भागसूचना
षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ध्यानके सहायक योग, उनके फल और सात प्रकारकी धारणाओंका वर्णन तथा सांख्य एवं योगके अनुसार ज्ञानद्वारा मोक्षकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेद् रोचयेदेतदुह्येत स्रोतसा यथा।
उन्मज्जंश्च निमज्जंश्च ज्ञानवान् प्लववान् भवेत् ॥ १ ॥
मूलम्
अथ चेद् रोचयेदेतदुह्येत स्रोतसा यथा।
उन्मज्जंश्च निमज्जंश्च ज्ञानवान् प्लववान् भवेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— वत्स! मनुष्य जिस प्रकार डूबता-उतराता हुआ जलके प्रवाहमें बहता रहता है और यदि संयोगवश कोई नौका मिल गयी तो उसकी सहायतासे पार लग जाता है, उसी प्रकार संसार-सागरमें डूबता-उतराता हुआ मानव यदि इस संकटसे मुक्त होना चाहे तो उसे ज्ञानरूपी नौकाका आश्रय लेना चाहिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञया निश्चिता धीरास्तारयन्त्यबुधान् प्लवैः।
नाबुधास्तारयन्त्यन्यानात्मानं वा कथंचन ॥ २ ॥
मूलम्
प्रज्ञया निश्चिता धीरास्तारयन्त्यबुधान् प्लवैः।
नाबुधास्तारयन्त्यन्यानात्मानं वा कथंचन ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें बुद्धिद्वारा तत्त्वका पूर्ण निश्चय हो गया है, वे धीर पुरुष अपनी ज्ञाननौकाद्वारा दूसरे अज्ञानियोंको भी भवसागरसे पार कर देते हैं, परंतु जो अज्ञानी हैं वे न तो दूसरोंको तार सकते हैं और न अपना ही किसी प्रकार उद्धार कर पाते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्नदोषो मुनिर्योगान् युक्तो युञ्जीत द्वादश।
देशकर्मानुरागार्थानुपायापायनिश्चयैः ॥ ३ ॥
चक्षुराहारसंहारैर्मनसा दर्शनेन च ।
मूलम्
छिन्नदोषो मुनिर्योगान् युक्तो युञ्जीत द्वादश।
देशकर्मानुरागार्थानुपायापायनिश्चयैः ॥ ३ ॥
चक्षुराहारसंहारैर्मनसा दर्शनेन च ।
अनुवाद (हिन्दी)
समाहितचित्त मुनिको चाहिये कि वह हृदयके राग आदि दोषोंको नष्ट करके योगमें सहायता पहुँचानेवाले देश, कर्म, अनुराग, अर्थ, उपाय, अपाय, निश्चय, चक्षुष्, आहार, संहार, मन और दर्शन—इन बारह योगोंका आश्रय ले ध्यानयोगका अभ्यास करे1॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्छेद् वाङ्मनसी बुद्ध्या य इच्छेज्ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४ ॥
ज्ञानेन यच्छेदात्मानं य इच्छेच्छान्तिमात्मनः।
मूलम्
यच्छेद् वाङ्मनसी बुद्ध्या य इच्छेज्ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४ ॥
ज्ञानेन यच्छेदात्मानं य इच्छेच्छान्तिमात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो उत्तम ज्ञान प्राप्त करना चाहता हो, उसे बुद्धिके द्वारा मन और वाणीको जीतना चाहिये तथा जो अपने लिये शान्ति चाहे, उसे ज्ञानद्वारा बुद्धिको परमात्मामें नियन्त्रित करना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां चेदनुद्रष्टा पुरुषोऽपि सुदारुणः ॥ ५ ॥
यदि वा सर्ववेदज्ञो यदि वाप्यनृचो द्विजः।
यदि वा धार्मिको यज्वा यदि वा पापकृत्तमः ॥ ६ ॥
यदि वा पुरुषव्याघ्रो यदि वा क्लेशधारितः।
तरत्येवं महादुर्गं जरामरणसागरम् ॥ ७ ॥
मूलम्
एतेषां चेदनुद्रष्टा पुरुषोऽपि सुदारुणः ॥ ५ ॥
यदि वा सर्ववेदज्ञो यदि वाप्यनृचो द्विजः।
यदि वा धार्मिको यज्वा यदि वा पापकृत्तमः ॥ ६ ॥
यदि वा पुरुषव्याघ्रो यदि वा क्लेशधारितः।
