भागसूचना
पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणके कर्तव्यका प्रतिपादन करते हुए कालरूप नदको पार करनेका उपाय बतलाना
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयीं विद्यामवेक्षेत वेदेषूक्तामथाङ्गतः ।
ऋक्सामवर्णाक्षरतो यजुषोऽथर्वणस्तथा ॥ १ ॥
तिष्ठत्ये तेषु भगवान् षट्सु कर्मसु संस्थितः।
मूलम्
त्रयीं विद्यामवेक्षेत वेदेषूक्तामथाङ्गतः ।
ऋक्सामवर्णाक्षरतो यजुषोऽथर्वणस्तथा ॥ १ ॥
तिष्ठत्ये तेषु भगवान् षट्सु कर्मसु संस्थितः।
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— बेटा! ब्राह्मणको चाहिये कि वेदोंमें बतायी गयी त्रयी विद्या—‘अ उ म्’ इन तीन अक्षरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रणवविद्याका चिन्तन एवं विचार करे। वेदके छहों अंगोंसहित ऋक्, साम, यजुष् एवं अथर्वके मन्त्रोंका स्वर-व्यंजनके सहित अध्ययन करे; क्योंकि यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह—इन छः कर्मोंमें विराजमान भगवान् धर्म ही इन वेदोंमें प्रतिष्ठित हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदवादेषु कुशला ह्यध्यात्मकुशलाश्च ये ॥ २ ॥
सत्त्ववन्तो महाभागाः पश्यन्ति प्रभवाप्ययौ।
एवं धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत् ॥ ३ ॥
मूलम्
वेदवादेषु कुशला ह्यध्यात्मकुशलाश्च ये ॥ २ ॥
सत्त्ववन्तो महाभागाः पश्यन्ति प्रभवाप्ययौ।
एवं धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग वेदोंके प्रवचनमें निपुण, अध्यात्मज्ञानमें कुशल, सत्त्वगुणसम्पन्न और महान् भाग्यशाली हैं, वे जगत्की सृष्टि और प्रलयको ठीक-ठीक जानते हैं; अतः ब्राह्मणको इस प्रकार धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए शिष्ट पुरुषोंकी भाँति सदाचारका पालन करना चाहिये॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत वै द्विजः।
सद्भ्य आगतविज्ञानः शिष्टः शास्त्रविचक्षणः ॥ ४ ॥
मूलम्
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत वै द्विजः।
सद्भ्य आगतविज्ञानः शिष्टः शास्त्रविचक्षणः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण किसी भी जीवको कष्ट न देकर—उसकी जीविकाका हनन न करके अपनी जीविका चलानेकी इच्छा करे। संतोंकी सेवामें रहकर तत्त्वज्ञान प्राप्त करे, सत्पुरुष बने और शास्त्रकी व्याख्या करनेमें कुशल हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधर्मेण क्रिया लोके कुर्वाणः सत्यसंगरः।
तिष्ठते तेषु गृहवान् षट्सु कर्मसु स द्विजः ॥ ५ ॥
मूलम्
स्वधर्मेण क्रिया लोके कुर्वाणः सत्यसंगरः।
तिष्ठते तेषु गृहवान् षट्सु कर्मसु स द्विजः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्में अपने धर्मके अनुकूल कर्म करे, सत्यप्रतिज्ञ बने। गृहस्थ ब्राह्मणको पूर्वोक्त छः कर्मोंमें ही स्थित रहना चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभिः सततं यज्ञैः श्रद्दधानो यजेत च।
धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् ॥ ६ ॥
मूलम्
पञ्चभिः सततं यज्ञैः श्रद्दधानो यजेत च।
धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा श्रद्धापूर्वक पञ्च-महायज्ञोंद्वारा परमात्माका पूजन करे, सर्वदा धैर्य धारण करे। प्रमाद (अकर्तव्य कर्मको करने और कर्तव्य कर्मकी अवहेलना करने) से बचे, इन्द्रियोंको संयममें रखे, धर्मका ज्ञाता बने और मनको भी अपने अधीन रखे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीतहर्षमदक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति ।
दानमध्ययनं यज्ञस्तपो ह्रीरार्जवं दमः ॥ ७ ॥
एतैर्वर्धयते तेजः पाप्मानं चापकर्षति।
मूलम्
वीतहर्षमदक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति ।
दानमध्ययनं यज्ञस्तपो ह्रीरार्जवं दमः ॥ ७ ॥
एतैर्वर्धयते तेजः पाप्मानं चापकर्षति।
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण हर्ष, मद और क्रोधसे रहित है, उसे कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता है। दान, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, लज्जा, सरलता और इन्द्रियसंयम—इन सद्गुणोंसे ब्राह्मण अपने तेजकी वृद्धि और पापका नाश करता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूतपाप्मा च मेधावी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद् ब्रह्मणः पदम्।
