भागसूचना
षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका धर्मकी प्रामाणिकतापर संदेह उपस्थित करना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मं साधु समादिष्टं भवता धर्मलक्षणम्।
प्रतिभा त्वस्ति मे काचित् तां ब्रूयामनुमानतः ॥ १ ॥
मूलम्
सूक्ष्मं साधु समादिष्टं भवता धर्मलक्षणम्।
प्रतिभा त्वस्ति मे काचित् तां ब्रूयामनुमानतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! आपने धर्मका सूक्ष्म एवं सुन्दर लक्षण बताया है; परंतु मुझे कुछ और ही स्फुरित हो रहा है। अतः मैं उसके सम्बन्धमें अनुमानसे ही कुछ कहूँगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयांसो हृदये ये मे प्रश्नास्ते व्याहृतास्त्वया।
इदं त्वन्यत् प्रवक्ष्यामि न राजन् निग्रहादिव ॥ २ ॥
मूलम्
भूयांसो हृदये ये मे प्रश्नास्ते व्याहृतास्त्वया।
इदं त्वन्यत् प्रवक्ष्यामि न राजन् निग्रहादिव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे हृदयमें जो बहुत-से प्रश्न उठे थे, उन सबका निराकरण आपने कर दिया। महाराज! अब मैं यह दूसरा प्रश्न उपस्थित कर रहा हूँ। इसमें जिज्ञासा ही कारण है, दुराग्रह नहीं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमानि हि प्राणयन्ति सृजन्त्युत्तारयन्ति च।
न धर्मः परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम् ॥ ३ ॥
मूलम्
इमानि हि प्राणयन्ति सृजन्त्युत्तारयन्ति च।
न धर्मः परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! धर्म ही इन प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं। धर्म ही उनके जीवनधारण और उद्धारमें कारण होते हैं; परंतु धर्मको केवल वेदोंके पाठमात्रसे नहीं जाना जा सकता॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यो धर्मः समस्थस्य विषमस्थस्य चापरः।
आपदस्तु कथं शक्याः परिपाठेन वेदितुम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अन्यो धर्मः समस्थस्य विषमस्थस्य चापरः।
आपदस्तु कथं शक्याः परिपाठेन वेदितुम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अच्छी स्थितिमें है, उसका धर्म दूसरा है और जो संकटमें पड़ा हुआ है, उसका धर्म दूसरा ही है। केवल वेदोंके पाठसे आपद्धर्मका ज्ञान कैसे हो सकता है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदाचारो मतो धर्मः सन्तस्त्वाचारलक्षणाः।
साध्यासाध्यं कथं शक्यं सदाचारो ह्यलक्षणः ॥ ५ ॥
मूलम्
सदाचारो मतो धर्मः सन्तस्त्वाचारलक्षणाः।
साध्यासाध्यं कथं शक्यं सदाचारो ह्यलक्षणः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके कथनानुसार सत्पुरुषोंका आचरण धर्म माना गया है और जिनमें धर्माचरण लक्षित होता है, वे ही सत्पुरुष हैं। ऐसी दशामें अन्योन्याश्रय दोष पड़नेके कारण साध्य और असाध्यका विवेक कैसे हो सकता है? ऐसी दशामें सदाचार धर्मका लक्षण नहीं हो सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यते हि धर्मरूपेणाधर्मं प्राकृतश्चरन्।
धर्मं चाधर्मरूपेण कश्चिदप्राकृतश्चरन् ॥ ६ ॥
मूलम्
दृश्यते हि धर्मरूपेणाधर्मं प्राकृतश्चरन्।
धर्मं चाधर्मरूपेण कश्चिदप्राकृतश्चरन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें देखा जाता है कि कितने ही प्राकृत मनुष्य धर्म-से दिखायी देनेवाले अधर्मका आचरण करते हैं और कितने ही अप्राकृत (शिष्ट) पुरुष अधर्म प्रतीत होनेवाले धर्मका अनुष्ठान करते हैं (अतः केवल आचारसे धर्माधर्मका निर्णय नहीं हो सकता)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरस्य प्रमाणं हि निर्दिष्टं शास्त्रकोविदैः।
वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीतीह नः श्रुतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
पुनरस्य प्रमाणं हि निर्दिष्टं शास्त्रकोविदैः।
वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीतीह नः श्रुतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रज्ञ पुरुषोंने धर्ममें वेदको ही प्रमाण बताया है; किंतु हमने सुना है कि युग-युगमें वेदोंका ह्रास होता है अर्थात् धर्मके सम्बन्धमें जो वेदोंका निश्चय है, वह प्रत्येक युगमें बदलता रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे परे।
अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्ति कृता इव ॥ ८ ॥
मूलम्
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे परे।
अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्ति कृता इव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगके धर्म कुछ और हैं, त्रेता और द्वापरके धर्म कुछ और ही हैं और कलियुगके धर्म कुछ और ही बताये गये हैं। मानो मुनियोंने लोगोंकी शक्तिके अनुसार ही धर्मकी व्यवस्था की है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आम्नायवचनं सत्यमित्ययं लोकसंग्रहः ।
आम्नायेभ्यः पुनर्वेदाः प्रसृताः सर्वतोमुखाः ॥ ९ ॥
मूलम्
आम्नायवचनं सत्यमित्ययं लोकसंग्रहः ।
आम्नायेभ्यः पुनर्वेदाः प्रसृताः सर्वतोमुखाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंका वचन सत्य है, यह कथन लोकरंजनमात्र है। वेदोंसे ही सर्वतोमुखी स्मृतियोंका प्रचार और प्रसार हुआ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चेत् सर्वप्रमाणं वै प्रमाणं ह्यत्र विद्यते।
प्रमाणेऽप्यप्रमाणेन विरुद्धे शास्त्रता कुतः ॥ १० ॥
मूलम्
ते चेत् सर्वप्रमाणं वै प्रमाणं ह्यत्र विद्यते।
प्रमाणेऽप्यप्रमाणेन विरुद्धे शास्त्रता कुतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सम्पूर्ण वेद प्रामाणिक हैं तो स्मृतियाँ भी प्रामाणिक हो सकती हैं; परंतु जब (युग-युगमें धर्मके विषयमें विभिन्न प्रकारकी बात कहनेसे) प्रमाणभूत वेद भी अप्रामाणिक हो तो वेदमूलक स्मृतियाँ भी प्रामाणिक नहीं रहेंगी। यदि स्मृतिका श्रुतिके साथ विरोध हो तो उसमें शास्त्रत्व कैसे रह सकता है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मस्य क्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
या या विक्रियते संस्था ततः सापि प्रणश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
धर्मस्य क्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः ।
या या विक्रियते संस्था ततः सापि प्रणश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब धर्मका अनुष्ठान हो रहा हो, उस समय बलवान् दुरात्माओंद्वारा उसमें जो-जो विकृति उत्पन्न की जाती है, उसके कारण उस धर्ममर्यादाका ही लोप हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्म चैवं न वा विद्म शक्यं वा वेदितुं न वा।
अणीयान् क्षुरधाराया गरीयानपि पर्वतात् ॥ १२ ॥
मूलम्
विद्म चैवं न वा विद्म शक्यं वा वेदितुं न वा।
अणीयान् क्षुरधाराया गरीयानपि पर्वतात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम धर्मको जानते हों या न जानते हों, धर्मस्वरूप जाना जा सकता हो या नहीं; इतना तो हम समझते ही हैं कि धर्म छूरेकी धारसे भी सूक्ष्म और पर्वतसे भी अधिक विशाल एवं भारी है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वनगराकारः प्रथमं सम्प्रदृश्यते ।
अन्वीक्ष्यमाणः कविभिः पुनर्गच्छत्यदर्शनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
गन्धर्वनगराकारः प्रथमं सम्प्रदृश्यते ।
अन्वीक्ष्यमाणः कविभिः पुनर्गच्छत्यदर्शनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मके विषयमें जब आलोचना की जाती है, तब पहले तो वह गन्धर्वनगरके समान दिखायी देता है; फिर विद्वानोंद्वारा विशेष रूपसे विचार करनेपर यह प्रतीत होता है कि वह अदृश्य हो गया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपानानीव गोभ्योऽपि क्षेत्रे कुल्ये च भारत।
स्मृतिर्हि शाश्वतो धर्मो विप्रहीणो न दृश्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
निपानानीव गोभ्योऽपि क्षेत्रे कुल्ये च भारत।
