भागसूचना
अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मृत्युकी घोर तपस्या और प्रजापतिकी आज्ञासे उसका प्राणियोंके संहारका कार्य स्वीकार करना
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनीय दुःखमबला साऽऽत्मनैवायतेक्षणा ।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता तदा ॥ १ ॥
मूलम्
विनीय दुःखमबला साऽऽत्मनैवायतेक्षणा ।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर वह विशाल नेत्रोंवाली अबला स्वयं ही उस दुःखको दूर हटाकर झुकायी हुई लताके समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्माजीसे बोली—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया सृष्टा कथं नारी मादृशी वदतां वर।
रौद्रकर्माभिजायेत सर्वप्राणिभयङ्करी ॥ २ ॥
मूलम्
त्वया सृष्टा कथं नारी मादृशी वदतां वर।
रौद्रकर्माभिजायेत सर्वप्राणिभयङ्करी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रजापते! (यदि मुझसे क्रूर कर्म ही कराना था तो) आपने मुझ-जैसी कोमलहृदया नारीको क्यों उत्पन्न किया? क्या मुझ-जैसी स्त्री समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर तथा क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाली हो सकती है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभेम्यहमधर्मस्य धर्म्यमादिश कर्म मे।
त्वं मां भीतामवेक्षस्व शिवेनेक्षस्व चक्षुषा ॥ ३ ॥
मूलम्
बिभेम्यहमधर्मस्य धर्म्यमादिश कर्म मे।
त्वं मां भीतामवेक्षस्व शिवेनेक्षस्व चक्षुषा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मैं अधर्मसे बहुत डरती हूँ। आप मुझे धर्मानुकूल कार्य करनेकी आज्ञा दें। मुझ भयभीत अबलापर दृष्टिपात करें और कल्याणमयी दृष्टिसे मेरी ओर देखें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालान् वृद्धान् वयस्थांश्च न हरेयमनागसः।
प्राणिनः प्राणिनामीश नमस्तेऽस्तु प्रसीद मे ॥ ४ ॥
मूलम्
बालान् वृद्धान् वयस्थांश्च न हरेयमनागसः।
प्राणिनः प्राणिनामीश नमस्तेऽस्तु प्रसीद मे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समस्त प्राणियोंके अधीश्वर! मैं निरपराध बाल, वृद्ध और तरुण प्राणियोंके प्राण नहीं लूँगी। आपको नमस्कार है, आप मुझपर प्रसन्न हों॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियान् पुत्रान् वयस्यांश्च भ्रातॄन् मातॄः पितॄनपि।
अपध्यास्यन्ति यद्येवं मृतास्तेषां बिभेम्यहम् ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रियान् पुत्रान् वयस्यांश्च भ्रातॄन् मातॄः पितॄनपि।
अपध्यास्यन्ति यद्येवं मृतास्तेषां बिभेम्यहम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मैं लोगोंके प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं तथा पिताओंको मारने लगूँगी, तब उनके सम्बन्धी उनके इस प्रकार मारे जानेके कारण मेरा अनिष्ट-चिन्तन करेंगे; अतः मैं उन लोगोंसे बहुत डरती हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपणाश्रुपरिक्लेदो दहेन्मां शाश्वतीः समाः।
तेभ्योऽहं बलवद् भीता शरणं त्वामुपागता ॥ ६ ॥
मूलम्
कृपणाश्रुपरिक्लेदो दहेन्मां शाश्वतीः समाः।
तेभ्योऽहं बलवद् भीता शरणं त्वामुपागता ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन दीन-दुखियोंके नेत्रोंसे जो आँसू बहकर उनके कपोलों और वक्षःस्थलको भिगो देगा, वह मुझे सदा अनन्त वर्षोंतक जलाता रहेगा। मैं उनसे बहुत डरी हुई हूँ, इसलिये आपकी शरणमें आयी हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमस्य भवने देव पात्यन्ते पापकर्मिणः।
प्रसादये त्वां वरद प्रसादं कुरु मे प्रभो ॥ ७ ॥
मूलम्
यमस्य भवने देव पात्यन्ते पापकर्मिणः।
प्रसादये त्वां वरद प्रसादं कुरु मे प्रभो ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वरदायक प्रभो! देव! सुना है कि पापाचारी प्राणी यमराजके लोकमें गिराये जाते हैं, अतः आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करती हूँ, आप मुझपर कृपा कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं कामं त्वत्तो लोकपितामह।
