२५६ मृत्युप्रजापतिसंवादोपक्रमे

भागसूचना

षट्‌पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका मृत्युविषयक प्रश्न, नारदजीका राजा अकम्पनसे मृत्युकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाते हुए ब्रह्माजीकी रोषाग्निसे प्रजाके दग्ध होनेका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इमे पृथिवीपालाः शेरते पृथिवीतले।
पृतनामध्य एते हि गतसंज्ञा महाबलाः ॥ १ ॥

मूलम्

य इमे पृथिवीपालाः शेरते पृथिवीतले।
पृतनामध्य एते हि गतसंज्ञा महाबलाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! ये जो असंख्य भूपाल (प्राणशून्य होकर) इस भूतलपर सेनाके बीचमें सो रहे हैं इनकी ओर दृष्टिपात कीजिये। ये महान् बलवान् थे तो भी संज्ञाहीन होकर पड़े हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकशो भीमबला नागायुतबलास्तथा ।
एते हि निहताः संख्ये तुल्यतेजोबलैर्नरैः ॥ २ ॥

मूलम्

एकैकशो भीमबला नागायुतबलास्तथा ।
एते हि निहताः संख्ये तुल्यतेजोबलैर्नरैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे एक-एक नरेश भयानक बलसे सम्पन्न था। दस-दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता था। वे सब-के-सब इस युद्धस्थलमें अपने समान ही तेजस्वी और बलवान् मनुष्योंद्वारा मारे गये हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैषां पश्यामि हन्तारं प्राणिनां संयुगे परम्।
विक्रमेणोपसम्पन्नास्तेजोबलसमन्विताः ॥ ३ ॥

मूलम्

नैषां पश्यामि हन्तारं प्राणिनां संयुगे परम्।
विक्रमेणोपसम्पन्नास्तेजोबलसमन्विताः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन प्राणशक्ति-सम्पन्न नरेशोंको कोई दूसरा वीर संग्रामभूमिमें मार सके—ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता था; क्योंकि वे सब-के-सब बल-पराक्रमसे सम्पन्न और तेजस्वी थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेमे महाप्राज्ञाः शेरते हि गतासवः।
मृता इति च शब्दोऽयं वर्तत्येषु गतासुषु ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ चेमे महाप्राज्ञाः शेरते हि गतासवः।
मृता इति च शब्दोऽयं वर्तत्येषु गतासुषु ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु इस समय ये महाबुद्धिमान् भूपाल निष्प्राण होकर पड़े हैं। इनके प्राण निकल जानेपर इनके लिये मृत शब्दका व्यवहार होता है; अर्थात् ‘ये मर गये’ ऐसा कहा जाता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे मृता नृपतयः प्रायशो भीमविक्रमाः।
तत्र मे संशयो जातः कुतः संज्ञा मृता इति॥५॥
कस्य मृत्युः कुतो मृत्युः केन मृत्युरिह प्रजाः।
हरत्यमरसंकाश तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥

मूलम्

इमे मृता नृपतयः प्रायशो भीमविक्रमाः।
तत्र मे संशयो जातः कुतः संज्ञा मृता इति॥५॥
कस्य मृत्युः कुतो मृत्युः केन मृत्युरिह प्रजाः।
हरत्यमरसंकाश तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो नरेश मृत्युको प्राप्त हो गये हैं, इनमें बहुत-से भयानक पराक्रमसे सम्पन्न हैं। यहाँ मेरे मनमें यह संदेह होता है कि इन्हें मृत नाम कैसे दिया गया? किसकी मृत्यु होती है? किससे मृत्यु होती है? और किस कारणसे मृत्यु यहाँ समस्त प्राणियोंका अपहरण करती है? देवतुल्य पितामह! मुझे यह सब बतानेकी कृपा करें॥५-६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा कृतयुगे तात राजा ह्यासीदकम्पनः।
स शत्रुवशमापन्नः संग्रामे क्षीणवाहनः ॥ ७ ॥