तरत्येवं महादुर्गं जरामरणसागरम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अत्यन्त दारुण हो या सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञाता हो अथवा ब्राह्मण होकर भी वैदिक ज्ञानसे शून्य हो अथवा धर्मपरायण एवं यज्ञशील हो या घोर पापाचारी हो अथवा पुरुषोंमें सिंहके समान शूरवीर हो या बड़े कष्टसे जीवन धारण करता हो, वह यदि इन बारह योगोंका भलीभाँति साक्षात्कार अर्थात् ज्ञान कर ले तो जरा-मृत्युके परम दुर्गम समुद्रसे पार हो जाता है॥५—७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ह्येतेन योगेन युञ्जानो ह्येवमन्ततः।
अपि जिज्ञासमानोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं ह्येतेन योगेन युञ्जानो ह्येवमन्ततः।
अपि जिज्ञासमानोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सिद्धिपर्यन्त इस योगका अभ्यास करनेवाला पुरुष यदि ब्रह्मका जिज्ञासु हो तो वेदोक्त सकाम कर्मोंकी सीमाको लाँघ जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मोपस्थो ह्रीवरूथ उपायापायकूबरः ।
अपानाक्षः प्राणयुगः प्रज्ञायुर्जीवबन्धनः ॥ ९ ॥
चेतनाबन्धुरश्चारुश्चाचारग्रहनेमिमान् ।
दर्शनस्पर्शनवहो घ्राणश्रवणवाहनः ॥ १० ॥
प्रज्ञानाभिः सर्वतन्त्रप्रतोदो ज्ञानसारथिः ।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितो धीरः श्रद्धादमपुरःसरः ॥ ११ ॥
त्यागसूक्ष्मानुगः क्षेम्यः शौचगो ध्यानगोचरः।
जीवयुक्तो रथो दिव्यो ब्रह्मलोके विराजते ॥ १२ ॥
मूलम्
धर्मोपस्थो ह्रीवरूथ उपायापायकूबरः ।
अपानाक्षः प्राणयुगः प्रज्ञायुर्जीवबन्धनः ॥ ९ ॥
चेतनाबन्धुरश्चारुश्चाचारग्रहनेमिमान् ।
दर्शनस्पर्शनवहो घ्राणश्रवणवाहनः ॥ १० ॥
प्रज्ञानाभिः सर्वतन्त्रप्रतोदो ज्ञानसारथिः ।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितो धीरः श्रद्धादमपुरःसरः ॥ ११ ॥
त्यागसूक्ष्मानुगः क्षेम्यः शौचगो ध्यानगोचरः।
जीवयुक्तो रथो दिव्यो ब्रह्मलोके विराजते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह योग एक सुन्दर रथ है। धर्म ही इसका पिछला भाग या बैठक है। लज्जा आवरण है। पूर्वोक्त उपाय और अपाय इसका कूबर है। अपानवायु धुरा है। प्राणवायु जूआ हैं। बुद्धि आयु है। जीवन बन्धन है। चैतन्य बन्धुर है। सदाचार-ग्रहण इस रथकी नेमि हैं। नेत्र, त्वचा, घ्राण और श्रवण इसके वाहन हैं। प्रज्ञा नाभि है। सम्पूर्ण शास्त्र चाबुक है। ज्ञान सारथि है। क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) इसपर रथी बनकर बैठा हुआ है। यह रथ धीरे-धीरे चलनेवाला है। श्रद्धा और इन्द्रियदमन इस रथके आगे-आगे चलनेवाले रक्षक हैं। त्यागरूपी सूक्ष्म गुण इसके अनुगामी (पृष्ठ-रक्षक) हैं। यह मंगलमय रथ ध्यानके पवित्र मार्गपर चलता है। इस प्रकार यह जीवयुक्त दिव्य रथ ब्रह्मलोकमें विराजमान होता है। अर्थात् इसके द्वारा जीवात्मा परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥९—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ संत्वरमाणस्य रथमेवं युयुक्षतः।
अक्षरं गन्तुमनसो विधिं वक्ष्यामि शीघ्रगम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अथ संत्वरमाणस्य रथमेवं युयुक्षतः।
अक्षरं गन्तुमनसो विधिं वक्ष्यामि शीघ्रगम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार योगरथपर आरूढ़ हो साधनकी इच्छा रखनेवाले तथा अविनाशी परब्रह्म परमात्माको तत्काल प्राप्त करनेकी कामनावाले साधकको जिस उपायसे शीघ्र सफलता मिलती है, वह उपाय मैं बता रहा हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्त या धारणाः कृत्स्ना वाग्यतः प्रतिपद्यते।
पृष्ठतः पार्श्वतश्चान्यास्तावत्यस्ताः प्रधारणाः ॥ १४ ॥
मूलम्
सप्त या धारणाः कृत्स्ना वाग्यतः प्रतिपद्यते।
