२४३ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणोंके उपलक्षणसे गार्हस्थ्य-धर्मका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी गृहे वसेत्।
धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनाहृत्य सुव्रतः ॥ १ ॥

मूलम्

द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी गृहे वसेत्।
धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनाहृत्य सुव्रतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— बेटा! गृहस्थ पुरुष अपनी आयुके दूसरे भागतक गृहस्थधर्मका पालन करते हुए घरपर ही रहे। धर्मानुसार स्त्रीसे विवाह करके उसके साथ अग्नि-स्थापना करनेके पश्चात् नित्य अग्निहोत्र आदि करे और उत्तम व्रतका पालन करता रहे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहस्थवृत्तयश्चैव चतस्रः कविभिः स्मृताः।
कुसूलधान्यः प्रथमः कुम्भधान्यस्त्वनन्तरम् ॥ २ ॥
अश्वस्तनोऽथ कापोतीमाश्रितोवृत्तिमाहरेत् ।
तेषां परः परो ज्यायान् धर्मतो धर्मजित्तमः ॥ ३ ॥

मूलम्

गृहस्थवृत्तयश्चैव चतस्रः कविभिः स्मृताः।
कुसूलधान्यः प्रथमः कुम्भधान्यस्त्वनन्तरम् ॥ २ ॥
अश्वस्तनोऽथ कापोतीमाश्रितोवृत्तिमाहरेत् ।
तेषां परः परो ज्यायान् धर्मतो धर्मजित्तमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ ब्राह्मणके लिये विद्वानोंने चार प्रकारकी आजीविका बतायी है—कोठेभर अनाजका संग्रह करके रखना, यह पहली जीविकावृत्ति है। कुंडेभर अन्नका संग्रह करना, यह दूसरी वृत्ति है तथा उतने ही अन्नका संग्रह करना जो दूसरे दिनके लिये शेष न रहे, यह तीसरी वृत्ति है। अथवा ‘कापोतीवृत्ति’ (उञ्छवृत्ति) का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करे, यह चौथी वृत्ति है। इन चारोंमें पहलीकी अपेक्षा दूसरी-दूसरी वृत्ति श्रेष्ठ है। अन्तिम वृत्तिका आश्रय लेनेवाला धर्मकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ है और वही सबसे बढ़कर धर्मविजयी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षट्‌कर्मा वर्तयत्येकस्त्रिभिरन्यः प्रवर्तते ।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रे व्यवस्थितः ॥ ४ ॥

मूलम्

षट्‌कर्मा वर्तयत्येकस्त्रिभिरन्यः प्रवर्तते ।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रे व्यवस्थितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहली श्रेणीके अनुसार जीविका चलानेवाले ब्राह्मणको यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह—ये छः कर्म करने चाहिये। दूसरी श्रेणीवालेको अध्ययन, यजन और दान—इन तीन कर्मोंमें ही प्रवृत्त होना चाहिये। तीसरी श्रेणीवालेको अध्ययन और दान—ये दो ही कर्म करने चाहिये तथा चौथी श्रेणीवालेको केवल ब्रह्मयज्ञ (वेदाध्ययन) करना उचित है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहमेधिव्रतान्यत्र महान्तीह प्रचक्षते ।
नात्मार्थे पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत् पशून् ॥ ५ ॥

मूलम्

गृहमेधिव्रतान्यत्र महान्तीह प्रचक्षते ।
नात्मार्थे पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत् पशून् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थोंके लिये शास्त्रोंमें बहुत-से श्रेष्ठ नियम बताये गये हैं। वह केवल अपने ही भोजनके लिये रसोई न बनावे (अपितु देवता, पितर और अतिथियोंके उद्‌देश्यसे ही बनावे) और पशुहिंसा न करे, क्योंकि यह अनर्थमूलक है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणी वा यदि वाप्राणी संस्कारं यजुषार्हति।
न दिवा प्रस्वपेज्जातु न पूर्वापररात्रिषु ॥ ६ ॥

मूलम्

प्राणी वा यदि वाप्राणी संस्कारं यजुषार्हति।
न दिवा प्रस्वपेज्जातु न पूर्वापररात्रिषु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञमें यजमान एवं हविष्य आदि सबका यजुर्वेदके मन्त्रसे संस्कार होना चाहिये। गृहस्थ पुरुष दिनमें कभी न सोये। रातके पहले और पिछले भागमें भी नींद न ले॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भुञ्जीतान्तरा काले नानृतावाह्वयेत् स्त्रियम्।
नास्यानश्नन् गृहे विप्रो वसेत् कश्चिदपूजितः ॥ ७ ॥

