भागसूचना
एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ज्ञानका साधन और उसकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तोऽभिप्रशस्यैतत् परमर्षेस्तु शासनम् ।
मोक्षधर्मार्थसंयुक्तमिदं प्रष्टुं प्रचक्रमे ॥ १ ॥
मूलम्
इत्युक्तोऽभिप्रशस्यैतत् परमर्षेस्तु शासनम् ।
मोक्षधर्मार्थसंयुक्तमिदं प्रष्टुं प्रचक्रमे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार महर्षि व्यासके उपदेश देनेपर शुकदेवजीने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और मोक्षधर्मके विषयमें पूछनेके लिये उत्सुक होकर इस प्रकार कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञावान् श्रोत्रियो यज्वा कृतप्रज्ञोऽनसूयकः।
अनागतमनैतिह्यं कथं ब्रह्माधिगच्छति ॥ २ ॥
मूलम्
प्रज्ञावान् श्रोत्रियो यज्वा कृतप्रज्ञोऽनसूयकः।
अनागतमनैतिह्यं कथं ब्रह्माधिगच्छति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवने पूछा— पिताजी! प्रज्ञावान्, वेदवेत्ता, याज्ञिक, दोष-दृष्टिसे रहित तथा शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष उस ब्रह्मको कैसे प्राप्त करता है, जो प्रत्यक्ष और अनुमानसे भी अज्ञात है तथा वेदके द्वारा भी जिसका इदमित्थंरूपसे वर्णन नहीं किया गया है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा ब्रह्मचर्येण सर्वत्यागेन मेधया।
सांख्ये वा यदि वा योग एतत् पृष्ठो वदस्व मे॥३॥
मूलम्
तपसा ब्रह्मचर्येण सर्वत्यागेन मेधया।
सांख्ये वा यदि वा योग एतत् पृष्ठो वदस्व मे॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्य एवं योगमें तप, ब्रह्मचर्य, सर्वस्वका त्याग और मेधाशक्ति—इनमेंसे किस साधनके द्वारा तत्त्वका साक्षात्कार माना गया है? यह आपसे मेरा प्रश्न है, आप मुझे कृपापूर्वक इस विषयका उपदेश दीजिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसश्चेन्द्रियाणां च यथैकाग्र्यमवाप्यते ।
येनोपायेन पुरुषैस्तत् त्वं व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥
मूलम्
मनसश्चेन्द्रियाणां च यथैकाग्र्यमवाप्यते ।
येनोपायेन पुरुषैस्तत् त्वं व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य मन और इन्द्रियोंको जिस उपायसे और जिस तरह एकाग्र कर सकता है, उस विषयका आप विशद विवेचन कीजिये॥४॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यत्र विद्यातपसोर्नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ।
नान्यत्र सर्वसंत्यागात् सिद्धिं विन्दति कश्चन ॥ ५ ॥
मूलम्
नान्यत्र विद्यातपसोर्नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ।
नान्यत्र सर्वसंत्यागात् सिद्धिं विन्दति कश्चन ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— बेटा! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और सर्वस्वत्यागके बिना कोई भी सिद्धि नहीं पा सकता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतानि सर्वाणि पूर्वसृष्टिः स्वयम्भुवः।
भूयिष्ठं प्राणभृद्ग्रामे निविष्टानि शरीरिषु ॥ ६ ॥
मूलम्
महाभूतानि सर्वाणि पूर्वसृष्टिः स्वयम्भुवः।
भूयिष्ठं प्राणभृद्ग्रामे निविष्टानि शरीरिषु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण महाभूत विधाताकी पहली सृष्टि है। वे समस्त प्राणिसमुदायमें तथा सभी देहधारियोंके शरीरोंमें अधिक-से-अधिक भरे हुए हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमेर्देहो जलात् स्नेहो ज्योतिषश्चक्षुषी स्मृते।
प्राणापानाश्रयो वायुः खेष्वाकाशं शरीरिणाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
भूमेर्देहो जलात् स्नेहो ज्योतिषश्चक्षुषी स्मृते।
प्राणापानाश्रयो वायुः खेष्वाकाशं शरीरिणाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देहधारियोंकी देहका निर्माण पृथ्वीसे हुआ है, चिकनाहट और पसीने आदि जलसे प्रकट होते हैं, अग्निसे नेत्र तथा वायुसे प्राण और अपानका प्रादुर्भाव हुआ है। नाक, कान आदिके छिद्रोंमें आकाश-तत्त्व स्थित है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रान्ते विष्णुर्बले शक्रः कोष्ठेऽग्निर्भोक्तुमिच्छति।
कर्णयोः प्रदिशःश्रोत्रं जिह्वायां वाक् सरस्वती ॥ ८ ॥
मूलम्
क्रान्ते विष्णुर्बले शक्रः कोष्ठेऽग्निर्भोक्तुमिच्छति।
कर्णयोः प्रदिशःश्रोत्रं जिह्वायां वाक् सरस्वती ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चरणोंकी गतिमें विष्णु और बाहुबल [पाणि नामक इन्द्रिय] में इन्द्र स्थित हैं। उदरमें अग्निदेवता प्रतिष्ठित हैं, जो भोजन चाहते और पचाते हैं। कानोंमें श्रवणशक्ति और दिशाएँ हैं तथा जिह्वामें वाणी और सरस्वती देवीका निवास है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णौ त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी।
