२५० शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

परमात्माकी प्राप्तिका साधन, संसार-नदीका वर्णन और ज्ञानसे ब्रह्मकी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

शुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्माद् धर्मात् परो धर्मो विद्यते नेह कश्चन।
यो विशिष्टश्च धर्मेभ्यस्तं भवान् प्रव्रवीतु मे ॥ १ ॥

मूलम्

यस्माद् धर्मात् परो धर्मो विद्यते नेह कश्चन।
यो विशिष्टश्च धर्मेभ्यस्तं भवान् प्रव्रवीतु मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजीने पूछा— पिताजी! इस जगत्‌में जिस धर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा जो सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है, उसका आप मुझसे वर्णन कीजिये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं ते सम्प्रवक्ष्यामि पुराणमृषिभिः कृतम्।
विशिष्टं सर्वधर्मेभ्यस्तमिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥

मूलम्

धर्मं ते सम्प्रवक्ष्यामि पुराणमृषिभिः कृतम्।
विशिष्टं सर्वधर्मेभ्यस्तमिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— बेटा! मैं ऋषियोंके बताये हुए उस प्राचीन धर्मका, जो सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है, तुमसे यहाँ वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि बुद्ध्या संयम्य यत्नतः।
सर्वतो निष्पतिष्णूनि पिता बालानिवात्मजान् ॥ ३ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि बुद्ध्या संयम्य यत्नतः।
सर्वतो निष्पतिष्णूनि पिता बालानिवात्मजान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पिता अपने छोटे पुत्रोंको काबूमें रखता है, उसी प्रकार मनुष्यको चाहिये कि वह सब विषयोंपर टूट पड़नेवाली अपनी प्रमथनशील इन्द्रियोंका बुद्धिके द्वारा यत्नपूर्वक संयम करके उन्हें वशमें रखे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं परमं तपः।
तज्ज्यायः सर्वधर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं परमं तपः।
तज्ज्यायः सर्वधर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्या है। यही सब धर्मोंसे श्रेष्ठतम परम धर्म बताया जाता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि सर्वाणि संधाय मनःषष्ठानि मेधया।
आत्मतृप्त इवासीत बहुचिन्त्यमचिन्तयन् ॥ ५ ॥

मूलम्

तानि सर्वाणि संधाय मनःषष्ठानि मेधया।
आत्मतृप्त इवासीत बहुचिन्त्यमचिन्तयन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंको बुद्धिके द्वारा स्थिर करके बहुत-से चिन्तनीय विषयोंका चिन्तन न करते हुए अपनी आत्मामें तृप्त-सा होकर निश्चिन्त और निश्चल हो जाय॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोचरेभ्यो निवृत्तानि यदा स्थास्यन्ति वेश्मनि।
तदा त्वमात्मनाऽऽत्मानं परं द्रक्ष्यसि शाश्वतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

गोचरेभ्यो निवृत्तानि यदा स्थास्यन्ति वेश्मनि।
तदा त्वमात्मनाऽऽत्मानं परं द्रक्ष्यसि शाश्वतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय ये इन्द्रियाँ अपने विषयोंसे हटकर अपने निवासस्थानमें स्थित हो जायँगी, उस समय तुम स्वयं ही उस सनातन परमात्माका दर्शन कर लोगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वात्मानं महात्मानं विधूममिव पावकम्।
तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः ॥ ७ ॥

मूलम्

सर्वात्मानं महात्मानं विधूममिव पावकम्।
तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धूमरहित अग्निके समान देदीप्यमान वह परमेश्वर ही सबका आत्मा और परम महान् है। महात्मा एवं ज्ञानी ब्राह्मण ही उसे देख पाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पुष्पफलोपेतो बहुशाखो महाद्रुमः।
आत्मनो नाभिजानीते क्व मे पुष्पं क्व मे फलम्॥८॥
एवमात्मा न जानीते क्व गमिष्ये कुतस्त्वहम्।
अन्यो ह्यत्रान्तरात्मास्ति यः सर्वमनुपश्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