मूलम्

न भुञ्जीतान्तरा काले नानृतावाह्वयेत् स्त्रियम्।
नास्यानश्नन् गृहे विप्रो वसेत् कश्चिदपूजितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबेरे और शाम दो ही समय भोजन करे, बीचमें न खाय। ऋतुकालके सिवा अन्य समयमें स्त्रीको अपनी शय्यापर न बुलावे। उसके घरपर आया हुआ कोई ब्राह्मण अतिथि आदर-सत्कार और भोजन पाये बिना न रह जाय॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथास्यातिथयः पूज्या हव्यकव्यवहाः सदा।
वेदविद्याव्रतस्नाताः श्रोत्रिया वेदपारगाः ॥ ८ ॥
स्वधर्मजीविनो दान्ताः क्रियावन्तस्तपस्विनः ।
तेषां हव्यं च कव्यं चाप्यर्हणार्थं विधीयते ॥ ९ ॥

मूलम्

तथास्यातिथयः पूज्या हव्यकव्यवहाः सदा।
वेदविद्याव्रतस्नाताः श्रोत्रिया वेदपारगाः ॥ ८ ॥
स्वधर्मजीविनो दान्ताः क्रियावन्तस्तपस्विनः ।
तेषां हव्यं च कव्यं चाप्यर्हणार्थं विधीयते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि द्वारपर अतिथिके रूपमें वेदके पारंगत विद्वान्, स्नातक, श्रोत्रिय, हव्य (यज्ञान्न) और कव्य (श्राद्धान्न) भोजन करनेवाले, जितेन्द्रिय, क्रियानिष्ठ, स्वधर्मसे ही जीवन-निर्वाह करनेवाले और तपस्वी ब्राह्मण आ जायँ तो सदा उनकी विधिवत् पूजा करके उन्हें हव्य और कव्य समर्पित करने चाहिये। उनके सत्कारके लिये यह सब करनेका विधान है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नखरैः सम्प्रयातस्य स्वधर्मज्ञापकस्य च।
अपविद्धाग्निहोत्रस्य गुरोर्वालीककारिणः ॥ १० ॥
संविभागोऽत्र भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते।
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ॥ ११ ॥

मूलम्

नखरैः सम्प्रयातस्य स्वधर्मज्ञापकस्य च।
अपविद्धाग्निहोत्रस्य गुरोर्वालीककारिणः ॥ १० ॥
संविभागोऽत्र भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते।
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धार्मिकताका ढोंग दिखानेके लिये अपने नख और बाल बढ़ाकर आया हो, अपने ही मुखसे अपने किये हुए धर्मका विज्ञापन करता हो, अकारण अग्निहोत्रका त्याग कर चुका हो अथवा गुरुके साथ कपट करनेवाला हो, ऐसा मनुष्य भी गृहस्थके घरमें अन्न पानेका अधिकारी है। वहाँ सभी प्राणियोंके लिये अन्न-वितरणकी विधि है। जो अपने हाथसे भोजन नहीं बनाते, ऐसे लोगों (ब्रह्मचारियों और संन्यासियों) के लिये गृहस्थ पुरुषको सदा ही अन्न देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं चामृतभोजनः।
अमृतं यज्ञशेषं स्याद् भोजनं हविषा समम् ॥ १२ ॥

मूलम्

विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं चामृतभोजनः।
अमृतं यज्ञशेषं स्याद् भोजनं हविषा समम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थको सदा विघस और अमृत अन्नका भोजन करना चाहिये। यज्ञसे बचा हुआ भोजन हविष्यके समान और अमृत माना गया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृत्यशेषं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम्।
विघसं भृत्यशेषं तु यज्ञशेषमथामृतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

भृत्यशेषं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम्।
विघसं भृत्यशेषं तु यज्ञशेषमथामृतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुटुम्बमें भरण-पोषणके योग्य जितने लोग हैं, उनको भोजन करानेके बाद बचे हुए अन्नको जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (विघस अन्न भोजन करनेवाला) बताया गया है। पोष्यवर्गसे बचे हुए अन्नको विघस तथा पंचमहायज्ञ एवं बलिवैश्वदेवसे बचे हुए अन्नको अमृत कहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वदारनिरतो दान्तो ह्यनसूयुर्जितेन्द्रियः ।
ऋत्विक् पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः ॥ १४ ॥
वृद्धबालातुरैर्वेद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः ।
मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया ॥ १५ ॥
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।
एतान् विमुच्य संवादान् सर्वपापैर्विमुच्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

