भागसूचना
त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे भिन्न जीवात्माका और परमात्माका योगके द्वारा साक्षात्कार करनेका प्रकार
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीराद् विप्रमुक्तं हि सूक्ष्मभूतं शरीरिणम्।
कर्मभिः परिपश्यन्ति शास्त्रोक्तैः शास्त्रवेदिनः ॥ १ ॥
मूलम्
शरीराद् विप्रमुक्तं हि सूक्ष्मभूतं शरीरिणम्।
कर्मभिः परिपश्यन्ति शास्त्रोक्तैः शास्त्रवेदिनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— पुत्र! योगशास्त्रके ज्ञाता शास्त्रोक्त कर्मोंके द्वारा स्थूल शरीरसे निकले हुए सूक्ष्म स्वरूप जीवात्माको देखते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मरीच्यः सहिताश्चरन्ति
सर्वत्र तिष्ठन्ति च दृश्यमानाः।
देहैर्विमुक्तानि चरन्ति लोकां-
स्तथैव सत्त्वान्यतिमानुषाणि ॥ २ ॥
मूलम्
यथा मरीच्यः सहिताश्चरन्ति
सर्वत्र तिष्ठन्ति च दृश्यमानाः।
देहैर्विमुक्तानि चरन्ति लोकां-
स्तथैव सत्त्वान्यतिमानुषाणि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्यकी किरणें परस्पर मिली हुई ही सर्वत्र विचरती हैं एवं स्थित हुई दृष्टिगोचर होती हैं, उसी प्रकार अलौकिक जीवात्मा स्थूल शरीरसे निकलकर सम्पूर्ण लोकोंमें जाते हैं। (यह ज्ञानदृष्टिसे ही जाननेमें आ सकता है)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिरूपं यथैवाप्सु तापः सूर्यस्य लक्ष्यते।
सत्त्ववत्सु तथा सत्त्वं प्रतिरूपं स पश्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रतिरूपं यथैवाप्सु तापः सूर्यस्य लक्ष्यते।
सत्त्ववत्सु तथा सत्त्वं प्रतिरूपं स पश्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे विभिन्न जलाशयोंके जलमें सूर्यकी किरणोंका पृथक्-पृथक् दर्शन होता है, उसी प्रकार योगी पुरुष सभी सजीव शरीरोंके भीतर सूक्ष्मरूपसे स्थित पृथक्-पृथक् जीवोंको देखता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानि सूक्ष्माणि सत्त्वानि विमुक्तानि शरीरतः।
स्वेन सत्त्वेन सत्त्वज्ञाः पश्यन्ति नियतेन्द्रियाः ॥ ४ ॥
मूलम्
तानि सूक्ष्माणि सत्त्वानि विमुक्तानि शरीरतः।
स्वेन सत्त्वेन सत्त्वज्ञाः पश्यन्ति नियतेन्द्रियाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरके तत्त्वको जाननेवाले जितेन्द्रिय योगीजन उन स्थूलशरीरोंसे निकले हुए सूक्ष्म लिंगशरीरोंसे युक्त जीवोंको अपने आत्माके द्वारा देखते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वपतां जाग्रतां चैष सर्वेषामात्मचिन्तितम्।
प्रधानाद्वैधमुक्तानां जहतां कर्मजं रजः ॥ ५ ॥
यथाहनि तथा रात्रौ यथा रात्रौ तथाहनि।
वशे तिष्ठति सत्त्वात्मा सततं योगयोगिनाम् ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वपतां जाग्रतां चैष सर्वेषामात्मचिन्तितम्।
प्रधानाद्वैधमुक्तानां जहतां कर्मजं रजः ॥ ५ ॥
यथाहनि तथा रात्रौ यथा रात्रौ तथाहनि।
वशे तिष्ठति सत्त्वात्मा सततं योगयोगिनाम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने मनमें चिन्तित कर्मजनित रजोगुणका अर्थात् रजोगुणजनित काम आदिका योगबलसे परित्याग कर देते हैं तथा जो प्रकृतिके तादात्म्यभावसे भी मुक्त हैं, उन सभी योगपरायण योगी पुरुषोंका जीवात्मा जैसे दिनमें वैसे रातमें, जैसे रातमें वैसे दिनमें सोते-जागते समय निरन्तर उनके वशमें रहता है॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां नित्यं सदा नित्यो भूतात्मा सततं गुणैः।
सप्तभिस्त्वन्वितः सूक्ष्मैश्चरिष्णुरजरामरः ॥ ७ ॥
मूलम्
तेषां नित्यं सदा नित्यो भूतात्मा सततं गुणैः।
सप्तभिस्त्वन्वितः सूक्ष्मैश्चरिष्णुरजरामरः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन योगियोंका नित्य-स्वरूप जीव सदा सात सूक्ष्म गुणों (महत्तत्त्व, अहंकार और पाँच तन्मात्राओं)-से युक्त हो अजर-अमर देवताओंकी भाँति नित्यप्रति विचरता रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोबुद्धिपराभूतः स्वदेहपरदेहवित् ।
स्वप्नेष्वपि भवत्येष विज्ञाता सुखदुःखयोः ॥ ८ ॥
मूलम्
मनोबुद्धिपराभूतः स्वदेहपरदेहवित् ।
