भागसूचना
अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बुद्धिकी श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो विसृजते भावं बुद्धिरध्यवसायिनी।
हृदयं प्रियाप्रिये वेद त्रिविधा कर्मचोदना ॥ १ ॥
मूलम्
मनो विसृजते भावं बुद्धिरध्यवसायिनी।
हृदयं प्रियाप्रिये वेद त्रिविधा कर्मचोदना ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— पुत्र! कर्म करनेमें तीन प्रकारसे प्रेरणा प्राप्त होती है। पहले तो मन संकल्पमात्रसे नाना प्रकारके भावकी सृष्टि करता है, बुद्धि उसका निश्चय करती है। तत्पश्चात् हृदय उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलताका अनुभव करता है। (इसके बाद कर्ममें प्रवृत्ति होती है)॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा परो मतः ॥ २ ॥
मूलम्
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा परो मतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंसे उनके विषय बलवान् हैं (क्योंकि वे बलात् इन्द्रियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं), उन विषयोंसे मन बलवान् है (क्योंकि वह इन्द्रियोंको उनसे हटानेमें समर्थ है)। मनसे बुद्धि बलवान् है (क्योंकि वह मनको वशमें रख सकती है) और बुद्धिसे आत्मा बलवान् माना गया है (क्योंकि वह बुद्धिको सम बनाकर स्वाधीन कर सकता है)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिरात्मा मनुष्यस्य बुद्धिरेवात्मनाऽऽत्मनि ।
यदा विकुरुते भावं तदा भवति सा मनः ॥ ३ ॥
मूलम्
बुद्धिरात्मा मनुष्यस्य बुद्धिरेवात्मनाऽऽत्मनि ।
यदा विकुरुते भावं तदा भवति सा मनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि प्राणियोंकी समस्त इन्द्रियोंकी अधिष्ठात्री है, इसलिये वह जीवात्माके समान ही उनकी आत्मा मानी गयी है। बुद्धि ही स्वयं अपने भीतर जब भिन्न-भिन्न विषयोंको ग्रहण करनेके लिये विकृत हो नाना प्रकारके रूप धारण करती है, तब वही मन बन जाती है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां पृथग्भावाद् बुद्धिर्विक्रियते ह्यतः।
शृण्वती भवति श्रोत्रं स्मृशती स्पर्श उच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां पृथग्भावाद् बुद्धिर्विक्रियते ह्यतः।
शृण्वती भवति श्रोत्रं स्मृशती स्पर्श उच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियाँ पृथक्-पृथक् हैं, इसलिये उनकी क्रियाएँ भी पृथक्-पृथक् हैं। अतः उन्हींके लिये बुद्धि नाना प्रकारके रूप धारण करती है। वही जब सुनती है तो श्रोत्र कहलाती है और स्पर्श करते समय स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) के नामसे पुकारी जाती है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यती भवते दृष्टी रसती रसनं भवेत्।
जिघ्रती भवति घ्राणं बुद्धिर्विक्रियते पृथक् ॥ ५ ॥
मूलम्
पश्यती भवते दृष्टी रसती रसनं भवेत्।
जिघ्रती भवति घ्राणं बुद्धिर्विक्रियते पृथक् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही देखते समय दृष्टि और रसास्वादनके समय रसना हो जाती है। जब वह गन्धको ग्रहण करती है, तब वही घ्राणेन्द्रिय कहलाती है। इस प्रकार बुद्धि ही पृथक्-पृथक् विकृत होती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि तु तान्याहुस्तेष्वदृश्योऽधितिष्ठति ।
तिष्ठती पुरुषे बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते ॥ ६ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि तु तान्याहुस्तेष्वदृश्योऽधितिष्ठति ।
तिष्ठती पुरुषे बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिके इन विकारोंको ही इन्द्रियाँ कहते हैं। अदृश्य जीवात्मा उन सबमें अधिष्ठित है। बुद्धि उस जीवात्मामें ही स्थित हो सात्त्विक आदि तीनों भावोंमें रहती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति।
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदिह युज्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति।
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदिह युज्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी हेतुसे वह कभी प्रेम और प्रसन्नता लाभ करती है (यह उसका सात्त्विक भाव है)। कभी शोकमें डूबती है (यह उसका राजस भाव है)। और कभी न तो सुखसे युक्त होती है एवं न दुःखसे ही; उसपर मोह छाया रहता है (यही उसका तामस भाव है)॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते ।
सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् ॥ ८ ॥
मूलम्
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते ।
सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे उत्ताल तरंगोंसे युक्त सरिताओंका स्वामी समुद्र कभी-कभी अपनी विशाल तटभूमिको भी लाँघ जाता है, उसी प्रकार यह भावात्मिका बुद्धि चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगमें स्थित होनेपर इन तीनों भावोंको लाँघ जाती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा प्रार्थयते किंचित् तदा भवति सा मनः।
अधिष्ठानानि वै बुद्ध्यां पृथगेतानि संस्मरेत्।
इन्द्रियाण्येव मेध्यानि विजेतव्यानि कृत्स्नशः ॥ ९ ॥
मूलम्
यदा प्रार्थयते किंचित् तदा भवति सा मनः।
अधिष्ठानानि वै बुद्ध्यां पृथगेतानि संस्मरेत्।
इन्द्रियाण्येव मेध्यानि विजेतव्यानि कृत्स्नशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जब किसी वस्तुकी इच्छा करता है, तब उसकी बुद्धि मनके रूपमें परिणत हो जाती है। ये जो एक दूसरेसे पृथक्-पृथक् इन्द्रियोंके भाव हैं, इन्हें बुद्धिके ही अन्तर्गत समझना चाहिये। ‘मेधा’ कहते हैं रूप आदिके ज्ञानको, उसमें हितकर या सहायक होनेके कारण इन्द्रियाँ ‘मेध्य’ कही गयी हैं। योगीको सम्पूर्ण इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनी चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाण्येवानुपूर्व्येण यद् यदानुविधीयते ।
अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते ॥ १० ॥
मूलम्
सर्वाण्येवानुपूर्व्येण यद् यदानुविधीयते ।
अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंमेंसे जब जिस इन्द्रियके साथ हो जाती है, उस समय पहले अलग न होनेपर भी वह बुद्धि संकल्पात्मक मन एवं घटादि पदार्थोंमें उपस्थित होती है अर्थात् बुद्धिसे अनुगृहीत होनेपर ही कोई भी इन्द्रिय संकल्पजनित घट-पटादिको क्रमशः ग्रहण करती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैव भावा वर्तन्ते सर्व एष्वेव ते त्रिषु।
अन्वर्थाः सम्प्रवर्तन्ते रथनेमिमरा इव ॥ ११ ॥
मूलम्
ये चैव भावा वर्तन्ते सर्व एष्वेव ते त्रिषु।
अन्वर्थाः सम्प्रवर्तन्ते रथनेमिमरा इव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्में जो भी नाना भाव हैं, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस—इन तीनों भावोंके ही अन्तर्गत हैं। जैसे अरे रथकी नेमिसे जुड़े होते हैं, उसी प्रकार सभी भाव सात्विक आदि गुणोंके अनुगामी हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदीपार्थं मनः कुर्यादिन्द्रियैर्बुद्धिसत्तमैः ।
निश्चरद्भिर्यथायोगमुदासीनैर्यदृच्छया ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रदीपार्थं मनः कुर्यादिन्द्रियैर्बुद्धिसत्तमैः ।
निश्चरद्भिर्यथायोगमुदासीनैर्यदृच्छया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिरूप अधिष्ठानमें स्थित हुई उदासीनभावसे स्वभावके अनुसार यथासम्भव विषयोंकी ओर जानेवाली इन्द्रियोंद्वारा मन दीपकका कार्य करता है अर्थात् जैसे दीपक अपनी प्रभाद्वारा घटादि वस्तुओंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मन नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा घट-पट आदि वस्तुओंका दर्शन एवं ग्रहण कराता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्वभावमेवेदमिति विद्वान् न मुह्यति।
अशोचन्नप्रहृष्यन् हि नित्यं विगतमत्सरः ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं स्वभावमेवेदमिति विद्वान् न मुह्यति।
अशोचन्नप्रहृष्यन् हि नित्यं विगतमत्सरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्का ऐसा ही परिवर्तनस्वभाव है, ऐसा जाननेवाला ज्ञानी पुरुष कभी मोहमें नहीं पड़ता, हर्ष और शोक नहीं करता तथा ईर्ष्या-द्वेष आदिसे रहित रहता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैः कामगोचरैः।
प्रवर्तमानैरनये दुष्करैरकृतात्मभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैः कामगोचरैः।
प्रवर्तमानैरनये दुष्करैरकृतात्मभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दुष्कर्मपरायण और अशुद्ध अन्तःकरणवाले हैं, वे अज्ञानी पुरुष अन्यायपूर्वक मनोवाञ्छित विषयोंमें विचरनेवाली इन्द्रियोंद्वारा आत्माका दर्शन नहीं कर सकते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु मनसा रश्मीन् यदा सम्यङ्नियच्छति।
तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा दीपदीप्ता यथाऽऽकृतिः ॥ १५ ॥
मूलम्
तेषां तु मनसा रश्मीन् यदा सम्यङ्नियच्छति।
तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा दीपदीप्ता यथाऽऽकृतिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब मनुष्य अपने मनके द्वारा इन्द्रियरूपी अश्वोंकी बागडोरको सदा पकड़े रहकर उन्हें अच्छी तरह काबूमें कर लेता है, तब उसे ज्ञानके प्रकाशमें आत्माका दर्शन उसी प्रकार होता है जिस प्रकार दीपकके प्रकाशमें किसी वस्तुकी आकृति स्पष्ट दिखायी देती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषामेव भूतानां तमस्यपगते यथा।
