भागसूचना
एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्म और ज्ञानका अन्तर तथा ब्रह्मप्राप्तिके उपायका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
कां दिशं विद्यया यान्ति कां च गच्छन्ति कर्मणा॥१॥
मूलम्
यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
कां दिशं विद्यया यान्ति कां च गच्छन्ति कर्मणा॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवने पूछा— पिताजी! वेदमें ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’—ये जो दो प्रकारके वचन मिलते हैं, उनके सम्बन्धमें मैं यह जानना चाहता हूँ कि विद्या (ज्ञान) के द्वारा कर्मको त्याग देनेपर मनुष्य किस दिशामें जाते हैं? और कर्म करनेसे उन्हें किस गतिकी प्राप्ति होती है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वै श्रोतुमिच्छामि तद् भवान् प्रब्रवीतु मे।
एतच्चान्योन्यवैरूप्ये वर्तेते प्रतिकूलतः ॥ २ ॥
मूलम्
एतद् वै श्रोतुमिच्छामि तद् भवान् प्रब्रवीतु मे।
एतच्चान्योन्यवैरूप्ये वर्तेते प्रतिकूलतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इस विषयको सुनना चाहता हूँ, आप कृपापूर्वक मुझे यह बतावें। ये दोनों वचन एक दूसरेके विपरीत हैं, अतः प्रतिकूल परिणाम ही उत्पन्न कर सकते हैं॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं पराशरसुतः सुतम्।
कर्मविद्यामयावेतौ व्याख्यास्यामि क्षराक्षरौ ॥ ३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं पराशरसुतः सुतम्।
कर्मविद्यामयावेतौ व्याख्यास्यामि क्षराक्षरौ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! शुकदेवजीके इस प्रकार पूछनेपर पराशरनन्दन भगवान् व्यासने यों उत्तर दिया-‘बेटा! ये कर्ममय और ज्ञानमय मार्ग क्रमशः विनाशशील और अविनाशी हैं, मैं इनकी व्याख्या आरम्भ करता हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां दिशं विद्यया यान्ति यां च गच्छन्ति कर्मणा।
शृणुष्वैकमना वत्स गह्वरं ह्येतदन्तरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
यां दिशं विद्यया यान्ति यां च गच्छन्ति कर्मणा।
शृणुष्वैकमना वत्स गह्वरं ह्येतदन्तरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! ज्ञानसे मनुष्य जिस दिशाको जाते हैं और कर्मद्वारा उन्हें जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह सब बताता हूँ, एकचित्त होकर सुनो। इन दोनोंका अन्तर अत्यन्त गहन है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति धर्म इति प्रोक्तं नास्तीत्यत्रैव यो वदेत्।
तस्य पक्षस्य सदृशमिदं मम भवेद् व्यथा ॥ ५ ॥
मूलम्
अस्ति धर्म इति प्रोक्तं नास्तीत्यत्रैव यो वदेत्।
तस्य पक्षस्य सदृशमिदं मम भवेद् व्यथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्म है, ऐसा शास्त्रका उपदेश है, इसके विपरीत यदि कोई कहे कि धर्म नहीं है तो उसे सुनकर एक आस्तिकको जितना कष्ट होता है, उसके पक्षके ही समान यह कर्म और विद्याका तारतम्यविषयक प्रश्न मेरे लिये क्लेशदायक है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाविमावथ पन्थानौ यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः।
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तौ च सुभाषितः ॥ ६ ॥
मूलम्
द्वाविमावथ पन्थानौ यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः।
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तौ च सुभाषितः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रवृत्तिलक्षण धर्म और निवृत्तिके उद्देश्यसे प्रतिपादित धर्म, ये दो मार्ग हैं जहाँ वेद प्रतिष्ठित हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।
तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ ७ ॥
मूलम्
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।
तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सकामकर्मसे मनुष्य बन्धनमें पड़ता है और ज्ञानसे मुक्त हो जाता है, अतः दूरदर्शी यति कर्म नहीं करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा जायते प्रेत्य मूर्तिमान् षोडशात्मकः।
