भागसूचना
सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सृष्टिके समस्त कार्योंमें बुद्धिकी प्रधानता और प्राणियोंकी श्रेष्ठताके तारतम्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ज्ञानप्लवं धीरो गृहीत्वा शान्तिमात्मनः।
उन्मज्जंश्च निमज्जंश्च ज्ञानमेवाभिसंश्रयेत् ॥ १ ॥
मूलम्
अथ ज्ञानप्लवं धीरो गृहीत्वा शान्तिमात्मनः।
उन्मज्जंश्च निमज्जंश्च ज्ञानमेवाभिसंश्रयेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— वत्स! धीर पुरुषको चाहिये कि वह विवेकरूप नौकाका अवलम्बन लेकर भव-सागरमें डूबता-उतराता हुआ अर्थात् प्रत्येक परिस्थितिमें अपनी परम शान्तिके लिये वास्तविक ज्ञानके आश्रित हो जाय॥१॥
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं तज्ज्ञानमथो विद्या यथा निस्तरते द्वयम्।
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तिरिति वा वद ॥ २ ॥
मूलम्
किं तज्ज्ञानमथो विद्या यथा निस्तरते द्वयम्।
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तिरिति वा वद ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीने पूछा— पिताजी! जिसके द्वारा मनुष्य जन्म और मृत्यु दोनोंके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है, वह ज्ञान अथवा विद्या क्या है? वह प्रवृत्तिरूप धर्म है या निवृत्तिरूप? यह मुझे बताइये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु पश्यन् स्वभावेन विनाभावमचेतनः।
पुष्यते च पुनः सर्वान् प्रज्ञया मुक्तहेतुकान् ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्तु पश्यन् स्वभावेन विनाभावमचेतनः।
पुष्यते च पुनः सर्वान् प्रज्ञया मुक्तहेतुकान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— जो यह समझता है कि यह जगत् स्वभावसे ही उत्पन्न है, इसका कोई चेतन मूल कारण नहीं है, वह अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ तर्कयुक्त बुद्धिद्वारा हेतुरहित वचनोंका बारंबार पोषण करता रहता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां चैकान्तभावेन स्वभावात् कारणं मतम्।
पूत्वा तृणमिषीकां वा ते लभन्ते न किंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
येषां चैकान्तभावेन स्वभावात् कारणं मतम्।
पूत्वा तृणमिषीकां वा ते लभन्ते न किंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी यह मान्यता है कि निश्चित रूपसे वस्तुगत स्वभाव ही जगत्का कारण है—स्वभावसे भिन्न अन्य कोई कारण नहीं है, (किंतु इन्द्रियोंद्वारा उपलब्ध न होनेमात्र हेतुसे उनका यह मानना कि ईश्वर-जैसा कोई जगत्का कारण है ही नहीं, युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि) मूँजके भीतर स्थित दिखायी न देनेवाली सींक क्या मूँजको चीर डालनेपर उन्हें उपलब्ध नहीं होती? अपितु अवश्य होती है (उसी प्रकार समस्त जगत्में व्याप्त परमात्मा यद्यपि इन्द्रियोंद्वारा दिखायी नहीं देता तो भी उसकी उपलब्धि दिव्य-ज्ञानके द्वारा अवश्य होती है)॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैनं पक्षमाश्रित्य निवर्तन्त्यल्पमेधसः।
स्वभावं कारणं ज्ञात्वा न श्रेयः प्राप्नुवन्ति ते ॥ ५ ॥
मूलम्
ये चैनं पक्षमाश्रित्य निवर्तन्त्यल्पमेधसः।
स्वभावं कारणं ज्ञात्वा न श्रेयः प्राप्नुवन्ति ते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मन्दबुद्धि मानव इस नास्तिक मतका अवलम्बन करके स्वभावहीको कारण जानकर परमेश्वरकी उपासनासे निवृत्त हो जाते हैं, वे कल्याणके भागी नहीं होते॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावो हि विनाशाय मोहकर्म मनोभवः।
