२४९ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ज्ञानके साधन तथा ज्ञानीके लक्षण और महिमा

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृजते तु गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञस्त्वधितिष्ठति।
गुणान् विक्रियतः सर्वानुदासीनवदीश्वरः ॥ १ ॥

मूलम्

सृजते तु गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञस्त्वधितिष्ठति।
गुणान् विक्रियतः सर्वानुदासीनवदीश्वरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— पुत्र! प्रकृति ही गुणोंकी सृष्टि करती है। क्षेत्रज्ञ—आत्मा तो उदासीनकी भाँति उन सम्पूर्ण विकारशील गुणोंको देखा करता है। वह स्वाधीन एवं उनका अधिष्ठाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावयुक्तं तत् सर्वं यदिमान् सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं सृजते तद्‌गुणांस्तथा ॥ २ ॥

मूलम्

स्वभावयुक्तं तत् सर्वं यदिमान् सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं सृजते तद्‌गुणांस्तथा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मकड़ी अपने शरीरसे तन्तुओंकी सृष्टि करती है, उसी प्रकार प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थोंको उत्पन्न करती है। प्रकृति जो इन सब विषयोंकी सृष्टि करती है, वह सब उसके स्वभावसे ही होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते।
एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते।
एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींका मत है कि तत्त्वज्ञानसे जब गुणोंका नाश कर दिया जाता है, तब भी वे सर्वथा नष्ट नहीं होते; किंतु तत्त्वज्ञके लिये उनकी उपलब्धि नहीं होती अर्थात् उसका उनसे सम्बन्ध नहीं रहता। दूसरे लोग मानते हैं कि उनकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है अर्थात् उनका अस्तित्त्व नहीं रहता॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभयं सम्प्रधार्यैतदध्यवस्येद् यथामति ।
अनेनैव विधानेन भवेद् गर्भशयो महान् ॥ ४ ॥

मूलम्

उभयं सम्प्रधार्यैतदध्यवस्येद् यथामति ।
अनेनैव विधानेन भवेद् गर्भशयो महान् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनों मतोंपर अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करके सिद्धान्तका निश्चय करे। इस प्रकार निश्चय करनेसे (बार-बार) गर्भमें शयन करनेवाला जीव महान् हो जाता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादिनिधनो ह्यात्मा तं बुद्‌ध्वा विचरेन्नरः।
अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च नित्यं विगतमत्सरः ॥ ५ ॥

मूलम्

अनादिनिधनो ह्यात्मा तं बुद्‌ध्वा विचरेन्नरः।
अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च नित्यं विगतमत्सरः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा आदि और अन्तसे रहित है। उसे जानकर मनुष्य सदा हर्ष, क्रोध और ईर्ष्या-द्वेषसे रहित हो विचरता रहे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्।
अनित्यं सुखमासीत अशोचंश्छिन्नसंशयः ॥ ६ ॥

मूलम्

इत्येवं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्।
अनित्यं सुखमासीत अशोचंश्छिन्नसंशयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधकको चाहिये कि बुद्धिके चिन्ता आदि धर्मोंसे सुदृढ़ हुई हृदयकी अविद्यामयी अनित्य ग्रन्थिको उपर्युक्त प्रकारसे काटकर शोक और संदेहसे रहित हो सुखपूर्वक परमात्मस्वरूपमें स्थित हो जाय॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्व्या यथा पूर्णां नदीं नराः।
अवगाढा ह्यविद्वांसो विद्धि लोकमिमं तथा ॥ ७ ॥

मूलम्

ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्व्या यथा पूर्णां नदीं नराः।
अवगाढा ह्यविद्वांसो विद्धि लोकमिमं तथा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तैरनेकी कला न जाननेवाले मनुष्य यदि किनारेकी भूमिसे जलपूर्ण नदीमें गिर पड़ते हैं तो गोते खाते हुए महान् क्लेश सहन करते हैं; उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य इस संसार-सागरमें डूबकर कष्ट भोगते रहते हैं—ऐसा समझो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु ताम्यति वै विद्वान् स्थले चरति तत्त्ववित्।
एवं यो विन्दतेऽऽत्मानं केवलं ज्ञानमात्मनः ॥ ८ ॥