विद्यया जायते नित्यमव्यक्तं ह्यव्ययात्मकम् ॥ ८ ॥
मूलम्
कर्मणा जायते प्रेत्य मूर्तिमान् षोडशात्मकः।
विद्यया जायते नित्यमव्यक्तं ह्यव्ययात्मकम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्म करनेसे मनुष्य मृत्युके पश्चात् सोलह1 तत्त्वोंके बने हुए मूर्तिमान् शरीरको धारण करके जन्म लेता है; किन्तु ज्ञानके प्रभावसे जीव नित्य, अव्यक्त, अविनाशी परमात्माको प्राप्त होता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म त्वेके प्रशंसन्ति स्वल्पबुद्धिरता नराः।
तेन ते देहजालानि रमयन्त उपासते ॥ ९ ॥
मूलम्
कर्म त्वेके प्रशंसन्ति स्वल्पबुद्धिरता नराः।
तेन ते देहजालानि रमयन्त उपासते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अधूरे ज्ञानमें आसक्त अर्थात् इन्द्रियज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले कुछ मनुष्य सकामकर्मकी प्रशंसा करते हैं, इसलिये वे भोगासक्त होकर बारंबार विभिन्न शरीरोंमें आनन्द मानकर उनका सेवन करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये स्म बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिनः।
न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिबन्निव ॥ १० ॥
मूलम्
ये स्म बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिनः।
न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिबन्निव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु जो धर्मके तत्त्वको भलीभाँति समझकर सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे कर्मकी उसी तरह प्रशंसा नहीं करते हैं, जैसे प्रतिदिन नदीका पानी पीनेवाले मनुष्य कुएँका आदर नहीं करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणः फलमाप्नोति सुखदुःखे भवाभवौ।
विद्यया तदवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति ॥ ११ ॥
मूलम्
कर्मणः फलमाप्नोति सुखदुःखे भवाभवौ।
विद्यया तदवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्मके फल हैं सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु। कर्मद्वारा मनुष्य इन्हींको पाते हैं, परंतु ज्ञानके द्वारा उन्हें उस परमपदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जानेसे सदाके लिये शोकसे मुक्त हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र गत्वा न म्रियते यत्र गत्वा न जायते।
न पुनर्जायते यत्र यत्र गत्वा न वर्तते ॥ १२ ॥
मूलम्
यत्र गत्वा न म्रियते यत्र गत्वा न जायते।
न पुनर्जायते यत्र यत्र गत्वा न वर्तते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ जाकर फिर मृत्युका कष्ट नहीं उठाना पड़ता, जहाँ जानेसे फिर जन्म नहीं होता, जहाँ पुनर्जन्मका भय नहीं रहता तथा जहाँ जाकर मनुष्य फिर इस संसारमें नहीं लौटता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र तद् ब्रह्म परममव्यक्तमचलं ध्रुवम्।
अव्याकृतमनायासमव्यक्तं चावियोगि च ॥ १३ ॥
मूलम्
यत्र तद् ब्रह्म परममव्यक्तमचलं ध्रुवम्।
अव्याकृतमनायासमव्यक्तं चावियोगि च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ बिना क्लेशके प्राप्त होनेवाले और मिलकर कभी विलग न होनेवाले, अव्यक्त, अचल, नित्य, अनिर्वचनीय तथा विकारशून्य उस परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार हो जाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वन्द्वैर्न यत्र बाध्यन्ते मानसेन च कर्मणा।
समाः सर्वत्र मैत्राश्च सर्वभूतहिते रताः ॥ १४ ॥
मूलम्
द्वन्द्वैर्न यत्र बाध्यन्ते मानसेन च कर्मणा।
समाः सर्वत्र मैत्राश्च सर्वभूतहिते रताः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस स्थितिको प्राप्त हुए मनुष्योंको सुख-दुःखादि द्वन्द्व, मानसिक संकल्प और कर्म-संस्कार बाधा नहीं पहुँचाते। वहाँ पहुँचे हुए मानव सर्वत्र समानभाव रखते हैं, सबको मित्र मानते हैं और समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्यामयोऽन्यः पुरुषस्तात कर्ममयोऽपरः ।
विद्धि चन्द्रमसं दर्शे सूक्ष्मया कलया स्थितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
विद्यामयोऽन्यः पुरुषस्तात कर्ममयोऽपरः ।
