भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संन्यासीके आचरण और ज्ञानवान् संन्यासीकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमानस्तथैवात्र वानप्रस्थाश्रमे यथा ।
योक्तव्योऽऽत्मा कथं शक्त्या वेद्यं वै काङ्क्षता परम् ॥ १ ॥
मूलम्
वर्तमानस्तथैवात्र वानप्रस्थाश्रमे यथा ।
योक्तव्योऽऽत्मा कथं शक्त्या वेद्यं वै काङ्क्षता परम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीने पूछा— पिताजी! ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमोंमें जैसे शास्त्रोक्त नियमके अनुसार चलना आवश्यक है, उसी प्रकार इस वानप्रस्थ आश्रममें भी शास्त्रोक्त नियमका पालन करते हुए चलना चाहिये। यह सब तो मैंने सुन लिया। अब मैं यह जानना चाहता हूँ, जो जानने योग्य परब्रह्म परमात्माको पाना चाहता हो, उसे अपनी शक्तिके अनुसार उस परमात्माका चिन्तन कैसे करना चाहिये?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य संस्कारमेताभ्यामाश्रमाभ्यां ततः परम्।
यत्कार्यं परमार्थं तु तदिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥
मूलम्
प्राप्य संस्कारमेताभ्यामाश्रमाभ्यां ततः परम्।
यत्कार्यं परमार्थं तु तदिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— बेटा! ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रमके धर्मोंद्वारा चित्तका संस्कार (शोधन) करनेके अनन्तर मुक्तिके लिये जो वास्तविक कर्तव्य है, उसे बताता हूँ, तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कषायं पाचयित्वाऽऽशु श्रेणिस्थानेषु च त्रिषु।
प्रव्रजेच्च परं स्थानं पारिव्राज्यमनुत्तमम् ॥ ३ ॥
मूलम्
कषायं पाचयित्वाऽऽशु श्रेणिस्थानेषु च त्रिषु।
प्रव्रजेच्च परं स्थानं पारिव्राज्यमनुत्तमम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंक्तिक्रमसे स्थित पूर्वोक्त तीन आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थमें चित्तके राग-द्वेष आदि दोषोंको पकाकर—उन्हें नष्ट करके शीघ्र ही सर्वोत्तम चतुर्थ आश्रम संन्यासको ग्रहण कर ले॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् भवानेवमभ्यस्थ वर्ततां श्रूयतां तथा।
एक एव चरेद् धर्मं सिद्ध्यर्थमसहायवान् ॥ ४ ॥
मूलम्
तत् भवानेवमभ्यस्थ वर्ततां श्रूयतां तथा।
एक एव चरेद् धर्मं सिद्ध्यर्थमसहायवान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम इस संन्यास-धर्मके नियमोंको सुनो और उन्हें अभ्यासमें लाकर उसीके अनुसार बर्ताव करो। संन्यासीको चाहिये कि वह सिद्धि प्राप्त करनेके लिये किसीको साथ न लेकर अकेला ही संन्यास-धर्मका पालन करे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकश्चरति यः पश्यन् न जहाति न हीयते।
अनग्निरनिकेतश्च ग्राममन्नार्थमाश्रयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
एकश्चरति यः पश्यन् न जहाति न हीयते।
अनग्निरनिकेतश्च ग्राममन्नार्थमाश्रयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करके एकाकी विचरता रहता है, वह सर्वव्यापी होनेके कारण न तो स्वयं किसीका त्याग करता है और न दूसरे ही उसका त्याग करते हैं। संन्यासी कभी न तो अग्निकी स्थापना करे और न घर या मठ ही बनाकर रहे; केवल भिक्षा लेनेके लिये ही गाँवमें जाय॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वस्तनविधाता स्यान्मुनिर्भावसमाहितः ।
लघ्वाशी नियताहारः सकृदन्ननिषेविता ॥ ६ ॥
मूलम्
अश्वस्तनविधाता स्यान्मुनिर्भावसमाहितः ।
लघ्वाशी नियताहारः सकृदन्ननिषेविता ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दूसरे दिनके लिये अन्नका संग्रह न करे। चित्त-वृत्तियोंको एकाग्र करके मौनभावसे रहे। हलका और नियमानुकूल भोजन करे तथा दिन-रातमें केवल एक ही बार अन्न ग्रहण करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपालं वृक्षमूलानि कुचैलमसहायता ।
