भागसूचना
सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
महाभूतादि तत्त्वोंका विवेचन
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मं विस्तरेणेह पुनरेव वदस्व मे।
यदध्यात्मं यथा वेद भगवनृषिसत्तम ॥ १ ॥
मूलम्
अध्यात्मं विस्तरेणेह पुनरेव वदस्व मे।
यदध्यात्मं यथा वेद भगवनृषिसत्तम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीने कहा— भगवन्! मुनिश्रेष्ठ! अब पुनः मुझे अध्यात्मज्ञानका विस्तारपूर्वक उपदेश दीजिये। अध्यात्म क्या है और उसे मैं कैसे जानूँगा?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मं यदिदं तात पुरुषस्येह पठ्यते।
तत् तेऽहं वर्तयिष्यामि तस्य व्याख्यामिमां शृणु ॥ २ ॥
मूलम्
अध्यात्मं यदिदं तात पुरुषस्येह पठ्यते।
तत् तेऽहं वर्तयिष्यामि तस्य व्याख्यामिमां शृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— तात! मनुष्यके लिये शास्त्रमें जो यह अध्यात्मविषयकी चर्चा की जाती है, उसका परिचय मैं तुम्हें दे रहा हूँ; तुम अध्यात्मकी यह व्याख्या सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाश एव च।
महाभूतानि भूतानां सागरस्योर्मयो यथा ॥ ३ ॥
मूलम्
भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाश एव च।
महाभूतानि भूतानां सागरस्योर्मयो यथा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—ये पाँच महाभूत सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरमें स्थित हैं। जैसे समुद्रकी लहरें उठती और विलीन होती रहती हैं, उसी प्रकार ये पाँचों महाभूत प्राणियोंके शरीरके रूपमें जन्म ग्रहण करते और विलीन होते रहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तद्वन्महान्ति भूतानि यवीयःसु विकुर्वते ॥ ४ ॥
मूलम्
प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तद्वन्महान्ति भूतानि यवीयःसु विकुर्वते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको सब ओर फैलाकर फिर समेट लेता है, इसी प्रकार ये सारे महाभूत छोटे-छोटे शरीरोंमें विकृत होते—उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तन्मयमेवेदं सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
सर्गे च प्रलये चैव तस्मिन् निर्दिश्यते तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
इति तन्मयमेवेदं सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
सर्गे च प्रलये चैव तस्मिन् निर्दिश्यते तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार यह समस्त स्थावर-जंगम जगत् पंचभूतमय ही है। सृष्टिकालमें पंचभूतोंसे ही सबकी उत्पत्ति होती है और प्रलयके समय उन्हींमें सबका लय बताया जाता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
अकरोत् तात वैषम्यं यस्मिन् यदनुपश्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
अकरोत् तात वैषम्यं यस्मिन् यदनुपश्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि सम्पूर्ण शरीरोंमें पाँच ही भूत हैं तथापि लोगोंको उनमेंसे जिसमें जो वैषम्य दिखायी देता है, उसका कारण यह है कि सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीने समस्त प्राणियोंमें उनके कर्मानुसार ही न्यूनाधिकरूपमें उन भूतोंका समावेश किया है॥६॥
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकरोद् यच्छरीरेषु कथं तदुपलक्षयेत्।
इन्द्रियाणि गुणाः केचित् कथं तानुपलक्षयेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
अकरोद् यच्छरीरेषु कथं तदुपलक्षयेत्।
इन्द्रियाणि गुणाः केचित् कथं तानुपलक्षयेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीने पूछा— पिताजी! देवता, मनुष्य, पशु और पक्षी आदिके शरीरोंमें विधाताने जो वैषम्य किया है, उसको किस प्रकार लक्ष्य किया जाय? शरीरमें इन्द्रियाँ भी हैं और कुछ गुण भी हैं, उन्हें कैसे देखा जाय—उनमेंसे कौन किस महाभूतके कार्य हैं, इसकी पहचान कैसे हो?॥७॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते वर्तयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः।
शृणु तत् त्वमिहैकाग्रो यथातत्त्वं यथा च तत् ॥ ८ ॥
मूलम्
एतत् ते वर्तयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः।