इच्छेयं त्वत्प्रसादार्थं तपस्तप्तुं महेश्वर ॥ ८ ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं कामं त्वत्तो लोकपितामह।
इच्छेयं त्वत्प्रसादार्थं तपस्तप्तुं महेश्वर ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोकपितामह! महेश्वर! मैं आपसे अपनी एक अभिलाषाकी पूर्ति चाहती हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं आपकी प्रसन्नताके लिये कहीं जाकर तप करूँ’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
पितामह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्यो संकल्पिता मे त्वं प्रजासंहारहेतुना।
गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा च विचारय ॥ ९ ॥
मूलम्
मृत्यो संकल्पिता मे त्वं प्रजासंहारहेतुना।
गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा च विचारय ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— मृत्यो! प्रजाके संहारके लिये ही मैंने संकल्पपूर्वक तुम्हारी सृष्टि की है। जाओ, सारी प्रजाका संहार करो। इसके लिये मनमें कोई विचार न करो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेवमवश्यं हि भविता नैतदन्यथा।
क्रियतामनवद्याङ्गि यथोक्तं मद्वचोऽनघे ॥ १० ॥
मूलम्
एतदेवमवश्यं हि भविता नैतदन्यथा।
क्रियतामनवद्याङ्गि यथोक्तं मद्वचोऽनघे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बात अवश्य ही इसी प्रकार होनेवाली है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। निर्दोष अंगोंवाली देवि! मैंने जो बात कही है, उसका पालन करो। इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता महाबाहो मृत्युः परपुरंजय।
न व्याजहार तस्थौ च प्रह्वा भगवदुन्मुखी ॥ ११ ॥
मूलम्
एवमुक्ता महाबाहो मृत्युः परपुरंजय।
न व्याजहार तस्थौ च प्रह्वा भगवदुन्मुखी ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले नरेश! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मृत्यु उन्हींकी ओर मुँह करके हाथ जोड़े खड़ी रह गयी—कुछ बोल न सकी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनः पुनरथोक्ता सा गतसत्त्वेव भामिनी।
तूष्णीमासीत् ततो देवो देवानामीश्वरेश्वरः ॥ १२ ॥
प्रससाद किल ब्रह्मा स्वयमेवात्मनाऽऽत्मनि।
स्मयमानश्च लोकेशो लोकान् सर्वानवैक्षत ॥ १३ ॥
मूलम्
पुनः पुनरथोक्ता सा गतसत्त्वेव भामिनी।
तूष्णीमासीत् ततो देवो देवानामीश्वरेश्वरः ॥ १२ ॥
प्रससाद किल ब्रह्मा स्वयमेवात्मनाऽऽत्मनि।
स्मयमानश्च लोकेशो लोकान् सर्वानवैक्षत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बारंबार कहनेपर वह मानिनी नारी निष्प्राण-सी होकर मौन रह गयी। ‘हाँ’ या ‘ना’ कुछ भी न बोल सकी। तदनन्तर देवताओंके भी देवता और ईश्वरोंके भी ईश्वर लोकनाथ ब्रह्माजी स्वयं ही अपने मनमें बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराते हुए समस्त लोकोंकी ओर देखने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते ।
सा कन्याथ जगामास्य समीपादिति नः श्रुतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते ।
सा कन्याथ जगामास्य समीपादिति नः श्रुतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अपराजित भगवान् ब्रह्माका रोष निवृत्त हो जानेपर वह कन्या भी उनके निकटसे चली गयी, ऐसा हमने सुना है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा ।
त्वरमाणेव राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्यगात् ॥ १५ ॥
मूलम्
अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा ।
