२५९ धर्मलक्षणे

भागसूचना

एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धर्माधर्मके स्वरूपका निर्णय

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे वै मानवाः सर्वे धर्मं प्रति विशङ्किताः।
कोऽयं धर्मः कुतो धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

इमे वै मानवाः सर्वे धर्मं प्रति विशङ्किताः।
कोऽयं धर्मः कुतो धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! ये सभी मनुष्य प्रायः धर्मके विषयमें संशयशील हैं; अतः मैं जानना चाहता हूँ कि धर्म क्या है? और उसकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है? यह मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्त्वयमिहार्थः किममुत्रार्थोऽपि वा भवेत्।
उभयार्थो हि वा धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

मूलम्

धर्मस्त्वयमिहार्थः किममुत्रार्थोऽपि वा भवेत्।
उभयार्थो हि वा धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! इस लोकमें सुख पानेके लिये जो कर्म किया जाता है, वही धर्म है या परलोकमें कल्याणके लिये जो कुछ किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं? अथवा लोक-परलोक दोनोंके सुधारके लिये कुछ किया जानेवाला कर्म ही धर्म कहलाता है? यह मुझे बताइये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदाचारः स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम् ।
चतुर्थमर्थमित्याहुः कवयो धर्मलक्षणम् ॥ ३ ॥

मूलम्

सदाचारः स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम् ।
चतुर्थमर्थमित्याहुः कवयो धर्मलक्षणम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! वेद, स्मृति और सदाचार—ये तीन धर्मके स्वरूपको लक्षित करानेवाले हैं। कुछ विद्वान् अर्थको भी धर्मका चौथा लक्षण बताते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि ह्युक्तानि धर्म्याणि व्यवस्यन्त्युत्तरावरे।
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः ॥ ४ ॥

मूलम्

अपि ह्युक्तानि धर्म्याणि व्यवस्यन्त्युत्तरावरे।
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंमें जो धर्मानुकूल कार्य बताये गये हैं, उन्हें ही प्रधान एवं अप्रधान सभी लोग निश्चित रूपसे धर्म मानते हैं। लोकयात्राका निर्वाह करनेके लिये ही महर्षियोंने यहाँ धर्मकी मर्यादा स्थापित की है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभयत्र सुखोदर्क इह चैव परत्र च।
अलब्ध्वा निपुणं धर्मं पापः पापेन युज्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

उभयत्र सुखोदर्क इह चैव परत्र च।
अलब्ध्वा निपुणं धर्मं पापः पापेन युज्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मका पालन करनेसे आगे चलकर इस लोक और परलोकमें भी सुख मिलता है। पापी मनुष्य विचारपूर्वक धर्मका आश्रय न लेनेसे पापमें प्रवृत्त हो उसके दुःखरूप फलका भागी होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च पापकृतः पापान्मुच्यन्ते केचिदापदि।
अपापवादी भवति यथा भवति धर्मकृत्।
धर्मस्य निष्ठा त्वाचारस्तमेवाश्रित्य भोत्स्यसे ॥ ६ ॥

मूलम्

न च पापकृतः पापान्मुच्यन्ते केचिदापदि।
अपापवादी भवति यथा भवति धर्मकृत्।
धर्मस्य निष्ठा त्वाचारस्तमेवाश्रित्य भोत्स्यसे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापाचारी मनुष्य आपत्तिकालमें कष्ट भोगकर भी उस पापसे मुक्त नहीं होते और धर्मका आचरण करनेवाले लोग आपत्तिकालमें भी पापका समर्थन नहीं करते हैं। आचार (शौचाचार-सदाचार) ही धर्मका आधार है; अतः युधिष्ठिर! तुम उस आचारका आश्रय लेकर ही धर्मके यथार्थ स्वरूपको जान सकोगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा धर्मसमाविष्टो धनं गृह्णाति तस्करः।
रमते निर्हरन् स्तेनः परवित्तमराजके ॥ ७ ॥

