भागसूचना
षट्चत्वारिशंदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
परमात्माकी श्रेष्ठता, उसके दर्शनका उपाय तथा इस ज्ञानमय उपदेशके पात्रका निर्णय
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत्यास्तु विकारा ये क्षेत्रज्ञस्तैरधिष्ठितः।
न चैनं ते प्रजानन्ति स तु जानाति तानपि॥१॥
मूलम्
प्रकृत्यास्तु विकारा ये क्षेत्रज्ञस्तैरधिष्ठितः।
न चैनं ते प्रजानन्ति स तु जानाति तानपि॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— बेटा! देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृतिके विकार हैं, वे क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के ही आधारपर स्थित रहते हैं। वे जड होनेके कारण क्षेत्रज्ञको नहीं जानते; परंतु क्षेत्रज्ञ उन सबको जानता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चैवं कुरुते कार्यं मनःषष्ठैरिहेन्द्रियैः।
सुदान्तैरिव संयन्ता दृढैः परमवाजिभिः ॥ २ ॥
मूलम्
तैश्चैवं कुरुते कार्यं मनःषष्ठैरिहेन्द्रियैः।
सुदान्तैरिव संयन्ता दृढैः परमवाजिभिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चतुर सारथि अपने वशमें किये हुए बलवान् और उत्तम घोड़ोंसे अच्छी तरह काम लेता है, उसी प्रकार यहाँ क्षेत्रज्ञ भी अपने वशमें किये हुए मनसहित इन्द्रियोंके द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियेभ्यः परे ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥ ३ ॥
मूलम्
इन्द्रियेभ्यः परे ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके विषय बलवान् हैं, विषयोंसे मन बलवान् है, मनसे बुद्धि बलवान् है और बुद्धिसे जीवात्मा बलवान् है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् परतोऽमृतम् ।
अमृतान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः॥४॥
मूलम्
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् परतोऽमृतम् ।
अमृतान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवात्मासे बलवान् है अव्यक्त (मूल प्रकृति) और अव्यक्तसे बलवान् और श्रेष्ठ है अमृतस्वरूप परमात्मा। उस परमात्मासे बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। वही श्रेष्ठताकी चरम सीमा और परम गति है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
एवं सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर उनकी हृदय-गुफामें छिपा हुआ वह परमात्मा इन्द्रियोंद्वारा प्रकाशमें नहीं आता। सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ बुद्धिद्वारा उसका दर्शन करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरात्मनि संलीय मनःषष्ठानि मेधया।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च बहुचिन्त्यमचिन्तयन् ॥ ६ ॥
ध्यानेनोपरमं कृत्वा विद्यासम्पादितं मनः।
अनीश्वरः प्रशान्तात्मा ततोऽर्च्छत्यमृतं पदम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अन्तरात्मनि संलीय मनःषष्ठानि मेधया।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च बहुचिन्त्यमचिन्तयन् ॥ ६ ॥
ध्यानेनोपरमं कृत्वा विद्यासम्पादितं मनः।
अनीश्वरः प्रशान्तात्मा ततोऽर्च्छत्यमृतं पदम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी बुद्धिके द्वारा मनसहित इन्द्रियों और उनके विषयोंको अन्तरात्मामें लीन करके नाना प्रकारके चिन्तनीय विषयका चिन्तन न करता हुआ जब विवेकद्वारा विशुद्ध किये हुए मनको ध्यानके द्वारा सब ओरसे पूर्णतया उपरत करके अपनेको कुछ भी करनेमें असमर्थ बना लेता है अर्थात् सर्वथा कर्तापनके अभिमानसे शून्य हो जाता है, तब उसका मन अविचल परम शान्ति-सम्पन्न हो जाता है और वह अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां वश्यात्मा चलितस्मृतिः।
आत्मनः सम्प्रदानेन मर्त्यो मृत्युमुपाश्नुते ॥ ८ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां वश्यात्मा चलितस्मृतिः।