दर्शनीयेन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये ॥ ९ ॥
मूलम्
कर्णौ त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी।
दर्शनीयेन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों कान, त्वचा, दोनों नेत्र, जिह्वा और पाँचवीं नासिका—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हें विषयानुभवका द्वार बतलाया गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः।
इन्द्रियार्थान् पृथग् विद्यादिन्द्रियेभ्यस्तु नित्यदा ॥ १० ॥
मूलम्
शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः।
इन्द्रियार्थान् पृथग् विद्यादिन्द्रियेभ्यस्तु नित्यदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच इन्द्रियोंके विषय हैं। इन्हें सदा इन्द्रियोंसे पृथक् समझना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते वश्यान् यन्तेव वाजिनः।
मनश्चापि सदा युङ्क्ते भूतात्मा हृदयाश्रितः ॥ ११ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते वश्यान् यन्तेव वाजिनः।
मनश्चापि सदा युङ्क्ते भूतात्मा हृदयाश्रितः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सारथि घोड़ोंको अपने वशमें रखकर उन्हें इच्छानुसार चलाता है, इसी प्रकार मन इन्द्रियोंको काबूमें रखकर उन्हें स्वेच्छासे विषयोंकी ओर प्रेरित करता है, परंतु हृदयमें रहनेवाला जीवात्मा सदा उस मनपर भी शासन किया करता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां तथैवैषां सर्वेषामीश्वरं मनः।
नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मानसस्तथा ॥ १२ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां तथैवैषां सर्वेषामीश्वरं मनः।
नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मानसस्तथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मन सम्पूर्ण इन्द्रियोंका राजा और उन्हें विषयोंकी ओर प्रवृत्त करने तथा रोकनेमें भी समर्थ है, उसी प्रकार हृदयस्थित जीवात्मा भी मनका स्वामी तथा उसके निग्रह-अनुग्रहमें समर्थ है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः ।
प्राणापानौ च जीवश्च नित्यं देहेषु देहिनाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः ।
प्राणापानौ च जीवश्च नित्यं देहेषु देहिनाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंके रूप, रस आदि विषय, स्वभाव [शीतोष्णादि धर्म], चेतना1, मन, प्राण, अपान और जीव—ये देहधारियोंके शरीरोंमें सदा विद्यमान रहते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य गुणाः शब्दो न चेतना।
सत्त्वं हि तेजः सृजति न गुणान् वै कथंचन॥१४॥
मूलम्
आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य गुणाः शब्दो न चेतना।
सत्त्वं हि तेजः सृजति न गुणान् वै कथंचन॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर भी वास्तवमें सत्त्व अर्थात् बुद्धिका आश्रय नहीं है; क्योंकि पाञ्चभौतिक शरीर तो उसका कार्य है तथा गुण, शब्द एवं चेतना भी बुद्धिके आश्रय (कारण) नहीं हैं; क्योंकि बुद्धि चेतनाकी सृष्टि करती है, परंतु बुद्धि त्रिगुणात्मिका प्रकृतिको उत्पन्न नहीं करती; क्योंकि बुद्धि स्वयं उसका कार्य है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सप्तदशं देहे वृतं षोडशभिर्गुणैः।
मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १५ ॥
मूलम्
एवं सप्तदशं देहे वृतं षोडशभिर्गुणैः।
मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बुद्धिमान् ब्राह्मण इस शरीरमें पाँच इन्द्रिय, पाँच विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान और जीव—इन सोलह तत्त्वोंसे आवृत सत्रहवें परमात्माका बुद्धिके द्वारा अन्तःकरणमें साक्षात्कार करता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्ययं चक्षुषा दृश्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः।
मनसा तु प्रदीपेन महानात्मा प्रकाशते ॥ १६ ॥
मूलम्
न ह्ययं चक्षुषा दृश्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः।
मनसा तु प्रदीपेन महानात्मा प्रकाशते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस परमात्माका नेत्रों अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे भी दर्शन नहीं हो सकता। यह विशुद्ध मनरूपी दीपकसे ही बुद्धिमें प्रकाशित होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशब्दस्पर्शरूपं तदरसागन्धमव्ययम् ।