निरुक्तमेतयोरेतत् स्वभावपरिभावयोः ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वभावो हि विनाशाय मोहकर्म मनोभवः।
निरुक्तमेतयोरेतत् स्वभावपरिभावयोः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नास्तिक लोग जो स्वभाववादका आश्रय लेकर ईश्वर और अदृष्टकी सत्ताको स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनका मोहजनित कार्य है, स्वभाववाद मूढ़ोंकी कल्पना-मात्र है। यह मानवोंको परमार्थसे वंचित करके उनका विनाश करनेके लिये ही उपस्थित किया गया है। स्वभाव और परिभावके तत्त्वका यह आगे बताया जानेवाला विवेचन सुनो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्यादीनीह कर्माणि सस्यसंहरणानि च।
प्रज्ञावद्भिः प्रक्लृप्तानि यानासनगृहाणि च ॥ ७ ॥
मूलम्
कृष्यादीनीह कर्माणि सस्यसंहरणानि च।
प्रज्ञावद्भिः प्रक्लृप्तानि यानासनगृहाणि च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखा जाता है कि जगत्में बुद्धिसम्पन्न चेतन प्राणियोंद्वारा ही भूमिको जोतने आदिके कार्य, अनाजके बीजोंका संग्रह तथा सवारी, आसन और गृहनिर्माण—ये सब कार्य सदासे किये जाते हैं। यदि स्वभावसे ये कार्य हो जाते तो कोई इनमें प्रवृत्त ही न होता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आक्रीडानां गृहाणां च गदानामगदस्य च।
प्रज्ञावन्तः प्रयोक्तारो ज्ञानवद्भिरनुष्ठिताः ॥ ८ ॥
मूलम्
आक्रीडानां गृहाणां च गदानामगदस्य च।
प्रज्ञावन्तः प्रयोक्तारो ज्ञानवद्भिरनुष्ठिताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! चेतन प्राणी क्रीडाके लिये स्थान और रहनेके लिये घर बनाते हैं। वे ही रोगोंको पहचानकर उनपर ठीक-ठीक दवाका प्रयोग करते हैं। बुद्धिमान् पुरुषोंद्वारा ही इन सब कार्योंका यथावत् अनुष्ठान होता है (स्वभावसे—अपने-आप नहीं)॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञा संयोजयत्यर्थैः प्रज्ञा श्रेयोऽधिगच्छति।
राजानो भुञ्जते राज्यं प्रज्ञया तुल्यलक्षणाः ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रज्ञा संयोजयत्यर्थैः प्रज्ञा श्रेयोऽधिगच्छति।
राजानो भुञ्जते राज्यं प्रज्ञया तुल्यलक्षणाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि ही धनकी प्राप्ति कराती है। बुद्धिसे ही मनुष्य कल्याणको प्राप्त होता है। एक-से लक्षणोंवाले राजाओंमें भी जो बुद्धिमें बढ़े-चढ़े होते हैं, वे ही राज्यका उपभोग और दूसरोंपर शासन करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परावरं तु भूतानां ज्ञानेनैवोपलभ्यते।
विद्यया तात सृष्टानां विद्यैवेह परा गतिः ॥ १० ॥
मूलम्
परावरं तु भूतानां ज्ञानेनैवोपलभ्यते।
विद्यया तात सृष्टानां विद्यैवेह परा गतिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! प्राणियोंके स्थूल-सूक्ष्म या छोटे-बड़ेका भेद बुद्धिसे ही जाना जाता है। इस जगत्में सब प्राणियोंकी सृष्टि विद्यासे हुई है और उनकी परम गति विद्या ही है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतानां जन्म सर्वेषां विविधानां चतुर्विधम्।
जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदजं चोपलक्षयेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
भूतानां जन्म सर्वेषां विविधानां चतुर्विधम्।
जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदजं चोपलक्षयेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो नाना प्रकारके जरायुज, अण्डज, स्वदेज और उद्भिज्ज—ये चतुर्विध प्राणी हैं, उन सबके जन्मकी ओर भी लक्ष्य करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थावरेभ्यो विशिष्टानि जङ्गमान्युपधारयेत् ।
