२५१ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके लक्षण और परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धान् रसान् नानुरुन्ध्यात् सुखं वा
नालंकारांश्चाप्नुयात् तस्य तस्य ।
मानं च कीर्तिं च यशश्च नेच्छेत्
स वै प्रचारः पश्यतो ब्राह्मणस्य ॥ १ ॥

मूलम्

गन्धान् रसान् नानुरुन्ध्यात् सुखं वा
नालंकारांश्चाप्नुयात् तस्य तस्य ।
मानं च कीर्तिं च यशश्च नेच्छेत्
स वै प्रचारः पश्यतो ब्राह्मणस्य ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— बेटा! साधकको चाहिये कि गन्ध और रस आदि विषयोंका उपभोग न करे, विषयसेवनजनित सुखकी ओर न जाय, स्वर्ण आदिके बने हुए सुन्दर-सुन्दर आभूषणोंको भी न धारण करे तथा मान, बड़ाई और यशकी इच्छा न करे, यही ज्ञानवान् ब्राह्मणका आचार है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वान् वेदानधीयीत शुश्रूषुर्ब्रह्मचर्यवान् ।
ऋचो यजूंसि सामानि न तेन न स वै द्विजः॥२॥

मूलम्

सर्वान् वेदानधीयीत शुश्रूषुर्ब्रह्मचर्यवान् ।
ऋचो यजूंसि सामानि न तेन न स वै द्विजः॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर ले, गुरुकी सेवामें रहे, ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करे तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेदका पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर ले, वही मुख्य ब्राह्मण है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातिवत् सर्वभूतानां सर्ववित् सर्ववेदवित्।
नाकामो म्रियते जातु न तेन न च वै द्विजः॥३॥

मूलम्

ज्ञातिवत् सर्वभूतानां सर्ववित् सर्ववेदवित्।
नाकामो म्रियते जातु न तेन न च वै द्विजः॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समस्त प्राणियोंको अपने कुटुम्बकी भाँति समझकर उनपर दया करता है। जाननेयोग्य तत्त्वका ज्ञाता तथा सब वेदोंका तत्त्वज्ञ है और कामनासे रहित है। वह कभी मृत्युको प्राप्त नहीं होता अर्थात् जन्म-मृत्युके बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। इन लक्षणोंसे सम्पन्न पुरुष ब्राह्मण नहीं है ऐसी बात नहीं, किंतु वही सच्चा ब्राह्मण है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टीश्च विविधाः प्राप्य क्रतूंश्चैवाप्तदक्षिणान्।
प्राप्नोति नैव ब्राह्मण्यमविधानात् कथंचन ॥ ४ ॥

मूलम्

इष्टीश्च विविधाः प्राप्य क्रतूंश्चैवाप्तदक्षिणान्।
प्राप्नोति नैव ब्राह्मण्यमविधानात् कथंचन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारकी इष्टियों और बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंका अनुष्ठान करनेमात्रसे बिना विधानके अर्थात् बिना आत्मज्ञानके किसीको किसी तरह भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हो सकता॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५ ॥

मूलम्

यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय वह दूसरे प्राणियोंसे नहीं डरता और दूसरे प्राणी भी उससे भयभीत नहीं होते तथा जब वह इच्छा और द्वेषका सर्वथा परित्याग कर देता है, उसी समय उसे ब्रह्मभावकी प्राप्ति होती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीकी बुराई करनेका विचार अपने मनमें नहीं करता, तब वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम् ।
कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ७ ॥

मूलम्

कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम् ।
कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌में कामना ही एकमात्र बन्धन है, यहाँ दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामनाके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामतो मुच्यमानस्तु धूम्राभ्रादिव चन्द्रमाः।
विरजाः कालमाकांक्षन् धीरो धैर्येण वर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

कामतो मुच्यमानस्तु धूम्राभ्रादिव चन्द्रमाः।
विरजाः कालमाकांक्षन् धीरो धैर्येण वर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामनासे मुक्त हुआ रजोगुणरहित धीर पुरुष धूमिल रंगके बादलसे निकले हुए चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होकर धैर्यपूर्वक कालकी प्रतीक्षा करता रहता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामः ॥ ९ ॥

मूलम्

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण और अविचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, उसी प्रकार सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही प्रविष्ट हो जाते हैं, वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कामकान्तो न तु कामकामः
स वै कामात् स्वर्गमुपैति देही ॥ १० ॥