आत्मनः सम्प्रदानेन मर्त्यो मृत्युमुपाश्नुते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका मन सम्पूर्ण इन्द्रियोंके वशमें होता है, वह मनुष्य विवेक-शक्तिको खो देता है और अपनेको काम आदि शत्रुओंके हाथोंमें सौंपकर मृत्युका कष्ट भोगता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहत्य सर्वसंकल्पान् सत्त्वे चित्तं निवेशयेत्।
सत्त्वे चित्तं समावेश्य ततः कालंजरो भवेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
आहत्य सर्वसंकल्पान् सत्त्वे चित्तं निवेशयेत्।
सत्त्वे चित्तं समावेश्य ततः कालंजरो भवेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सब प्रकारके संकल्पोंका नाश करके चित्तको सूक्ष्म बुद्धिमें लीन करे। इस प्रकार बुद्धिमें चित्तका लय करके वह कालपर विजय पा जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तप्रसादेन यतिर्जहातीह शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्माऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ १० ॥
मूलम्
चित्तप्रसादेन यतिर्जहातीह शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्माऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्तकी पूर्ण शुद्धिसे सम्पन्न हुआ यत्नशील योगी इस जगत्में शुभ और अशुभको त्याग देता है और प्रसन्नचित्त एवं आत्मनिष्ठ होकर अक्षय सुखका उपभोग करता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा स्वप्ने सुखं स्वपेत्।
निवाते वा यथा दीपो दीप्यमानो न कम्पते ॥ ११ ॥
मूलम्
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा स्वप्ने सुखं स्वपेत्।
निवाते वा यथा दीपो दीप्यमानो न कम्पते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य नींदके समय जैसे सुखसे सोता है—सुषुप्तिके सुखका अनुभव करता है, अथवा जैसे वायुरहित स्थानमें जलता हुआ दीपक कम्पित नहीं होता, एकतार जला करता है, उसी प्रकार मन कभी चंचल न हो, यही उसके प्रसादका अर्थात् परम शुद्धिका लक्षण है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पूर्वापरे काले युञ्जन्नात्मानमात्मनि।
लघ्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १२ ॥
मूलम्
एवं पूर्वापरे काले युञ्जन्नात्मानमात्मनि।
लघ्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मिताहारी और शुद्धचित्त होकर रातके पहले और पिछले पहरोंमें उपर्युक्त प्रकारसे आत्माको परमात्माके ध्यानमें लगाता है, वही अपने अन्तःकरणमें परमात्माका दर्शन करता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहस्यं सर्ववेदानामनैतिह्यमनागमम् ।
आत्मप्रत्ययिकं शास्त्रमिदं पुत्रानुशासनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
रहस्यं सर्ववेदानामनैतिह्यमनागमम् ।
आत्मप्रत्ययिकं शास्त्रमिदं पुत्रानुशासनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! मैंने जो यह उपदेश दिया है, यह परमात्माका ज्ञान करानेवाला शास्त्र है। यही सम्पूर्ण वेदोंका रहस्य है। केवल अनुमान या आगमसे इसका ज्ञान नहीं होता, अनुभवसे ही यह ठीक-ठीक समझमें आता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माख्यानेषु सर्वेषु सत्याख्याने च यद् वसु।
दशेदमृक्सहस्राणि निर्मथ्यामृतमुद्धृतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
धर्माख्यानेषु सर्वेषु सत्याख्याने च यद् वसु।
दशेदमृक्सहस्राणि निर्मथ्यामृतमुद्धृतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म और सत्यके जितने भी आख्यान हैं, उन सबका यह सारभूत धन है। ऋग्वेदकी दस हजार ऋचाओंका मन्थन करके यह अमृतमय सारतत्त्व निकाला गया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवनीतं यथा दध्नः काष्ठादग्निर्यथैव च।
तथैव विदुषां ज्ञानं पुत्र हेतोः समुद्धृतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
नवनीतं यथा दध्नः काष्ठादग्निर्यथैव च।
तथैव विदुषां ज्ञानं पुत्र हेतोः समुद्धृतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! मनुष्य जैसे दहीसे मक्खन निकालते हैं और काठसे आग प्रकट करते हैं, उसी प्रकार मैंने भी विद्वानोंके लिये ज्ञानजनक यह मोक्षशास्त्र शास्त्रोंको मथकर निकाला है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नातकानामिदं शास्त्रं वाच्यं पुत्रानुशासनम्।
