२५२ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शरीरमें पञ्चभूतोंके कार्य और गुणोंकी पहचान

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्वानि मोक्षजिज्ञासुरर्थधर्मावनुष्ठितः ।
वक्त्रा गुणवता शिष्यः श्राव्यः पूर्वमिदं महत् ॥ १ ॥

मूलम्

द्वन्द्वानि मोक्षजिज्ञासुरर्थधर्मावनुष्ठितः ।
वक्त्रा गुणवता शिष्यः श्राव्यः पूर्वमिदं महत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— बेटा! जो अर्थ और धर्मका अनुष्ठान करके सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको धैर्यपूर्वक सहता हो और मोक्षकी जिज्ञासा रखता हो, उस श्रद्धालु शिष्यको गुणवान् वक्ता पहले इस महत्त्वपूर्ण अध्यात्म-शास्त्रका श्रवण कराये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशं मारुतो ज्योतिरापः पृथ्वी च पञ्चमी।
भावाभावौ च कालश्च सर्वभूतेषु पञ्चसु ॥ २ ॥

मूलम्

आकाशं मारुतो ज्योतिरापः पृथ्वी च पञ्चमी।
भावाभावौ च कालश्च सर्वभूतेषु पञ्चसु ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश, वायु जल, तेज और पाँचवाँ पृथ्वी तथा भाव पदार्थ अर्थात् गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय एवं अभाव और काल (दिक्, आत्मा और मन)—ये सब-के-सब समस्त पांचभौतिक शरीरधारी प्राणियोंमें स्थित हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तरात्मकमाकाशं तन्मयं श्रोत्रमिन्द्रियम् ।
तस्य शब्दं गुणं विद्यान्मूर्तिशास्त्रविधानवित् ॥ ३ ॥

मूलम्

अन्तरात्मकमाकाशं तन्मयं श्रोत्रमिन्द्रियम् ।
तस्य शब्दं गुणं विद्यान्मूर्तिशास्त्रविधानवित् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश अवकाशस्वरूप है और श्रवणेन्द्रिय आकाशमय है। शरीर-शास्त्रके विधानको जाननेवाला मनुष्य शब्दको आकाशका गुण जाने॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरणं मारुतात्मेति प्राणापानौ च तन्मयौ।
स्पर्शनं चेन्द्रियं विद्यात् तथा स्पर्शं च तन्मयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

चरणं मारुतात्मेति प्राणापानौ च तन्मयौ।
स्पर्शनं चेन्द्रियं विद्यात् तथा स्पर्शं च तन्मयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलना-फिरना वायुका धर्म है। प्राण और अपान भी वायुस्वरूप ही हैं (समान, उदान और व्यानको भी वायुरूप ही मानना चाहिये)। स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) तथा स्पर्श नामक गुणको भी वायुमय ही समझना चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तापः पाकः प्रकाशश्च ज्योतिश्चक्षुश्च पञ्चमम्।
तस्य रूपं गुणं विद्यात् ताम्रगौरासितात्मकम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तापः पाकः प्रकाशश्च ज्योतिश्चक्षुश्च पञ्चमम्।
तस्य रूपं गुणं विद्यात् ताम्रगौरासितात्मकम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ताप, पाक, प्रकाश और नेत्रेन्द्रिय—ये सब तेज या अग्नितत्त्वके कार्य हैं। श्याम, गौर और ताम्र आदि वर्णवाले रूपको उसका गुण समझना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रक्लेदः क्षुद्रता स्नेह इत्यपामुपदिश्यते।
असृङ्‌मज्जा च यच्चान्यत् स्निग्धं विद्यात् तदात्मकम् ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रक्लेदः क्षुद्रता स्नेह इत्यपामुपदिश्यते।
असृङ्‌मज्जा च यच्चान्यत् स्निग्धं विद्यात् तदात्मकम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्लेदन (किसी वस्तुको सड़ा-गला देना), क्षुद्रता (सूक्ष्मता) तथा स्निग्धता—ये जलके धर्म बताये जाते हैं। रक्त, मज्जा तथा अन्य जो कुछ स्निग्ध पदार्थ हैं, उन सबको जलमय समझे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसनं चेन्द्रियं जिह्वा रसश्चापां गुणो मतः।
संघातः पार्थिवो धातुरस्थिदन्तनखानि च ॥ ७ ॥