त्वरमाणेव राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्यगात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस समय प्रजाका संहार करनेके विषयमें कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँसे हट गयी और बड़ी उतावलीके साथ धेनुकाश्रममें जा पहुँची॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तत्र परमं देवी तपोऽचरद् दुश्चरम्।
समा ह्येकपदे तस्थौ दश पद्मानि पञ्च च ॥ १६ ॥
मूलम्
सा तत्र परमं देवी तपोऽचरद् दुश्चरम्।
समा ह्येकपदे तस्थौ दश पद्मानि पञ्च च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मृत्युदेवीने अत्यन्त दुष्कर और उत्तम तपस्या की। वह पंद्रह पद्म वर्षोंतक एक पैरपर खड़ी रही॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तथा कुर्वतीं तत्र तपः परमदुश्चरम्।
पुनरेव महातेजा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥
मूलम्
तां तथा कुर्वतीं तत्र तपः परमदुश्चरम्।
पुनरेव महातेजा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वहाँ अत्यन्त दुष्कर तपस्या करती हुई मृत्युसे महातेजस्वी ब्रह्माजीने पुनः जाकर इस प्रकार कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुष्व मे वचो मृत्यो तदनादृत्य सत्वरा।
तथैवैकपदे तात पुनरन्यानि सप्त सा ॥ १८ ॥
तस्थौ पद्मानि षट् चैव पञ्च द्वे चैव मानद।
मूलम्
कुरुष्व मे वचो मृत्यो तदनादृत्य सत्वरा।
तथैवैकपदे तात पुनरन्यानि सप्त सा ॥ १८ ॥
तस्थौ पद्मानि षट् चैव पञ्च द्वे चैव मानद।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मृत्यो! तुम मेरी आज्ञाका पालन करो।’ दूसरोंको मान देनेवाले तात! उनके इस कथनका आदर न करके मृत्युने तुरंत ही दूसरे बीस पद्म वर्षोंतक पुनः एक पैरपर खड़ी हो तपस्या आरम्भ कर दी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा ॥ १९ ॥
द्वे चायुते नरश्रेष्ठ वाय्वाहारा महामते।
मूलम्
भूयः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा ॥ १९ ॥
द्वे चायुते नरश्रेष्ठ वाय्वाहारा महामते।
अनुवाद (हिन्दी)
तात! महामते! नरश्रेष्ठ! फिर वह दस हजार पद्म वर्षोंतक मृगोंके साथ विचरती रही। इसके बाद बीस हजार वर्षोंतक उसने केवल वायुका आहार किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरेव ततो राजन् मौनमातिष्ठदुत्तमम् ॥ २० ॥
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च पार्थिव।
मूलम्
पुनरेव ततो राजन् मौनमातिष्ठदुत्तमम् ॥ २० ॥
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च पार्थिव।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर उसने उत्तम मौन-व्रत धारण कर लिया। पृथ्वीपते! फिर उसने जलमें आठ हजार वर्षोंतक रहकर तपस्या की॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जगाम सा कन्या कौशिकीं नृपसत्तम ॥ २१ ॥
तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुनः।
मूलम्
ततो जगाम सा कन्या कौशिकीं नृपसत्तम ॥ २१ ॥
तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर वह कन्या कौशिकी नदीके तटपर गयी। वहाँ वायु और जलका आहार करके उसने पुनः कठोर नियमोंका पालन किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ययौ महाभागा गङ्गां मेरुं च केवलम् ॥ २२ ॥
तस्थौ दार्विव निश्चेष्टा प्रजानां हितकाम्यया।
मूलम्
ततो ययौ महाभागा गङ्गां मेरुं च केवलम् ॥ २२ ॥
तस्थौ दार्विव निश्चेष्टा प्रजानां हितकाम्यया।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वह महाभागा ब्रह्मकन्या गंगाजीके किनारे और केवल मेरुपर्वतपर गयी। वहाँ प्रजावर्गके हितकी इच्छासे वह काठकी भाँति निश्चेष्ट खड़ी रही॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः समीजिरे ॥ २३ ॥
तत्राङ्गुष्ठेन राजेन्द्र निखर्वमपरं ततः।
तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास यत्नतः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः समीजिरे ॥ २३ ॥
तत्राङ्गुष्ठेन राजेन्द्र निखर्वमपरं ततः।
तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास यत्नतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तदनन्तर हिमालय पर्वतके शिखरपर जहाँ पहले देवताओंने यज्ञ किया था, उस स्थानपर वह परम शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षोंतक अँगूठेके बलपर खड़ी रही। इस प्रकार यत्न करके उसने पितामह ब्रह्माजीको संतुष्ट कर लिया॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तामब्रवीत् तत्र लोकानां प्रभवाप्ययः।
किमिदं वर्तते पुत्रि क्रियतां मम तद् वचः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततस्तामब्रवीत् तत्र लोकानां प्रभवाप्ययः।
किमिदं वर्तते पुत्रि क्रियतां मम तद् वचः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलयके कारणभूत ब्रह्माजी वहाँ उस कन्यासे बोले—‘बेटी! तुम यह क्या करती हो? मेरी आज्ञाका पालन करो’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीत् पुनर्मृत्युर्भगवन्तं पितामहम् ।
न हरेयं प्रजा देव पुनश्चाहं प्रसादये ॥ २६ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीत् पुनर्मृत्युर्भगवन्तं पितामहम् ।
न हरेयं प्रजा देव पुनश्चाहं प्रसादये ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मृत्युने पुनः भगवान् पितामहसे कहा—‘देव! मैं प्रजाका नाश नहीं कर सकती। इसके लिये पुनः आपका कृपाप्रसाद चाहती हूँ’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामधर्मभयाद् भीतां पुनरेव प्रयाचतीम्।
तदाब्रवीद् देवदेवो निगृह्येदं वचस्ततः ॥ २७ ॥
मूलम्
तामधर्मभयाद् भीतां पुनरेव प्रयाचतीम्।
तदाब्रवीद् देवदेवो निगृह्येदं वचस्ततः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधर्मके भयसे डरकर पुनः कृपाकी भीख माँगती हुई मृत्युको रोककर देवाधिदेव ब्रह्माने उससे यह बात कही—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संयच्छेमाः प्रजाः शुभे।
मया ह्युक्तं मृषा भद्रे भविता नेह किंचन ॥ २८ ॥
मूलम्
अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संयच्छेमाः प्रजाः शुभे।
मया ह्युक्तं मृषा भद्रे भविता नेह किंचन ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मृत्यो! तुम इन प्रजाओंका संहार करो। शुभे! इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा। भद्रे! मेरी कही हुई कोई भी बात यहाँ झूठी नहीं हो सकती॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मः सनातनश्च त्वामिहैवानुप्रवेक्ष्यति ।
अहं च विबुधाश्चैव त्वद्धिते निरताः सदा ॥ २९ ॥
मूलम्
धर्मः सनातनश्च त्वामिहैवानुप्रवेक्ष्यति ।
अहं च विबुधाश्चैव त्वद्धिते निरताः सदा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सनातन धर्म यहीं तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा। मैं तथा ये सम्पूर्ण देवता सदा तुम्हारे हितमें लगे रहेंगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इममन्यं च ते कामं ददानि मनसेप्सितम्।
न त्वां दोषेण यास्यन्ति व्याधिसम्पीडिताः प्रजाः ॥ ३० ॥
पुरुषेषु स्वरूपेण पुरुषस्त्वं भविष्यसि।
स्त्रीषु स्त्रीरूपिणी चैव तृतीयेषु नपुंसकम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
इममन्यं च ते कामं ददानि मनसेप्सितम्।
न त्वां दोषेण यास्यन्ति व्याधिसम्पीडिताः प्रजाः ॥ ३० ॥
पुरुषेषु स्वरूपेण पुरुषस्त्वं भविष्यसि।
स्त्रीषु स्त्रीरूपिणी चैव तृतीयेषु नपुंसकम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हें यह दूसरा भी मनोवाञ्छित वर दे रहा हूँ कि रोगोंसे पीड़ित हुई प्रजा तुम्हारे प्रति दोष-दृष्टि नहीं करेगी। तुम पुरुषोंमें पुरुषरूपसे रहोगी, स्त्रियोंमें स्त्रीरूप धारण कर लोगी और नपुंसकोमें नपुंसक हो जाओगी’॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरुवाच ह।
पुनरेव महात्मानं नेति देवेशमव्ययम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरुवाच ह।