मूलम्
धूतपाप्मा च मेधावी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद् ब्रह्मणः पदम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पाप धुल जानेपर बुद्धिमान् ब्राह्मण स्वल्पाहार करते हुए इन्द्रियोंको जीते और काम तथा क्रोधको अधीन करके ब्रह्मपदको प्राप्त करनेकी इच्छा करे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नींश्च ब्राह्मणांश्चार्चेद् देवताः प्रणमेत च ॥ ९ ॥
वर्जयेदुशतीं वाचं हिंसां चाधर्मसंहिताम्।
एषा पूर्वगता वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते ॥ १० ॥
मूलम्
अग्नींश्च ब्राह्मणांश्चार्चेद् देवताः प्रणमेत च ॥ ९ ॥
वर्जयेदुशतीं वाचं हिंसां चाधर्मसंहिताम्।
एषा पूर्वगता वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि, ब्राह्मण और देवताओंको प्रणाम एवं उनका पूजन करे। कड़वी बात मुँहसे न निकाले और हिंसा न करे; क्योंकि वह अधर्मसे युक्त है। यह ब्राह्मणके लिये परम्परागत वृत्ति (कर्तव्य) का विधान किया गया है॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानागमेन कर्माणि कुर्वन् कर्मसु सिध्यति।
पञ्चेन्द्रियजलां घोरां लोभकूलां सुदुस्तराम् ॥ ११ ॥
मन्युपङ्कामनाधृष्यां नदीं तरति बुद्धिमान्।
कालमभ्युद्यतं पश्येन्नित्यमत्यन्तमोहनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
ज्ञानागमेन कर्माणि कुर्वन् कर्मसु सिध्यति।
पञ्चेन्द्रियजलां घोरां लोभकूलां सुदुस्तराम् ॥ ११ ॥
मन्युपङ्कामनाधृष्यां नदीं तरति बुद्धिमान्।
कालमभ्युद्यतं पश्येन्नित्यमत्यन्तमोहनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मोंके तत्त्वको जानकर उनका अनुष्ठान करनेसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। संसारका जीवन एक भयंकर नदीके समान है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इस नदीका जल हैं। लोभ किनारा है। क्रोध इसके भीतर कीचड़ है। इसे पार करना अत्यन्त कठिन है और इसके वेगको दबाना अत्यन्त असम्भव है, तथापि बुद्धिमान् पुरुष इसे पार कर जाता है। प्राणियोंको अत्यन्त मोहमें डालनेवाला काल सदा आक्रमण करनेके लिये उद्यत है, इस बातकी ओर सदा ही दृष्टि रखे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता विधिदृष्टेन बलेनाप्रतिघातिना ।
स्वभावस्रोतसा वृत्तमुह्यते सततं जगत् ॥ १३ ॥
मूलम्
महता विधिदृष्टेन बलेनाप्रतिघातिना ।
स्वभावस्रोतसा वृत्तमुह्यते सततं जगत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महान् है, जो विधाताकी ही दृष्टिमें आ सकता है तथा जिसका बल कहीं प्रतिहत नहीं होता, उस स्वभावरूप धारा-प्रवाहमें यह सारा जगत् निरन्तर बहता जा रहा है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालोदकेन महता वर्षावर्तेन संततम्।
मासोर्मिणर्तुवेगेन पक्षोलपतृणेन च ॥ १४ ॥
निमेषोन्मेषफेनेन अहोरात्रजलेन च ।
कामग्राहेण घोरेण वेदयज्ञप्लवेन च ॥ १५ ॥
धर्मद्वीपेन भूतानां चार्थकामजलेन च।
ऋतवाङ्मोक्षतीरेण विहिंसातरुवाहिना ॥ १६ ॥
युगह्रदौघमध्येन ब्रह्मप्रायभवेन च ।
धात्रा सृष्टानि भूतानि कृष्यन्ते यमसादनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
कालोदकेन महता वर्षावर्तेन संततम्।
मासोर्मिणर्तुवेगेन पक्षोलपतृणेन च ॥ १४ ॥
निमेषोन्मेषफेनेन अहोरात्रजलेन च ।
कामग्राहेण घोरेण वेदयज्ञप्लवेन च ॥ १५ ॥
धर्मद्वीपेन भूतानां चार्थकामजलेन च।
ऋतवाङ्मोक्षतीरेण विहिंसातरुवाहिना ॥ १६ ॥
युगह्रदौघमध्येन ब्रह्मप्रायभवेन च ।