मूलम्

रसनं चेन्द्रियं जिह्वा रसश्चापां गुणो मतः।
संघातः पार्थिवो धातुरस्थिदन्तनखानि च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रसनेन्द्रिय, जिह्वा और रस—ये सब जलके गुण माने गये हैं। शरीरमें जो संघात या कड़ापन है, वह पृथ्वीका कार्य है, अतः हड्डी, दाँत और नख आदिको पृथ्वीका अंश समझना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्मश्रु रोम च केशाश्च शिरा स्नायु च चर्म च।
इन्द्रियं घ्राणसंज्ञातं नासिकेत्यभिसंज्ञिता ॥ ८ ॥
गन्धश्चेवेन्द्रियार्थोऽयं विज्ञेयः पृथिवीमयः ।

मूलम्

श्मश्रु रोम च केशाश्च शिरा स्नायु च चर्म च।
इन्द्रियं घ्राणसंज्ञातं नासिकेत्यभिसंज्ञिता ॥ ८ ॥
गन्धश्चेवेन्द्रियार्थोऽयं विज्ञेयः पृथिवीमयः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार दाढ़ी-मूँछ, शरीरके रोएँ, केश, नाड़ी, स्नायु और चर्म—इन सबकी उत्पत्ति भी पृथ्वीसे ही हुई है। नासिका नामसे प्रसिद्ध जो घ्राणेन्द्रिय है, वह भी पृथ्वीका ही अंश है। इस गन्धनामक विषयको भी पार्थिव गुण ही जानना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरेषु गुणाः सन्ति सर्वसत्त्वेषु चोत्तराः ॥ ९ ॥

मूलम्

उत्तरेषु गुणाः सन्ति सर्वसत्त्वेषु चोत्तराः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरोत्तर सभी भूतोंमें पूर्ववर्ती भूतोंके गुण विद्यमान हैं, (जैसे आकाशमें शब्दमात्र गुण है; वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण; तेजमें शब्द, स्पर्श और रूप—तीन गुण; जलमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस—चार गुण तथा पृथ्वीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—पाँच गुण हैं)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चानां भूतसंघानां संततिं मुनयो विदुः।
मनो नवममेषां तु बुद्धिस्तु दशमी स्मृता ॥ १० ॥

मूलम्

पञ्चानां भूतसंघानां संततिं मुनयो विदुः।
मनो नवममेषां तु बुद्धिस्तु दशमी स्मृता ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिलोग भावना, अज्ञान और कर्म—इन तीनोंको पाँच महाभूतोंके समुदायकी संतति मानते हैं। इन्हीं तीनोंको अविद्या, काम और कर्म भी कहते हैं। ये सब मिलकर आठ हुए। इनके साथ मनको नवाँ और बुद्धिको दसवाँ तत्त्व माना गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादशस्त्वनन्तात्मा स सर्वः पर उच्यते।
व्यवसायात्मिका बुद्धिर्मनो व्याकरणात्मकम् ।
कर्मानुमानाद् विज्ञेयः स जीवः क्षेत्रसंज्ञकः ॥ ११ ॥

मूलम्

एकादशस्त्वनन्तात्मा स सर्वः पर उच्यते।
व्यवसायात्मिका बुद्धिर्मनो व्याकरणात्मकम् ।
कर्मानुमानाद् विज्ञेयः स जीवः क्षेत्रसंज्ञकः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविनाशी आत्मा ग्यारहवाँ तत्त्व है। उसीको सर्वस्वरूप और श्रेष्ठ बताया जाता है। बुद्धि निश्चयात्मिका होती है और मनका स्वरूप संशय बताया गया है। कर्मोंका ज्ञाता और कर्ता कोई भी जड़तत्त्व नहीं हो सकता, इस अनुमान-ज्ञानसे उस क्षेत्रज्ञ नामक जीवात्माको समझना चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एभिः कालात्मकैर्भावैर्यः सर्वैः सर्वमन्वितम्।
पश्यत्यकलुषं कर्म स मोहं नानुवर्तते ॥ १२ ॥

मूलम्

एभिः कालात्मकैर्भावैर्यः सर्वैः सर्वमन्वितम्।
पश्यत्यकलुषं कर्म स मोहं नानुवर्तते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सारे जगत्‌को इन समस्त कालात्मक भावोंसे सम्पन्न देखता और निष्पाप कर्म करता है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता है॥१२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५२॥