मूलम्

पुरा कृतयुगे तात राजा ह्यासीदकम्पनः।
स शत्रुवशमापन्नः संग्रामे क्षीणवाहनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— तात! प्राचीन सत्ययुगकी बात है, अकम्पन नामके एक राजा थे। एक समय संग्राममें उनका रथ नष्ट हो गया और वे शत्रुके वशमें पड़ गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पुत्रो हरिर्नाम नारायणसमो बले।
स शत्रुभिर्हतः संख्ये सबलः सपदानुगः ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्य पुत्रो हरिर्नाम नारायणसमो बले।
स शत्रुभिर्हतः संख्ये सबलः सपदानुगः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बलमें भगवान् नारायणके ही समान जान पड़ता था, परंतु उस समराङ्गणमें शत्रुओंने सेना और सेवकोंसहित उस राजकुमारको मार गिराया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा शत्रुवशगः पुत्रशोकसमन्वितः।
यदृच्छया शान्तिपरो ददर्श भुवि नारदम् ॥ ९ ॥

मूलम्

स राजा शत्रुवशगः पुत्रशोकसमन्वितः।
यदृच्छया शान्तिपरो ददर्श भुवि नारदम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अकम्पन स्वतन्त्र भूपाल न रहकर शत्रुके अधीन हो गये तथा पुत्रके शोकमें डूबे रहने लगे। वे शान्तिका उपाय ढूँढ़ रहे थे। इतनेहीमें दैवेच्छासे भूतलपर विचरते हुए देवर्षि नारदका उन्हें दर्शन हुआ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै स सर्वमाचष्ट यथावृत्तं जनेश्वरः।
शत्रुभिर्ग्रहणं संख्ये पुत्रस्य मरणं तथा ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मै स सर्वमाचष्ट यथावृत्तं जनेश्वरः।
शत्रुभिर्ग्रहणं संख्ये पुत्रस्य मरणं तथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने युद्धस्थलमें शत्रुओंद्वारा अपने पकड़े जाने एवं पुत्रकी मृत्यु होनेका सारा समाचार यथावत् रूपसे नारदजीके सामने कह सुनाया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा नारदोऽथ तपोधनः।
आख्यानमिदमाचष्ट पुत्रशोकापहं तदा ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा नारदोऽथ तपोधनः।
आख्यानमिदमाचष्ट पुत्रशोकापहं तदा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाका वह कथन सुनकर तपस्याके धनी नारदजीने उस समय उनसे यह प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया, जो उनके पुत्रशोकको मिटानेवाला था॥११॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् शृणु समाख्यानमद्येदं बहुविस्तरम्।
यथावृत्तं श्रुतं चैव मयेदं वसुधाधिप ॥ १२ ॥

मूलम्

राजन् शृणु समाख्यानमद्येदं बहुविस्तरम्।
यथावृत्तं श्रुतं चैव मयेदं वसुधाधिप ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी बोले— राजन्! आज यह अत्यन्त विस्तृत आख्यान सुनो। पृथ्वीनाथ! मैंने इसे जैसा सुना है, वह यथावत् वृत्तान्त तुम्हें सुना रहा हूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाः सृष्ट्वा महातेजाः प्रजासर्गे पितामहः।
अतीव वृद्धा बहुला नामृष्यत पुनः प्रजाः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रजाः सृष्ट्वा महातेजाः प्रजासर्गे पितामहः।
अतीव वृद्धा बहुला नामृष्यत पुनः प्रजाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाकी सृष्टि करते समय महातेजस्वी पितामह ब्रह्माने जब बहुत-से प्राणियोंकी सृष्टि कर डाली, तब उनकी संख्या बहुत अधिक हो गयी। इतनी अधिक प्रजाओंका होना ब्रह्माजीसे सहन न हो सका॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यन्तरमभूत् किञ्चित् क्वचिज्जन्तुभिरच्युत।
निरुच्छ्‌वासमिवोन्नद्धं त्रैलोक्यमभवन्नृप ॥ १४ ॥