पृष्ठतः पार्श्वतश्चान्यास्तावत्यस्ताः प्रधारणाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधक वाणीका संयम करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, बुद्धि और अहंकार-सम्बन्धी सात धारणाओंको सिद्ध करता है। इनके विषयों (गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, अहंवृत्ति और निश्चय) से सम्बन्धित सात प्रधारणाएँ इनकी पार्श्ववर्तिनी एवं पृष्ठवर्तिनी हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमशः पार्थिवं यच्च वायव्यं खं तथा पयः।
ज्योतिषो यत् तदैश्वर्यमहङ्कारस्य बुद्धितः।
अव्यक्तस्य तथैश्वर्यं क्रमशः प्रतिपद्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
क्रमशः पार्थिवं यच्च वायव्यं खं तथा पयः।
ज्योतिषो यत् तदैश्वर्यमहङ्कारस्य बुद्धितः।
अव्यक्तस्य तथैश्वर्यं क्रमशः प्रतिपद्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधक क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और बुद्धिके ऐश्वर्यपर अधिकार कर लेता है। इसके बाद वह क्रमपूर्वक अव्यक्त ब्रह्मका ऐश्वर्य भी प्राप्त कर लेता है1॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रमाश्चापि यस्यैते तथा युक्तेषु योगतः।
तथा योगस्य युक्तस्य सिद्धिमात्मनि पश्यतः ॥ १६ ॥
मूलम्
विक्रमाश्चापि यस्यैते तथा युक्तेषु योगतः।
तथा योगस्य युक्तस्य सिद्धिमात्मनि पश्यतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब योगाभ्यासमें प्रवृत्त हुए योगियोंमेंसे जिस योगीको ये आगे बताये जानेवाले पृथ्वीजय आदि ऐश्वर्य जिस प्रकार प्राप्त होते हैं; वह बताता हूँ तथा धारणापूर्वक ध्यान करते समय ब्रह्म-प्राप्तिका अनुभव करनेवाले योगीको जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसका भी वर्णन करता हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मुच्यमानः सूक्ष्मत्वाद् रूपाणीमानि पश्यतः।
शैशिरस्तु यथा धूमः सूक्ष्मः संश्रयते नभः ॥ १७ ॥
मूलम्
निर्मुच्यमानः सूक्ष्मत्वाद् रूपाणीमानि पश्यतः।
शैशिरस्तु यथा धूमः सूक्ष्मः संश्रयते नभः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधक जब स्थूल देहके अभिमानसे मुक्त होकर ध्यानमें स्थित होता है, उस समय सूक्ष्मदृष्टिसे युक्त होनेके कारण उसे कुछ इस तरहके रूप (चिह्न) दिखायी पड़ते हैं। प्रारम्भमें पृथ्वीकी धारणा करते समय मालूम होता है कि शिशिरकालीन कुहरेके समान कोई सूक्ष्म वस्तु सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर रही है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा देहाद् विमुक्तस्य पूर्वं रूपं भवत्युत।
अथ धूमस्य विरमे द्वितीयं रूपदर्शनम् ॥ १८ ॥
मूलम्
तथा देहाद् विमुक्तस्य पूर्वं रूपं भवत्युत।
अथ धूमस्य विरमे द्वितीयं रूपदर्शनम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार देहाभिमानसे मुक्त हुए योगीके अनुभवका यह पहला रूप है। जब कुहरा निवृत्त हो जाता है, तब दूसरे रूपका दर्शन होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलरूपमिवाकाशे तथैवात्मनि पश्यति ।
अपां व्यतिक्रमे चास्य वह्निरूपं प्रकाशते ॥ १९ ॥
मूलम्
जलरूपमिवाकाशे तथैवात्मनि पश्यति ।
अपां व्यतिक्रमे चास्य वह्निरूपं प्रकाशते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सम्पूर्ण आकाशमें जल-ही-जल-सा देखता है तथा आत्माको भी जलरूप अनुभव करता है (यह अनुभव जलतत्त्वकी धारणा करते समय होता है)। फिर जलका लय हो जानेपर अग्नितत्त्वकी धारणा करते समय उसे सर्वत्र अग्नि प्रकाशित दिखायी देती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नुपरतेऽजोऽस्य पीतशस्त्रः प्रकाशते ।
ऊर्णारूपसवर्णस्य तस्य रूपं प्रकाशते ॥ २० ॥
मूलम्
तस्मिन्नुपरतेऽजोऽस्य पीतशस्त्रः प्रकाशते ।