उपेक्षा सर्वभूतानामेतावद् भिक्षुलक्षणम् ॥ ७ ॥
मूलम्
कपालं वृक्षमूलानि कुचैलमसहायता ।
उपेक्षा सर्वभूतानामेतावद् भिक्षुलक्षणम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षापात्र एवं कमण्डलु रखे। वृक्षकी जड़में सोये या निवास करे। जो देखनेमें सुन्दर न हो, ऐसा वस्त्र धारण करे। किसीको साथ न रखे और सब प्राणियोंकी उपेक्षा कर दे। ये सब संन्यासीके लक्षण हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् वाचः प्राविशन्ति कूपे त्रस्ता द्विपा इव।
न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
यस्मिन् वाचः प्राविशन्ति कूपे त्रस्ता द्विपा इव।
न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे डरे हुए हाथी भागकर किसी जलाशयमें प्रवेश कर जाते हैं, फिर सहसा निकलकर अपने पूर्व स्थानको नहीं लौटते उसी प्रकार जिस पुरुषमें दूसरोंके कहे हुए निन्दात्मक या प्रशंसात्मक वचन समा जाते हैं, परंतु प्रत्युत्तरके रूपमें वे वापस पुनः नहीं लौटते अर्थात् जो किसीकी की हुई निन्दा या स्तुतिका कोई उत्तर नहीं देता, वही संन्यास-आश्रममें निवास कर सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव पश्येन्न शृणुयादवाच्यं जातु कस्यचित्।
ब्राह्मणानां विशेषेण नैव ब्रूयात् कथंचन ॥ ९ ॥
मूलम्
नैव पश्येन्न शृणुयादवाच्यं जातु कस्यचित्।
ब्राह्मणानां विशेषेण नैव ब्रूयात् कथंचन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी किसीकी निन्दा करनेवाले पुरुषकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं, कभी किसीका निन्दात्मक वचन सुने नहीं तथा विशेषतः ब्राह्मणोंके प्रति किसी प्रकार न कहने योग्य बात न कहे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् ब्राह्मणस्य कुशलं तदेव सततं वदेत्।
तूष्णीमासीत निन्दायां कुर्वन् भैषज्यमात्मनः ॥ १० ॥
मूलम्
यद् ब्राह्मणस्य कुशलं तदेव सततं वदेत्।
तूष्णीमासीत निन्दायां कुर्वन् भैषज्यमात्मनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे ब्राह्मणोंका हित हो, वैसा ही वचन सदा बोले। अपनी निन्दा सुनकर भी चुप रह जाय—इस मौनावलम्बनको भवरोगसे छूटनेकी दवा समझकर इसका सेवन करता रहे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन पूर्णमिवाकाशं भवत्येकेन सर्वदा।
शून्यं येन जनाकीर्णं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ११ ॥
मूलम्
येन पूर्णमिवाकाशं भवत्येकेन सर्वदा।
शून्यं येन जनाकीर्णं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा अपने सर्वव्यापी स्वरूपसे स्थित होनेके कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाशमें परिपूर्ण-सा हो रहा है तथा जो असंग होनेके कारण लोगोंसे भरे हुए स्थानको भी सूना समझता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः।
यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥१२॥
मूलम्
येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः।
यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जिस किसी भी (वस्त्र-वल्कल आदि) वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता है, समयपर जो भी रूखा-सूखा मिल जाय, उसीसे भूख मिटा लेता है और जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्रह्मज्ञानी समझते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहेरिव गणाद् भीतः सौहित्यान्नरकादिव।
कुणपादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ १३ ॥
मूलम्
अहेरिव गणाद् भीतः सौहित्यान्नरकादिव।
कुणपादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जनसमुदायको सर्प-सा समझकर उसके निकट जानेसे डरता है, स्वादिष्ट भोजनजनित तृप्तिको नरक-सा मानकर उससे दूर रहता है और स्त्रियोंको मुर्दोंके समान समझकर उनकी ओरसे विरक्त होता है, उसे देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न क्रुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः।
सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ १४ ॥
मूलम्
न क्रुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः।
सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्मान प्राप्त होनेपर हर्षित, अपमानित होनेपर कुपित नहीं होता तथा जिसने सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय दान कर दिया है, उसे ही देवता लोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्।
कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्।
कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी न तो जीवनका अभिनन्दन करे और न मृत्युका ही। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार उसे भी कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनभ्याहतचित्तः स्यादनभ्याहतवाग् भवेत् ।
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो निरमित्रस्य किं भयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अनभ्याहतचित्तः स्यादनभ्याहतवाग् भवेत् ।
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो निरमित्रस्य किं भयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी अपने चित्तको राग-द्वेष आदि दोषोंसे दूषित न होने दे। अपनी वाणीको निन्दा आदि दोषोंसे बचावे और सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर सर्वथा शत्रुहीन हो जाय। जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो उसे किसीसे क्या भय हो सकता है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं सर्वभूतेभ्यो भूतानामभयं ततः।
तस्य मोहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ १७ ॥
मूलम्
अभयं सर्वभूतेभ्यो भूतानामभयं ततः।
तस्य मोहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय प्राप्त है तथा जिसकी ओरसे किसी भी प्राणीको कोई भय नहीं है, उस मोहमुक्त पुरुषको किसीसे भी भय नहीं होता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्।
सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे ॥ १८ ॥
एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते ।
अमृतः स नित्यं वसति यो हिंसां न प्रपद्यते॥१९॥
मूलम्
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्।
सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे ॥ १८ ॥
एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते ।
अमृतः स नित्यं वसति यो हिंसां न प्रपद्यते॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पैरोंद्वारा चलनेवाले अन्य प्राणियोंके सम्पूर्ण पदचिह्न हाथीके पदचिह्नमें समा जाते हैं, उसी प्रकार सारा धर्म और अर्थ अहिंसाके अन्तर्भूत है। जो किसीकी हिंसा नहीं करता, वह सदा अमृत (जन्म और मृत्युके बन्धनसे मुक्त) होकर निवास करता है॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसकः समः सत्यो धृतिमान् नियतेन्द्रियः।
शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ २० ॥
मूलम्
अहिंसकः समः सत्यो धृतिमान् नियतेन्द्रियः।
शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हिंसा न करनेवाला, समदर्शी, सत्यवादी, धैर्यवान्, जितेन्द्रिय और सम्पूर्ण प्राणियोंको शरण देनेवाला है, वह अत्यन्त उत्तम गति पाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रज्ञानतृप्तस्य निर्भयस्य निराशिषः।
न मृत्युरतिगो भावः स मृत्युमधिगच्छति ॥ २१ ॥
मूलम्
एवं प्रज्ञानतृप्तस्य निर्भयस्य निराशिषः।
