२४२ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

आश्रमधर्मकी प्रस्तावना करते हुए ब्रह्मचर्य-आश्रमका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

शुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षरात्प्रभृति यः सर्गः सगुणानीन्द्रियाणि च।
बुद्‌ध्यैश्वर्यातिसर्गोऽयं प्रधानश्चात्मनः श्रुतम् ॥ १ ॥

मूलम्

क्षरात्प्रभृति यः सर्गः सगुणानीन्द्रियाणि च।
बुद्‌ध्यैश्वर्यातिसर्गोऽयं प्रधानश्चात्मनः श्रुतम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजीने पूछा— पिताजी! क्षर अर्थात् प्रधानसे जो चौबीस तत्त्वोंवाली सामान्य सृष्टि हुई है तथा शब्द आदि विषयोंसहित जो इन्द्रियाँ हैं, उनकी सृष्टि बुद्धिके सामर्थ्यसे हुई है, अतः यह अतिसर्ग—असाधारण सृष्टि है। बन्धनकारी होनेके कारण इसे प्रमुख या प्रबल माना गया है, यह दोनों प्रकारकी सृष्टि पुरुषके संनिधानसे, प्रकृतिसे उत्पन्न हुई है; यह सब मैंने पहले सुन लिया है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूय एव तु लोकेऽस्मिन्‌ सद्‌वृत्तिं कालहैतुकीम्।
यया सन्तः प्रवर्तन्ते तदिच्छाम्यनुवर्तितुम् ॥ २ ॥

मूलम्

भूय एव तु लोकेऽस्मिन्‌ सद्‌वृत्तिं कालहैतुकीम्।
यया सन्तः प्रवर्तन्ते तदिच्छाम्यनुवर्तितुम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब पुनः इस संसारमें प्रत्येक युगके अनुसार जो शिष्ट पुरुषोंकी आचार-परम्परा रही है तथा जिसके अनुकूल सत्पुरुषोंका बर्ताव होता आया है, उसका मैं भी अनुसरण करना चाहता हूँ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदे वचनमुक्तं तु कुरु कर्म त्यजेति च।
कथमेतद् विजानीयां तच्च व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

मूलम्

वेदे वचनमुक्तं तु कुरु कर्म त्यजेति च।
कथमेतद् विजानीयां तच्च व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदमें ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’—ये दोनों बातें कही गयी हैं। मैं इनका तात्पर्य कैसे समझूँ? जिससे इनका विरोध हट जाय। आप इस विषयकी व्याख्या करें॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकवृत्तान्ततत्त्वज्ञः पूतोऽहं गुरुशासनात् ।
कृत्वा बुद्धिं विमुक्तात्मा द्रक्ष्याम्यात्मानमव्ययम् ॥ ४ ॥

मूलम्

लोकवृत्तान्ततत्त्वज्ञः पूतोऽहं गुरुशासनात् ।
कृत्वा बुद्धिं विमुक्तात्मा द्रक्ष्याम्यात्मानमव्ययम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आप-जैसे गुरुके उपदेशसे पवित्र हो गया हूँ तथा मुझे जगत्‌के वृत्तान्त (लौकिक नीति-रीति) का भी ज्ञान हो गया है; अतः धर्माचरणसे बुद्धिका संस्कार करके स्थूल देहका अभिमान त्यागकर अपने अविनाशीस्वरूप परमात्माका दर्शन करूँगा॥४॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वै विहिता वृत्तिः पुरस्ताद् ब्रह्मणा स्वयम्।
एषा पूर्वतरैः सद्भिराचीर्णा परमर्षिभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

यथा वै विहिता वृत्तिः पुरस्ताद् ब्रह्मणा स्वयम्।
एषा पूर्वतरैः सद्भिराचीर्णा परमर्षिभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— बेटा! पूर्वकालमें साक्षात् ब्रह्माजीने जिस आचार-व्यवहारका विधान कर दिया है, पहलेके सत्पुरुष तथा ऋषि-महर्षि भी उसीका पालन करते आ रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्येण वै लोकान् जयन्ति परमर्षयः।
आत्मनश्च ततः श्रेयांस्यन्विच्छन् मनसाऽऽत्मनि ॥ ६ ॥