यथा पुष्पफलोपेतो बहुशाखो महाद्रुमः।
आत्मनो नाभिजानीते क्व मे पुष्पं क्व मे फलम्॥८॥
एवमात्मा न जानीते क्व गमिष्ये कुतस्त्वहम्।
अन्यो ह्यत्रान्तरात्मास्ति यः सर्वमनुपश्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे फल और फूलोंसे भरा हुआ अनेक शाखाओंसे युक्त विशाल वृक्ष अपने ही विषयमें यह नहीं जानता कि कहाँ मेरा फूल है और कहाँ मेरा फल है; उसी प्रकार जीवात्मा यह नहीं जानता कि मैं कहाँसे आया हूँ और कहाँ जाऊँगा। किंतु शरीरमें जीवसे पृथक् दूसरा ही अन्तरात्मा है, जो सबको सब प्रकारसे निरन्तर देखता रहता है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानदीपेन दीप्तेन पश्यत्यात्मानमात्मनि ।
दृष्ट्वा त्वमात्मनाऽऽत्मानं निरात्मा भव सर्ववित् ॥ १० ॥

मूलम्

ज्ञानदीपेन दीप्तेन पश्यत्यात्मानमात्मनि ।
दृष्ट्वा त्वमात्मनाऽऽत्मानं निरात्मा भव सर्ववित् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष प्रज्वलित ज्ञानमय प्रदीपके द्वारा अपनेमें ही परमात्माका दर्शन करता है; इसी प्रकार तुम भी आत्माद्वारा परमात्माका साक्षात्कार करके सर्वज्ञ और स्वाभिमानसे रहित हो जाओ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तः सर्वपापेभ्यो मुक्तत्वच इवोरगः।
परां बुद्धिमवाप्येह विपाप्मा विगतज्वरः ॥ ११ ॥

मूलम्

विमुक्तः सर्वपापेभ्यो मुक्तत्वच इवोरगः।
परां बुद्धिमवाप्येह विपाप्मा विगतज्वरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पके समान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो उत्तम बुद्धि पाकर तुम यहाँ पाप और चिन्तासे रहित हो जाओ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतःस्रोतसं घोरां नदीं लोकप्रवाहिनीम्।
पञ्चेन्द्रियग्राहवतीं मनःसंकल्परोधसम् ॥ १२ ॥
लोभमोहतृणच्छन्नां कामक्रोधसरीसृपाम् ।
सत्यतीर्थानृतक्षोभां क्रोधपङ्कां सरिद्वराम् ॥ १३ ॥
अव्यक्तप्रभवां शीघ्रां दुस्तरामकृतात्मभिः ।
प्रतरस्व नदीं बुद्ध्या कामग्राहसमाकुलाम् ॥ १४ ॥
संसारसागरगमां योनिपातालदुस्तराम् ।
आत्मकर्मोद्भवां तात जिह्वावर्तां दुरासदाम् ॥ १५ ॥

