२५४ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

चतुष्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कामरूपी अद्‌भुत वृक्षका तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करनेके उपायका और शरीररूपी नगरका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदि कामद्रुमश्चित्रो मोहसंचयसम्भवः ।
क्रोधमानमहास्कन्धो विधित्सापरिषेचनः ॥ १ ॥
तस्य चाज्ञानमाधारः प्रमादः परिषेचनम्।
सोऽभ्यसूयापलाशो हि पुरा दुष्कृतसारवान् ॥ २ ॥

मूलम्

हृदि कामद्रुमश्चित्रो मोहसंचयसम्भवः ।
क्रोधमानमहास्कन्धो विधित्सापरिषेचनः ॥ १ ॥
तस्य चाज्ञानमाधारः प्रमादः परिषेचनम्।
सोऽभ्यसूयापलाशो हि पुरा दुष्कृतसारवान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— बेटा! मनुष्यकी हृदयभूमिमें मोहरूपी बीजसे उत्पन्न हुआ एक विचित्र वृक्ष है, जिसका नाम है काम। क्रोध और अभिमान उसके महान् स्कन्ध हैं। कुछ करनेकी इच्छा उसमें जल सींचनेका पात्र है। अज्ञान उसकी जड़ है। प्रमाद ही उसे सींचनेवाला जल है। दूसरोंके दोष देखना उस वृक्षका पत्ता है तथा पूर्व जन्ममें किये हुए पाप उसके सारभाग हैं॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्मोहचिन्ताविटपः शोकशाखो भयाङ्कुरः ।
मोहनीभिः पिपासाभिर्लताभिरनुवेष्टितः ॥ ३ ॥

मूलम्

सम्मोहचिन्ताविटपः शोकशाखो भयाङ्कुरः ।
मोहनीभिः पिपासाभिर्लताभिरनुवेष्टितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोक उसकी शाखा, मोह और चिन्ता डालियाँ एवं भय उसके अंकुर हैं। मोहमें डालनेवाली तृष्णारूपी लताएँ उसमें लिपटी हुई हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपासते महावृक्षं सुलुब्धास्तत्फलेप्सवः ।
आयसैः संयुताः पाशैः फलदं परिवेष्ट्य तम् ॥ ४ ॥

मूलम्

उपासते महावृक्षं सुलुब्धास्तत्फलेप्सवः ।
आयसैः संयुताः पाशैः फलदं परिवेष्ट्य तम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभी मनुष्य लोहेकी जंजीरोंके समान वासनाके बन्धनोंमें बँधकर उस फलदायक महान् वृक्षको चारों ओरसे घेरकर आस-पास बैठे हैं और उसके फलको प्राप्त करना चाहते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तान् पाशान् वशे कृत्वा तं वृक्षमपकर्षति।
गतः स दुःखयोरन्तं जरामरणयोर्द्वयोः ॥ ५ ॥

मूलम्

यस्तान् पाशान् वशे कृत्वा तं वृक्षमपकर्षति।
गतः स दुःखयोरन्तं जरामरणयोर्द्वयोः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उन वासनाके बन्धनोंको वशमें करके वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा उस काम-वृक्षको काट डालता है, वह मनुष्य जरा और मृत्युजनित दोनों प्रकारके दुःखोंसे पार हो जाता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरोहत्यकृतप्रज्ञः सदा येन हि पादपम्।
स तमेव ततो हन्ति विषग्रन्थिरिवातुरम् ॥ ६ ॥

मूलम्

संरोहत्यकृतप्रज्ञः सदा येन हि पादपम्।
स तमेव ततो हन्ति विषग्रन्थिरिवातुरम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो मूर्ख फलके लोभसे सदा उस वृक्षपर चढ़ता है, उसे वह वृक्ष ही मार डालता है; ठीक वैसे ही, जैसे खायी हुई विषकी गोली रोगीको मार डालती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यानुगतमूलस्य मूलमुद्‌ध्रियते बलात् ।
योगप्रसादात् कृतिना साम्येन परमासिना ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्यानुगतमूलस्य मूलमुद्‌ध्रियते बलात् ।
योगप्रसादात् कृतिना साम्येन परमासिना ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस काम-वृक्षकी जड़ें बहुत दूरतक फैली हुई हैं। कोई विद्वान् पुरुष ही ज्ञानयोगके प्रसादसे समतारूप उत्तम खड्‌गके द्वारा बलपूर्वक उस वृक्षका मूलोच्छेद कर डालता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यो वेद कामस्य केवलस्य निवर्तनम्।
बन्धं वै कामशास्त्रस्य स दुःखान्यतिवर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