मूलम्

ब्रह्मचर्येण वै लोकान् जयन्ति परमर्षयः।
आत्मनश्च ततः श्रेयांस्यन्विच्छन् मनसाऽऽत्मनि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम ऋषियोंने ब्रह्मचर्यके पालनसे ही उत्तम लोकोंपर विजय पायी है; अतः मन-ही-मन अपने कल्याणकी इच्छा रखकर पहले ब्रह्मचर्यका पालन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वने मूलफलाशी च तप्यन् सुविपुलं तपः।
पुण्यायतनचारी च भूतानामविहिंसकः ॥ ७ ॥

मूलम्

वने मूलफलाशी च तप्यन् सुविपुलं तपः।
पुण्यायतनचारी च भूतानामविहिंसकः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर वानप्रस्थ-धर्मका आश्रय ले) वनमें फल-मूल खाकर रहे, भारी तपस्यामें तत्पर हो जाय, पुण्य-तीर्थोंमें भ्रमण करे और किसी भी प्राणीकी अपने द्वारा हिंसा न होने दे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधूमे सन्नमुसले वानप्रस्थप्रतिश्रये ।
काले प्राप्ते चरन् भैक्ष्यं कल्पते ब्रह्मभूयसे ॥ ८ ॥

मूलम्

विधूमे सन्नमुसले वानप्रस्थप्रतिश्रये ।
काले प्राप्ते चरन् भैक्ष्यं कल्पते ब्रह्मभूयसे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद संन्यासी होकर यथासमय भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हुए भिक्षाके लिये ‘वानप्रस्थी’ के आश्रमपर उस समय जाना चाहिये, जब कि मूसलसे धान कूटनेकी आवाज न सुनायी पड़े और रसोईघरसे धूँआ निकलना बंद जो जाय। इस प्रकार जीवन बितानेवाला संन्यासी ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ होता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःस्तुतिर्निर्नमस्कारः परित्यज्य शुभाशुभे ।
अरण्ये विचरैकाकी येन केनचिदाशितः ॥ ९ ॥

मूलम्

निःस्तुतिर्निर्नमस्कारः परित्यज्य शुभाशुभे ।
अरण्ये विचरैकाकी येन केनचिदाशितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेव! तुम भी स्तुति और नमस्कारसे अलग रहकर शुभाशुभ कर्मोंका परित्याग करके जो कुछ फल-मूल मिल जाय, उसीसे भूख मिटाते हुए वनमें अकेले विचरते रहो॥९॥

मूलम् (वचनम्)

शुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं वेदवचनं लोकवादे विरुध्यते।
प्रमाणे वाप्रमाणे च विरुद्धे शास्त्रता कुतः ॥ १० ॥
इत्येतच्छ्रोतुमिच्छामि प्रमाणं तूभयं कथम्।
कर्मणामविरोधेन कथं मोक्षः प्रवर्तते ॥ ११ ॥

मूलम्

यदिदं वेदवचनं लोकवादे विरुध्यते।
प्रमाणे वाप्रमाणे च विरुद्धे शास्त्रता कुतः ॥ १० ॥
इत्येतच्छ्रोतुमिच्छामि प्रमाणं तूभयं कथम्।
कर्मणामविरोधेन कथं मोक्षः प्रवर्तते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवने पूछा— पिताजी! ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’—ये जो वेदके दो तरहके वचन हैं, लोकदृष्टिसे विचार करनेपर परस्पर विरुद्ध जान पड़ते हैं। ये प्रामाणिक हैं या अप्रामाणिक? यदि प्रामाणिक हैं तो परस्पर विरोध रहते हुए इन्हें शास्त्रवचन कैसे माना जा सकता है तथा दोनों ही प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ; साथ ही यह भी बताइये कि कर्मोंका विरोध किये बिना मोक्षकी प्राप्ति किस तरह हो सकती है?॥१०-११॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं गन्धवत्याः सुतः सुतम्।
ऋषिस्तत्पूजयन् वाक्यं पुत्रस्यामिततेजसः ॥ १२ ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं गन्धवत्याः सुतः सुतम्।
ऋषिस्तत्पूजयन् वाक्यं पुत्रस्यामिततेजसः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उनके इस प्रकार पूछनेपर गन्धवती (सत्यवती) के पुत्र महर्षि व्यासने अपने अमिततेजस्वी पुत्रके वचनका आदर करते हुए उससे इस प्रकार कहा॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
यथोक्तचारिणः सर्वे गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ १३ ॥

