भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रमके धर्म और महिमाका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोक्ता गृहस्थवृत्तिस्ते विहिता या मनीषिभिः।
तदनन्तरमुक्तं यत् तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ १ ॥
(व्यासेन कथितं पूर्वं सुताय सुमहात्मने।)
मूलम्
प्रोक्ता गृहस्थवृत्तिस्ते विहिता या मनीषिभिः।
तदनन्तरमुक्तं यत् तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ १ ॥
(व्यासेन कथितं पूर्वं सुताय सुमहात्मने।)
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— बेटा युधिष्ठिर! मनीषी पुरुषोंद्वारा जिसका विधान एवं आचरण किया गया है, उस गृहस्थ वृत्तिका मैंने तुमसे वर्णन किया। तदनन्तर व्यासजीने अपने महात्मा पुत्र शुकदेवसे जो कुछ कहा था, वह सब बताता हूँ, सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमशस्त्ववधूयैनां तृतीयां वृत्तिमुत्तमाम् ।
संयोगव्रतखिन्नानां वानप्रस्थाश्रमौकसाम् ॥ २ ॥
श्रूयतां पुत्र भद्रं ते सर्वलोकाश्रमात्मनाम्।
प्रेक्षापूर्वं प्रवृत्तानां पुण्यदेशनिवासिनाम् ॥ ३ ॥
मूलम्
क्रमशस्त्ववधूयैनां तृतीयां वृत्तिमुत्तमाम् ।
संयोगव्रतखिन्नानां वानप्रस्थाश्रमौकसाम् ॥ २ ॥
श्रूयतां पुत्र भद्रं ते सर्वलोकाश्रमात्मनाम्।
प्रेक्षापूर्वं प्रवृत्तानां पुण्यदेशनिवासिनाम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तुम्हारा कल्याण हो। गृहस्थकी इस उत्तम तृतीय वृत्तिकी भी उपेक्षा करके सहधर्मिणीके संयोगसे किये जानेवाले व्रत-नियमोंद्वारा जो खिन्न हो चुके हैं तथा वानप्रस्थ-आश्रमको जिन्होंने अपना आश्रय बना लिया है, सम्पूर्ण लोक और आश्रम जिनके अपने ही स्वरूप हैं, जो विचारपूर्वक व्रत और नियमोंमें प्रवृत्त हैं तथा पवित्र स्थानोंमें निवास करते हैं, ऐसे वनवासी मुनियोंका जो धर्म है, उसे बताता हूँ, सुनो॥२-३॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थस्तु यदा पश्येद् वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं वनमेव तदा श्रयेत् ॥ ४ ॥
तृतीयमायुषो भागं वानप्रस्थाश्रमे वसेत्।
तानेवाग्नीन् परिचरेद् यजमानो दिवौकसः ॥ ५ ॥
मूलम्
गृहस्थस्तु यदा पश्येद् वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं वनमेव तदा श्रयेत् ॥ ४ ॥
तृतीयमायुषो भागं वानप्रस्थाश्रमे वसेत्।
तानेवाग्नीन् परिचरेद् यजमानो दिवौकसः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— बेटा! गृहस्थ पुरुष जब अपने सिरके बाल सफेद दिखायी दें, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जायँ और पुत्रको भी पुत्रकी प्राप्ति हो जाय तो अपनी आयुका तीसरा भाग व्यतीत करनेके लिये वनमें जाय और वानप्रस्थ-आश्रममें रहे। वह वानप्रस्थ-आश्रममें भी उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, जिनकी गृहस्थाश्रममें उपासना करता था। साथ ही वह प्रतिदिन देवाराधन भी करता रहे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियतो नियताहारः षष्ठभुक्तोऽप्रमत्तवान् ।
तदग्निहोत्रं ता गावो यज्ञाङ्गानि च सर्वशः ॥ ६ ॥
मूलम्
नियतो नियताहारः षष्ठभुक्तोऽप्रमत्तवान् ।
तदग्निहोत्रं ता गावो यज्ञाङ्गानि च सर्वशः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थी पुरुष नियमके साथ रहे, नियमानुकूल भोजन करे। दिनके छठे भाग अर्थात् तीसरे पहरमें एक बार अन्न ग्रहण करे और प्रमादसे बचा रहे। गृहस्थाश्रमकी ही भाँति अग्निहोत्र, वैसी ही गो-सेवा तथा उसी प्रकार यज्ञके सम्पूर्ण अंगोंका सम्पादन करना वानप्रस्थका धर्म है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अफालकृष्टं व्रीहियवं नीवारं विघसानि च।
