भागसूचना
अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नाना प्रकारके भूतोंकी समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्वका विवेचन, युगधर्मका वर्णन एवं कालका महत्त्व
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा पूर्वतरा वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते।
ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्यति ॥ १ ॥
मूलम्
एषा पूर्वतरा वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते।
ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्यति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— बेटा! यह ब्राह्मणकी अत्यन्त प्राचीनकालसे चली आयी हुई वृत्ति है, जो शास्त्रविहित है। ज्ञानवान् मनुष्य ही सर्वत्र कर्म करता हुआ सिद्धि प्राप्त करता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चेन्न भवेदेवं संशयः कर्मसिद्धये।
किं तु कर्म स्वभावोऽयं ज्ञानं कर्मेति वा पुनः॥२॥
मूलम्
तत्र चेन्न भवेदेवं संशयः कर्मसिद्धये।
किं तु कर्म स्वभावोऽयं ज्ञानं कर्मेति वा पुनः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कर्ममें संशय न हो तो वह सिद्धि देनेवाला होता है। यहाँ संदेह यह होता है कि क्या यह कर्म स्वभावसिद्ध है अथवा ज्ञानजनित?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र वेदविधिः स स्याज्ज्ञानं चेत् पुरुषं प्रति।
उपपत्त्युपलब्धिभ्यां वर्णयिष्यामि तच्छृणु ॥ ३ ॥
मूलम्
तत्र वेदविधिः स स्याज्ज्ञानं चेत् पुरुषं प्रति।
उपपत्त्युपलब्धिभ्यां वर्णयिष्यामि तच्छृणु ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्त संशय होनेपर यह कहा जाता है कि यदि वह पुरुषके लिये वैदिक विधानके अनुसार कर्त्तव्य हो तो ज्ञानजन्य है, अन्यथा स्वाभाविक है। मैं युक्ति और फल-प्राप्तिके सहित इस विषयका वर्णन करूँगा, तुम उसे सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः।
दैवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः।
दैवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मनुष्य कर्मोंमें पुरुषार्थको कारण बताते हैं। कोई-कोई दैव (प्रारब्ध अथवा भावी) की प्रशंसा करते हैं और दूसरे लोग स्वभावके गुण गाते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरुषं कर्म दैवं च कालवृत्तिस्वभावतः।
त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकं तु केचन ॥ ५ ॥
मूलम्
पौरुषं कर्म दैवं च कालवृत्तिस्वभावतः।
त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकं तु केचन ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मनुष्य पुरुषार्थद्वारा की हुई क्रिया, दैव और कालगत स्वभाव-इन तीनोंको कारण मानते हैं। कुछ लोग इन्हें पृथक्-पृथक् प्रधानता देते हैं अर्थात् इनमेंसे एक प्रधान है और दूसरे दो अप्रधान कारण हैं—ऐसा कहते हैं और कुछ लोग इन तीनोंको पृथक् न करके इनके समुच्चयको ही कारण बताते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे तथा।
कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ॥ ६ ॥
मूलम्
एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे तथा।
कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ कर्मनिष्ठ विचारक घट-पट आदि विषयोंके सम्बन्धमें कहते हैं कि ‘यह ऐसा ही है।’ दूसरे कहते हैं कि ‘यह ऐसा नहीं है।’ तीसरोंका कहना है कि ‘ये दोनों ही सम्भव हैं अर्थात् यह ऐसा है और नहीं भी है।’ अन्य लोग कहते हैं कि ‘ये दोनों ही मत सम्भव नहीं हैं’ परंतु सत्त्वगुणमें स्थित हुए योगी पुरुष सर्वत्र समस्वरूप ब्रह्मको ही कारणरूपमें देखते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतायां द्वापरे चैव कलिजाश्च ससंशयाः।
तपस्विनः प्रशान्ताश्च सत्त्वस्थाश्च कृते युगे ॥ ७ ॥
मूलम्
त्रेतायां द्वापरे चैव कलिजाश्च ससंशयाः।