मूलम्

ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
यथोक्तचारिणः सर्वे गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— बेटा! ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी—ये सभी अपने-अपने आश्रमके लिये विहित शास्त्रोक्त कर्मोंका पालन करते हुए परम गतिको प्राप्त होते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको वाप्याश्रमानेतान् योऽनुतिष्ठेद् यथाविधि।
अकामद्वेषसंयुक्तः स परत्र विधीयते ॥ १४ ॥

मूलम्

एको वाप्याश्रमानेतान् योऽनुतिष्ठेद् यथाविधि।
अकामद्वेषसंयुक्तः स परत्र विधीयते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई एक पुरुष भी इन आश्रमोंके धर्मोंका राग-द्वेषसे शून्य होकर विधिपूर्वक अनुष्ठान कर ले तो वह परब्रह्म परमात्माको तत्त्वसे जाननेका अधिकारी हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता।
एतामारुह्य निःश्रेणीं ब्रह्मलोके महीयते ॥ १५ ॥

मूलम्

चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता।
एतामारुह्य निःश्रेणीं ब्रह्मलोके महीयते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये चारों आश्रम ब्रह्ममें ही प्रतिष्ठित हैं और ब्रह्मतक पहुँचानेके लिये चार पैंडीवाली सीढ़ीके समान माने गये हैं। इस सीढ़ीपर चढ़कर मनुष्य ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुषस्तु चतुर्भागं ब्रह्मचार्यनसूयकः ।
गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद् धर्मार्थकोविदः ॥ १६ ॥

मूलम्

आयुषस्तु चतुर्भागं ब्रह्मचार्यनसूयकः ।
गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद् धर्मार्थकोविदः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजके बालकको चाहिये कि ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए गुरु अथवा गुरुपुत्रकी सेवामें अपनी आयुके एक चौथाई भाग अर्थात् पच्चीस वर्षोंतक रहे। वहाँ रहते हुए किसीके दोष न देखे। ऐसा करनेवाला ब्रह्मचारी धर्म और अर्थके ज्ञानमें कुशल होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघन्यशायी पूर्वं स्यादुत्थाय गुरुवेश्मनि।
यच्च शिष्येण कर्तव्यं कार्यं दासेन वा पुनः ॥ १७ ॥

मूलम्

जघन्यशायी पूर्वं स्यादुत्थाय गुरुवेश्मनि।
यच्च शिष्येण कर्तव्यं कार्यं दासेन वा पुनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गुरुके सोनेके पश्चात् नीचे आसनपर सोवे और उनके जागनेसे पहले ही उठ जाय। गुरुके घरमें एक शिष्य या दासके करने योग्य जो कुछ भी कार्य हो, उसे वह स्वयं पूरा करे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतमित्येव तत्सर्वं कृत्वा तिष्ठेत पार्श्वतः।
किंकरः सर्वकारी स्यात् सर्वकर्मसु कोविदः ॥ १८ ॥