हवींषि सम्प्रयच्छेत मखेष्वत्रापि पञ्चसु ॥ ७ ॥
मूलम्
अफालकृष्टं व्रीहियवं नीवारं विघसानि च।
हवींषि सम्प्रयच्छेत मखेष्वत्रापि पञ्चसु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनवासी मुनि बिना जोती हुई पृथ्वीसे पैदा हुआ धान, जौ, नीवार तथा विघस (अतिथियोंको देनेसे बचे हुए) अन्नसे जीवन-निर्वाह करे। वानप्रस्थमें भी पंचमहायज्ञोंमें हविष्य वितरण करे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानप्रस्थाश्रमेऽप्येताश्चतस्रो वृत्तयः स्मृताः ।
सद्यःप्रक्षालकाः केचित् केचिन्मासिकसंचयाः ॥ ८ ॥
मूलम्
वानप्रस्थाश्रमेऽप्येताश्चतस्रो वृत्तयः स्मृताः ।
सद्यःप्रक्षालकाः केचित् केचिन्मासिकसंचयाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थ-आश्रममें भी चार प्रकारकी वृत्तियाँ मानी गयी हैं। कोई उतने ही अन्नका संग्रह करते हैं कि तुरंत बना-खाकर बर्तनको धो-माँजकर साफ कर लें अर्थात् वे दूसरे दिनके लिये कुछ नहीं बचाते। कुछ दूसरे लोग वे हैं, जो एक महीनेके लिये अनाजका संग्रह करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्षिकं संचयं केचित् केचिद् द्वादशवार्षिकम्।
कुर्वन्त्यतिथिपूजार्थं यज्ञतन्त्रार्थमेव वा ॥ ९ ॥
मूलम्
वार्षिकं संचयं केचित् केचिद् द्वादशवार्षिकम्।
कुर्वन्त्यतिथिपूजार्थं यज्ञतन्त्रार्थमेव वा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई वर्षभरके लिये और कोई बारह वर्षोंके लिये अन्नका संग्रह करते हैं। उनका यह संग्रह अतिथि-सेवा तथा यज्ञकर्मके लिये होता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्रावकाशा वर्षासु हेमन्ते जलसंश्रयाः।
ग्रीष्मे च पञ्च तपसः शश्वच्च मितभोजनाः ॥ १० ॥
मूलम्
अभ्रावकाशा वर्षासु हेमन्ते जलसंश्रयाः।
ग्रीष्मे च पञ्च तपसः शश्वच्च मितभोजनाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वर्षाके समय खुले आकाशके नीचे और सर्दीमें पानीके भीतर खड़े रहते हैं। जब गर्मी आती है, तब पंचाग्निसे शरीरको तपाते हैं और सदा स्वल्प भोजन करनेवाले होते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमौ विपरिवर्तन्ते तिष्ठन्ति प्रपदैरपि।
स्थानासनैर्वर्तयन्ति सवनेष्वभिषिञ्चते ॥ ११ ॥
मूलम्
भूमौ विपरिवर्तन्ते तिष्ठन्ति प्रपदैरपि।
स्थानासनैर्वर्तयन्ति सवनेष्वभिषिञ्चते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थी महात्मा जमीनपर लोट-पोट करते, पंजोंके बल खड़े होते, एक स्थानपर आसन लगाकर बैठते तथा तीनों काल स्नान और संध्या करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दन्तोलूखलिकाः केचिदश्मकुट्टास्तथा परे ।
शुक्लपक्षे पिबन्त्येके यवागूं क्वथितां सकृत् ॥ १२ ॥
कृष्णपक्षे पिबन्त्यन्ये भुञ्जते वा यथागतम्।
मूलम्
दन्तोलूखलिकाः केचिदश्मकुट्टास्तथा परे ।
शुक्लपक्षे पिबन्त्येके यवागूं क्वथितां सकृत् ॥ १२ ॥
कृष्णपक्षे पिबन्त्यन्ये भुञ्जते वा यथागतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कोई दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेते हैं, अर्थात् कच्चे अन्नको चबा-चबाकर खाते हैं। दूसरे लोग पत्थरपर कूटकर भोजन करते हैं और कोई-कोई शुक्लपक्ष या कृष्णपक्षमें एक बार जौका औटाया हुआ माँड़ पीकर रह जाते हैं अथवा समयानुसार जो कुछ मिल जाय वही खाकर जीवन-निर्वाह करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलैरेके फलैरेके पुष्पैरेके दृढव्रताः ॥ १३ ॥