न मृत्युरतिगो भावः स मृत्युमधिगच्छति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो ज्ञानानन्दसे तृप्त होकर भय और कामनाओंसे रहित हो गया है, उसपर मृत्युका जोर नहीं चलता। वह स्वयं ही मृत्युको लाँघ जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत् स्थितम्।
अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २२ ॥
मूलम्
विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत् स्थितम्।
अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारकी आसक्तियोंसे छूटकर मुनिवृत्तिसे रहता है, आकाशकी भाँति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तुको अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्तभावसे रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं यस्य धर्मार्थं धर्मो हर्यर्थमेव च।
अहोरात्राश्च पुण्यार्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २३ ॥
मूलम्
जीवितं यस्य धर्मार्थं धर्मो हर्यर्थमेव च।
अहोरात्राश्च पुण्यार्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका जीवन धर्मके लिये और धर्म भगवान् श्रीहरिके लिये होता है, जिसके दिन और रात धर्म-पालनमें ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् ।
निर्मुक्तं बन्धनैः सर्वैस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २४ ॥
मूलम्
निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् ।
निर्मुक्तं बन्धनैः सर्वैस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कामनाओंसे रहित तथा सब प्रकारके आरम्भोंसे रहित है, नमस्कार और स्तुतिसे दूर रहता तथा सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते
सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ते।
तेषां भयोत्पादनजातखेदः
कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः ॥ २५ ॥
मूलम्
सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते
सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ते।
तेषां भयोत्पादनजातखेदः
कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण प्राणी सुखमें प्रसन्न होते और दुःखसे बहुत डरते हैं; अतः प्राणियोंपर भय आता देखकर जिसे खेद होता है, उस श्रद्धालु पुरुषको भयदायक कर्म नहीं करना चाहिये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानं हि भूताभयदक्षिणायाः
सर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह ।
तीक्ष्णां तनुं यः प्रथमं जहाति
सोऽऽनन्त्यमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः ॥ २६ ॥
मूलम्
दानं हि भूताभयदक्षिणायाः
सर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह ।
तीक्ष्णां तनुं यः प्रथमं जहाति
सोऽऽनन्त्यमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में जीवोंको अभयकी दक्षिणा देना सब दानोंसे बढ़कर है। जो पहलेसे ही हिंसाका त्याग कर देता है, वह सब प्राणियोंसे निर्भय होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तान आस्ये न हविर्जुहोति
लोकस्य नाभिर्जगतः प्रतिष्ठा ।
तस्याङ्गमङ्गानि कृताकृतं च
वैश्वानरः सर्वमिदं प्रपेदे ॥ २७ ॥
मूलम्
उत्तान आस्ये न हविर्जुहोति
लोकस्य नाभिर्जगतः प्रतिष्ठा ।
तस्याङ्गमङ्गानि कृताकृतं च
वैश्वानरः सर्वमिदं प्रपेदे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो संन्यासी खोले हुए मुखमें ‘प्राणाय स्वाहा’ इत्यादि मन्त्रोंसे प्राणोंके लिये अन्नकी आहुति नहीं देता, अपितु प्राणों (इन्द्रिय-मन आदि) को ही आत्मामें होम देता—लीन करता है, उसका मस्तक आदि सारा अंगसमुदाय तथा किया हुआ और नहीं किया हुआ कर्मसमूह अग्निका ही अवयव हो जाता है अर्थात् वह उस अग्निका स्वरूप हो जाता है, जो सृष्टिके आरम्भसे ही प्राणियोंके नाभिस्थान—उदरमें जठरानलरूपमें विराजमान है तथा सम्पूर्ण जगत्का आश्रय है। उस वैश्वानर (अग्नि)-ने इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रादेशमात्रे हृदि निःसृतं यत्
