्ठितः ।
सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं भाषसे द्विज ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें आकाशवाणी1 हुई—‘जाजले! तुम धर्ममें तुलाधारके समान नहीं हो, काशीपुरीमें महाज्ञानी तुलाधार वैश्य प्रतिष्ठित हैं। विप्रवर! वे तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी तुम कह रहे हो।’ जाजलिने उस आकाशवाणीको सुना॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽमर्षवशमापन्नस्तुलाधारदिदृक्षया ।
पृथिवीमचरद् राजन् यत्र सायंगृहो मुनिः ॥ ४४ ॥
मूलम्
सोऽमर्षवशमापन्नस्तुलाधारदिदृक्षया ।
पृथिवीमचरद् राजन् यत्र सायंगृहो मुनिः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इससे वे अमर्षके वशीभूत हो गये और वे तुलाधारको देखनेके लिये पृथ्वीपर विचरने लगे। जहाँ संध्या होती, वहीं वे मुनि टिक जाते थे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन महतागच्छत् स तु वाराणसीं पुरीम्।
विक्रीणन्तं च पण्यानि तुलाधारं ददर्श सः ॥ ४५ ॥
मूलम्
कालेन महतागच्छत् स तु वाराणसीं पुरीम्।
विक्रीणन्तं च पण्यानि तुलाधारं ददर्श सः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार दीर्घकालके पश्चात् वे वाराणसी पुरीमें जा पहुँचे, वहाँ उन्होंने तुलाधारको सौदा बेचते देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि दृष्ट्वैव तं विप्रमायान्तं भाण्डजीवनः।
समुत्थाय सुसंहृष्टः स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
सोऽपि दृष्ट्वैव तं विप्रमायान्तं भाण्डजीवनः।
समुत्थाय सुसंहृष्टः स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विविध पदार्थोंके क्रय-विक्रयसे जीवन-निर्वाह करनेवाले तुलाधार भी ब्राह्मणको आते देख तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और बड़े हर्षके साथ आगे बढ़कर उन्होंने ब्राह्मणका स्वागत-सत्कार किया॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
तुलाधार उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयानेवासि विदितो मम ब्रह्मन् न संशयः।
ब्रवीमि यत् तु वचनं तच्छृणुष्व द्विजोत्तम ॥ ४७ ॥
मूलम्
आयानेवासि विदितो मम ब्रह्मन् न संशयः।
ब्रवीमि यत् तु वचनं तच्छृणुष्व द्विजोत्तम ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलाधारने कहा— ब्रह्मन्! आप मेरे पास आ रहे हैं, यह बात मुझे पहले ही मालूम हो गयी थी, इसमें संशय नहीं है। द्विजश्रेष्ठ! अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनिये॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागरानूपमाश्रित्य तपस्तप्तं त्वया महत्।
न च धर्मस्य संज्ञां त्वं पुरा वेत्थ कथंचन॥४८॥
मूलम्
सागरानूपमाश्रित्य तपस्तप्तं त्वया महत्।
न च धर्मस्य संज्ञां त्वं पुरा वेत्थ कथंचन॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने सागरके तटपर सजल प्रदेशमें रहकर बड़ी भारी तपस्या की है, परंतु पहले कभी किसी तरह आपको यह बोध नहीं हुआ था कि मैं बड़ा धर्मवान् हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सिद्धस्य तपसा तव विप्र शकुन्तकाः।
क्षिप्रं शिरस्यजायन्त ते च सम्भावितास्त्वया ॥ ४९ ॥
मूलम्
ततः सिद्धस्य तपसा तव विप्र शकुन्तकाः।
क्षिप्रं शिरस्यजायन्त ते च सम्भावितास्त्वया ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! जब आप तपस्यासे सिद्ध हो गये, तब पक्षियोंने शीघ्र ही आपके सिरपर अण्डे दिये और उनसे बच्चे पैदा हुए, आपने उन सबकी भलीभाँति रक्षा की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातपक्षा यदा ते च गताश्चारीमितस्ततः।
मन्यमानस्ततो धर्मं चटकप्रभवं द्विज ॥ ५० ॥
मूलम्
जातपक्षा यदा ते च गताश्चारीमितस्ततः।
मन्यमानस्ततो धर्मं चटकप्रभवं द्विज ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! जब उनके पर निकल आये और वे चारा चुगनेके लिये उड़कर इधर-उधर चले गये, तब उन पक्षियोंके पालनजनित धर्मको आप बहुत बड़ा मानने लगे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खे वाचं त्वमथाश्रौषीर्मां प्रति द्विजसत्तम।
अमर्षवशमापन्नस्ततः प्राप्तो भवानिह ।
करवाणि प्रियं किं ते तद् ब्रूहि द्विजसत्तम ॥ ५१ ॥
मूलम्
खे वाचं त्वमथाश्रौषीर्मां प्रति द्विजसत्तम।
अमर्षवशमापन्नस्ततः प्राप्तो भवानिह ।
करवाणि प्रियं किं ते तद् ब्रूहि द्विजसत्तम ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! उसी समय मेरे विषयमें आकाशवाणी हुई, जिसे आपने सुना और सुनते ही अमर्षके वशीभूत होकर आप यहाँ मेरे पास चले आये। विप्रवर! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?॥५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि तुलाधारजाजलिसंवादे एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार-जाजलि-संवादविषयक दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६१॥
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इसी अध्यायमें पहले अदृश्य भूत-पिशाचोंके द्वारा उपर्युक्त वचन कहा गया है। यहाँ उसीको आकाशवाणी बतला रहे हैं। ↩︎