मूलम्

स कामकान्तो न तु कामकामः
स वै कामात् स्वर्गमुपैति देही ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोग ही उस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी कामना करते हैं, परंतु वह भोगोंकी कामना नहीं रखता। जो कामभोग चाहनेवाला देहाभिमानी है, वह कामनाओंके फल-स्वरूप स्वर्गलोकमें चला जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद् दमः।
दमस्योपनिषद् दानं दानस्योपनिषत् तपः ॥ ११ ॥

मूलम्

वेदस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद् दमः।
दमस्योपनिषद् दानं दानस्योपनिषत् तपः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदका सार है सत्य वचन, सत्यका सार है इन्द्रियोंका संयम, संयमका सार है दान और दानका सार है तपस्या॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसोपनिषत् त्यागस्त्यागस्योपनिषत् सुखम् ।
सुखस्योपनिषत् स्वर्गः स्वर्गस्योपनिषच्छमः ॥ १२ ॥

मूलम्

तपसोपनिषत् त्यागस्त्यागस्योपनिषत् सुखम् ।
सुखस्योपनिषत् स्वर्गः स्वर्गस्योपनिषच्छमः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्याका सार है त्याग, त्यागका सार है सुख, सुखका सार है स्वर्ग और स्वर्गका सार है शान्ति॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लेदनं शोकमनसोः संतापं तृष्णया सह।
सत्त्वमिच्छसि संतोषाच्छान्तिलक्षणमुत्तमम् ॥ १३ ॥

मूलम्

क्लेदनं शोकमनसोः संतापं तृष्णया सह।
सत्त्वमिच्छसि संतोषाच्छान्तिलक्षणमुत्तमम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको संतोषपूर्वक रहकर शान्तिके उत्तम उपाय सत्त्वगुणको अपनानेकी इच्छा करनी चाहिये। सत्त्वगुण मनकी तृष्णा, शोक और संकल्पको उसी प्रकार जलाकर नष्ट करनेवाला है, जैसे गरम जल चावलको गला देता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशोको निर्ममः शान्तः प्रसन्नात्मा विमत्सरः।
षड्‌भिर्लक्षणवानेतैः समग्रः पुनरेष्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

विशोको निर्ममः शान्तः प्रसन्नात्मा विमत्सरः।
षड्‌भिर्लक्षणवानेतैः समग्रः पुनरेष्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकशून्य, ममतारहित, शान्त, प्रसन्नचित्त, मात्सर्यहीन और संतोषी—इन छः लक्षणोंसे युक्त मनुष्य पूर्णतः ज्ञानसे तृप्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षड्‌भिः सत्त्वगुणोपेतैः प्राज्ञैरधिगतं त्रिभिः।
ये विदुः प्रेत्य चात्मानमिहस्थं तं गुणं विदुः ॥ १५ ॥

मूलम्

षड्‌भिः सत्त्वगुणोपेतैः प्राज्ञैरधिगतं त्रिभिः।
ये विदुः प्रेत्य चात्मानमिहस्थं तं गुणं विदुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देहाभिमानसे मुक्त होकर सत्त्वप्रधान सत्य, दम, दान, तप, त्याग और शम—इन छः गुणों तथा श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप त्रिविध साधनोंसे प्राप्त होनेवाले आत्माको इस शरीरके रहते हुए ही जान लेते हैं, वे परम शान्तिरूप गुणको प्राप्त होते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृत्रिममसंहार्यं प्राकृतं निरुपस्कृतम् ।
अध्यात्मं सुकृतं प्राप्तः सुखमव्ययमश्नुते ॥ १६ ॥

मूलम्

अकृत्रिममसंहार्यं प्राकृतं निरुपस्कृतम् ।
अध्यात्मं सुकृतं प्राप्तः सुखमव्ययमश्नुते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्पत्ति और विनाशसे रहित, स्वभावसिद्ध, संस्कारशून्य तथा शरीरके भीतर स्थित सुकृत नामसे प्रसिद्ध ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्प्रचारं मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वशः।
यामयं लभते तुष्टिं सा न शक्याऽऽत्मनोऽन्यथा ॥ १७ ॥