उपपन्नं हि यच्चेष्टा विशिष्येत विशेष्यया ॥ १२ ॥
मूलम्
स्थावरेभ्यो विशिष्टानि जङ्गमान्युपधारयेत् ।
उपपन्नं हि यच्चेष्टा विशिष्येत विशेष्यया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थावर प्राणियोंसे जंगम प्राणियोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये। यह बात युक्तिसंगत भी है, क्योंकि उनमें विशेषरूपसे चेष्टा देखी जाती है, इस विशेषताके कारण जंगम प्राणियोंकी विशिष्टता स्वतः सिद्ध है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहुर्वै बहुपादानि जङ्गमानि द्वयानि तु।
बहुपाद्भ्यो विशिष्टानि द्विपदानि बहून्यपि ॥ १३ ॥
मूलम्
आहुर्वै बहुपादानि जङ्गमानि द्वयानि तु।
बहुपाद्भ्यो विशिष्टानि द्विपदानि बहून्यपि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जंगम जीवोंमें भी बहुत पैरवाले और दो पैरवाले—ये दो तरहके प्राणी होते हैं। इनमें बहुत पैरवालोंकी अपेक्षा दो पैरवाले अनेक प्राणी श्रेष्ठ बताये गये हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विपदानि द्वयान्याहुः पार्थिवानीतराणि च।
पार्थिवानि विशिष्टानि तानि ह्यन्नानि भुञ्जते ॥ १४ ॥
मूलम्
द्विपदानि द्वयान्याहुः पार्थिवानीतराणि च।
पार्थिवानि विशिष्टानि तानि ह्यन्नानि भुञ्जते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो पैरवाले जंगम प्राणी भी दो प्रकारके कहे गये हैं—पार्थिव (मुनष्य) और अपार्थिव (पक्षी)। अपार्थिवोंसे पार्थिव श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे अन्न भोजन करते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थिवानि द्वयान्याहुर्मध्यमान्यधमानि तु ।
मध्यमानि विशिष्टानि जातिधर्मोपधारणात् ॥ १५ ॥
मूलम्
पार्थिवानि द्वयान्याहुर्मध्यमान्यधमानि तु ।
मध्यमानि विशिष्टानि जातिधर्मोपधारणात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थिव (मनुष्य) भी दो प्रकारके बताये गये हैं—मध्यम और अधम। उनमें मध्यम मनुष्य अधमकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे जाति-धर्मको धारण करते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यमानि द्वयान्याहुर्धर्मज्ञानीतराणि च ।
धर्मज्ञानि विशिष्टानि कार्याकार्योपधारणात् ॥ १६ ॥
मूलम्
मध्यमानि द्वयान्याहुर्धर्मज्ञानीतराणि च ।
धर्मज्ञानि विशिष्टानि कार्याकार्योपधारणात् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मध्यम मनुष्य दो प्रकारके कहे गये हैं—धर्मज्ञ और धर्मसे अनभिज्ञ। इनमें धर्मज्ञ ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे कर्तव्य और अकर्त्तव्यका विवेक रखते और कर्त्तव्यका पालन करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञानि द्वयान्याहुर्वेदज्ञानीतराणि च ।
वेदज्ञानि विशिष्टानि वेदो ह्येषु प्रतिष्ठितः ॥ १७ ॥
मूलम्
धर्मज्ञानि द्वयान्याहुर्वेदज्ञानीतराणि च ।
वेदज्ञानि विशिष्टानि वेदो ह्येषु प्रतिष्ठितः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञोंके भी दो भेद कहे गये हैं—वेदज्ञ और अवेदज्ञ। इनमें वेदज्ञ श्रेष्ठ हैं; क्योंकि उन्हींमें वेद प्रतिष्ठित है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदज्ञानि द्वयान्याहुः प्रवक्तॄणीतराणि च।
प्रवक्तॄणि विशिष्टानि सर्वधर्मोपधारणात् ॥ १८ ॥
मूलम्
वेदज्ञानि द्वयान्याहुः प्रवक्तॄणीतराणि च।
प्रवक्तॄणि विशिष्टानि सर्वधर्मोपधारणात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदज्ञ भी दो प्रकारके बताये गये हैं—प्रवक्ता और अप्रवक्ता। इनमें प्रवक्ता (प्रवचन करनेवाले) श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे वेदमें बताये हुए सम्पूर्ण धर्मोंको धारण करनेवाले होते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विज्ञायन्ते हि यैर्वेदाः सधर्माः सक्रियाफलाः।