मूलम्

कृतमित्येव तत्सर्वं कृत्वा तिष्ठेत पार्श्वतः।
किंकरः सर्वकारी स्यात् सर्वकर्मसु कोविदः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजी जो भी आज्ञा दें उसके लिये सदा यही उत्तर दे कि ‘भगवन्! इसे अभी पूरा किया’ और वह सब कार्य करके उनके पास आकर खड़ा जो जाय। ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है?’ ऐसा पूछते हुए एक आज्ञाकारी सेवककी भाँति गुरुका सारा कार्य करनेके लिये तैयार रहे और सभी कर्मोंके सम्पादनमें कुशल हो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मातिशेषेण गुरावध्येतव्यं बुभूषता ।
दक्षिणोऽनपवादी स्यादाहूतो गुरुमाश्रयेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

कर्मातिशेषेण गुरावध्येतव्यं बुभूषता ।
दक्षिणोऽनपवादी स्यादाहूतो गुरुमाश्रयेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी उन्नति चाहनेवाले शिष्यको गुरुकी सेवा-टहलका सारा कार्य समाप्त करके उनके पास बैठकर अध्ययन करना चाहिये। वह सबके प्रति सदा उदार रहे और किसीपर कोई कलंक न लगावे। गुरुके बुलानेपर झट उनकी सेवामें उपस्थित हो जाय॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुचिर्दक्षो गुणोपेतो ब्रूयादिष्टमिवान्तरा ।
चक्षुषा गुरुमव्यग्रो निरीक्षेत जितेन्द्रियः ॥ २० ॥

मूलम्

शुचिर्दक्षो गुणोपेतो ब्रूयादिष्टमिवान्तरा ।
चक्षुषा गुरुमव्यग्रो निरीक्षेत जितेन्द्रियः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। कार्यमें कुशल हो। गुणवान् बने। भीतरसे सद्‌भावना रखकर बीच-बीचमें ऐसी बात बोले जो गुरुको प्रिय लगनेवाली हो। शान्त भावसे भक्तिभरी दृष्टि डालकर गुरुकी ओर देखे और इन्द्रियोंको वशमें रखे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभुक्तवति चाश्नीयादपीतवति नो पिबेत्।
नातिष्ठति तथाऽऽसीत नासुप्ते प्रस्वपेत च ॥ २१ ॥

मूलम्

नाभुक्तवति चाश्नीयादपीतवति नो पिबेत्।
नातिष्ठति तथाऽऽसीत नासुप्ते प्रस्वपेत च ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्य जबतक भोजन न कर लें, तबतक स्वयं भी न खाय। वे जबतक जल-पान न कर लें, तबतक स्वयं भी न करे। उनके बैठनेसे पहले स्वयं भी न बैठे और उनके सोनेसे पहले स्वयं भी न सोये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तानाभ्यां च पाणिभ्यां पादावस्य मृदु स्पृशेत्।
दक्षिणं दक्षिणेनैव सव्यं सव्येन पीडयेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

उत्तानाभ्यां च पाणिभ्यां पादावस्य मृदु स्पृशेत्।
दक्षिणं दक्षिणेनैव सव्यं सव्येन पीडयेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों हाथ फैलाकर अपने दाहिने हाथसे गुरुका दाहिना चरण और बायें हाथसे उनका बायाँ चरण धीरे-धीरे छूकर प्रणाम करे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य गुरुं ब्रूयादधीष्व भगवन्निति।
इदं करिष्ये भगवन्निदं चापि कृतं मया ॥ २३ ॥

मूलम्

अभिवाद्य गुरुं ब्रूयादधीष्व भगवन्निति।
इदं करिष्ये भगवन्निदं चापि कृतं मया ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अभिवादनके पश्चात् हाथ जोड़कर गुरुसे कहे—‘भगवन्! अब आप मुझे पढ़ावें। मैंने अमुक काम पूरा कर लिया है और यह अमुक कार्य अभी करूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मंस्तदपि कर्तास्मि यद् भवान् वक्ष्यते पुनः।
इति सर्वमनुज्ञाप्य निवेद्य च यथाविधि ॥ २४ ॥
कुर्यात् कृत्वा च तत्सर्वमाख्येयं गुरवे पुनः।