वर्तयन्ति यथान्यायं वैखानसगतिं श्रिताः।
मूलम्
मूलैरेके फलैरेके पुष्पैरेके दृढव्रताः ॥ १३ ॥
वर्तयन्ति यथान्यायं वैखानसगतिं श्रिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
वानप्रस्थ-धर्मका आश्रय लेकर कोई कन्द-मूलसे और कोई-कोई दृढ़ व्रतका पालन करते हुए फूलोंसे ही धर्मानुकूल जीविका चलाते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताश्चान्याश्च विविधा दीक्षास्तेषां मनीषिणाम् ॥ १४ ॥
चतुर्थश्चौपनिषदो धर्मः साधारणः स्मृतः।
वानप्रस्थाद् गृहस्थाच्च ततोऽन्यः सम्प्रवर्तते ॥ १५ ॥
मूलम्
एताश्चान्याश्च विविधा दीक्षास्तेषां मनीषिणाम् ॥ १४ ॥
चतुर्थश्चौपनिषदो धर्मः साधारणः स्मृतः।
वानप्रस्थाद् गृहस्थाच्च ततोऽन्यः सम्प्रवर्तते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन मनीषी पुरुषोंके लिये ये तथा और भी बहुत-से नाना प्रकारके नियम शास्त्रोंमें बताये गये हैं। चौथे संन्यास-आश्रममें विहित जो उपनिषद्-प्रतिपादित शाम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधानरूप धर्म है, वह सभी आश्रमोंके लिये साधारण माना गया है, उसका पालन सभी आश्रमवालोंको करना चाहिये; किंतु चौथे आश्रम संन्यासका जो विशेष धर्म है, वह वानप्रस्थ और गृहस्थसे भिन्न है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नेव युगे तात विप्रैः सर्वार्थदर्शिभिः।
अगस्त्यः सप्त ऋषयो मधुच्छन्दोऽघमर्षणः ॥ १६ ॥
सांकृतिः सुदिवा तण्डिर्यथावासोऽकृतश्रमः ।
अहोवीर्यस्तथा काव्यस्ताण्ड्यो मेधातिथिर्बुधः ॥ १७ ॥
बलवान् कर्णनिर्वाकः शून्यपालः कृतश्रमः।
एनं धर्मं कृतवन्तस्ततः स्वर्गमुपागमन् ॥ १८ ॥
मूलम्
अस्मिन्नेव युगे तात विप्रैः सर्वार्थदर्शिभिः।
अगस्त्यः सप्त ऋषयो मधुच्छन्दोऽघमर्षणः ॥ १६ ॥
सांकृतिः सुदिवा तण्डिर्यथावासोऽकृतश्रमः ।
अहोवीर्यस्तथा काव्यस्ताण्ड्यो मेधातिथिर्बुधः ॥ १७ ॥
बलवान् कर्णनिर्वाकः शून्यपालः कृतश्रमः।
एनं धर्मं कृतवन्तस्ततः स्वर्गमुपागमन् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इस युगमें भी सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने इस वानप्रस्थ-धर्मका पालन एवं प्रसार किया। अगस्त्य, सप्तर्षिगण, मधुच्छन्द, अघमर्षण, सांकृति, सुदिवा, तण्डि, यथावास, अकृतश्रम, अहोवीर्य, काव्य (शुक्राचार्य), ताण्ड्य, मेधातिथि, बुध, शक्तिशाली कर्ण निर्वाक, शून्यपाल और कृतश्रम—इन सबने इस धर्मका पालन किया, जिससे ये सभी स्वर्गलोकको प्राप्त हुए॥१६—१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात प्रत्यक्षधर्माणस्तथा यायावरा गणाः।
ऋषीणामुग्रतपसां धर्मनैपुणदर्शिनाम् ॥ १९ ॥
अन्ये चापरिमेयाश्च ब्राह्मणा वनमाश्रिताः।
वैखानसा वालखिल्याः सैकताश्च तथा परे ॥ २० ॥
मूलम्
तात प्रत्यक्षधर्माणस्तथा यायावरा गणाः।
ऋषीणामुग्रतपसां धर्मनैपुणदर्शिनाम् ॥ १९ ॥
अन्ये चापरिमेयाश्च ब्राह्मणा वनमाश्रिताः।
वैखानसा वालखिल्याः सैकताश्च तथा परे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जिनकी तपस्या उग्र है, जिन्होंने धर्मकी निपुणताको देखा और अनुभव किया है, उन ऋषियोंके यायावर नामक गण भी वानप्रस्थी हैं, जिन्हें धर्मके फलका प्रत्यक्ष अनुभव है। वे तथा और भी असंख्य वनवासी ब्राह्मण, बालखिल्य और सैकत नामवाले दूसरे मुनि भी वैखानस (वानप्रस्थ) धर्मका पालन करनेवाले हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मभिस्ते निरानन्दा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः।