ऊर्णारूपसवर्णस्य तस्य रूपं प्रकाशते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके भी लय हो जानेपर योगीको आकाशमें सर्वत्र फैले हुए वायुका ही अनुभव होता है। उस समय वृक्ष और पर्वत आदि अपने समस्त शस्त्रोंको पी जानेके कारण वायुकी ‘पीतशस्त्र’ संज्ञा हो जाती है अर्थात् पृथ्वी, जल और तेजरूप समस्त पदार्थोंको निगलकर वायु केवल आकाशमें ही आन्दोलित होता रहता है और साधक स्वयं भी ऊनके धागेके समान अत्यन्त छोटा और हलका होकर अपनेको निराधार आकाशमें वायुके साथ ही स्थित मानता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ श्वेतां गतिं गत्वा वायव्यं सूक्ष्ममप्युत।
अशुक्लं चेतसः सौक्ष्म्यमप्युक्तं ब्राह्मणस्य वै ॥ २१ ॥
मूलम्
अथ श्वेतां गतिं गत्वा वायव्यं सूक्ष्ममप्युत।
अशुक्लं चेतसः सौक्ष्म्यमप्युक्तं ब्राह्मणस्य वै ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर तेजका संहार और वायु-तत्त्वपर विजय प्राप्त होनेके पश्चात् वायुका सूक्ष्म रूप स्वच्छ आकाशमें लीन हो जाता है और केवल नीलाकाशमात्र शेष रह जाता है। उस अवस्थामें ब्रह्मभावको प्राप्त होनेकी इच्छा रखनेवाले योगीका चित्त अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है, ऐसा बताया गया है। (उसे अपने स्थूल रूपका तनिक भी भान नहीं रहता। यही वायुका लय और आकाशतत्त्वपर विजय कहलाता है)॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेष्वपि हि जातेषु फलजातानि मे शृणु।
जातस्य पार्थिवैश्वर्यैः सृष्टिरत्र विधीयते ॥ २२ ॥
मूलम्
एतेष्वपि हि जातेषु फलजातानि मे शृणु।
जातस्य पार्थिवैश्वर्यैः सृष्टिरत्र विधीयते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सब लक्षणोंके प्रकट हो जानेपर योगीको जो-जो फल प्राप्त होते हैं, उन्हें मुझसे सुनो। पार्थिव ऐश्वर्यकी सिद्धि हो जानेपर योगीमें सृष्टि करनेकी शक्ति आ जाती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिरिवाक्षोभ्यः शरीरात् सृजते प्रजाः।
अङ्गुल्यङ्गुष्ठमात्रेण हस्तपादेन वा तथा ॥ २३ ॥
पृथिवीं कम्पयत्येको गुणो वायोरिति श्रुतिः।
मूलम्
प्रजापतिरिवाक्षोभ्यः शरीरात् सृजते प्रजाः।
अङ्गुल्यङ्गुष्ठमात्रेण हस्तपादेन वा तथा ॥ २३ ॥
पृथिवीं कम्पयत्येको गुणो वायोरिति श्रुतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
वह प्रजापतिके समान क्षोभरहित होकर अपने शरीरसे प्रजाकी सृष्टि कर सकता है। जिसको वायुतत्त्व सिद्ध हो जाता है, वह बिना किसीकी सहायताके हाथ-पैर, अँगूठे अथवा अंगुलिमात्रसे दबाकर पृथ्वीको कम्पित कर सकता है—ऐसा सुननेमें आया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशभूतश्चाकाशे सवर्णत्वात् प्रकाशते ॥ २४ ॥
वर्णतो गुह्यते चापि कामात् पिबति चाशयान्।
मूलम्
आकाशभूतश्चाकाशे सवर्णत्वात् प्रकाशते ॥ २४ ॥
वर्णतो गुह्यते चापि कामात् पिबति चाशयान्।
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशको सिद्ध करनेवाला पुरुष आकाशमें आकाशके ही समान सर्वव्यापी हो जाता है। वह अपने शरीरको अन्तर्धान करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। जिसका जलतत्त्वपर अधिकार होता है, वह इच्छा करते ही बड़े-बड़े जलाशयोंको पी जाता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चास्य तेजसा रूपं दृश्यते शाम्यते तथा।
अहङ्कारेऽस्य विजिते पञ्चैते स्युर्वशानुगाः ॥ २५ ॥
मूलम्
न चास्य तेजसा रूपं दृश्यते शाम्यते तथा।