मूलम्

सर्वतःस्रोतसं घोरां नदीं लोकप्रवाहिनीम्।
पञ्चेन्द्रियग्राहवतीं मनःसंकल्परोधसम् ॥ १२ ॥
लोभमोहतृणच्छन्नां कामक्रोधसरीसृपाम् ।
सत्यतीर्थानृतक्षोभां क्रोधपङ्कां सरिद्वराम् ॥ १३ ॥
अव्यक्तप्रभवां शीघ्रां दुस्तरामकृतात्मभिः ।
प्रतरस्व नदीं बुद्ध्या कामग्राहसमाकुलाम् ॥ १४ ॥
संसारसागरगमां योनिपातालदुस्तराम् ।
आत्मकर्मोद्भवां तात जिह्वावर्तां दुरासदाम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह संसार एक भयंकर नदी है, जो सम्पूर्ण लोकमें प्रवाहित हो रही है। इसके स्रोत सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर बहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इसके भीतर पाँच ग्राहोंके समान हैं। मनके संकल्प ही इसके किनारे हैं। लोभ और मोहरूपी घास और सेवारसे यह ढकी हुई है। काम और क्रोध इसमें सर्पके समान निवास करते हैं। सत्य इसका घाट है। मिथ्या इसकी हलचल है। क्रोध ही कीचड़ है। यह नदी दूसरी नदियोंसे श्रेष्ठ है। यह अव्यक्त प्रकृतिरूपी पर्वतसे प्रकट हुई है। इसके जलका वेग बड़ा प्रखर है। अजितात्मा पुरुषोंके लिये इसे पार करना अत्यन्त कठिन है। इसमें कामरूप ग्राह सब ओर भरे हैं। यह नदी संसार-सागरमें मिली है। वासनारूपी गहरे गड्‌ढोंके कारण इसे पार करना अन्यन्त कठिन है। तात! यह अपने कर्मोंसे ही उत्पन्न हुई है। जिह्वा भवँर है तथा इस नदीको लाँघना दुष्कर है। तुम अपनी विशुद्ध बुद्धिके द्वारा इस नदीको पार कर जाओ॥१२—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां तरन्ति कृतप्रज्ञा धृतिमन्तो मनीषिणः।
तां तीर्णः सर्वतो मुक्तो विधृतात्माऽऽत्मविच्छुचिः ॥ १६ ॥
उत्तमां बुद्धिमास्थाय ब्रह्मभूयान् भविष्यसि।
संतीर्णः सर्वसंसारात् प्रसन्नात्मा विकल्मषः ॥ १७ ॥

मूलम्

यां तरन्ति कृतप्रज्ञा धृतिमन्तो मनीषिणः।
तां तीर्णः सर्वतो मुक्तो विधृतात्माऽऽत्मविच्छुचिः ॥ १६ ॥
उत्तमां बुद्धिमास्थाय ब्रह्मभूयान् भविष्यसि।
संतीर्णः सर्वसंसारात् प्रसन्नात्मा विकल्मषः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धैर्यशाली, मनीषी और तत्त्वज्ञानी लोग जिस नदीको पार करते हैं, उसे तुम भी तैर जाओ। सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त, संयतचित्त, आत्मज्ञ और पवित्र हो जाओ। उत्तम बुद्धि (ज्ञान) का आश्रय ले तुम सब प्रकारके सांसारिक बन्धनोंसे छूट जाओगे और निष्पाप एवं प्रसन्नचित्त हो ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाओगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिष्ठानीव भूतानि पर्वतस्थो निशामय।
अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च न नृशंसमतिस्तथा ॥ १८ ॥

मूलम्

भूमिष्ठानीव भूतानि पर्वतस्थो निशामय।
अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च न नृशंसमतिस्तथा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पर्वतके शिखरपर खड़ा हुआ पुरुष धरतीपर रहनेवाले समस्त प्राणियोंको सुस्पष्ट देखता है, उसी प्रकार तुम भी ज्ञानरूपी शैलशिखरपर आरूढ़ हो समस्त प्राणियोंकी अवस्थापर दृष्टिपात करो। क्रोध और हर्षसे रहित हो जाओ तथा बुद्धिकी क्रूरतासे भी रहित हो जाओ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रक्ष्यसि सर्वेषां भूतानां प्रभवाप्ययौ।
एनं वै सर्वभूतेभ्यो विशिष्टं मेनिरे बुधाः।
धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठा मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततो द्रक्ष्यसि सर्वेषां भूतानां प्रभवाप्ययौ।
एनं वै सर्वभूतेभ्यो विशिष्टं मेनिरे बुधाः।
धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठा मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा करनेसे तुम समस्त भूतोंके उत्पत्ति और प्रलयको देख सकोगे। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनि इस धर्मको समस्त प्राणियोंके लिये सबसे श्रेष्ठ मानते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनो व्यापिनो ज्ञानमिदं पुत्रानुशासनम्।
प्रयताय प्रवक्तव्यं हितायानुगताय च ॥ २० ॥