शृणु तत् त्वमिहैकाग्रो यथातत्त्वं यथा च तत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— बेटा! मैं इस विषयका क्रमशः और यथावत्रूपसे प्रतिपादन करूँगा। यह समस्त विषय तत्त्वतः जैसा है, वह सब तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसम्भवम्।
प्राणश्चेष्टा तथा स्पर्श एते वायुगुणास्त्रयः ॥ ९ ॥
मूलम्
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसम्भवम्।
प्राणश्चेष्टा तथा स्पर्श एते वायुगुणास्त्रयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्द, श्रोत्रेन्द्रिय तथा शरीरके सम्पूर्ण छिद्र—ये तीनों वस्तुएँ आकाशसे उत्पन्न हुई हैं। प्राण, चेष्टा तथा स्पर्श—ये तीनों वायुके गुण (कार्य) हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिधा ज्योतिर्विधीयते।
रसोऽथ रसनं स्नेहो गुणास्त्वेते त्रयोऽम्भसः ॥ १० ॥
मूलम्
रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिधा ज्योतिर्विधीयते।
रसोऽथ रसनं स्नेहो गुणास्त्वेते त्रयोऽम्भसः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूप, नेत्र और जठरानल—इन तीन रूपोंमें अग्निका ही कार्य प्रकट हुआ है। रस, रसना और स्नेह—ये तीनों जलके कार्य हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च भूमेरेते गुणास्त्रयः।
एतावानिन्द्रियग्रामैर्व्याख्यातः पाञ्चभौतिकः ॥ ११ ॥
मूलम्
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च भूमेरेते गुणास्त्रयः।
एतावानिन्द्रियग्रामैर्व्याख्यातः पाञ्चभौतिकः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्ध, नासिका और शरीर—ये तीनों भूमिके गुण हैं। इस प्रकार इन्द्रियसमुदायसहित यह शरीर पाञ्चभौतिक बताया गया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायोः स्पर्शो रसोऽद्भ्यश्च ज्योतिषो रूपमुच्यते।
आकाशप्रभवः शब्दो गन्धो भूमिगुणः स्मृतः ॥ १२ ॥
मूलम्
वायोः स्पर्शो रसोऽद्भ्यश्च ज्योतिषो रूपमुच्यते।
आकाशप्रभवः शब्दो गन्धो भूमिगुणः स्मृतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्पर्श वायुका, रस जलका और रूप तेजका गुण बताया जाता है एवं शब्द आकाशका और गन्ध भूमिका गुण माना गया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो बुद्धिः स्वभावश्च त्रय एते स्वयोनिजाः।
न गुणानतिवर्तन्ते गुणेभ्यः परमागताः ॥ १३ ॥
मूलम्
मनो बुद्धिः स्वभावश्च त्रय एते स्वयोनिजाः।
न गुणानतिवर्तन्ते गुणेभ्यः परमागताः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन, बुद्धि और स्वभाव (अहंभाव)-ये तीनों अपने कारणभूत पूर्वसंस्कारोंसे उत्पन्न हुए हैं। ये तीनों पाञ्चभौतिक होते हुए भी भूतोंके अन्य कार्य जो श्रोत्रादि हैं, उनसे श्रेष्ठ हैं तो भी गुणोंका सर्वथा उल्लंघन नहीं कर पाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कूर्म इहाङ्गानि प्रसार्य विनियच्छति।
एवमेवेन्द्रियग्रामं बुद्धिः सृष्ट्वा नियच्छति ॥ १४ ॥
मूलम्
यथा कूर्म इहाङ्गानि प्रसार्य विनियच्छति।
एवमेवेन्द्रियग्रामं बुद्धिः सृष्ट्वा नियच्छति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर फैलाकर फिर उन्हें वहाँसे हटा लेती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदूर्ध्वं पादतलयोरवाङ्मूर्ध्नश्च पश्यति ।
एतस्मिन्नेव कृत्ये तु वर्तते बुद्धिरुत्तमा ॥ १५ ॥
मूलम्
यदूर्ध्वं पादतलयोरवाङ्मूर्ध्नश्च पश्यति ।
एतस्मिन्नेव कृत्ये तु वर्तते बुद्धिरुत्तमा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैरोंसे ऊपर और मस्तकसे नीचे मनुष्य जो कुछ देखता है अर्थात् सम्पूर्ण शरीरको जो अहंभावसे देखना है, इस कार्यमें उत्तम बुद्धि प्रवृत्त होती है। तात्पर्य यह कि शरीरमें जो अहंभावका अनुभव है, वह बुद्धिका ही रूपान्तर है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणान् नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः ॥ १६ ॥
मूलम्
गुणान् नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि ही शब्द आदि गुणोंको श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके पास बार-बार ले जाती है और बुद्धि ही मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंको विषयोंके पास पुनः-पुनः खींच ले जाती है; यदि इनके साथ बुद्धि न रहे तो इन्द्रियोंद्वारा शब्द आदि विषयोंका अनुभव कैसे हो सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते।
सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञं पुनरष्टमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते।
सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञं पुनरष्टमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यके शरीरमें पाँच इन्द्रियाँ हैं। छठा तत्त्व मन है। सातवाँ तत्त्व बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्ञ बताया गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आँख देखनेका काम करती है, (यह उपलक्षण है। इससे सभी इन्द्रियोंके कार्यका लक्ष्य कराया गया है) मन संदेह करता है और बुद्धि उसका निश्चय करती है; किंतु क्षेत्रज्ञ (आत्मा) उन सबका साक्षी कहलाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजस्तमश्च सत्त्वं च यत्र एते स्वयोनिजाः।
समाः सर्वेषु भूतेषु तान् गुणानुपलक्षयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
रजस्तमश्च सत्त्वं च यत्र एते स्वयोनिजाः।
समाः सर्वेषु भूतेषु तान् गुणानुपलक्षयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण—ये तीनों अपने कारणभूत मूल प्रकृतिसे प्रकट हुए हैं; वे तीनों गुण सब प्राणियोंमें समानरूपसे रहते हैं। उनकी पहचान उनके कार्योंद्वारा करे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव संशुद्धं सत्त्वं तदुपधारयेत् ॥ २० ॥
मूलम्
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव संशुद्धं सत्त्वं तदुपधारयेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अपनेमें कुछ प्रसन्नतायुक्त विशुद्ध और शान्त-सा भाव दिखायी दे, तब यह निश्चय करे कि सत्वगुण प्रवृत्त हुआ है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
प्रवृत्तं रज इत्येवं तत्र चाप्युपलक्षयेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
यत् तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
प्रवृत्तं रज इत्येवं तत्र चाप्युपलक्षयेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर अथवा मनमें जब कुछ संतापयुक्त भाव दृष्टिगोचर हो, तब वहाँ यह समझ लेना चाहिये कि रजोगुणकी प्रवृत्ति हो रही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु सम्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधार्यताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यत् तु सम्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधार्यताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मोहयुक्त भाव मनपर छा जाय, किसी भी विषयमें कोई बात स्पष्ट न जान पड़े, जब तर्क भी काम न दे और किसी तरह कोई बात समझमें न आवे, तब समझना चाहिये कि तमोगुण प्रवृत्त हुआ है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः साम्यं स्वस्थात्मचित्तता।
अकस्माद् यदि वा कस्माद् वर्तन्ते सात्त्विका गुणाः ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः साम्यं स्वस्थात्मचित्तता।
अकस्माद् यदि वा कस्माद् वर्तन्ते सात्त्विका गुणाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अतिशय हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्तता—ये सद्गुण अकस्मात् या किसी कारणवश विकसित हों, तब समझना चाहिये कि ये सात्विक गुण हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेत्वहेतुतः ॥ २४ ॥
मूलम्
अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेत्वहेतुतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिमान, असत्यभाषण, लोभ, मोह और असहनशीलता—ये दोष चाहे किसी कारणसे प्रकट हुए हों अथवा बिना कारणके हर एक परिस्थितिमें रजोगुणके ही चिह्न माने गये हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा मोहः प्रमादश्च निद्रा तन्द्रा प्रबोधिता।
कथंचिदभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः ॥ २५ ॥
मूलम्
तथा मोहः प्रमादश्च निद्रा तन्द्रा प्रबोधिता।
कथंचिदभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार मोह, प्रमाद, निद्रा, तन्द्रा और अज्ञान जिस किसी कारणसे हो जायँ, उन्हे तमोगुणका कार्य जानना चाहिये॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४७॥