सधर्मा निखिला वेदाः प्रवक्तॄभ्यो विनिःसृताः ॥ १९ ॥
मूलम्
विज्ञायन्ते हि यैर्वेदाः सधर्माः सक्रियाफलाः।
सधर्मा निखिला वेदाः प्रवक्तॄभ्यो विनिःसृताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एवं उन्हींके द्वारा धर्म, कर्म और फलोंसहित वेदोंका ज्ञान दूसरोंको होता है। धर्मसहित सम्पूर्ण वेद प्रवक्ताओंके ही मुखसे प्रकट होते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवक्तॄणि द्वयान्याहुरात्मज्ञानीतराणि च ।
आत्मज्ञानि विशिष्टानि जन्माजन्मोपधारणात् ॥ २० ॥
मूलम्
प्रवक्तॄणि द्वयान्याहुरात्मज्ञानीतराणि च ।
आत्मज्ञानि विशिष्टानि जन्माजन्मोपधारणात् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रवक्ता भी दो प्रकारके कहे गये हैं—आत्मज्ञ और अनात्मज्ञ। इनमें आत्मज्ञ पुरुष ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे जन्म और मृत्युके तत्त्वको समझते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मद्वयं हि यो वेद स सर्वज्ञः स सर्ववित्।
स त्यागी सत्यसंकल्पः सत्यः शुचिरथेश्वरः ॥ २१ ॥
मूलम्
धर्मद्वयं हि यो वेद स सर्वज्ञः स सर्ववित्।
स त्यागी सत्यसंकल्पः सत्यः शुचिरथेश्वरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप दो प्रकारके धर्मको जानता है, वही सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, त्यागी, सत्यसंकल्प, सत्यवादी, पवित्र और समर्थ होता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मज्ञानप्रतिष्ठं हि तं देवा ब्राह्मणं विदुः।
शब्दब्रह्मणि निष्णातं परे च कृतनिश्चयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
ब्रह्मज्ञानप्रतिष्ठं हि तं देवा ब्राह्मणं विदुः।
शब्दब्रह्मणि निष्णातं परे च कृतनिश्चयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शब्दब्रह्म (वेद) में पारंगत होकर परब्रह्मके तत्त्वका निश्चय कर चुका है और सदा ब्रह्मज्ञानमें ही स्थित रहता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःस्थं च बहिष्ठं च साधियज्ञाधिदैवतम्।
ज्ञानान्विता हि पश्यन्ति ते देवास्तात ते द्विजाः ॥ २३ ॥
मूलम्
अन्तःस्थं च बहिष्ठं च साधियज्ञाधिदैवतम्।
ज्ञानान्विता हि पश्यन्ति ते देवास्तात ते द्विजाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! जो लोग ज्ञानवान् होकर बाहर और भीतर व्याप्त अधियज्ञ (परमात्मा) और अधिदैव (पुरुष) का साक्षात्कार कर लेते हैं, वे ही देवता और वे ही द्विज हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु विश्वमिदं भूतं सर्वं च जगदाहितम्।
तेषां माहात्म्यभावस्य सदृशं नास्ति किंचन ॥ २४ ॥
मूलम्
तेषु विश्वमिदं भूतं सर्वं च जगदाहितम्।
तेषां माहात्म्यभावस्य सदृशं नास्ति किंचन ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींमें यह सारा विश्व, सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। उनके माहात्म्यकी कहीं कोई तुलना नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आद्यन्ते निधनं चैव कर्म चातीत्य सर्वशः।
चतुर्विधस्य भूतस्य सर्वस्येशाः स्वयम्भुवः ॥ २५ ॥
मूलम्
आद्यन्ते निधनं चैव कर्म चातीत्य सर्वशः।
चतुर्विधस्य भूतस्य सर्वस्येशाः स्वयम्भुवः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जन्म, मृत्यु और कर्मकी सीमाको भलीभाँति लाँघकर समस्त चतुर्विध प्राणियोंके अधीश्वर एवं स्वयम्भू होते हैं॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३७॥