धात्रा सृष्टानि भूतानि कृष्यन्ते यमसादनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालरूपी महान् नद बह रहा है। इसमें वर्षरूपी भँवरें सदा उठ रही हैं। महीने इसकी उत्ताल तरंगें हैं। ऋतु वेग हैं। पक्ष लता और तृण हैं। निमेष और उन्मेष फेन हैं। दिन और रात जल-प्रवाह हैं। कामदेव भयंकर ग्राह है। वेद और यज्ञ नौका हैं। धर्म प्राणियोंका आश्रयभूत द्वीप है। अर्थ और काम जल हैं। सत्यभाषण और मोक्ष दोनों किनारे हैं। हिंसारूपी वृक्ष उस कालरूपी प्रवाहमें बह रहे हैं। युग ह्रद है तथा ब्रह्म ही उस कालनदको उत्पन्न करनेवाला पर्वत है। उसी प्रवाहमें पड़कर विधाताके रचे हुए समस्त प्राणी यमलोककी ओर खिंचे चले जा रहे हैं॥१४—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् प्रज्ञामयैर्धीरा निस्तरन्ति मनीषिणः।
प्लवैरप्लववन्तो हि किं करिष्यन्त्यचेतसः ॥ १८ ॥
मूलम्
एतत् प्रज्ञामयैर्धीरा निस्तरन्ति मनीषिणः।
प्लवैरप्लववन्तो हि किं करिष्यन्त्यचेतसः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् और धीर मनुष्य प्रज्ञारूप नौकाओंद्वारा उस कालनदके पार हो जाते हैं। जो वैसी नौकाओंसे रहित हैं, वे अविवेकी मनुष्य क्या करेंगे?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नं हि यत् प्राज्ञो निस्तरेन्नेतरो जनः।
दूरतो गुणदोषौ हि प्राज्ञः सर्वत्र पश्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
उपपन्नं हि यत् प्राज्ञो निस्तरेन्नेतरो जनः।
दूरतो गुणदोषौ हि प्राज्ञः सर्वत्र पश्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष जो कालनदसे पार हो जाता है और अज्ञानी मनुष्य नहीं पार होता है, यह युक्तिसंगत ही है; क्योंकि ज्ञानवान् पुरुष सर्वत्र गुण और दोषोंको दूरसे ही देख लेता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशयं स तु कामात्मा चलचित्तोऽल्पचेतनः।
अप्राज्ञो न तरत्येनं यो ह्यास्ते न स गच्छति॥२०॥
मूलम्
संशयं स तु कामात्मा चलचित्तोऽल्पचेतनः।
अप्राज्ञो न तरत्येनं यो ह्यास्ते न स गच्छति॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामनाओंमें आसक्त, चंचलचित्त, मन्दबुद्धि एवं अज्ञानी पुरुष संदेहमें पड़ जानेके कारण कालनदको पार नहीं कर पाता तथा जो निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है, वह भी उसके पार नहीं जा सकता॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्लवो हि महादोषं मुह्यमानो नियच्छति।
कामग्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः ॥ २१ ॥
मूलम्
अप्लवो हि महादोषं मुह्यमानो नियच्छति।
कामग्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके पास ज्ञानमयी नौका नहीं है, वह मोहितचित्त मूढ़ मानव महान् दोषको प्राप्त होता है। कामरूपी ग्राहसे पीड़ित होनेके कारण ज्ञान भी उसके लिये नौका नहीं बन पाता॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादुन्मज्जनस्यार्थे प्रयतेत विचक्षणः ।
एतदुन्मज्जनं तस्य यदयं ब्राह्मणो भवेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्मादुन्मज्जनस्यार्थे प्रयतेत विचक्षणः ।
एतदुन्मज्जनं तस्य यदयं ब्राह्मणो भवेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको कालनद या भवसागरसे पार होनेका अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। उसका पार होना यही है कि वह वास्तवमें ब्राह्मण बन जाय अर्थात् ब्रह्मज्ञान प्राप्त करे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवदातेषु संजातस्त्रिसंदेहस्त्रिकर्मकृत् ।
तस्मादुन्मज्जने तिष्ठेत् प्रज्ञया निस्तरेद् यथा ॥ २३ ॥
मूलम्
अवदातेषु संजातस्त्रिसंदेहस्त्रिकर्मकृत् ।
तस्मादुन्मज्जने तिष्ठेत् प्रज्ञया निस्तरेद् यथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह—इन तीन कर्मोंको संदेहकी दृष्टिसे देखे (कि कहीं इनमें आसक्त न हो जाऊँ) और अध्ययन, यजन तथा दान—इन तीन कर्मोंका अवश्य पालन करे। वह जैसे भी हो प्रज्ञाद्वारा अपने उद्धारका प्रयत्न करे, उस कालनदसे पार हो जाय॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः।
प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत्र च ॥ २४ ॥
मूलम्
संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः।
प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत्र च ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियोंपर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुषको इहलोक और परलोकमें कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तेत तेषु गृहवानक्रुद्ध्यन्ननसूयकः ।