गताः प्रत्यक्षधर्माणस्ते सर्वे वनमाश्रिताः ॥ २१ ॥
अनक्षत्रास्त्वनाधृष्या दृश्यन्ते ज्योतिषां गणाः।
मूलम्
कर्मभिस्ते निरानन्दा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः।
गताः प्रत्यक्षधर्माणस्ते सर्वे वनमाश्रिताः ॥ २१ ॥
अनक्षत्रास्त्वनाधृष्या दृश्यन्ते ज्योतिषां गणाः।
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब ब्राह्मण प्रायः उपवास आदि क्लेशदायक कर्म करनेके कारण लौकिक सुखसे रहित थे। सदा धर्ममें तत्पर रहते और इन्द्रियोंको वशमें रखते थे। उन्हें धर्मके फलका प्रत्यक्ष अनुभव था। वे सब-के-सब वानप्रस्थी थे। इस लोकसे जानेपर आकाशमें वे नक्षत्र भिन्न, दुर्धर्ष ज्योतिर्मय तारोंके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरया च परिद्यूनो व्याधिना च प्रपीडितः ॥ २२ ॥
चतुर्थे चायुषः शेषे वानप्रस्थाश्रमं त्यजेत्।
सद्यस्कारां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
जरया च परिद्यूनो व्याधिना च प्रपीडितः ॥ २२ ॥
चतुर्थे चायुषः शेषे वानप्रस्थाश्रमं त्यजेत्।
सद्यस्कारां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वानप्रस्थकी अवधि पूरी कर लेनेके बाद जब आयुका चौथा भाग शेष रह जाय, वृद्धावस्थासे शरीर दुर्बल हो जाय और रोग सताने लगें तो उस आश्रमका परित्याग कर दे (और संन्यास-आश्रम ग्रहण कर ले)। संन्यासकी दीक्षा लेते समय एक दिनमें पूरा होनेवाला यज्ञ करके अपना सर्वस्व दक्षिणामें दे डाले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मयाजी सोऽऽत्मरतिरात्मक्रीडात्मसंश्रयः ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहान् ॥ २४ ॥
साद्यस्कांश्च यजेद् यज्ञानिष्टीश्चैवेह सर्वदा।
यदैव याजिनां यज्ञादात्मनीज्या प्रवर्तते ॥ २५ ॥
मूलम्
आत्मयाजी सोऽऽत्मरतिरात्मक्रीडात्मसंश्रयः ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहान् ॥ २४ ॥
साद्यस्कांश्च यजेद् यज्ञानिष्टीश्चैवेह सर्वदा।
यदैव याजिनां यज्ञादात्मनीज्या प्रवर्तते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर आत्माका ही यजन, आत्मामें ही रत होकर आत्मामें ही क्रीडा करे। सब प्रकारसे आत्माका ही आश्रय ले। अग्निहोत्रकी अग्नियोंको आत्मामें ही आरोपित करके सम्पूर्ण संग्रह-परिग्रहको त्याग दे और तुरंत सम्पन्न किये जानेवाले ब्रह्मयज्ञ आदि यज्ञों तथा इष्टियोंका सदा ही मानसिक अनुष्ठान करता रहे। ऐसा तबतक करे, जबतक कि याज्ञिकोंके कर्ममय यज्ञसे हटकर आत्मयज्ञका अभ्यास न हो जाय॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रींश्चैवाग्नीन् यजेत् सम्यगात्मन्येवात्ममोक्षणात् ।
प्राणेभ्यो यजुषः पञ्च षट् प्राश्नीयादकुत्सयम् ॥ २६ ॥
मूलम्
त्रींश्चैवाग्नीन् यजेत् सम्यगात्मन्येवात्ममोक्षणात् ।
प्राणेभ्यो यजुषः पञ्च षट् प्राश्नीयादकुत्सयम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मयज्ञका स्वरूप इस प्रकार है, अपने भीतर ही तीनों अग्नियोंकी विधिपूर्वक स्थापना करके देहपात होनेतक प्राणाग्निहोत्रकी1 विधिसे भलीभाँति यजन करता रहे। यजुर्वेदके ‘प्राणाय स्वाहा’ आदि मन्त्रोंका उच्चारण करता हुआ पहले अन्नके पाँच-छः ग्रास ग्रहण करे (फिर आचमनके पश्चात्) शेष अन्नकी निन्दा न करते हुए मौनभावसे भोजन करे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशलोमनखान् वाप्य वानप्रस्थो मुनिस्ततः।
आश्रमादाश्रमं पुण्यं पूतो गच्छति कर्मभिः ॥ २७ ॥
मूलम्