मूलम्

यथा धर्मसमाविष्टो धनं गृह्णाति तस्करः।
रमते निर्हरन् स्तेनः परवित्तमराजके ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चोर धर्मकार्यमें प्रवृत्त होकर भी दूसरोंके धनका अपहरण कर ही लेता है और अराजक-अवस्थामें पराये धनका अपहरण करनेवाला लुटेरा सुखका अनुभव करता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदास्य तद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति।
तदा तेषां स्पृहयते ये वै तुष्टाः स्वकैर्धनैः ॥ ८ ॥

मूलम्

यदास्य तद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति।
तदा तेषां स्पृहयते ये वै तुष्टाः स्वकैर्धनैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जब दूसरे लोग उस चोरका भी धन हर लेते हैं, तब वह चोर भी प्रजाकी रक्षा करने और चोरोंको दण्ड देनेवाले राजाको चाहता है—उसकी आवश्यकताका अनुभव करता है। उस अवस्थामें वह उन पुरुषोंके समान बननेकी इच्छा करता है, जो अपने ही धनसे संतुष्ट रहते हैं—दूसरोंके धनपर हाथ लगाना पाप समझते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीतः शुचिरभ्येति राजद्वारमशङ्कितः ।
न हि दुश्चरितं किंचिदन्तरात्मनि पश्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

अभीतः शुचिरभ्येति राजद्वारमशङ्कितः ।
न हि दुश्चरितं किंचिदन्तरात्मनि पश्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पवित्र है—जिसमें चोरी आदिके दोष नहीं हैं, वह मनुष्य निर्भय और निःशंक होकर राजाके द्वारपर चला जाता है; क्योंकि वह अपनी अन्तरात्मामें कोई दुराचार नहीं देखता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद् विद्यते परम्।
सत्येन विधृतं सर्वं सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ १० ॥

मूलम्

सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद् विद्यते परम्।
सत्येन विधृतं सर्वं सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य बोलना शुभ कर्म है। सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई कार्य नहीं है। सत्यने ही सबको धारण कर रखा है और सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि पापकृतो रौद्राः सत्यं कृत्वा पृथक् पृथक्।
अद्रोहमविसंवादं प्रवर्तन्ते तदाश्रयाः ॥ ११ ॥

मूलम्

अपि पापकृतो रौद्राः सत्यं कृत्वा पृथक् पृथक्।
अद्रोहमविसंवादं प्रवर्तन्ते तदाश्रयाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूर स्वभाववाले पापी भी पृथक्-पृथक् सत्यकी शपथ खाकर ही आपसमें द्रोह या विवादसे बचे रहते हैं। इतना ही नहीं, वे सत्यका आश्रय लेकर सत्यकी ही दुहाई देकर अपने-अपने कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते चेन्मिथोऽधृतिं कुर्युर्विनश्येयुरसंशयम् ।
न हर्तव्यं परधनमिति धर्मः सनातनः ॥ १२ ॥

मूलम्

ते चेन्मिथोऽधृतिं कुर्युर्विनश्येयुरसंशयम् ।
न हर्तव्यं परधनमिति धर्मः सनातनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे यदि आपसकी शपथको भंग कर दें तो निस्संदेह परस्पर लड़-भिड़कर नष्ट हो जायँ। दूसरोंके धनका अपहरण नहीं करना चाहिये—यही सनातन धर्म है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यन्ते बलवन्तस्तं दुर्बलैः सम्प्रवर्तितम्।
यदा नियतिदौर्बल्यमथैषामेव रोचते ॥ १३ ॥

मूलम्

मन्यन्ते बलवन्तस्तं दुर्बलैः सम्प्रवर्तितम्।
यदा नियतिदौर्बल्यमथैषामेव रोचते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ बलवान् लोग (बलके घमंडमें नास्तिकभावका आश्रय लेकर) धर्मको दुर्बलोंका चलाया हुआ मानते हैं; किंतु जब भाग्यवश वे भी दुर्बल हो जाते हैं, तब अपनी रक्षाके लिये उन्हें भी धर्मका ही सहारा लेना अच्छा जान पड़ता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यत्यन्तं बलवन्तो भवन्ति सुखिनोऽपि वा।
तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न कार्या ते कदाचन ॥ १४ ॥