तपस्विनः प्रशान्ताश्च सत्त्वस्थाश्च कृते युगे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेता,द्वापर तथा कलियुगके मनुष्य परमार्थके विषयमें संशयशील होते हैं; परंतु सत्ययुगके लोग तपस्वी और सत्त्वगुणी होनेके-कारण-प्रशान्त (संशयरहित) होते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृथग्दर्शनाः सर्वे ऋक्सामसु यजुःषु च।
कामद्वेषौ पृथक् कृत्वा तपः कृत उपासते ॥ ८ ॥
मूलम्
अपृथग्दर्शनाः सर्वे ऋक्सामसु यजुःषु च।
कामद्वेषौ पृथक् कृत्वा तपः कृत उपासते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगमें सभी द्विज ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद—इन तीनोंमें भेददृष्टि न रखते हुए राग-द्वेषको मनसे हटाकर तपस्याका आश्रय लेते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोधर्मेण संयुक्तस्तपोनित्यः सुसंशितः ।
तेन सर्वानवाप्नोति कामान् यान् मनसेच्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
तपोधर्मेण संयुक्तस्तपोनित्यः सुसंशितः ।
तेन सर्वानवाप्नोति कामान् यान् मनसेच्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य तपस्यारूप धर्मसे संयुक्त हो पूर्णतया संयमका पालन करते हुए सदा तपमें ही तत्पर रहता है, वह उसीके द्वारा अपने मनसे जिन-जिन कामनाओंको चाहता है, उन सबको प्राप्त कर लेता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा तदवाप्नोति यद् भूत्वा सृजते जगत्।
तद् भूतश्च ततः सर्वभूतानां भवति प्रभुः ॥ १० ॥
मूलम्
तपसा तदवाप्नोति यद् भूत्वा सृजते जगत्।
तद् भूतश्च ततः सर्वभूतानां भवति प्रभुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्यासे मनुष्य उस ब्रह्मभावको प्राप्त कर लेता है, जिसमें स्थित होकर वह सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करता है, अतः ब्रह्मभावको प्राप्त व्यक्ति समस्त प्राणियोंका प्रभु हो जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः।
वेदान्तेषु पुनर्व्यक्तं कर्मयोगेन लक्ष्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
तदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः।
वेदान्तेषु पुनर्व्यक्तं कर्मयोगेन लक्ष्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्रह्म वेदके कर्मकाण्डोंमें गुप्तरूपसे प्रतिपादित हुआ है; अतः वेदज्ञ विद्वानोंद्वारा भी वह अज्ञात ही रहता है। किंतु वेदान्तमें उसी ब्रह्मका स्पष्टरूपसे प्रतिपादन किया गया है और निष्काम कर्मयोगके द्वारा उस ब्रह्मका साक्षात्कार किया जा सकता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञा द्विजातयः ॥ १२ ॥
मूलम्
आलम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञा द्विजातयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय आलम्भ1 यज्ञ करनेवाले होते हैं, वैश्य हविष्यप्रधान यज्ञ करनेवाले माने गये हैं, शूद्र सेवारूप यज्ञ करनेवाले और ब्राह्मण जपयज्ञ करनेवाले होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिनिष्ठितकार्यो हि स्वाध्यायेन द्विजो भवेत्।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
परिनिष्ठितकार्यो हि स्वाध्यायेन द्विजो भवेत्।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे ही कृतकृत्य हो जाता है। वह और कोई कार्य करे या न करे, सब प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला होनेके कारण ही वह ब्राह्मण कहलाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतादौ केवला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।
संरोधादायुषस्त्वेते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे ॥ १४ ॥
मूलम्
त्रेतादौ केवला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।
संरोधादायुषस्त्वेते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुग और त्रेतामें वेद, यज्ञ तथा वर्णाश्रम धर्म विशुद्ध रूपमें पालित होते हैं, परंतु द्वापरयुगमें लोगोंकी आयुका ह्रास होनेके कारण ये भी क्षीण होने लगते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वापरे विप्लवं यान्ति वेदाः कलियुगे तथा।
दृश्यन्ते नापि दृश्यन्ते कलेरन्ते पुनः किल ॥ १५ ॥