मूलम्

आत्मनो व्यापिनो ज्ञानमिदं पुत्रानुशासनम्।
प्रयताय प्रवक्तव्यं हितायानुगताय च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! यह उपदेश व्यापक आत्माका ज्ञान करानेवाला है। जो संयतचित्त, हितैषी और अनुगत भक्त हो, उसीके समक्ष इसका वर्णन करना चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मज्ञानमिदं गुह्यं सर्वगुह्यतमं महत्।
अब्रुवं यदहं तात आत्मसाक्षिकमञ्जसा ॥ २१ ॥

मूलम्

आत्मज्ञानमिदं गुह्यं सर्वगुह्यतमं महत्।
अब्रुवं यदहं तात आत्मसाक्षिकमञ्जसा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह गोपनीय आत्मज्ञान सबसे अधिक गुह्यतम और महान् है। तात! मैंने जिसका उपदेश किया है, वह यथार्थतः मेरे अपने प्रत्यक्ष अनुभवमें लाया हुआ ज्ञान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव स्त्री न पुमानेतन्नैव चेदं नपुंसकम्।
अदुःखमसुखं ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकम् ॥ २२ ॥

मूलम्

नैव स्त्री न पुमानेतन्नैव चेदं नपुंसकम्।
अदुःखमसुखं ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःख और सुखसे रहित तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमानस्वरूप ब्रह्म तो न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतज्ज्ञात्वा पुमान् स्त्री वा पुनर्भवमवाप्नुते।
अभवप्रतिपत्त्यर्थमेतद् धर्मं विधीयते ॥ २३ ॥

मूलम्

नैतज्ज्ञात्वा पुमान् स्त्री वा पुनर्भवमवाप्नुते।
अभवप्रतिपत्त्यर्थमेतद् धर्मं विधीयते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष हो या स्त्री, इस ब्रह्मको जान ले तो उसका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता। अपुनर्भवस्थिति प्राप्त करनेके लिये ही इस ब्रह्मज्ञानरूप धर्मका विधान किया गया है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मतानि सर्वाणि तथैतानि यथा तथा।
कथितानि मया पुत्र भवन्ति न भवन्ति च ॥ २४ ॥

मूलम्

यथा मतानि सर्वाणि तथैतानि यथा तथा।
कथितानि मया पुत्र भवन्ति न भवन्ति च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! सारे विभिन्न मत जैसे रहे हैं, वैसे ही मेरेद्वारा तुम्हारे समक्ष यथार्थरूपसे बताये गये हैं। जो इन मतोंका अनुसरण करते हैं; वे मुक्त हो जाते हैं, जो नहीं करते हैं, वे नहीं होते॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रीतियुक्तेन गुणान्वितेन
पुत्रेण सत्पुत्र दमान्वितेन ।
पृष्टो हि सम्प्रीतमना यथार्थं
ब्रूयात् सुतस्येह यदुक्तमेतत् ॥ २५ ॥

मूलम्

तत् प्रीतियुक्तेन गुणान्वितेन
पुत्रेण सत्पुत्र दमान्वितेन ।
पृष्टो हि सम्प्रीतमना यथार्थं
ब्रूयात् सुतस्येह यदुक्तमेतत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुत्र शुकदेव! प्रीतियुक्त, गुणवान् तथा इन्द्रियसंयमी पुत्र यदि प्रश्न करे तो पिता संतुष्टचित्त होकर उस जिज्ञासु पुत्रके समीप यथार्थरूपसे इस ज्ञानका उपदेश करे, जो कुछ मैंने तुम्हारे निकट कहा है॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५०॥