तदिदं नाप्रशान्ताय नादान्तायातपस्विने ॥ १६ ॥
मूलम्
स्नातकानामिदं शास्त्रं वाच्यं पुत्रानुशासनम्।
तदिदं नाप्रशान्ताय नादान्तायातपस्विने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! व्रतधारी स्नातकोंको ही तुम इस मोक्ष-शास्त्रका उपदेश करना। जिसका मन शान्त नहीं है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तथा जो तपस्वी नहीं है, उसे इस ज्ञानका उपदेश नहीं करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावेदविदुषे वाच्यं तथा नानुगताय च।
नासूयकायानृजवे न चानिर्दिष्टकारिणे ॥ १७ ॥
न तर्कशास्त्रदग्धाय तथैव पिशुनाय च।
मूलम्
नावेदविदुषे वाच्यं तथा नानुगताय च।
नासूयकायानृजवे न चानिर्दिष्टकारिणे ॥ १७ ॥
न तर्कशास्त्रदग्धाय तथैव पिशुनाय च।
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेदका विद्वान् न हो, अनुगत भक्त न हो, दोषदृष्टिसे रहित न हो, सरल स्वभावका न हो और आज्ञाकारी न हो तथा तर्कशास्त्रकी आलोचना करते-करते जिसका हृदय दग्ध—रस-शून्य हो गया हो और जो दूसरोंकी चुगली खाता हो—ऐसे लोगोंको इस ज्ञानका उपदेश देना उचित नहीं है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लाघिने श्लाघनीयाय प्रशान्ताय तपस्विने ॥ १८ ॥
इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च।
रहस्यधर्मं वक्तव्यं नान्यस्मै तु कथंचन ॥ १९ ॥
मूलम्
श्लाघिने श्लाघनीयाय प्रशान्ताय तपस्विने ॥ १८ ॥
इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च।
रहस्यधर्मं वक्तव्यं नान्यस्मै तु कथंचन ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्वज्ञानकी अभिलाषा रखनेवाला, स्पृहणीय गुणोंसे युक्त, शान्तचित्त, तपस्वी एवं अनुगत शिष्य हो अथवा इन्हीं गुणोंसे युक्त प्रिय पुत्र हो, उसीको इस गूढ़ रहस्यमय धर्मका उपदेश देना चाहिये; दूसरे किसीको किसी प्रकार भी नहीं॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यप्यस्य महीं दद्याद् रत्नपूर्णामिमां नरः।
इदमेव ततः श्रेय इति मन्येत तत्त्ववित् ॥ २० ॥
मूलम्
यद्यप्यस्य महीं दद्याद् रत्नपूर्णामिमां नरः।
इदमेव ततः श्रेय इति मन्येत तत्त्ववित् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई मनुष्य रत्नोंसे भरी हुई यह सम्पूर्ण पृथ्वी देने लगे तो भी तत्त्ववेत्ता पुरुष यही समझे कि इस सारे धनकी अपेक्षा यह ज्ञान ही श्रेष्ठ है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो गुह्यतरार्थं तदध्यात्ममतिमानुषम् ।
यत् तन्महर्षिभिर्दृष्टं वेदान्तेषु च गीयते ॥ २१ ॥
तत् तेरहं सम्प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २२ ॥
मूलम्
अतो गुह्यतरार्थं तदध्यात्ममतिमानुषम् ।
यत् तन्महर्षिभिर्दृष्टं वेदान्तेषु च गीयते ॥ २१ ॥
तत् तेरहं सम्प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम मुझसे जो प्रश्न कर रहे हो, उसके अनुसार मैं इससे भी गूढ़तर अर्थवाले अलौकिक अध्यात्मज्ञानका उपदेश करूँगा, जिसे महर्षियोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है और जिसका वेदान्तशास्त्र—उपनिषदोंमें गान किया गया है॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च ते मनसि वर्तते परं
यत्र चास्ति तव संशयः क्वचित्।
श्रूयतामयमहं तवाग्रतः
पुत्र किं हि कथयामि ते पुनः ॥ २३ ॥
मूलम्
यच्च ते मनसि वर्तते परं
यत्र चास्ति तव संशयः क्वचित्।
श्रूयतामयमहं तवाग्रतः
पुत्र किं हि कथयामि ते पुनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र! तुम्हारे मनमें जो वस्तु सर्वश्रेष्ठ जान पड़ती हो तथा जिसके विषयमें तुम्हें कहीं संशय हो रहा हो, उसे पूछो और उसके उत्तरमें मैं जो कुछ तुम्हारे सामने कहूँ, उसे सुनो! बोलो, मैं फिर तुम्हें किस विषयका उपदेश करूँ॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ २४६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४६॥