मूलम्

न तु ताम्यति वै विद्वान् स्थले चरति तत्त्ववित्।
एवं यो विन्दतेऽऽत्मानं केवलं ज्ञानमात्मनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो तैरना जानता है, वह कष्ट नहीं उठाता। वह तो जलमें भी स्थलकी ही भाँति चलता है, उसी तरह ज्ञानस्वरूप विशुद्ध आत्माको प्राप्त हुआ तत्त्ववेत्ता संसार-सागरसे पार हो जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बुद्‌ध्वा नरः सर्वं भूतानामागतिं गतिम्।
समवेक्ष्य च वैषम्यं लभते शममुत्तमम् ॥ ९ ॥

मूलम्

एवं बुद्‌ध्वा नरः सर्वं भूतानामागतिं गतिम्।
समवेक्ष्य च वैषम्यं लभते शममुत्तमम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके आवागमनको जानता तथा उनकी विषम अवस्थापर विचार करता है, उसे परम उत्तम शान्ति प्राप्त होती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वै जन्मसामर्थ्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः।
आत्मज्ञानं शमश्चैव पर्याप्तं तत्परायणम् ॥ १० ॥

मूलम्

एतद् वै जन्मसामर्थ्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः।
आत्मज्ञानं शमश्चैव पर्याप्तं तत्परायणम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशेषरूपसे ब्राह्मणमें और समानभावसे मनुष्यमात्रमें इस ज्ञानको प्राप्त करनेकी जन्मसिद्ध शक्ति है। मन और इन्द्रियोंका संयम तथा आत्मज्ञान मोक्ष-प्राप्तिके लिये पर्याप्त साधन है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् बुद्‌ध्वा भवेत् शुद्धः किमन्यद्‌ बुद्धलक्षणम्।
विज्ञायैतद् विमुच्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ ११ ॥

मूलम्

एतद् बुद्‌ध्वा भवेत् शुद्धः किमन्यद्‌ बुद्धलक्षणम्।
विज्ञायैतद् विमुच्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शम और आत्मतत्त्वको जानकर पुरुष अत्यन्त शुद्ध-बुद्ध हो जाता है। ज्ञानीका इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है। बुद्धिमान् मनुष्य इस आत्मतत्त्वको जानकर कृतार्थ और मुक्त हो जाते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भवति विदुषां महद्भयं
यदविदुषां सुमहद्भयं परत्र ।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचिद्
भवति हि या विदुषः सनातनी ॥ १२ ॥

मूलम्

न भवति विदुषां महद्भयं
यदविदुषां सुमहद्भयं परत्र ।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचिद्
भवति हि या विदुषः सनातनी ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परलोकमें जो अज्ञानी मनुष्योंको महान् भय प्राप्त होता है, यह महान् भय ज्ञानी पुरुषोंको नहीं होता। ज्ञानीको जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर उत्तम गति और किसीको भी प्राप्त नहीं होती॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकमातुरमसूयते जन-
स्तत् तदेव च निरीक्ष्य शोचते।
तत्र पश्य कुशलानशोचतो
ये विदुस्तदुभयं कृताकृतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

लोकमातुरमसूयते जन-
स्तत् तदेव च निरीक्ष्य शोचते।
तत्र पश्य कुशलानशोचतो
ये विदुस्तदुभयं कृताकृतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग मनुष्योंको दुखी और रोगी देखकर उनमें दोष-दृष्टि करते हैं और दूसरे लोग उनकी वह अवस्था देखकर शोक करते हैं। परंतु जो कार्य और कारण दोनोंको तत्त्वसे जानते हैं, वे शोक नहीं करते। तुम उन्हीं लोगोंको वहाँ कुशल समझो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् करोत्यनभिसंधिपूर्वकं
तच्च निर्णुदति तत् पुराकृतम्।
न प्रियं तदुभयं न चाप्रियं
तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः ॥ १४ ॥

मूलम्

यत् करोत्यनभिसंधिपूर्वकं
तच्च निर्णुदति तत् पुराकृतम्।
न प्रियं तदुभयं न चाप्रियं
तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मपरायण मनुष्य निष्कामभावसे जिस कर्मका अनुष्ठान करते हैं, वह पहलेके किये हुए सकाम या अशुभ कर्मोंको भी नष्ट कर देता है; इस प्रकार कर्म करनेवाले साधकके कर्म इस लोकमें या परलोकमें कहीं भी उसका भला-बुरा या दोनों कुछ भी नहीं कर सकते॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४९॥