२५७ मृत्युप्रजापतिसंवादे

भागसूचना

सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महादेवजीकी प्रार्थनासे ब्रह्माजीके द्वारा अपनी रोषाग्निका उपसंहार तथा मृत्युकी उत्पत्ति

मूलम् (वचनम्)

स्थाणुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजासर्गनिमित्तं मे कार्यवत्तामिमां प्रभो।
विद्धि सृष्टास्त्वया हीमा मा कुप्यासां पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

प्रजासर्गनिमित्तं मे कार्यवत्तामिमां प्रभो।
विद्धि सृष्टास्त्वया हीमा मा कुप्यासां पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महादेवजीने कहा— प्रभो! पितामह! मेरा मनोरथ या प्रयोजन आपसे प्रजासर्गकी रक्षाके लिये प्रार्थना करना है। आप इस बातको जान लें। आपहीने इन प्रजाओंकी सृष्टि की है; अतः आप इनपर क्रोध न कीजिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव तेजोऽग्निना देव प्रजा दह्यन्ति सर्वशः।
ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं मा कुप्यासां जगत्प्रभो ॥ २ ॥

मूलम्

तव तेजोऽग्निना देव प्रजा दह्यन्ति सर्वशः।
ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं मा कुप्यासां जगत्प्रभो ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! जगदीश्वर! आज आपकी क्रोधाग्निसे सारी प्रजाएँ दग्ध हो रही हैं। उन्हें उस अवस्थामें देखकर मुझे दया आती है, आप उनपर क्रोध न करें॥२॥

मूलम् (वचनम्)

प्रजापतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कुप्ये न च मे कामो न भवेयुः प्रजा इति।
लाघवार्थं धरण्यास्तु ततः संहार इष्यते ॥ ३ ॥

मूलम्

न कुप्ये न च मे कामो न भवेयुः प्रजा इति।
लाघवार्थं धरण्यास्तु ततः संहार इष्यते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजापति ब्रह्माजी बोले— शिव! मैं प्रजापर कुपित नहीं हूँ और न मेरी यही इच्छा है कि प्रजाओंका विनाश हो जाय। पृथ्वीका भार हल्का करनेके लिये ही प्रजाके संहारकी आवश्यकता प्रतीत हुई है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं हि मां सदा देवी भारार्ता समचोदयत्।
संहारार्थं महादेव भारेणाप्सु निमज्जति ॥ ४ ॥

मूलम्

इयं हि मां सदा देवी भारार्ता समचोदयत्।
संहारार्थं महादेव भारेणाप्सु निमज्जति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महादेव! यह पृथ्वीदेवी भारी भारसे पीड़ित हो सदा मुझे प्रजाके संहारके लिये प्रेरित करती रही है; क्योंकि यह जगत्‌के भारसे समुद्रमें डुबी जा रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाहं नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन्।
संहारमासां वृद्धानां ततो मां क्रोध आविशत् ॥ ५ ॥

मूलम्

यदाहं नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन्।
संहारमासां वृद्धानां ततो मां क्रोध आविशत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बहुत विचार करनेपर भी मुझे इन बढ़ी हुई प्रजाओंके संहारका कोई उपाय न सूझा, तब मुझे क्रोध आ गया॥५॥

मूलम् (वचनम्)

स्थाणुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारार्थं प्रसीदस्व मा क्रुधो विबुधेश्वर।
मा प्रजाः स्थावरं चैव जङ्गमं च व्यनीनशत् ॥ ६ ॥

मूलम्

संहारार्थं प्रसीदस्व मा क्रुधो विबुधेश्वर।
मा प्रजाः स्थावरं चैव जङ्गमं च व्यनीनशत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महादेवजीने कहा— देवेश्वर! संहारके लिये आप क्रोध न करें। प्रजापर प्रसन्न हों। कहीं ऐसा न हो कि समस्त चराचर प्राणियोंका विनाश हो जाय॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पल्वलानि च सर्वाणि सर्वं चैव तृणोपलम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ ७ ॥
तदेतद् भस्मसाद्भूतं जगत् सर्वमुपप्लुतम्।
प्रसीद भगवन् साधो वर एष वृतो मया ॥ ८ ॥