अहङ्कारेऽस्य विजिते पञ्चैते स्युर्वशानुगाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नितत्त्वको सिद्ध कर लेनेपर वह अपने शरीरको इतना तेजस्वी बना लेता है कि कोई उसकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता और न उसके तेजको बुझा ही सकता है। अहंकारको जीत लेनेपर पाँचों भूत योगीके वशमें हो जाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षण्णामात्मनि बुद्धौ च जितायां प्रभवत्यथ।
निर्दोषप्रतिभा ह्येनं कृत्स्ना समभिवर्तते ॥ २६ ॥
मूलम्
षण्णामात्मनि बुद्धौ च जितायां प्रभवत्यथ।
निर्दोषप्रतिभा ह्येनं कृत्स्ना समभिवर्तते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पञ्चभूत और अहंकार—इन छः तत्त्वोंका आत्मा है बुद्धि। उसको जीत लेनेपर सम्पूर्ण ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है तथा उस योगीको निर्दोष प्रतिभा (विशुद्ध तत्त्वज्ञान) पूर्ण रूपसे प्राप्त हो जाती है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव व्यक्तमात्मानमव्यक्तं प्रतिपद्यते ।
यतो निःसरते लोको भवति व्यक्तसंज्ञकः ॥ २७ ॥
मूलम्
तथैव व्यक्तमात्मानमव्यक्तं प्रतिपद्यते ।
यतो निःसरते लोको भवति व्यक्तसंज्ञकः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्त सप्त पदार्थोंका कार्यभूत व्यक्त जगत् अव्यक्त परमात्मामें ही विलीन हो जाता है, क्योंकि उन्हीं परमात्मासे यह जगत् उत्पन्न होता है और व्यक्त नाम धारण करता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राव्यक्तमयीं विद्यां शृणु त्वं विस्तरेण मे।
तथा व्यक्तमयं चैव सांख्ये पूर्वं निबोध मे ॥ २८ ॥
मूलम्
तत्राव्यक्तमयीं विद्यां शृणु त्वं विस्तरेण मे।
तथा व्यक्तमयं चैव सांख्ये पूर्वं निबोध मे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तुम सांख्यदर्शनमें वर्णित अव्यक्तविद्याका विस्तारपूर्वक मुझसे श्रवण करो। सर्वप्रथम सांख्यशास्त्रमें कथित व्यक्तविद्याको मुझसे समझो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशति तत्त्वानि तुल्यान्युभयतः समम्।
योगे सांख्येऽपि च तथा विशेषं तत्र मे शृणु॥२९॥
मूलम्
पञ्चविंशति तत्त्वानि तुल्यान्युभयतः समम्।
योगे सांख्येऽपि च तथा विशेषं तत्र मे शृणु॥२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्य और पातञ्जलयोग—इन दोनों दर्शनोंमें समानभावसे पचीस तत्त्वोंका प्रतिपादन किया गया है1। इस विषयमें जो विशेष बात है, वह मुझसे सुनो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोक्तं तद् व्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत्।
जीर्यते म्रियते चैव चतुर्भिर्लक्षणैर्युतम् ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रोक्तं तद् व्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत्।
जीर्यते म्रियते चैव चतुर्भिर्लक्षणैर्युतम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म, वृद्धि, जरा और मरण—इन चार लक्षणोंसे युक्त जो तत्त्व है, उसीको व्यक्त कहते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विपरीतमतो यत् तु तदव्यक्तमुदाहृतम्।
द्वावात्मानौ च वेदेषु सिद्धान्तेष्वप्युदाहृतौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
विपरीतमतो यत् तु तदव्यक्तमुदाहृतम्।
द्वावात्मानौ च वेदेषु सिद्धान्तेष्वप्युदाहृतौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्व इसके विपरीत हैं अर्थात् जिसमें जन्म आदि चारों विकार नहीं हैं, उसे अव्यक्त कहा गया है। वेदों और सिद्धान्तप्रतिपादक शास्त्रोंमें उस अव्यक्तके दो भेद बताये गये हैं—जीवात्मा और परमात्मा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्लक्षणजं त्वाद्यं चतुर्वर्गं प्रचक्षते।