पुनरेव महात्मानं नेति देवेशमव्ययम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मृत्यु हाथ जोड़कर उन अविनाशी महात्मा देवेश्वर ब्रह्मासे पुनः इस प्रकार बोली—‘प्रभो! मैं प्राणियोंका संहार नहीं करूँगी’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामब्रवीत् तदा देवी मृत्यो संहर मानवान्।
अधर्मस्ते न भविता तथा ध्यास्याम्यहं शुभे ॥ ३३ ॥
मूलम्
तामब्रवीत् तदा देवी मृत्यो संहर मानवान्।
अधर्मस्ते न भविता तथा ध्यास्याम्यहं शुभे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्रह्माजीने उससे कहा—‘मृत्यो! तुम मनुष्योंका संहार करो, तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! मैं तुम्हारे लिये शुभ चिन्तन करता रहूँगा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानश्रुबिन्दून् पतितानपश्यं
ये पाणिभ्यां धारितास्ते पुरस्तात्।
ते व्याधयो मानवान् घोररूपाः
प्राप्ते काले कालयिष्यन्ति मृत्यो ॥ ३४ ॥
मूलम्
यानश्रुबिन्दून् पतितानपश्यं
ये पाणिभ्यां धारितास्ते पुरस्तात्।
ते व्याधयो मानवान् घोररूपाः
प्राप्ते काले कालयिष्यन्ति मृत्यो ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मृत्यो! मैंने पहले तुम्हारे जिन अश्रुबिन्दुओंको गिरते देखा और जिन्हें अपने हाथोंमें धारण कर लिया था, वे ही समय आनेपर भयंकर रोग बनकर मनुष्योंको कालके गालमें डाल देंगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां त्वं प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ सहितौ योजयेथाः ।
एवं धर्मस्त्वामुपैष्यत्यमेयो
न चाधर्मं लप्स्यसे तुल्यवृत्तिः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सर्वेषां त्वं प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ सहितौ योजयेथाः ।
एवं धर्मस्त्वामुपैष्यत्यमेयो
न चाधर्मं लप्स्यसे तुल्यवृत्तिः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सभी प्राणियोंके अन्तकालमें तुम काम और क्रोधको एक साथ नियुक्त कर देना। इस प्रकार तुम्हें अप्रमेय धर्मकी प्राप्ति होगी और तुम्हें पाप नहीं लगेगा; क्योंकि तुम्हारी चित्तवृत्ति सम (राग-द्वेषसे शून्य) है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धर्मं पालयिष्यस्यथो त्वं
न चात्मानं मज्जयिष्यस्यधर्मे ।
तस्मात् कामं रोचयाभ्यागतं त्वं
संयोज्याथो संहरस्वेह जन्तून् ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं धर्मं पालयिष्यस्यथो त्वं
न चात्मानं मज्जयिष्यस्यधर्मे ।
तस्मात् कामं रोचयाभ्यागतं त्वं
संयोज्याथो संहरस्वेह जन्तून् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार तुम धर्मका पालन करोगी और अपने-आपको पापमें नहीं डुबाओगी; अतः अपनेको प्राप्त होनेवाले इस अधिकारको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करो और कामको इस कार्यमें लगाकर इस जगत्के प्राणियोंका संहार करो’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वै तदा मृत्युसंज्ञापदेशा
भीता शापाद् बाढमित्यब्रवीत् तम्।
अथो प्राणान् प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ प्राप्य निर्मोह्य हन्ति ॥ ३७ ॥
मूलम्
सा वै तदा मृत्युसंज्ञापदेशा
भीता शापाद् बाढमित्यब्रवीत् तम्।
अथो प्राणान् प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ प्राप्य निर्मोह्य हन्ति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह मृत्यु नामवाली नारी शापसे डरकर ब्रह्माजीसे बोली—‘बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है।’ वही मृत्यु प्राणियोंका अन्तकाल आनेपर काम और क्रोधको प्रेरित करके उनके द्वारा उन्हें मोहमें डालकर मार डालती है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्योर्ये ते व्याधयश्चाश्रुपाता
मनुष्याणां रुज्यते यैः शरीरम्।
सर्वेषां वै प्राणिनां प्राणनान्ते