अशरीरं शरीरेषु निरीक्षेत निरिन्द्रियम् ॥ १७ ॥
मूलम्
अशब्दस्पर्शरूपं तदरसागन्धमव्ययम् ।
अशरीरं शरीरेषु निरीक्षेत निरिन्द्रियम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह आत्मतत्त्व यद्यपि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धसे हीन, अविकारी तथा शरीर और इन्द्रियोंसे रहित है तो भी शरीरोंके भीतर ही इसका अनुसंधान करना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तं सर्वदेहेषु मर्त्येषु परमाश्रितम्।
योऽनुपश्यति स प्रेत्य कल्पते ब्रह्मभूयसे ॥ १८ ॥
मूलम्
अव्यक्तं सर्वदेहेषु मर्त्येषु परमाश्रितम्।
योऽनुपश्यति स प्रेत्य कल्पते ब्रह्मभूयसे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस विनाशशील समस्त शरीरोंमें अव्यक्तभावसे स्थित परमेश्वरका ज्ञानमयी दृष्टिसे निरन्तर दर्शन करता रहता है, वह मृत्युके पश्चात् ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ हो जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्याभिजनसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १९ ॥
मूलम्
विद्याभिजनसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पण्डितजन विद्या और उत्तम कुलसे सम्पन्न ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समभावसे स्थित ब्रह्मका दर्शन करनेवाले होते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि सर्वेषु भूतेषु जङ्गमेषु ध्रुवेषु च।
वसत्येको महानात्मा येन सर्वमिदं ततम् ॥ २० ॥
मूलम्
स हि सर्वेषु भूतेषु जङ्गमेषु ध्रुवेषु च।
वसत्येको महानात्मा येन सर्वमिदं ततम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, वह एक परमात्मा ही समस्त चराचर प्राणियोंके भीतर निवास करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
यदा पश्यति भूतात्मा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
यदा पश्यति भूतात्मा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब जीवात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनेको और अपनेमें सम्पूर्ण प्राणियोंको स्थित देखता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावानात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि।
य एवं सततं वेद सोऽमृतत्त्वाय कल्पते ॥ २२ ॥
मूलम्
यावानात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि।
य एवं सततं वेद सोऽमृतत्त्वाय कल्पते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने शरीरके भीतर जैसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वैसा ही दूसरोंके शरीरमें भी है, जिस पुरुषको निरन्तर ऐसा ज्ञान बना रहता है, वह अमृतत्त्वको प्राप्त होनेमें समर्थ है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूतस्य विभोर्भूतहितस्य च ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ २३ ॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूतस्य विभोर्भूतहितस्य च ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा होकर सब प्राणियोंके हितमें लगा हुआ है, जिसका अपना कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है तथा जो ब्रह्मपदको प्राप्त करना चाहता है, उस समर्थ ज्ञानयोगीके मार्गकी खोज करनेमें देवता भी मोहित हो जाते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुन्तानामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके ।
यथा गतिर्न दृश्येत तथा ज्ञानविदां गतिः ॥ २४ ॥
मूलम्
शकुन्तानामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके ।
यथा गतिर्न दृश्येत तथा ज्ञानविदां गतिः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशमें चिड़ियोंके और जलमें मछलियोंके पदचिह्न नहीं दिखायी देते, उसी प्रकार ज्ञानियोंकी गतिका भी किसीको पता नहीं चलता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालः पचति भूतानि सर्वाण्येवात्मनात्मनि।
यस्मिंस्तु पच्यते कालस्तं वेदेह न कश्चन ॥ २५ ॥
मूलम्
कालः पचति भूतानि सर्वाण्येवात्मनात्मनि।
यस्मिंस्तु पच्यते कालस्तं वेदेह न कश्चन ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वयं ही अपने भीतर पकाता रहता है, परंतु जहाँ काल भी पकाया जाता है, जो कालका भी काल है; उस परमात्माको यहाँ कोई नहीं जानता॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तदूर्ध्वं न तिर्यक् च नाधो न च पुनः पुनः।