मूलम्

न ह्यन्तरमभूत् किञ्चित् क्वचिज्जन्तुभिरच्युत।
निरुच्छ्‌वासमिवोन्नद्धं त्रैलोक्यमभवन्नृप ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले नरेश! उस समय कहीं कोई थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जो जीव-जन्तुओंसे भरा न हो। सारी त्रिलोकी अवरुद्ध हो गयी। लोगोंका कहीं साँस लेना भी असम्भव-सा हो गया—सबका दम घुटने लगा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चिन्ता समुत्पन्ना संहारं प्रति भूपते।
चिन्तयन् नाध्यगच्छच्च संहारे हेतुकारणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तस्य चिन्ता समुत्पन्ना संहारं प्रति भूपते।
चिन्तयन् नाध्यगच्छच्च संहारे हेतुकारणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! अब ब्रह्माजीके मनमें प्रजाके संहारकी—उनकी संख्या घटानेकी चिन्ता उत्पन्न हुई। वे बहुत देरतक सोचते-विचारते रहे, परंतु प्रजाके संहारका कोई युक्तियुक्त कारण ध्यानमें नहीं आया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य रोषान्महाराज खेभ्योऽग्निरुदतिष्ठत ।
तेन सर्वा दिशो राजन् ददाह स पितामहः ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्य रोषान्महाराज खेभ्योऽग्निरुदतिष्ठत ।
तेन सर्वा दिशो राजन् ददाह स पितामहः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय रोषवश ब्रह्माजीके नेत्र आदि इन्द्रियगोलकोंसे अग्नि प्रकट हो गयी। राजन्! उस अग्निसे पितामहने सम्पूर्ण दिशाओंको दग्ध करना आरम्भ किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दिवं भुवं खं च जगच्च सचराचरम्।
ददाह पावको राजन् भगवत्कोपसम्भवः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो दिवं भुवं खं च जगच्च सचराचरम्।
ददाह पावको राजन् भगवत्कोपसम्भवः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब भगवान् ब्रह्माके क्रोधसे प्रकट हुई वह आग स्वर्ग, पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण जगत्‌को जलाने लगी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रादह्यन्त भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
महता क्रोधवेगेन कुपिते प्रपितामहे ॥ १८ ॥

मूलम्

तत्रादह्यन्त भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
महता क्रोधवेगेन कुपिते प्रपितामहे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रपितामह ब्रह्माके कुपित होनेपर उनके क्रोधके महान् वेगसे सभी स्थावर-जङ्गम प्राणी दन्ध होने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽध्वरजटः स्थाणुर्वेदाध्वरपतिः शिवः ।
जगाम शरणं देवो ब्रह्माणं परवीरहा ॥ १९ ॥

मूलम्

ततोऽध्वरजटः स्थाणुर्वेदाध्वरपतिः शिवः ।
जगाम शरणं देवो ब्रह्माणं परवीरहा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब यज्ञ ही जिनकी जटाएँ हैं तथा जो वेदों और यज्ञोंके प्रतिपालक हैं, वे शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कल्याणकारी भगवान् शिव ब्रह्माजीकी शरणमें गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नभिगते स्थाणौ प्रजानां हितकाम्यया।
अब्रवीत् परमो देवो ज्वलन्निव तदा शिवम् ॥ २० ॥

मूलम्

तस्मिन्नभिगते स्थाणौ प्रजानां हितकाम्यया।
अब्रवीत् परमो देवो ज्वलन्निव तदा शिवम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजावर्गके हितकी इच्छासे महादेवजीके अपने सामने आनेपर तेजसे जलते हुए-से परमदेव ब्रह्माजी उनसे इस प्रकार बोले—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करवाण्यद्य कं कामं वरार्होऽसि मतो मम।
कर्ता ह्यस्मि प्रियं शम्भो तव यद् हृदि वर्तते॥२१॥

मूलम्

करवाण्यद्य कं कामं वरार्होऽसि मतो मम।
कर्ता ह्यस्मि प्रियं शम्भो तव यद् हृदि वर्तते॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शम्भो! मैं तुम्हें वर पानेके योग्य समझता हूँ, बोलो, आज तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारे हृदयमें जो भी प्रिय मनोरथ हो, उसे मैं पूर्ण करूँगा’॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मृत्युप्रजापतिसंवादोपक्रमे षट्‌पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मृत्यु और प्रजापतिके संवादका उपक्रमविषयक दो सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५६॥