मूलम्

पल्वलानि च सर्वाणि सर्वं चैव तृणोपलम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ ७ ॥
तदेतद् भस्मसाद्भूतं जगत् सर्वमुपप्लुतम्।
प्रसीद भगवन् साधो वर एष वृतो मया ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सारे जलाशय, सब-के-सब घास और लता-बेलें तथा चार प्रकारके प्राणिसमुदाय (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) भस्मीभूत हो रहे हैं। सारे जगत्‌का प्रलय उपस्थित हो गया है। भगवन्! प्रसन्न होइये। साधो! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टा न पुनरेष्यन्ति प्रजा ह्येताः कथंचन।
तस्मान्निवर्ततामेतत् तेन स्वेनैव तेजसा ॥ ९ ॥

मूलम्

नष्टा न पुनरेष्यन्ति प्रजा ह्येताः कथंचन।
तस्मान्निवर्ततामेतत् तेन स्वेनैव तेजसा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इन प्रजाओंका नाश हो गया तो ये किसी तरह फिर यहाँ उपस्थित न हो सकेंगी। इसलिये आप अपने ही प्रभावसे इस क्रोधाग्निको निवृत्त कीजिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायमन्यं सम्पश्य भूतानां हितकाम्यया।
यथामी जन्तवः सर्वे न दह्येरन् पितामह ॥ १० ॥

मूलम्

उपायमन्यं सम्पश्य भूतानां हितकाम्यया।
यथामी जन्तवः सर्वे न दह्येरन् पितामह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके लिये संहारका कोई दूसरा ही उपाय सोचिये, जिससे ये सारे जीव-जन्तु एक साथ ही दन्ध न हो जायँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभावं हि न गच्छेयुरुच्छिन्नप्रजनाः प्रजाः।
अधिदैवे नियुक्तोऽस्मि त्वया लोकेश्वरेश्वर ॥ ११ ॥

मूलम्

अभावं हि न गच्छेयुरुच्छिन्नप्रजनाः प्रजाः।
अधिदैवे नियुक्तोऽस्मि त्वया लोकेश्वरेश्वर ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोकेश्वरेश्वर! आपने मुझे देवताओंके आधिपत्य-पदपर नियुक्त किया है, अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, यदि प्रजाकी संततिका उच्छेद होगा तो समस्त प्रजाओंका सर्वथा अभाव ही हो जायगा; अतः आप इस विनाशको बंद कीजिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्भवं हि जगन्नाथ एतत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसाद्य त्वां महादेव याचाम्यावृत्तिजाः प्रजाः ॥ १२ ॥

मूलम्

त्वद्भवं हि जगन्नाथ एतत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसाद्य त्वां महादेव याचाम्यावृत्तिजाः प्रजाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगन्नाथ! महादेव! यह समस्त चराचर जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है; अतः मैं आपको प्रसन्न करके यह याचना करता हूँ कि ये सारी प्रजा पुनरावर्तनशील हो—मरकर पुनः जन्म धारण करे॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु वचनं देवः स्थाणोर्नियतवाङ्‌मनाः।
तेजस्तत् संनिजग्राह पुनरेवान्तरात्मनि ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु वचनं देवः स्थाणोर्नियतवाङ्‌मनाः।
तेजस्तत् संनिजग्राह पुनरेवान्तरात्मनि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! महादेवजीकी वह बात सुनकर भगवान् ब्रह्माने मन और वाणीका संयम किया तथा उस अग्निको पुनः अपनी अन्तरात्मामें ही लीन कर लिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽग्निमुपसंगृह्य भगवाल्ँलोकपूजितः ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कल्पयामास वै प्रभुः ॥ १४ ॥

मूलम्

ततोऽग्निमुपसंगृह्य भगवाल्ँलोकपूजितः ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कल्पयामास वै प्रभुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लोकपूजित भगवान् ब्रह्माने उस अग्निका उपसंहार करके प्रजाके लिये जन्म और मृत्युकी व्यवस्था की॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तदा।
प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यः खेभ्यो नारी महात्मनः ॥ १५ ॥