विद्धि चन्द्रमसं दर्शे सूक्ष्मया कलया स्थितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! ज्ञानी मनुष्य कुछ और ही होता है, कर्मासक्त मनुष्य उससे सर्वथा भिन्न है। जैसे चन्द्रमा घटते-घटते अमावास्याको एक सूक्ष्म कलाके रूपमें ही शेष रह जाता है, यही अवस्था तुम कर्मासक्त मनुष्योंकी भी समझो—उसे क्षय और वृद्धिके ही चक्करमें पड़े रहना पड़ता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतदृषिणा प्रोक्तं विस्तरेणानुमीयते ।
नवजं शशिनं दृष्ट्वा वक्रतन्तुमिवाम्बरे ॥ १६ ॥
मूलम्
तदेतदृषिणा प्रोक्तं विस्तरेणानुमीयते ।
नवजं शशिनं दृष्ट्वा वक्रतन्तुमिवाम्बरे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस बातको एक मन्त्रद्रष्टा ऋषिने विस्तारके साथ बताया है। अमावास्याके बाद आकाशमें एक टेढ़े और पतले सूतके समान प्रतीत होनेवाले नवोदित चन्द्रमाको देखकर ऐसा ही अनुमान किया जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादशविकारात्मा कलासम्भारसम्भृतः ।
मूर्तिमानिति तं विद्धि तात कर्मगुणात्मकम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एकादशविकारात्मा कलासम्भारसम्भृतः ।
मूर्तिमानिति तं विद्धि तात कर्मगुणात्मकम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्मजन्य कलाओंके भारको धारण करनेवाला कर्मासक्त मनुष्य मन और इन्द्रियरूप ग्यारह विकारोंसे युक्त होकर जन्म धारण किया करता है। इस प्रकार वह मूर्तिमान् (देहधारी) व्यक्ति होता है। तुम उसे कर्मफलसम्भूत त्रिगुणात्मक शरीरसे युक्त तथा चन्द्रमाके समान वृद्धि और ह्रासका भागी होनेवाला समझो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवो यः संश्रितस्तस्मिन्नब्बिन्दुरिव पुष्करे।
क्षेत्रज्ञं तं विजानीयान्नित्यं योगजितात्मकम् ॥ १८ ॥
मूलम्
देवो यः संश्रितस्तस्मिन्नब्बिन्दुरिव पुष्करे।
क्षेत्रज्ञं तं विजानीयान्नित्यं योगजितात्मकम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणियोंके अन्तःकरण (हृदयाकाश) में जो स्वयम्प्रकाश चिन्मय देवता कमलके पत्तेपर पड़ी हुई पानीकी बूँदके समान निर्लेपभावसे विराजमान है तथा जिसने योगके द्वारा चित्तको वशमें किया है, उस आत्मतत्त्वको तुम सदैव क्षेत्रज्ञ समझो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमो रजश्च सत्वं च विद्धि जीवगुणात्मकम्।
जीवमात्मगुणं विद्यादात्मानं परमात्मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
तमो रजश्च सत्वं च विद्धि जीवगुणात्मकम्।
जीवमात्मगुणं विद्यादात्मानं परमात्मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण-इन तीनोंको बुद्धिका गुण समझो, इनके सम्बन्धसे जीव गुणस्वरूप और गुण जीवस्वरूप प्रतीत होने लगते हैं। अतः वास्तवमें जीवात्मा परमात्माका ही अंश है, ऐसा समझो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचेतनं जीवगुणं वदन्ति
स चेष्टते जीवयते च सर्वम्।
ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति
प्राकल्पयद् यो भुवनानि सप्त ॥ २० ॥
मूलम्
सचेतनं जीवगुणं वदन्ति
स चेष्टते जीवयते च सर्वम्।
ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति
प्राकल्पयद् यो भुवनानि सप्त ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शरीर स्वयं तो अचेतन (जड) है, परंतु चेतनसे युक्त होनेसे उसे जीवात्माके गुण चैतन्यसे युक्त कहा जाता है। जीवात्मा ही शरीरके द्वारा चेष्टा करता है और वही समस्त शरीरको जीवन (चेतना) प्रदान करता है, परंतु जिस परमात्माने सातों भुवनोंकी सृष्टि की है, उसे क्षेत्रवेत्ता विद्वान् उस जीवात्मासे भी श्रेष्ठ बताते हैं॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि शुकानुप्रश्ने एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४१॥
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पाँच इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियोंके विषय, स्वभाव (शीतोष्णादि धर्म), चेतना (ज्ञानशक्ति), मन, प्राण, अपान और जीव—ये सोलह तत्त्व पूर्वमें २३९ वें अध्यायके १३ वें श्लोकमें बतला चुके हैं। ↩︎