एवं यो वेद कामस्य केवलस्य निवर्तनम्।
बन्धं वै कामशास्त्रस्य स दुःखान्यतिवर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो केवल कामनाओंको निवृत्त करनेका उपाय जानता है तथा भोगविधायक शास्त्र बन्धनकारक है—इस बातको समझता है, वह सम्पूर्ण दुःखोंको लाँघ जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरं पुरमित्याहुः स्वामिनी बुद्धिरिष्यते।
तत्त्वबुद्धेः शरीरस्थं मनो नामार्थचिन्तकम् ॥ ९ ॥

मूलम्

शरीरं पुरमित्याहुः स्वामिनी बुद्धिरिष्यते।
तत्त्वबुद्धेः शरीरस्थं मनो नामार्थचिन्तकम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शरीरको पुर या नगर कहते हैं। बुद्धि इस नगरकी रानी मानी गयी है और शरीरके भीतर रहनेवाला मन निश्चयात्मिका बुद्धिरूप रानीके अर्थकी सिद्धिका विचार करनेवाला मन्त्री है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि मनःपौरास्तदर्थं तु पराकृतिः।
तत्र द्वौ दारुणौ दोषौ तमो नाम रजस्तथा।
तदर्थमुपजीवन्ति पौराः सह पुरेश्वरैः ॥ १० ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि मनःपौरास्तदर्थं तु पराकृतिः।
तत्र द्वौ दारुणौ दोषौ तमो नाम रजस्तथा।
तदर्थमुपजीवन्ति पौराः सह पुरेश्वरैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियाँ इस नगरमें निवास करनेवाली प्रजा हैं। वे मनरूपी मन्त्रीकी आज्ञाके अधीन रहती हैं। उन प्रजाओंकी रक्षाके लिये मनको बड़े-बड़े कार्य करने पड़ते हैं। वहाँ दो दारुण दोष हैं, जो रज और तमके नामसे प्रसिद्ध हैं। नगरके शासक मन, बुद्धि और जीव इन तीनोंके साथ समस्त पुरवासीरूप इन्द्रियगण मनके द्वारा प्रस्तुत किये हुए शब्द आदि विषयोंका उपभोग करते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्वारेण तमेवार्थं द्वौ दोषावुपजीवतः।
तत्र बुद्धिर्हि दुर्धर्षा मनः सामान्यमश्नुते ॥ ११ ॥

मूलम्

अद्वारेण तमेवार्थं द्वौ दोषावुपजीवतः।
तत्र बुद्धिर्हि दुर्धर्षा मनः सामान्यमश्नुते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रजोगुण और तमोगुण—ये दो दोष निषिद्धमार्गके द्वारा उस विषय-सुखका आश्रय लेते हैं। वहाँ बुद्धि दुर्धर्ष होनेपर भी मनके साथ रहनेसे उसीके समान हो जाती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौराश्चापि मनस्त्रस्तास्तेषामपि चला स्थितिः।
तदर्थं बुद्धिरध्यास्ते सोऽनर्थः परिषीदति ॥ १२ ॥

मूलम्

पौराश्चापि मनस्त्रस्तास्तेषामपि चला स्थितिः।
तदर्थं बुद्धिरध्यास्ते सोऽनर्थः परिषीदति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय इन्द्रियरूपी पुरवासीजन मनके भयसे त्रस्त हो जाते हैं, अतः उनकी स्थिति भी चंचल ही रहती है। बुद्धि भी उस अनर्थका ही निश्चय करती है। इसलिये वह अनर्थ आ बसता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदर्थं पृथगध्यास्ते मनस्तत्परिषीदति ।
पृथग्भूतं मनो बुद्ध्या मनो भवति केवलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

यदर्थं पृथगध्यास्ते मनस्तत्परिषीदति ।
पृथग्भूतं मनो बुद्ध्या मनो भवति केवलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि जिस विषयका अवलम्बन करती है, मन भी उसीका आश्रय लेता है। मन जब बुद्धिसे पृथक् होता है, तब केवल मन रह जाता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैनं विधृतं शून्यं रजः पर्यवतिष्ठते।
तन्मनः कुरुते सख्यं रजसा सह सङ्गतम्।
तं चादाय जनं पौरं रजसे सम्प्रयच्छति ॥ १४ ॥

मूलम्

तत्रैनं विधृतं शून्यं रजः पर्यवतिष्ठते।
तन्मनः कुरुते सख्यं रजसा सह सङ्गतम्।
तं चादाय जनं पौरं रजसे सम्प्रयच्छति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय रजोगुणजनित काम मनको आत्माके बलसे युक्त होनेपर भी विवेकसे रहित होनेके कारण सब ओरसे घेर लेता है। तब वह कामसे घिरा हुआ मन उस रजोगुणरूप कामके साथ मित्रता स्थापित कर लेता है। उसके बाद वह मन ही उस इन्द्रियरूप पुरवासीजनको रजोगुणजनित कामके हाथमें समर्पित कर देता है (जैसे राजाका विरोधी मन्त्री राज्य और प्रजाको शत्रुके हाथमें सौंप देता है)॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने चतुष्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५४॥