मूलम्

उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तदा।
प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यः खेभ्यो नारी महात्मनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस क्रोधाग्निका उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्माजीकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे एक मूर्तिमती नारी प्रकट हुई॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णरक्ताम्बरधरा कृष्णनेत्रतलान्तरा ।
दिव्यकुण्डलसम्पन्ना दिव्याभरणभूषिता ॥ १६ ॥

मूलम्

कृष्णरक्ताम्बरधरा कृष्णनेत्रतलान्तरा ।
दिव्यकुण्डलसम्पन्ना दिव्याभरणभूषिता ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके वस्त्र काले और लाल थे। आँखोंके निम्न और आभ्यन्तर प्रदेश भी काले रंगके ही थे। वह दिव्य कुण्डलोंसे कान्तिमती तथा अलौकिक आभूषणोंसे विभूषित थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा विनिःसृत्य वै खेभ्यो दक्षिणामाश्रिता दिशम्।
ददृशाते च तां कन्यां देवौ विश्वेश्वरावुभौ ॥ १७ ॥

मूलम्

सा विनिःसृत्य वै खेभ्यो दक्षिणामाश्रिता दिशम्।
ददृशाते च तां कन्यां देवौ विश्वेश्वरावुभौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह ब्रह्माजीके इन्द्रियछिद्रोंसे निकलकर दक्षिण दिशाकी ओर चल दी। उस समय उन दोनों जगदीश्वरों (ब्रह्मा और शिव) ने उस कन्याको देखा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाहूय तदा देवो लोकानामादिरीश्वरः।
मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति ॥ १८ ॥

मूलम्

तामाहूय तदा देवो लोकानामादिरीश्वरः।
मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! तब लोकोंके आदिकारण भगवान् ब्रह्माने उसे ‘मृत्यु’ कहकर पुकारा और निकट बुलाकर कहा—‘तुम इन प्रजाओंका समय-समयपर विनाश करती रहो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि संहारबुद्ध्या मे चिन्तिता रुषितेन च।
तस्मात् संहर सर्वांस्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ १९ ॥

मूलम्

त्वं हि संहारबुद्ध्या मे चिन्तिता रुषितेन च।
तस्मात् संहर सर्वांस्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने प्रजाके संहारकी भावनासे रोषमें भरकर तुम्हारा चिन्तन किया था; इसलिये तुम मूढ़ और विद्वानोंसहित सम्पूर्ण प्रजाओंका संहार करो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविशेषेण चैव त्वं प्रजाः संहर कामिनि।
मम त्वं हि नियोगेन श्रेयः परमवाप्स्यसि ॥ २० ॥

मूलम्

अविशेषेण चैव त्वं प्रजाः संहर कामिनि।
मम त्वं हि नियोगेन श्रेयः परमवाप्स्यसि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामिनि! तुम मेरे आदेशसे सामान्यतः सारी प्रजाका संहार करो। इससे तुम्हें परम कल्याणकी प्राप्ति होगी’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु सा देवी मृत्युः कमलमालिनी।
प्रदध्यौ दुःखिता बाला साश्रुपातमतीव च ॥ २१ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु सा देवी मृत्युः कमलमालिनी।
प्रदध्यौ दुःखिता बाला साश्रुपातमतीव च ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर कमलोंकी मालासे अलंकृत नवयौवना मृत्यु देवी नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई दुखी हो बड़ी चिन्तामें पड़ गयी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिभ्यां चैव जग्राह तान्यश्रूणि जनेश्वरः।
मानवानां हितार्थाय ययाचे पुनरेव ह ॥ २२ ॥

मूलम्

पाणिभ्यां चैव जग्राह तान्यश्रूणि जनेश्वरः।
मानवानां हितार्थाय ययाचे पुनरेव ह ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जनेश्वर ब्रह्माजीने मानवोंके हितके लिये अपने दोनों हाथोंमें मृत्युके आँसू ले लिये। फिर मृत्युने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मृत्युप्रजापतिसंवादे सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मृत्यु और प्रजापतिका संवादविषयक दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५७॥