केशलोमनखान् वाप्य वानप्रस्थो मुनिस्ततः।
आश्रमादाश्रमं पुण्यं पूतो गच्छति कर्मभिः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वानप्रस्थ मुनि केश, लोम और नख कटाकर कर्मोंसे पवित्र हो वानप्रस्थ-आश्रमसे पुण्यमय संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद् द्विजः।
लोकास्तेजोमयास्तस्य प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते ॥ २८ ॥
मूलम्
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद् द्विजः।
लोकास्तेजोमयास्तस्य प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदान देकर संन्यासी हो जाता है, वह मरनेके पश्चात् तेजोमय लोकमें जाता है और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुशीलवृत्तो व्यपनीतकल्मषो
न चेह नामुत्र च कर्तुमीहते।
अरोषमोहो गतसंधिविग्रहो
भवेदुदासीनवदात्मविन्नरः ॥ २९ ॥
मूलम्
सुशीलवृत्तो व्यपनीतकल्मषो
न चेह नामुत्र च कर्तुमीहते।
अरोषमोहो गतसंधिविग्रहो
भवेदुदासीनवदात्मविन्नरः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मज्ञानी पुरुष सुशील, सदाचारी और पापरहित होता है। वह इहलोक और परलोकके लिये भी कोई कर्म करना नहीं चाहता। क्रोध, मोह, संधि और विग्रहका त्याग करके वह सब ओरसे उदासीन-सा रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमेषु चैवानुगतेषु न व्यथे
स्वशास्त्रसूत्राहुतिमन्त्रविक्रमः ।
भवेद् यथेष्टागतिरात्मवेदिनि
न संशयो धर्मपरे जितेन्द्रिये ॥ ३० ॥
मूलम्
यमेषु चैवानुगतेषु न व्यथे
स्वशास्त्रसूत्राहुतिमन्त्रविक्रमः ।
भवेद् यथेष्टागतिरात्मवेदिनि
न संशयो धर्मपरे जितेन्द्रिये ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अहिंसा आदि यमों और शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन करनेमें कभी कष्टका अनुभव नहीं करता, संन्यास-आश्रमका विधान करनेवाले शास्त्रके सूत्रभूत वचनोंके अनुसार त्यागमयी अग्निमें अपने सर्वस्वकी आहुति दे देनेके लिये निरन्तर उत्साह दिखाता है, उसे इच्छानुसार गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। ऐसे जितेन्द्रिय एवं धर्मपरायण आत्मज्ञानीकी मुक्तिके विषयमें तनिक भी संदेहके लिये स्थान नहीं है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परं श्रेष्ठमतीव सद्गुणै-
रधिष्ठितं त्रीनधिवृत्तिमुत्तमम् ।
चतुर्थमुक्तं परमाश्रमं शृणु
प्रकीर्त्यमानं परमं परायणम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः परं श्रेष्ठमतीव सद्गुणै-
रधिष्ठितं त्रीनधिवृत्तिमुत्तमम् ।
चतुर्थमुक्तं परमाश्रमं शृणु
प्रकीर्त्यमानं परमं परायणम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वानप्रस्थ-आश्रमसे उत्कृष्ट तथा अपने सद्गुणोंके कारण अति ही श्रेष्ठ है, जो पूर्वोक्त तीनों आश्रमोंसे ऊपर है, जिसमें शम आदि गुणोंका अधिक विकास होता है, जो सबसे श्रेष्ठ और सबकी परम गति है, उस सर्वोत्तम चतुर्थ आश्रमका यद्यपि वर्णन किया गया है, तथापि पुनः विशेषरूपसे उसका प्रतिपादन करता हूँ; तुम ध्यान देकर सुनो॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३१ श्लोक हैं)
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ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा—ये प्राणाग्निहोत्रके पाँच मन्त्र हैं, भोजन आरम्भ करते समय पहले आचमन करके इनमेंसे एक-एक मन्त्रको पढ़कर एक-एक ग्रास अन्न मुँहमें डाले। इस प्रकार पाँच ग्रास पूरे होनेपर पुनः आचमन कर ले। यही प्राणाग्निहोत्र कहलाता है। ↩︎