व्यक्तमव्यक्तजं चैव तथा बुद्धमथेतरत्।
सत्त्वं क्षेत्रज्ञ इत्येतद् द्वयमप्यनुदर्शितम् ॥ ३२ ॥
द्वावात्मानौ च वेदेषु विषयेष्वनुरज्यतः।
विषयात् प्रतिसंहारः सांख्यानां सिद्धि लक्षणम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
चतुर्लक्षणजं त्वाद्यं चतुर्वर्गं प्रचक्षते।
व्यक्तमव्यक्तजं चैव तथा बुद्धमथेतरत्।
सत्त्वं क्षेत्रज्ञ इत्येतद् द्वयमप्यनुदर्शितम् ॥ ३२ ॥
द्वावात्मानौ च वेदेषु विषयेष्वनुरज्यतः।
विषयात् प्रतिसंहारः सांख्यानां सिद्धि लक्षणम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अव्यक्त होते हुए भी जीवात्मा व्यक्तके सम्पर्कसे जन्म, वृद्धि, जरा और मृत्यु—इन चार लक्षणोंसे युक्त तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चार पुरुषार्थोंसे सम्बन्धित कहा जाता है। दूसरा अव्यक्त परमात्मा ज्ञानस्वरूप है। व्यक्त (जडवर्ग) की उत्पत्ति उसी अव्यक्त (परमात्मा) से होती है। व्यक्तको सत्त्व (जडवर्ग—क्षेत्र) तथा अव्यक्त जीवात्माको क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार इन दोनोंहीका वर्णन किया गया है। वेदोंमें भी पूर्वोक्त दो आत्मा बताये गये हैं। विषयोंमें आसक्त हुआ जीवात्मा जब आसक्तिरहित होकर विषयोंसे निवृत्त हो जाता है, तब वह मुक्त कहलाता है। सांख्यवादियोंके मतमें यही मोक्षका लक्षण है॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्ममश्चानहङ्कारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः ।
नैव क्रुद्ध्यति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः ॥ ३४ ॥
आक्रुष्टस्ताडितश्चैव मैत्रेण ध्याति नाशुभम्।
वाग्दण्डकर्ममनसां त्रयाणां च निवर्तकः ॥ ३५ ॥
समः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते।
मूलम्
निर्ममश्चानहङ्कारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः ।
नैव क्रुद्ध्यति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः ॥ ३४ ॥
आक्रुष्टस्ताडितश्चैव मैत्रेण ध्याति नाशुभम्।
वाग्दण्डकर्ममनसां त्रयाणां च निवर्तकः ॥ ३५ ॥
समः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते।
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने ममता और अहंकारका त्याग कर दिया है, जो शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंको समानभावसे सहता है, जिसके संशय दूर हो गये हैं, जो कभी क्रोध और द्वेष नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, किसीकी गाली सुनकर और मार खाकर भी उसका अहित नहीं सोचता, सबपर मित्रभाव ही रखता है, जो मन, वाणी और कर्मसे किसी जीवको कष्ट नहीं पहुँचाता और समस्त प्राणियोंपर समानभाव रखता है, वही योगी ब्रह्मभावको प्राप्त होता है॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवेच्छति न चानिच्छो यात्रामात्रव्यवस्थितः ॥ ३६ ॥
अलोलुपोऽव्यथो दान्तो न कृती न निराकृतिः।
नास्येन्द्रियमनेकाग्रं न विक्षिप्तमनोरथः ॥ ३७ ॥
सर्वभूतसदृङ्मैत्रः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ ३८ ॥
अस्पृहः सर्वकामेभ्यो ब्रह्मचर्यदृढव्रतः ।
अहिंस्रः सर्वभूतानामीदृक् सांख्यो विमुच्यते ॥ ३९ ॥
मूलम्
नैवेच्छति न चानिच्छो यात्रामात्रव्यवस्थितः ॥ ३६ ॥
अलोलुपोऽव्यथो दान्तो न कृती न निराकृतिः।
नास्येन्द्रियमनेकाग्रं न विक्षिप्तमनोरथः ॥ ३७ ॥
सर्वभूतसदृङ्मैत्रः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ ३८ ॥
अस्पृहः सर्वकामेभ्यो ब्रह्मचर्यदृढव्रतः ।