स्मृतिर्हि शाश्वतो धर्मो विप्रहीणो न दृश्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जैसे बहुत-सी गौओंको पानी पिलानेसे निपान (क्षुद्र जलाशय) सूख जाते हैं तथा जैसे अधिक खेतोंकी सिंचाई करनेसे नहरोंका पानी निपट जाता है, उसी प्रकार सनातन वैदिक धर्म अथवा स्मृति-शास्त्र धीरे-धीरे क्षीण होकर कलियुगके अन्तिम भागमें दिखायी ही नहीं देता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामादन्येच्छया चान्ये कारणैरपरैस्तथा ।
असन्तोऽपि वृथाचारं भजन्ते बहवोऽपरे ॥ १५ ॥
मूलम्
कामादन्येच्छया चान्ये कारणैरपरैस्तथा ।
असन्तोऽपि वृथाचारं भजन्ते बहवोऽपरे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि उस समय कुछ लोग स्वार्थवश, दूसरे लोग दूसरोंकी इच्छासे तथा अन्य मनुष्य अन्यान्य कारणोंसे धर्माचरण करते हैं और बहुत-से असाधु पुरुष भी व्यर्थ धर्माचरणका ढोंग फैला लेते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो भवति स क्षिप्रं प्रलापस्त्वेव साधुषु।
अथैतानाहुरुन्मत्तानपि चावहसन्त्युत ॥ १६ ॥
मूलम्
धर्मो भवति स क्षिप्रं प्रलापस्त्वेव साधुषु।
अथैतानाहुरुन्मत्तानपि चावहसन्त्युत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों लोगोंद्वारा प्रायः सकामभावसे ही धर्मका आचरण होता देखा जाता है। श्रेष्ठ पुरुषोंमें जो यथार्थ धर्म होता है, वह शीघ्र ही मूढ़ मनुष्योंकी दृष्टिमें प्रलापमात्र सिद्ध होता है। वे मूढ उन धर्मात्मा पुरुषोंको पागल कहते और उनकी हँसी उड़ाते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाजना ह्युपावृत्ता राजधर्मं समाश्रिताः।
न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः सम्प्रवर्तते ॥ १७ ॥
मूलम्
महाजना ह्युपावृत्ता राजधर्मं समाश्रिताः।
न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः सम्प्रवर्तते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्य द्रोण-जैसे महापुरुष भी स्वधर्मसे हटकर क्षत्रियधर्मका आश्रय लेते हैं; अतः कोई भी आचार ऐसा नहीं है, जो सबके लिये समानरूपसे हितकर या सबके द्वारा समानरूपसे पालित हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरं बाधते पुनः।
दृश्यते चैव स पुनस्तुल्यरूपो यदृच्छया ॥ १८ ॥
मूलम्
तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरं बाधते पुनः।
दृश्यते चैव स पुनस्तुल्यरूपो यदृच्छया ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भी देखा जाता है कि उसी धर्मके आचरणसे विश्वामित्र आदि अन्य महापुरुषोंने उन्नति प्राप्त की है तथा रावणादि निशाचर उसी धर्मके बलसे दूसरोंको पीड़ा देते हैं एवं कश्यप आदि अनेक महर्षि ईश्वरकी इच्छासे उसी धर्मके द्वारा सदा एक-सी स्थितिमें दिखायी देते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनैवान्यः प्रभवति सोऽपरानपि बाधते।
आचाराणामनैकाग्र्यं सर्वेषामुपलक्षयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
येनैवान्यः प्रभवति सोऽपरानपि बाधते।
आचाराणामनैकाग्र्यं सर्वेषामुपलक्षयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस धर्मको अपनाकर एक व्यक्ति उन्नति करता है, उसीसे दूसरा दूसरोंको पीड़ा देता है; अतः सबके लिये आचारोंकी एकरूपता कोई नहीं दिखा सकता॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिराभिपन्नः कविभिः पूर्वं धर्म उदाहृतः।
तेनाचारेण पूर्वेण संस्था भवति शाश्वती ॥ २० ॥
मूलम्
चिराभिपन्नः कविभिः पूर्वं धर्म उदाहृतः।
तेनाचारेण पूर्वेण संस्था भवति शाश्वती ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने पहले उसी धर्मका वर्णन किया है, जिसे विद्वान्लोग चिरकालसे धारण करते चले आ रहे हैं। मैं भी यही समझता हूँ कि उस पूर्वप्रचलित धर्मके आचरणद्वारा ही समाजकी मर्यादा दीर्घकालतक टिकी रहती है॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि धर्मप्रामाण्याक्षेपे षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें धर्मकी प्रामाणिकतापर आक्षेपविषयक दो सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६०॥