स्वदारनिरतो दान्तो ह्यनसूयुर्जितेन्द्रियः ।
ऋत्विक् पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः ॥ १४ ॥
वृद्धबालातुरैर्वेद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः ।
मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया ॥ १५ ॥
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।
एतान् विमुच्य संवादान् सर्वपापैर्विमुच्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुष सदा अपनी ही स्त्रीसे प्रेम करे। इन्द्रियोंका संयम करके जितेन्द्रिय बने। किसीके गुणोंमें दोष न ढूँढ़े। वह ऋत्विज, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, शरणागत, वृद्ध, बालक, रोगी, वैद्य, जाति-भाई, सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव, माता-पिता, कुटुम्बकी स्त्री, भाई, पुत्र, पत्नी, पुत्री तथा सेवक-समूहके साथ कभी विवाद न करे। जो इन सबके साथ कलह त्याग देता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है॥१४—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैर्जितस्तु जयति सर्वाल्लोँकान् न संशयः।
आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्ये पिता प्रभुः ॥ १७ ॥
अतिथिस्त्विन्द्रलोकस्य देवलोकस्य चर्त्विजः ।
जामयोऽप्सरसां लोके वैश्वदेवे तु ज्ञातयः ॥ १८ ॥

मूलम्

एतैर्जितस्तु जयति सर्वाल्लोँकान् न संशयः।
आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्ये पिता प्रभुः ॥ १७ ॥
अतिथिस्त्विन्द्रलोकस्य देवलोकस्य चर्त्विजः ।
जामयोऽप्सरसां लोके वैश्वदेवे तु ज्ञातयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनसे हार मानकर रहनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाता है, इसमें संशय नहीं है। आचार्य ब्रह्मलोकका स्वामी है, पिता प्रजापतिलोकका ईश्वर है, अतिथि इन्द्रलोकके और ऋत्विज देवलोकके स्वामी हैं। कुटुम्बकी स्त्रियाँ अप्सराओंके लोककी स्वामिनी हैं और जाति-भाई विश्वेदेव लोकके अधिकारी हैं॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्बन्धिबान्धवा दिक्षु पृथिव्यां मातृमातुलौ।
वृद्धबालातुरकृशास्त्वाकाशे प्रभविष्णवः ॥ १९ ॥

मूलम्

सम्बन्धिबान्धवा दिक्षु पृथिव्यां मातृमातुलौ।
वृद्धबालातुरकृशास्त्वाकाशे प्रभविष्णवः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्बन्धी और बन्धु-बान्धव दिशाओंपर, माता और मामा पृथ्वीपर तथा वृद्ध, बालक और निर्बल रोगी आकाशपर अपना प्रभुत्व रखते हैं। इन सबको संतुष्ट रखनेसे उन-उन लोकोंकी प्राप्ति होती है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्रः स्वका तनुः।
छाया स्वा दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम् ॥ २० ॥

मूलम्

भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्रः स्वका तनुः।
छाया स्वा दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़ा भाई पिताके समान है। पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं तथा सेवकगण अपनी छायाके समान हैं। बेटी तो और भी अधिक दयनीय है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेन्नित्यमसंज्वरः ।
गृहधर्मपरो विद्वान् धर्मशीलो जितक्लमः ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेन्नित्यमसंज्वरः ।
गृहधर्मपरो विद्वान् धर्मशीलो जितक्लमः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इनके द्वारा कभी अपना तिरस्कार भी हो जाय तो सदा क्रोधरहित रहकर सहन कर लेना चाहिये। गृहस्थधर्मका पालन करनेवाले विद्वान् पुरुषको निश्चिन्त होकर क्लेश और थकावटको जीतकर धर्मका निरन्तर पालन करते रहना चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चार्थबद्धः कर्माणि धर्मवान् कश्चिदाचरेत्।
गृहस्थवृत्तयस्तिस्रस्तासां निःश्रेयसं परम् ॥ २२ ॥

मूलम्

न चार्थबद्धः कर्माणि धर्मवान् कश्चिदाचरेत्।
गृहस्थवृत्तयस्तिस्रस्तासां निःश्रेयसं परम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी भी धर्मात्मा पुरुषको धनके लोभसे धर्मकर्मोंका अनुष्ठान नहीं करना चाहिये। गृहस्थ ब्राह्मणके लिये जो तीन आजीविकाकी वृत्तियाँ बतायी गयी हैं, उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ एवं कल्याणकारिणी हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं परं तथैवाहुश्चातुराश्रम्यमेव तत्।
यथोक्ता नियमास्तेषां सर्वं कार्यं बुभूषता ॥ २३ ॥