मूलम्

न ह्यत्यन्तं बलवन्तो भवन्ति सुखिनोऽपि वा।
तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न कार्या ते कदाचन ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें कोई भी न तो अत्यन्त बलवान् होते हैं और न बहुत सुखी ही। इसलिये तुम्हें अपनी बुद्धिमें कभी कुटिलताका विचार नहीं लाना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असाधुभ्योऽस्य न भयं न चौरेभ्यो न राजतः।
अकिंचित्‌ कस्यचित्‌ कुर्वन् निर्भयः शुचिरावसेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

असाधुभ्योऽस्य न भयं न चौरेभ्यो न राजतः।
अकिंचित्‌ कस्यचित्‌ कुर्वन् निर्भयः शुचिरावसेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसीका कुछ बिगाड़ता नहीं है, उसे दुष्टों, चोरों अथवा राजासे भय नहीं होता। शुद्ध आचार-विचारवाला पुरुष सदा निर्भय रहता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतः शङ्कते स्तेनो मृगो ग्राममिवेयिवान्।
बहुधाऽऽचरितं पापमन्यत्रैवानुपश्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

सर्वतः शङ्कते स्तेनो मृगो ग्राममिवेयिवान्।
बहुधाऽऽचरितं पापमन्यत्रैवानुपश्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाँवोंमें आये हुए हिरणकी भाँति चोर सबसे डरता रहता है। वह अनेकों बार दूसरोंके साथ जैसा पापाचार कर चुका है, दूसरोंको भी वैसा ही पापाचारी समझता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुदितः शुचिरभ्येति सर्वतो निर्भयः सदा।
न हि दुश्चरितं किंचिदात्मनोऽन्येषु पश्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

मुदितः शुचिरभ्येति सर्वतो निर्भयः सदा।
न हि दुश्चरितं किंचिदात्मनोऽन्येषु पश्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका आचार-विचार शुद्ध है, उसे कहींसे कोई खटका नहीं होता। वह सदा प्रसन्न एवं सब ओरसे निर्भय बना रहता है तथा वह अपना कोई दुष्कर्म दूसरोंमें नहीं देखता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतैः।
तं मन्यन्ते धनयुताः कृपणैः सम्प्रवर्तितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतैः।
तं मन्यन्ते धनयुताः कृपणैः सम्प्रवर्तितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले महात्माओंने ‘दान करना चाहिये’ ऐसा कहकर इसे धर्म बताया है; परंतु बहुत-से धनवान् उसे दरिद्रोंका चलाया हुआ धर्म समझते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा नियतिकार्पण्यमथैषामेव रोचते ।
न ह्यत्यन्तं धनवन्तो भवन्ति सुखिनोऽपि वा ॥ १९ ॥

मूलम्

यदा नियतिकार्पण्यमथैषामेव रोचते ।
न ह्यत्यन्तं धनवन्तो भवन्ति सुखिनोऽपि वा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु यदि भाग्यवश वे भी निर्धन या दर-दरके भिखारी हो जाते हैं, उस समय उनको भी यह धर्म उत्तम जान पड़ता है; क्योंकि कोई भी न तो अत्यन्त धनवान् होते हैं और न अतिशय सुखी ही हुआ करते हैं (अतः धनका अभिमान नहीं करना चाहिये)॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः।
न तत् परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ॥ २० ॥

मूलम्

यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः।
न तत् परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य दूसरोंद्वारा किये हुए जिस व्यवहारको अपने लिये वांछनीय नहीं मानता, दूसरोंके प्रति भी वह वैसा बर्ताव न करे। उसे यह जानना चाहिये कि जो बर्ताव अपने लिये अप्रिय है, वह दूसरोंके लिये भी प्रिय नहीं हो सकता॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽन्यस्य स्यादुपपतिः स कं किं वक्तुमर्हति।
यदन्यस्य ततः कुर्यान्न मृष्येदिति मे मतिः ॥ २१ ॥