मूलम्

निष्प्रचारं मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वशः।
यामयं लभते तुष्टिं सा न शक्याऽऽत्मनोऽन्यथा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने मनको इधर-उधर जानेसे रोककर आत्मामें सम्पूर्णरूपसे स्थापित कर लेनेपर पुरुषको जिस संतोष और सुखकी प्राप्ति होती है, उसका दूसरे किसी उपायसे प्राप्त होना असम्भव है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन तृप्यत्यभुञ्जानो येन तृप्यत्यवित्तवान्।
येनास्नेहो बलं धत्ते यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १८ ॥

मूलम्

येन तृप्यत्यभुञ्जानो येन तृप्यत्यवित्तवान्।
येनास्नेहो बलं धत्ते यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे बिना भोजनके भी मनुष्य तृप्त हो जाता है, जिसके होनेसे निर्धनको भी पूर्ण संतोष रहता है तथा जिसका आश्रय मिलनेसे घृत आदि स्निग्ध पदार्थका सेवन किये बिना भी मनुष्य अपनेमें अनन्त बलका अनुभव करता है, उस ब्रह्मको जो जानता है, वही वेदोंका तत्त्वज्ञ है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संगुप्तान्यात्मनो द्वाराण्यपिधाय विचिन्तयन् ।
यो ह्यास्ते ब्राह्मणःशिष्टः स आत्मरतिरुच्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

संगुप्तान्यात्मनो द्वाराण्यपिधाय विचिन्तयन् ।
यो ह्यास्ते ब्राह्मणःशिष्टः स आत्मरतिरुच्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी इन्द्रियोंके सुरक्षित द्वारोंको सब ओरसे बंद करके नित्य ब्रह्मका चिन्तन करता रहता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माराम कहलाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितं परे तत्त्वे क्षीणकाममवस्थितम्।
सर्वतः सुखमन्वेति वपुश्चान्द्रमसं यथा ॥ २० ॥

मूलम्

समाहितं परे तत्त्वे क्षीणकाममवस्थितम्।
सर्वतः सुखमन्वेति वपुश्चान्द्रमसं यथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी कामनाओंको नष्ट करके परम तत्त्वरूप परमात्मामें एकाग्रचित्त होकर स्थित है, उसका सुख शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति सब ओरसे बढ़ता रहता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविशेषाणि भूतानि गुणांश्च जहतो मुनेः।
सुखेनापोह्यते दुःखं भास्करेण तमो यथा ॥ २१ ॥

मूलम्

अविशेषाणि भूतानि गुणांश्च जहतो मुनेः।
सुखेनापोह्यते दुःखं भास्करेण तमो यथा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सामान्यतः सम्पूर्ण भूतों और भौतिक गुणोंका त्याग कर देता है, उस मुनिका दुःख उसी प्रकार सुखपूर्वक अनायास नष्ट हो जाता है, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतिक्रान्तकर्माणमतिक्रान्तगुणक्षयम् ।
ब्राह्मणं विषयाश्लिष्टं जरामृत्यू न विन्दतः ॥ २२ ॥

मूलम्

तमतिक्रान्तकर्माणमतिक्रान्तगुणक्षयम् ।
ब्राह्मणं विषयाश्लिष्टं जरामृत्यू न विन्दतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुणोंके ऐश्वर्य तथा कर्मोंका परित्याग करके विषयवासनासे रहित हुए उस ब्रह्मवेत्ता पुरुषको जरा और मृत्यु नहीं प्राप्त होती हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यदा सर्वतो मुक्तः समः पर्यवतिष्ठते।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च शरीरस्थोऽतिवर्तते ॥ २३ ॥

मूलम्

स यदा सर्वतो मुक्तः समः पर्यवतिष्ठते।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च शरीरस्थोऽतिवर्तते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य समस्त बन्धनोंसे पूर्णतया मुक्त होकर समतामें स्थित हो जाता है, उस समय इस शरीरके भीतर रहकर भी वह इन्द्रियों और उनके विषयोंकी पहुँचके बाहर हो जाता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारणं परमं प्राप्य अतिक्रान्तस्य कार्यताम्।
पुनरावर्तनं नास्ति सम्प्राप्तस्य परं पदम् ॥ २४ ॥

मूलम्

कारणं परमं प्राप्य अतिक्रान्तस्य कार्यताम्।
पुनरावर्तनं नास्ति सम्प्राप्तस्य परं पदम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो परम कारणस्वरूप ब्रह्मको पाकर कार्यमयी प्रकृतिकी सीमाको लाँघ जाता है, वह ज्ञानी परमपदको प्राप्त हो जाता है। उसे पुनः इस संसारमें नहीं लौटना पड़ता है॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५१॥