न मध्ये प्रतिगृह्णीते नैव किंचित् कुतश्चन ॥ २६ ॥
सर्वेऽन्तःस्था इमे लोका बाह्यमेषां न किंचन।
मूलम्
न तदूर्ध्वं न तिर्यक् च नाधो न च पुनः पुनः।
न मध्ये प्रतिगृह्णीते नैव किंचित् कुतश्चन ॥ २६ ॥
सर्वेऽन्तःस्था इमे लोका बाह्यमेषां न किंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
वह परमात्मा न ऊपर है न नीचे और न वह अगल-बगलमें अथवा बीचमें ही है। कोई भी स्थानविशेष उसको ग्रहण नहीं कर सकता, वह परमात्मा किसी एक स्थानसे दूसरे स्थानको नहीं जाता है। ये सम्पूर्ण लोक उसके भीतर ही स्थित हैं, इनका कोई भी भाग या प्रदेश उस परमात्मासे बाहर नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यजस्रं समागच्छेद् यथा बाणो गुणच्युतः ॥ २७ ॥
नैवान्तं कारणस्येयाद् यद्यपि स्यान्मनोजवः।
मूलम्
यद्यजस्रं समागच्छेद् यथा बाणो गुणच्युतः ॥ २७ ॥
नैवान्तं कारणस्येयाद् यद्यपि स्यान्मनोजवः।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई धनुषसे छूटे हुए बाणके समान अथवा मनके सदृश तीव्र वेगसे निरन्तर दौड़ता रहे तो भी जगत्के कारणस्वरूप उस परमेश्वरका अन्त नहीं पा सकता॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नास्ति स्थूलतरं ततः ॥ २८ ॥
सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्मात् सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नास्ति स्थूलतरं ततः ॥ २८ ॥
सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सूक्ष्मस्वरूप परमात्मासे बढ़कर सूक्ष्मतर वस्तु कोई नहीं है, उससे बढ़कर स्थूलतर वस्तु भी कोई नहीं है। उसके सब ओर हाथ पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं। वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेवाणोरणुतरं तन्महद्भ्यो महत्तरम् ।
तदन्तःसर्वभूतानां ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते ॥ ३० ॥
मूलम्
तदेवाणोरणुतरं तन्महद्भ्यो महत्तरम् ।
तदन्तःसर्वभूतानां ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह लघुसे भी अत्यन्त लघु और महान्से भी अत्यन्त महान् है, वह निश्चय ही समस्त प्राणियोंके भीतर स्थित है तो भी किसीको दिखायी नहीं देता॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः।
क्षरः सर्वेषु भूतेषु दिव्यं तमृतमक्षरम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः।
क्षरः सर्वेषु भूतेषु दिव्यं तमृतमक्षरम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस परमात्माके क्षर और अक्षर ये दो भाव (स्वरूप) हैं, सम्पूर्ण भूतोंमें तो उसका क्षर (विनाशी) रूप है और दिव्य सत्यस्वरूप चेतनात्मा अक्षर (अविनाशी) है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवद्वारं पुरं गत्वा हंसो हि नियतो वशी।
ईशः सर्वस्य भूतस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ ३२ ॥
मूलम्
नवद्वारं पुरं गत्वा हंसो हि नियतो वशी।
ईशः सर्वस्य भूतस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंका ईश्वर स्वाधीन परमात्मा नव द्वारोंवाले शरीरमें प्रवेश करके हंस (जीव) रूपसे स्थिरतापूर्वक स्थित है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हानिभङ्गविकल्पानां नवानां संचयेन च।
शरीराणामजस्याहुर्हंसत्वं पारदर्शिनः ॥ ३३ ॥
मूलम्
हानिभङ्गविकल्पानां नवानां संचयेन च।
शरीराणामजस्याहुर्हंसत्वं पारदर्शिनः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पारदर्शी (तत्त्वज्ञानी) पुरुष परिणाममें हानि, भंग एवं विकल्पसे युक्त नवीन शरीरोंको बारंबार ग्रहण करनेके कारण अजन्मा परमात्माके अंशभूत जीवात्माको ‘हंस’ कहते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंसोक्तं चाक्षरं चैव कूटस्थं यत् तदक्षरम्।
तद् विद्वानक्षरं प्राप्य जहाति प्राणजन्मनी ॥ ३४ ॥
मूलम्
हंसोक्तं चाक्षरं चैव कूटस्थं यत् तदक्षरम्।
तद् विद्वानक्षरं प्राप्य जहाति प्राणजन्मनी ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हंस नामसे जिस अविनाशी जीवात्माका प्रतिपादन किया गया है, वह कूटस्थ अक्षर ही है, इस प्रकार जो विद्वान् उस अक्षर आत्माको यथार्थरूपसे जान लेता है, वह प्राण, जन्म और मृत्युके बन्धनको सदाके लिये त्याग देता है॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३९॥
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अन्तःकरणमें जो ज्ञानशक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य सुख-दुःख और समस्त पदार्थोंका अनुभव करते हैं, जो कि अन्तःकरणकी एक वृत्तिविशेष है, इसे ही ‘चेतना’ कहते हैं। ↩︎