तस्मिन् प्राणानात्मयाजी जुहोति ।
तस्याग्निहोत्रं हुतमात्मसंस्थं
सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रादेशमात्रे हृदि निःसृतं यत्
तस्मिन् प्राणानात्मयाजी जुहोति ।
तस्याग्निहोत्रं हुतमात्मसंस्थं
सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मयज्ञ करनेवाला ज्ञानी पुरुष नाभिसे लेकर हृदयतकका जो प्रादेशमात्र स्थान है, उसमें प्रकट हुई जो चैतन्यज्योति है, उसीमें समस्त प्राणोंकी—इन्द्रिय, मन आदिकी आहुति देता है अर्थात् समस्त प्राणादिका आत्मामें लय करता है। उसका प्राणाग्निहोत्र यद्यपि अपने शरीरके भीतर ही होता है तथापि वह सर्वात्मा होनेके कारण उसके द्वारा देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें प्राणाग्निहोत्रकर्म सम्पन्न हो जाता है; अर्थात् उसके प्राणोंकी तृप्तिसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्राण तृप्त हो जाते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवं त्रिधातुं त्रिवृतं सुपर्णं
ये विद्युरग्र्यां परमात्मतां च।
ते सर्वलोकेषु महीयमाना
देवाः समर्त्याः सुकृतं वदन्ति ॥ २९ ॥
मूलम्
देवं त्रिधातुं त्रिवृतं सुपर्णं
ये विद्युरग्र्यां परमात्मतां च।
ते सर्वलोकेषु महीयमाना
देवाः समर्त्याः सुकृतं वदन्ति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण जगत्में अपने चिन्मयस्वरूपसे प्रकाशित होता है, तीन धातु (वर्ण-अकार, उकार, मकार) अर्थात् प्रणव जिसका वाचक है, जो सत्त्व आदि तीनों गुणोंमें—त्रिगुणमयी मायामें उसके नियन्तारूपसे विद्यमान है तथा जिसके जगत्-सम्बन्धी व्यापार वृक्षके सुन्दर पत्तोंके समान विस्तारको प्राप्त हुए हैं, उस अन्तर्यामी पुरुषको तथा उसकी उत्तम परब्रह्मस्वरूपताको जो जानते हैं, वे सम्पूर्ण लोकोंमें सम्मानित होते हैं और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण देवता उनके शुभकर्मकी प्रशंसा करते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदांश्च वेद्यं तु विधिं च कृत्स्न-
मथो निरुक्तं परमार्थतां च।
सर्वं शरीरात्मनि यः प्रवेद
तस्यैव देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् ॥ ३० ॥
मूलम्
वेदांश्च वेद्यं तु विधिं च कृत्स्न-
मथो निरुक्तं परमार्थतां च।
सर्वं शरीरात्मनि यः प्रवेद
तस्यैव देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण वेदशास्त्र, ज्ञेय वस्तु (आकाश आदि भूत और भौतिक जगत्), समस्त विधि (कर्मकाण्ड), निरुक्त (शब्दप्रमाणगम्य परलोक आदि) और परमार्थता (आत्माकी सत्यस्वरूपता)—यह सब कुछ शरीरके भीतर विद्यमान आत्मामें ही प्रतिष्ठित है। ऐसा जो जानता है, उस सर्वात्मा ज्ञानी पुरुषकी सेवाके लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमावसक्तं दिवि चाप्रमेयं
हिरण्मयं योऽण्डजमण्डमध्ये ।
पतत्त्रिणं पक्षिणमन्तरिक्षे
यो वेद भोग्यात्मनि रश्मिदीप्तः ॥ ३१ ॥
मूलम्
भूमावसक्तं दिवि चाप्रमेयं
हिरण्मयं योऽण्डजमण्डमध्ये ।
पतत्त्रिणं पक्षिणमन्तरिक्षे
यो वेद भोग्यात्मनि रश्मिदीप्तः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पृथ्वीपर रहकर भी उसमें आसक्त नहीं है, अनन्त आकाशमें अप्रमेयभावसे स्थित है, जो हिरण्मय (चिन्मय ज्योतिस्वरूप), अण्डज—ब्रह्माण्डके भीतर प्रादुर्भूत और अण्ड-पिण्डात्मक शरीरके मध्यभागमें स्थित हृदय-कमलके आसनपर, भोग्यात्मा (शरीर) के अन्तर्गत हृदयाकाशमें जीवरूपसे विराजमान है; जिसमें अनेक अंगदेवता छोटे-छोटे पंखोंके समान शोभा पाते हैं तथा जो मोद और प्रमोद नामक दो प्रमुख पंखोंसे शोभायमान है; उस सुवर्णमय पक्षीरूप जीवात्मा एवं ब्रह्मको जो जानता है, वह ज्ञानकी तेजोमयी किरणोंसे प्रकाशित होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवर्तमानमजरं विवर्तनं