अहिंस्रः सर्वभूतानामीदृक् सांख्यो विमुच्यते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसी वस्तुकी न तो इच्छा करता है, न अनिच्छा ही करता है, जीवन-निर्वाहमात्रके लिये जो कुछ मिल जाता है, उसीपर संतोष करता है, जो निर्लोभ, व्यथारहित और जितेन्द्रिय है, जिसको न तो कुछ करनेसे प्रयोजन है और न कुछ न करनेसे ही, जिसकी इन्द्रियाँ और मन कभी चंचल नहीं होते, जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है, जो समस्त प्राणियोंपर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है, मिट्टीके ढेले, पत्थर और स्वर्णको एक-सा समझता है, जिसकी दृष्टिमें प्रिय और अप्रियका भेद नहीं है, जो धीर है और अपनी निन्दा तथा स्तुतिमें सम रहता है, जो सम्पूर्ण भोगोंमें स्पृहारहित है, जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रतमें स्थित है तथा जो सब प्राणियोंमें हिंसाभावसे रहित है, ऐसा सांख्ययोगी (ज्ञानी) संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥३६—३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा योगाद् विमुच्यन्ते कारणैर्यैर्निबोध तत्।
योगैश्वर्यमतिक्रान्तो यो निष्क्रामति मुच्यते ॥ ४० ॥
मूलम्
यथा योगाद् विमुच्यन्ते कारणैर्यैर्निबोध तत्।
योगैश्वर्यमतिक्रान्तो यो निष्क्रामति मुच्यते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी जिस प्रकार और जिन कारणोंसे योगके फल-स्वरूप मोक्ष लाभ करते हैं, अब उन्हें बताता हूँ सुनो। जो परवैराग्यके बलसे योगजनित ऐश्वर्यको लाँघकर उसकी सीमासे बाहर निकल जाता है, वही मुक्त होता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येषा भावजा बुद्धिः कथिता ते न संशयः।
एवं भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्माणं चाधिगच्छति ॥ ४१ ॥
मूलम्
इत्येषा भावजा बुद्धिः कथिता ते न संशयः।
एवं भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्माणं चाधिगच्छति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! यह तुम्हारे निकट मैंने भावशुद्धिसे प्राप्त होनेवाली बुद्धिका वर्णन किया है। जो उपर्युक्तरूपसे साधना करके द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वही ब्रह्मभावको प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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ध्यानयोगके साधकको ऐसे स्थानपर आसन लगाना चाहिये, जो समतल और पवित्र हो। निर्जन वन, गुफा या ऐसा ही कोई एकान्त स्थान ही ध्यानके लिये उपयोगी होता है। ऐसे स्थानपर आसन लगानेको देशयोग कहते हैं। आहार-विहार, चेष्टा, सोना और जागना—ये सब परिमित और नियमानुकूल होने चाहिये। यही कर्मनामक योग है। परमात्मा एवं उसकी प्राप्तिके साधनोंमें तीव्र अनुराग रखना अनुरागयोग कहलाता है। केवल आवश्यक सामग्रीको ही रखना अर्थयोग है। ध्यानोपयोगी आसनसे बैठना उपाययोग है। संसारके विषयों और सगे-सम्बन्धियोंसे आसक्ति तथा ममता हटा लेनेको अपाययोग कहते हैं। गुरु और वेदशास्त्रके वचनोंपर विश्वास रखनेका नाम निश्चययोग है। चक्षुको नासिकाके अग्रभागपर स्थिर करना चक्षुर्योग है। शुद्ध और सात्त्विक भोजनका नाम है आहारयोग। विषयोंकी ओर होनेवाली मन-इन्द्रियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्तिको रोकना संहारयोग कहलाता है। मनको संकल्प-विकल्पसे रहित करके एकाग्र करना मनोयोग है। जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि होनेके समय महान् दुःख और दोषोंका वैराग्यपूर्वक दर्शन करना दर्शनयोग है। जिसे योगके द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी हो, उसे इन बारह योगोंका अवश्य अवलम्बन करना चाहिये। ↩︎ ↩︎ ↩︎