प्रकाशं भवते सर्वं तथेदमुपधार्यताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सर्वेषामेव भूतानां तमस्यपगते यथा।
प्रकाशं भवते सर्वं तथेदमुपधार्यताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्धकार दूर हो जानेपर सभी प्राणियोंके सामने प्रकाश छा जाता है, उसी प्रकार यह निश्चितरूपसे समझ लो कि अज्ञानका नाश होनेपर ही ज्ञानस्वरूप आत्माका साक्षात्कार होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वारिचरः पक्षी न लिप्यति जले चरन्।
विमुक्तात्मा तथा योगी गुणदोषैर्न लिप्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
यथा वारिचरः पक्षी न लिप्यति जले चरन्।
विमुक्तात्मा तथा योगी गुणदोषैर्न लिप्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जलचर पक्षी जलमें विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसारमें रहकर भी उसके गुण और दोषोंसे लिपायमान नहीं होता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव कृतप्रज्ञो न दोषैर्विषयांश्चरन्।
असज्जमानः सर्वेषु कथंचन न लिप्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेव कृतप्रज्ञो न दोषैर्विषयांश्चरन्।
असज्जमानः सर्वेषु कथंचन न लिप्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह स्त्री, पुत्र आदि सम्बन्धियोंमें आसक्त न होनेके कारण विषयोंका सेवन करता हुआ भी किसी प्रकार उनके दोषोंसे लिप्त नहीं होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा पूर्वकृतं कर्म रतिर्यस्य सदाऽऽत्मनि।
सर्वभूतात्मभूतस्य गुणवर्गेष्वसज्जतः ॥ १९ ॥
मूलम्
त्यक्त्वा पूर्वकृतं कर्म रतिर्यस्य सदाऽऽत्मनि।
सर्वभूतात्मभूतस्य गुणवर्गेष्वसज्जतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने पूर्वकृत कर्मोंके संस्कारोंका त्याग करके सदा परमात्मामें ही अनुराग रखता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा हो जाता है और विषयोंमें कभी आसक्त नहीं होता॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वमात्मा प्रसरति गुणान् वापि कदाचन।
न गुणा विदुरात्मानं गुणान् वेद स सर्वदा ॥ २० ॥
परिद्रष्टा गुणानां च परिस्रष्टा यथातथम्।
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः ॥ २१ ॥
मूलम्
सत्त्वमात्मा प्रसरति गुणान् वापि कदाचन।
न गुणा विदुरात्मानं गुणान् वेद स सर्वदा ॥ २० ॥
परिद्रष्टा गुणानां च परिस्रष्टा यथातथम्।
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवात्मा कभी बुद्धिकी ओर झुकता है और कभी गुणोंकी ओर। गुण आत्माको नहीं जानते, किंतु आत्मा गुणोंको सदा जानता रहता है, क्योंकि वह गुणोंका द्रष्टा और यथावत्रूपसे स्रष्टा भी है। यद्यपि बुद्धि और क्षेत्रज्ञ दोनों ही सूक्ष्म वस्तु हैं, किंतु उन दोनोंमें यही अन्तर समझो कि बुद्धि दृश्य है और आत्मा द्रष्टा है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान्।
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा ॥ २२ ॥
मूलम्
सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान्।
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दोनोंमेंसे एक (बुद्धि) तो गुणोंकी सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणोंकी सृष्टि नहीं करता है। वे दोनों स्वरूपतः एक दूसरेसे पृथक् हैं; परंतु सदा संयुक्त रहते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात् सम्प्रयुक्तौ तथैव तौ।
मशकोदुम्बरौ वापि सम्प्रयुक्तौ यथा सह ॥ २३ ॥
मूलम्
यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात् सम्प्रयुक्तौ तथैव तौ।
मशकोदुम्बरौ वापि सम्प्रयुक्तौ यथा सह ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मछली जलसे भिन्न है, फिर भी वे एक दूसरेसे संयुक्त रहते हैं। जैसे गूलर और उसके कीड़े एक दूसरेसे पृथक् हैं तथापि परस्पर संयुक्त रहते हैं। उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञको भी समझना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषीका वा यथा मुञ्जे पृथक् च सह चैव च।
तथैव सहितावेतावन्योन्यस्मिन् प्रतिष्ठितौ ॥ २४ ॥
मूलम्
इषीका वा यथा मुञ्जे पृथक् च सह चैव च।
तथैव सहितावेतावन्योन्यस्मिन् प्रतिष्ठितौ ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मूँजमें जो सींक है, वह उससे पृथक् है तो भी वे दोनों साथ ही रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ सर्वथा एक दूसरेसे पृथक् होते हुए भी दोनों साथ-साथ और एक दूसरेके आश्रित रहते हैं॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४८॥