मूलम्

योऽन्यस्य स्यादुपपतिः स कं किं वक्तुमर्हति।
यदन्यस्य ततः कुर्यान्न मृष्येदिति मे मतिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्वयं दूसरेके घरमें उपपति (जार) बनकर जाता है—परायी स्त्रीके साथ व्यभिचार करता है, वह दूसरेको वैसा ही कर्म करते देख किससे क्या कह सकता है? यदि दूसरेकी उसी प्रवृत्तिके कारण वह निन्दा करे तो वह पुरुष उसकी निन्दाको नहीं सह सकता—ऐसा मेरा विश्वास है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत्‌ कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्।
यद् यदात्मनि चेच्छेत तत्‌ परस्यापि चिन्तयेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत्‌ कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्।
यद् यदात्मनि चेच्छेत तत्‌ परस्यापि चिन्तयेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरोंके प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने लिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, वही दूसरेके लिये भी सुलभ करानेकी बात सोचे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिरिक्तैः संविभजेद् भोगैरन्यानकिंचनान् ।
एतस्मात्‌ कारणाद् धात्रा कुसीदं सम्प्रवर्तितम् ॥ २३ ॥

मूलम्

अतिरिक्तैः संविभजेद् भोगैरन्यानकिंचनान् ।
एतस्मात्‌ कारणाद् धात्रा कुसीदं सम्प्रवर्तितम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी आवश्यकतासे अधिक हो, उन भोगपदार्थोंको दूसरे दीन-दुखियोंके लिये बाँट दे। इसीलिये विधाताने सूदपर धन देनेकी वृत्ति चलायी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिंस्तु देवाः समये संतिष्ठेरंस्तथा भवेत्।
अथवा लाभसमये स्थितिर्धर्मेऽपि शोभना ॥ २४ ॥

मूलम्

यस्मिंस्तु देवाः समये संतिष्ठेरंस्तथा भवेत्।
अथवा लाभसमये स्थितिर्धर्मेऽपि शोभना ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस सन्मार्ग या मर्यादापर देवता स्थित होते हैं, उसीपर मनुष्यको भी स्थिर रहना चाहिये अथवा धन-लाभके समय धर्ममें स्थित रहना भी अच्छा है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं प्रियाभ्युपगतं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
पश्यैतं लक्षणोद्‌देशं धर्माधर्मे युधिष्ठिर ॥ २५ ॥

मूलम्

सर्वं प्रियाभ्युपगतं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
पश्यैतं लक्षणोद्‌देशं धर्माधर्मे युधिष्ठिर ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! सबके साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव करनेसे जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब धर्म है, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है तथा जो इसके विपरीत है, वह अधर्म है। तुम धर्म और अधर्मका संक्षेपसे यही लक्षण समझो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकसंग्रहसंयुक्तं विधात्रा विहितं पुरा।
सूक्ष्मधर्मार्थनियतं सतां चरितमुत्तमम् ॥ २६ ॥

मूलम्

लोकसंग्रहसंयुक्तं विधात्रा विहितं पुरा।
सूक्ष्मधर्मार्थनियतं सतां चरितमुत्तमम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने पूर्वकालमें सत्पुरुषोंके जिस उत्तम आचरणका विधान किया है, वह विश्वके कल्याणकी भावनासे युक्त है और उससे धर्म एवं अर्थके सूक्ष्म स्वरूपका ज्ञान होता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मलक्षणमाख्यातमेतत् ते कुरुसत्तम ।
तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न ते कार्या कथंचन ॥ २७ ॥

मूलम्

धर्मलक्षणमाख्यातमेतत् ते कुरुसत्तम ।
तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न ते कार्या कथंचन ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे धर्मका लक्षण बताया है; अतः तुम्हें किसी तरह कुटिल मार्गमें अपनी बुद्धिको नहीं ले जाना चाहिये॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि धर्मलक्षणे एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें धर्मका लक्षणविषयक दो सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५९॥