मूलम्

ब्रह्मंस्तदपि कर्तास्मि यद् भवान् वक्ष्यते पुनः।
इति सर्वमनुज्ञाप्य निवेद्य च यथाविधि ॥ २४ ॥
कुर्यात् कृत्वा च तत्सर्वमाख्येयं गुरवे पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! इसके सिवा और भी जिन कार्योंके लिये आप आज्ञा देंगे, उन्हें भी मैं शीघ्र पूर्ण करूँगा।’ इस तरह सब बातें विधिवत् निवेदन करके गुरुकी आज्ञा लेकर फिर दूसरा कार्य करे और उसे पूरा करके पुनः उसका सारा समाचार गुरुजीको बतावे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यांस्तु गन्धान् रसान् वापि ब्रह्मचारी न सेवते ॥ २५ ॥
सेवेत तान् समावृत्य इति धर्मेषु निश्चयः।

मूलम्

यांस्तु गन्धान् रसान् वापि ब्रह्मचारी न सेवते ॥ २५ ॥
सेवेत तान् समावृत्य इति धर्मेषु निश्चयः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिन-जिन गन्धों और रसोंका ब्रह्मचारीको सेवन नहीं करना चाहिये, उनका वह ब्रह्मचर्यकालमें त्याग करे। समावर्तनसंस्कारके बाद ही वह उनका सेवन कर सकता है, यही धर्मका निश्चय है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये केचिद् विस्तरेणोक्ता नियमा ब्रह्मचारिणः ॥ २६ ॥
तान् सर्वानाचरेन्नित्यं भवेच्चानपगो गुरोः।

मूलम्

ये केचिद् विस्तरेणोक्ता नियमा ब्रह्मचारिणः ॥ २६ ॥
तान् सर्वानाचरेन्नित्यं भवेच्चानपगो गुरोः।

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंमें ब्रह्मचारीके लिये जो कोई भी नियम विस्तारपूर्वक बताये गये हैं, उन सबका वह पालन करे तथा सदा गुरुके समीप ही रहे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवं गुरवे प्रीतिमुपहृत्य यथाबलम् ॥ २७ ॥
आश्रमादाश्रमेष्वेव शिष्यो वर्तेत कर्मणा।

मूलम्

स एवं गुरवे प्रीतिमुपहृत्य यथाबलम् ॥ २७ ॥
आश्रमादाश्रमेष्वेव शिष्यो वर्तेत कर्मणा।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शिष्य यथाशक्ति सेवा करके गुरुको प्रसन्न करे और उन्हें उपहार देकर उनकी आज्ञासे ब्रह्मचर्य-आश्रमसे दूसरे आश्रमोंमें पदार्पण करे और वहाँ भी उन आश्रमोंके कर्तव्योंका पालन करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदव्रतोपवासेन चतुर्थे चायुषो गते ॥ २८ ॥
गुरवे दक्षिणां दत्वा समावर्त्तेद् यथाविधि ॥ २९ ॥

मूलम्

वेदव्रतोपवासेन चतुर्थे चायुषो गते ॥ २८ ॥
गुरवे दक्षिणां दत्वा समावर्त्तेद् यथाविधि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वेदसम्बन्धी व्रत और उपवास करते हुए आयुका एक चौथाई भाग व्यतीत हो जाय, तब गुरुको दक्षिणा देकर विधिपूर्वक समावर्तन-संस्कार सम्पन्न करे॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनुत्पाद्य यत्नतः ।
द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी भवेद् व्रती ॥ ३० ॥

मूलम्

धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनुत्पाद्य यत्नतः ।
द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी भवेद् व्रती ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मतः पत्नीका पाणिग्रहण करके उसके साथ यत्नपूर्वक अग्निकी स्थापना करे और आयुके द्वितीय भाग अर्थात् पचास वर्षकी अवस्थातक उत्तम व्रतका पालन करते हुए गृहस्थ बना रहे॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४२॥