षण्णाभिकं द्वादशारं सुपर्व ।
यस्येदमास्ये परियाति विश्वं
तत् कालचक्रं निहितं गुहायाम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
आवर्तमानमजरं विवर्तनं
षण्णाभिकं द्वादशारं सुपर्व ।
यस्येदमास्ये परियाति विश्वं
तत् कालचक्रं निहितं गुहायाम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निरन्तर घूमता रहता है, कभी जीर्ण या क्षीण नहीं होता, जो लोगोंकी आयुको क्षीण करता है, छः ऋतुएँ जिसकी नाभि हैं, बारह महीने जिसके अरे हैं, दर्शपौर्णमास आदि जिसके सुन्दर पर्व हैं; यह सम्पूर्ण विश्व जिसके मुँहमें भक्ष्य पदार्थके समान जाता है, वह कालचक्र बुद्धिरूपी गुहामें स्थित है (उसे जो जानता है, देवगण उसके शुभकर्मकी प्रशंसा करते हैं)॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सम्प्रसादो जगतः शरीरं
सर्वान् स लोकानधिगच्छतीह ।
तस्मिन् हितं तर्पयतीह देवां-
स्ते वै तृप्तास्तर्पयन्त्यास्यमस्य ॥ ३३ ॥
मूलम्
यः सम्प्रसादो जगतः शरीरं
सर्वान् स लोकानधिगच्छतीह ।
तस्मिन् हितं तर्पयतीह देवां-
स्ते वै तृप्तास्तर्पयन्त्यास्यमस्य ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनको प्रसन्नता प्रदान करता है, इस जगत्का शरीर है अर्थात् सम्पूर्ण जगत् जिसके विराट् शरीरमें विराजित है, वह परमात्मा इस जगत्में सब लोकोंको घेरे हुए स्थित है। उस परमात्मामें ध्यानद्वारा स्थापित किया हुआ मन, इस देहमें स्थित देवताओं—प्राणोंको तृप्त करता है और वे तृप्त हुए प्राण उस ज्ञानीके मुखको ज्ञानामृतसे तृप्त करते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजोमयो नित्यमयः पुराणो
लोकाननन्तानभयानुपैति ।
भूतानि यस्मान्न त्रसन्ते कदाचित्
स भूतानां न त्रसते कदाचित् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तेजोमयो नित्यमयः पुराणो
लोकाननन्तानभयानुपैति ।
भूतानि यस्मान्न त्रसन्ते कदाचित्
स भूतानां न त्रसते कदाचित् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्रह्मज्ञानमय तेजसे सम्पन्न और पुरातन नित्य-ब्रह्मपरायण है, वह भिक्षु अनन्त एवं निर्भय लोकोंको प्राप्त होता है। जिससे जगत्के प्राणी कभी भयभीत नहीं होते, वह भी संसारके प्राणियोंसे कभी भय नहीं पाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगर्हणीयो न च गर्हतेऽन्यान्
स वै विप्रः परमात्मानमीक्षेत्।
विनीतमोहो व्यपनीतकल्मषो
न चेह नामुत्र च सोऽन्नमृच्छति ॥ ३५ ॥
मूलम्
अगर्हणीयो न च गर्हतेऽन्यान्
स वै विप्रः परमात्मानमीक्षेत्।
विनीतमोहो व्यपनीतकल्मषो
न चेह नामुत्र च सोऽन्नमृच्छति ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो न तो स्वयं निन्दनीय है और न दूसरोंकी निन्दा करता है, वही ब्राह्मण परमात्माका दर्शन कर सकता है। जिसके मोह और पाप दूर हो गये हैं, वह इस लोक ओर परलोकके भोगोंमें आसक्त नहीं होता॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरोषमोहः समलोष्टकाञ्चनः
प्रहीणकोशो गतसंधिविग्रहः ।
अपेतनिन्दास्तुतिरप्रियाप्रिय-
श्चरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अरोषमोहः समलोष्टकाञ्चनः
प्रहीणकोशो गतसंधिविग्रहः ।
अपेतनिन्दास्तुतिरप्रियाप्रिय-
श्चरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे संन्यासीको रोष और मोह नहीं छू सकते। वह मिट्टीके ढेले और सोनेको समान समझता है। पाँच कोशोंका अभिमान त्याग देता है और संधि-विग्रह तथा निन्दा-स्तुतिसे रहित हो जाता है। उसकी दृष्टिमें न कोई प्रिय होता है न अप्रिय। वह संन्यासी उदासीनकी भाँति सर्वत्र विचरता रहता है॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४५॥