मूलम्
द्वापरे विप्लवं यान्ति वेदाः कलियुगे तथा।
दृश्यन्ते नापि दृश्यन्ते कलेरन्ते पुनः किल ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वापर और कलियुगमें वेद प्रायः लुप्त हो जाते हैं। कलियुगके अन्तिम भागमें तो वे कभी कहीं दिखायी देते हैं और कभी दिखायी भी नहीं देते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सीदन्ति स्वधर्माश्च तत्राधर्मेण पीडिताः।
गवां भूमेश्च ये चापामोषधीनां च ये रसाः ॥ १६ ॥
मूलम्
उत्सीदन्ति स्वधर्माश्च तत्राधर्मेण पीडिताः।
गवां भूमेश्च ये चापामोषधीनां च ये रसाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अधर्मसे पीड़ित हो सभी वर्णोंके स्वधर्म नष्ट हो जाते हैं। गौ, जल, भूमि और ओषधियोंके रस भी नष्टप्राय हो जाते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मान्तर्हिता वेदा वेदधर्मास्तथाऽऽश्रमाः ।
विक्रियन्ते स्वधर्मस्थाः स्थावराणि चराणि च ॥ १७ ॥
मूलम्
अधर्मान्तर्हिता वेदा वेदधर्मास्तथाऽऽश्रमाः ।
विक्रियन्ते स्वधर्मस्थाः स्थावराणि चराणि च ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद, वैदिक धर्म तथा स्वधर्मपरायण आश्रम—ये सभी उस समय अधर्मसे आच्छादित हो अदृश्य हो जाते हैं और स्थावर-जंगम सभी प्राणी अपने धर्मसे विकृत हो जाते हैं; अर्थात् सबमें विकार उत्पन्न हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सर्वाणि भूतानि वृष्टिर्भौमानि वर्षति।
सृजते सर्वतोऽङ्गानि तथा वेदा युगे युगे ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा सर्वाणि भूतानि वृष्टिर्भौमानि वर्षति।
सृजते सर्वतोऽङ्गानि तथा वेदा युगे युगे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वर्षा भूतलके समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करती है और सर्व ओरसे उनके अंगोंको पुष्ट करती है, उसी प्रकार वेद प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण योगाङ्गोंका पोषण करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चितं कालनानात्वमनादिनिधनं च यत्।
कीर्तितं यत् पुरस्तान्मे सूते यच्चात्ति च प्रजाः ॥ १९ ॥
मूलम्
निश्चितं कालनानात्वमनादिनिधनं च यत्।
कीर्तितं यत् पुरस्तान्मे सूते यच्चात्ति च प्रजाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार निश्चय ही कालके भी अनेक रूप हैं। उसका न आदि है और न अन्त। वही प्रजाकी सृष्टि करता है और अन्तमें वही सबको अपना ग्रास बना लेता है। यह बात मैंने तुमको पहले ही बता दी है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चेदं प्रभवः स्थानं भूतानां संयमो यमः।
स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वसृष्टानि भूरिशः ॥ २० ॥
मूलम्
यच्चेदं प्रभवः स्थानं भूतानां संयमो यमः।
स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वसृष्टानि भूरिशः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो काल नामक तत्त्व है, वही प्राणियोंकी उत्पत्ति, पालन, संहार और नियन्त्रण करनेवाला है। उसीमें द्वन्द्वयुक्त असंख्य प्राणी स्वभावसे ही निवास करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गः कालो धृतिर्वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्।
एतत् ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्गः कालो धृतिर्वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्।
एतत् ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने तुम्हारे समक्ष सर्ग, काल, धारणा, वेद, कर्ता, कार्य और क्रियाफलके विषयमें ये सब बातें कही हैं॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३८॥
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आलम्भके दो अर्थ हैं—स्पर्श और हिंसा। क्षत्रिय नरेश किसी वस्तुका स्पर्श करके अथवा छूकर जो दान देते हैं, वह आलम्भ कहलाता है। इसी प्रकार वे प्रजाकी रक्षाके लिये जो हिंसक जन्तुओं तथा दुष्ट डाकुओंका वध करते हैं, यह भी आलम्भ यज्ञके अन्तर्गत है। ↩︎