स्वप्नेष्वपि भवत्येष विज्ञाता सुखदुःखयोः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन मूढ़ मनुष्योंका जीवात्मा मन और बुद्धिके वशीभूत रहता है, वह अपने और पराये शरीरको जाननेवाला मनुष्य स्वप्न-अवस्थामें भी सूक्ष्म शरीरसे सुख-दुःखका अनुभव करता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापि लभते दुःखं तत्रापि लभते सुखम्।
क्रोधलोभौ तु तत्रापि कृत्वा व्यसनमृच्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
तत्रापि लभते दुःखं तत्रापि लभते सुखम्।
क्रोधलोभौ तु तत्रापि कृत्वा व्यसनमृच्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ (स्वप्नमें भी) उसे दुःख और सुख प्राप्त होते हैं। एवं उस स्वप्नमें भी (जाग्रत्की भाँति ही) क्रोध और लोभ करके वह संकटमें पड़ जाता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीणितश्चापि भवति महतोऽर्थानवाप्य हि।
करोति पुण्यं तत्रापि जीवन्निव च पश्यति ॥ १० ॥
मूलम्
प्रीणितश्चापि भवति महतोऽर्थानवाप्य हि।
करोति पुण्यं तत्रापि जीवन्निव च पश्यति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भी महान् धन पाकर वह प्रसन्न होता है तथा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करता है; इतना ही नहीं, जाग्रत् अवस्थाकी भाँति वह स्वप्नमें भी सब वस्तुओंको देखता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महोष्मान्तर्गतश्चापि गर्भत्वं समुपेयिवान् ।
दश मासान् वसन् कुक्षौ नैषोऽन्नमिव जीर्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
महोष्मान्तर्गतश्चापि गर्भत्वं समुपेयिवान् ।
दश मासान् वसन् कुक्षौ नैषोऽन्नमिव जीर्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यह कितने बड़े आश्चर्यकी बात है कि) गर्भभावकी प्राप्त हुआ जीवात्मा दस मासतक माताके उदरमें निवास करता है और जठरानलकी अधिक आँचसे संतप्त होता रहता है तो भी अन्नकी भाँति पच नहीं जाता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेतमतितेजोंऽशं भूतात्मानं हृदि स्थितम्।
तमोरजोभ्यामाविष्टा नानुपश्यन्ति मूर्तिषु ॥ १२ ॥
मूलम्
तमेतमतितेजोंऽशं भूतात्मानं हृदि स्थितम्।
तमोरजोभ्यामाविष्टा नानुपश्यन्ति मूर्तिषु ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जीवात्मा परमात्माका ही अंश है और देहधारियोंके हृदयमें विराजमान है तथापि जो लोग रजोगुण और तमोगुणसे अभिभूत हैं वे देहके भीतर उस जीवात्माकी स्थितिको देख या समझ नहीं पाते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगशास्त्रपरा भूत्वा तमात्मानं परीप्सवः।
अनुच्छ्वासान्यमूर्तानि यानि वज्रोपमान्यपि ॥ १३ ॥
मूलम्
योगशास्त्रपरा भूत्वा तमात्मानं परीप्सवः।
अनुच्छ्वासान्यमूर्तानि यानि वज्रोपमान्यपि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जड स्थूल शरीर, अमूर्त सूक्ष्म शरीर तथा वज्रतुल्य सुदृढ़ कारण शरीर—ये जो तीन प्रकारके शरीर हैं, इन्हें आत्माको प्राप्त करनेकी इच्छावाले योगीजन योगशास्त्रपरायण होकर लाँघ जाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथग्भूतेषु सृष्टेषु चतुर्थाश्रमकर्मसु ।
समाधौ योगमेवैतच्छाण्डिल्यः शममब्रवीत् ॥ १४ ॥
मूलम्
पृथग्भूतेषु सृष्टेषु चतुर्थाश्रमकर्मसु ।
समाधौ योगमेवैतच्छाण्डिल्यः शममब्रवीत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यास आश्रमके कर्म भिन्न-भिन्न प्रकारके बताये गये हैं। उनमें समाधिके विषयमें मैंने जो कुछ बताया है, इसीको शाण्डिल्य मुनिने शमके नामसे (छान्दोग्यऽपनिषद् शाण्डिल्य ब्राह्मणमें) कहा है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं च महेश्वरम्।
प्रधानविनियोगज्ञः परं ब्रह्मानुपश्यति ॥ १५ ॥
मूलम्
विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं च महेश्वरम्।
प्रधानविनियोगज्ञः परं ब्रह्मानुपश्यति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पञ्चतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि—इन सात सूक्ष्म तत्त्वोंको शाश्वत जानकर एवं छः अंगोंसे यानी ऐश्वर्योंसे युक्त महेश्वरका ज्ञान प्राप्त करके इस बातको जान लेता है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृतिका परिणाम ही यह सम्पूर्ण जगत् है, वह परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५३॥