तस्माच्छोकं मा कृथा बुद्ध्य बुद्ध्या ॥ ३८ ॥
मूलम्
मृत्योर्ये ते व्याधयश्चाश्रुपाता
मनुष्याणां रुज्यते यैः शरीरम्।
सर्वेषां वै प्राणिनां प्राणनान्ते
तस्माच्छोकं मा कृथा बुद्ध्य बुद्ध्या ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मृत्युके जो अश्रुबिन्दु गिरे थे, वे ही ज्वर आदि रोग हो गये; जिनके द्वारा मनुष्योंका शरीर रुग्ण हो जाता है। वह मृत्यु सभी प्राणियोंकी आयु समाप्त होनेपर उनके पास आती है। अतः राजन्! तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। इस विषयको बुद्धिके द्वारा समझो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे देवाः प्राणिनां प्राणनान्ते
गत्वा वृत्ताः संनिवृत्तास्तथैव ।
एवं सर्वे मानवाः प्राणनान्ते
गत्वा वृत्ता देववद् राजसिंह ॥ ३९ ॥
मूलम्
सर्वे देवाः प्राणिनां प्राणनान्ते
गत्वा वृत्ताः संनिवृत्तास्तथैव ।
एवं सर्वे मानवाः प्राणनान्ते
गत्वा वृत्ता देववद् राजसिंह ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजसिंह! जैसे इन्द्रियाँ जाग्रत्-अवस्थाके अन्तमें सुषुप्तिके समय निष्क्रिय होकर विलीन हो जाती हैं और जाग्रत्-अवस्था आनेपर पुनः लौट आती हैं, उसी प्रकार सारे प्राणी ही जीवनके अन्तमें परलोकमें जाकर कर्मोंके अनुसार देवताओंके तुल्य अथवा नरकगामी होते हैं और कर्मोंके क्षीण होनेपर इस जगत्में लौटकर पुनः मनुष्य आदि योनियोंमें जन्म ग्रहण करते हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुर्भीमो भीमनादो महौजाः
स सर्वेषां प्राणिनां प्राणभूतः।
नानावृत्तिर्देहिनां देहभेदे
तस्माद् वायुर्देवदेवो विशिष्टः ॥ ४० ॥
मूलम्
वायुर्भीमो भीमनादो महौजाः
स सर्वेषां प्राणिनां प्राणभूतः।
नानावृत्तिर्देहिनां देहभेदे
तस्माद् वायुर्देवदेवो विशिष्टः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयंकर शब्द करनेवाला महान् बलशाली भयानक प्राणवायु ही समस्त प्राणियोंका प्राणस्वरूप है। वही देहधारियोंके देहका नाश होनेपर नाना प्रकारके रूपों या शरीरोंको प्राप्त होता है। अतः इस शरीरके भीतर देवाधिदेव वायु (प्राण) ही सबसे श्रेष्ठ है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टाः
सर्वे मर्त्या देवसंज्ञाविशिष्टाः ।
तस्मात् पुत्रं मा शुचो राजसिंह
पुत्रः स्वर्गं प्राप्य ते मोदते ह ॥ ४१ ॥
मूलम्
सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टाः
सर्वे मर्त्या देवसंज्ञाविशिष्टाः ।
तस्मात् पुत्रं मा शुचो राजसिंह
पुत्रः स्वर्गं प्राप्य ते मोदते ह ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी देवता पुण्य क्षय होनेपर इस लोकमें आकर मरणधर्मा नामसे विभूषित होते हैं और सभी मरणधर्मा मनुष्य पुण्यके प्रभावसे मृत्युके पश्चात् देवसंज्ञासे संयुक्त होते हैं। अतः राजसिंह! तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें जाकर आनन्द भोग रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मृत्युर्देवसृष्टा प्रजानां
प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत्।
तस्याश्चैव व्याधयस्तेऽश्रुपाताः
प्राप्ते काले संहरन्तीह जन्तून् ॥ ४२ ॥
मूलम्
एवं मृत्युर्देवसृष्टा प्रजानां
प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत्।
तस्याश्चैव व्याधयस्तेऽश्रुपाताः
प्राप्ते काले संहरन्तीह जन्तून् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ब्रह्माजीने ही प्राणियोंकी मृत्यु रची है। वह मृत्यु ठीक समय आनेपर यथावत् रूपसे जीवोंका संहार करती है। उसके जो अश्रुपात हैं, वे ही मृत्युकाल प्राप्त होनेपर रोग बनकर इस जगत्के प्राणियोंका संहार करते हैं॥४२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मृत्युप्रजापतिसंवादे अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मृत्यु और प्रजापतिका संवादविषयक दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५८॥