मूलम्

परं परं तथैवाहुश्चातुराश्रम्यमेव तत्।
यथोक्ता नियमास्तेषां सर्वं कार्यं बुभूषता ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार चारों आश्रम भी उत्तरोत्तर श्रेष्ठ कहे गये हैं। उन आश्रमोंके जो शास्त्रोक्त नियम हैं, उन सबका अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको पालन करना चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भधान्यैरुञ्छशिलैः कापोतीं चास्थितास्तथा ।
यस्मिंश्चैते वसन्त्यर्हास्तद् राष्ट्रमभिवर्धते ॥ २४ ॥

मूलम्

कुम्भधान्यैरुञ्छशिलैः कापोतीं चास्थितास्तथा ।
यस्मिंश्चैते वसन्त्यर्हास्तद् राष्ट्रमभिवर्धते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुंडेभर अनाजका संग्रह करके अथवा उञ्छशिल (अनाजके एक-एक दाने बीनने अथवा उस अनाजकी बाली बीनने) के द्वारा अन्नका संग्रह करके ‘कापोती-वृत्ति’ का आश्रय लेनेवाले पूजनीय ब्राह्मण जिस देशमें निवास करते हैं, उस राष्ट्रकी वृद्धि होती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वान् दश दश परान् पुनाति च पितामहान्।
गृहस्थवृत्तीश्चाप्येता वर्तयेद् यो गतव्यथः ॥ २५ ॥

मूलम्

पूर्वान् दश दश परान् पुनाति च पितामहान्।
गृहस्थवृत्तीश्चाप्येता वर्तयेद् यो गतव्यथः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनमें तनिक भी क्लेशका अनुभव न करके गृहस्थकी इन वृत्तियोंके सहारे जीवन निभाता है, वह अपनी दस पीढ़ीके पूर्वजोंको तथा दस पीढ़ीतक आगे होनेवाली संतानोंको पवित्र कर देता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चक्रधरलोकानां सदृशीमाप्नुयाद् गतिम्।
जितेन्द्रियाणामथवा गतिरेषा विधीयते ॥ २६ ॥

मूलम्

स चक्रधरलोकानां सदृशीमाप्नुयाद् गतिम्।
जितेन्द्रियाणामथवा गतिरेषा विधीयते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे चक्रधारी श्रीविष्णुके लोकके सदृश उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होती है अथवा वह जितेन्द्रिय पुरुषको मिलनेवाली श्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गलोको गृहस्थानामुदारमनसां हितः ।
स्वर्गो विमानसंयुक्तो वेददृष्टः सुपुष्पितः ॥ २७ ॥

मूलम्

स्वर्गलोको गृहस्थानामुदारमनसां हितः ।
स्वर्गो विमानसंयुक्तो वेददृष्टः सुपुष्पितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदारचित्तवाले गृहस्थोंको हितकारक स्वर्गलोक प्राप्त होता है। उनके लिये विमानसहित सुन्दर फूलोंसे सुशोभित परम रमणीय स्वर्ग सुलभ होता है, जिसका वेदोंमें वर्णन है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गलोको गृहस्थानां प्रतिष्ठा नियतात्मनाम्।
ब्रह्मणा विहिता योनिरेषा यस्माद् विधीयते।
द्वितीयं क्रमशः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥ २८ ॥

मूलम्

स्वर्गलोको गृहस्थानां प्रतिष्ठा नियतात्मनाम्।
ब्रह्मणा विहिता योनिरेषा यस्माद् विधीयते।
द्वितीयं क्रमशः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले गृहस्थोंके लिये स्वर्गलोकको ही प्रतिष्ठाका स्थान नियत किया है। ब्रह्माजीने गार्हस्थ्य-आश्रमको स्वर्गकी प्राप्तिका कारण बनाया है; इसीलिये इसके पालनका विधान किया गया है। इस प्रकार क्रमशः द्वितीय आश्रम गार्हस्थ्यको पाकर मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं परममुदारमाश्रमं
तृतीयमाहुस्त्यजतां कलेवरम् ।
वनौकसां गृहपतिनामनुत्तमं
शृणुष्व संश्लिष्टशरीरकारिणाम् ॥ २९ ॥

मूलम्

अतः परं परममुदारमाश्रमं
तृतीयमाहुस्त्यजतां कलेवरम् ।
वनौकसां गृहपतिनामनुत्तमं
शृणुष्व संश्लिष्टशरीरकारिणाम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस गृहस्थाश्रमके पश्चात् तीसरा उससे भी श्रेष्ठ परम उदार वानप्रस्थ-आश्रम है; जो शरीरको सुखाकर अस्थिचर्मावशिष्ट कर देनेवाले तथा वनमें रहकर तपस्यापूर्वक शरीरको त्यागनेवाले वानप्रस्थियोंका आश्रय है। यह गृहस्थोंसे श्रेष्ठतम माना गया है, अब इसके धर्म बताता हूँ, सुनो॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४३॥