पञ्चभिः सततं यज्ञैर्विघसाशी यजेत च ॥ २५ ॥
मूलम्
वर्तेत तेषु गृहवानक्रुद्ध्यन्ननसूयकः ।
पञ्चभिः सततं यज्ञैर्विघसाशी यजेत च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ ब्राह्मण क्रोध और दोष-दृष्टिका त्याग करके पूर्वोक्त नियमोंके पालनमें संलग्न रहे। नित्य पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे और यज्ञशिष्ट अन्नका ही भोजन करे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतां धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत्।
असंरोधेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेदगर्हिताम् ॥ २६ ॥
मूलम्
सतां धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत्।
असंरोधेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेदगर्हिताम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुषोंके धर्मके अनुसार चले और शिष्टाचारका पालन करे तथा ऐसी आजीविका प्राप्त करनेकी इच्छा करे, जिससे दूसरे लोगोंकी जीविकाका हनन न हो और जिसकी लोकमें निन्दा न होती हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतिविज्ञानतत्त्वज्ञः शिष्टाचारो विचक्षणः ।
स्वधर्मेण क्रियावांश्च कर्मणा सोऽप्यसंकरः ॥ २७ ॥
मूलम्
श्रुतिविज्ञानतत्त्वज्ञः शिष्टाचारो विचक्षणः ।
स्वधर्मेण क्रियावांश्च कर्मणा सोऽप्यसंकरः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको वेदका विद्वान्, तत्त्वज्ञानी, सदाचारी और चतुर होना चाहिये। वह अपने धर्मके अनुसार कार्य करे, परंतु कर्मद्वारा संकरता न फैलावे अर्थात् स्वधर्म और परधर्मका सम्मिश्रण न करे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियावान् श्रद्दधानो हि दान्तः प्राज्ञोऽनसूयकः।
धर्माधर्मविशेषज्ञः सर्वं तरति दुस्तरम् ॥ २८ ॥
मूलम्
क्रियावान् श्रद्दधानो हि दान्तः प्राज्ञोऽनसूयकः।
धर्माधर्मविशेषज्ञः सर्वं तरति दुस्तरम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने धर्मके अनुसार कार्य करनेवाला, श्रद्धालु, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, विद्वान्, किसीके दोष न देखनेवाला तथा धर्म और अधर्मका विशेषज्ञ है, वह सम्पूर्ण दुःखोंसे पार हो जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् ।
वीतहर्षमदक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति ॥ २९ ॥
मूलम्
धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् ।
वीतहर्षमदक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धैर्यवान्, प्रमादशून्य, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, मनस्वी तथा हर्ष, मद और क्रोधसे रहित है, वह ब्राह्मण कभी विषादको नहीं प्राप्त होता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा पुरातनी वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते।
ज्ञानवत्त्वेन कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
एषा पुरातनी वृत्तिर्ब्राह्मणस्य विधीयते।
ज्ञानवत्त्वेन कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह ब्राह्मणकी प्राचीनकालसे चली आनेवाली वृत्तिका विधान किया गया है। ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले ब्राह्मणको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मं धर्मकामो हि करोति ह्यविचक्षणः।
धर्मं वाधर्मसंकाशं शोचन्निव करोति सः ॥ ३१ ॥
धर्मं करोमीति करोत्यधर्म-
मधर्मकामश्च करोति धर्मम् ।
उभे बालः कर्मणी न प्रजानन्
स जायते म्रियते चापि देही ॥ ३२ ॥
मूलम्
अधर्मं धर्मकामो हि करोति ह्यविचक्षणः।
धर्मं वाधर्मसंकाशं शोचन्निव करोति सः ॥ ३१ ॥
धर्मं करोमीति करोत्यधर्म-
मधर्मकामश्च करोति धर्मम् ।
उभे बालः कर्मणी न प्रजानन्
स जायते म्रियते चापि देही ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूढ़ है, वह धर्मकी इच्छा रखकर भी अधर्म करता है अथवा शोकमग्न-सा होकर अधर्मतुल्य धर्मका सम्पादन करता है। मूर्ख या अविवेकी मनुष्य न जाननेके कारण ‘मैं धर्म कर रहा हूँ’ ऐसा समझकर अधर्म करता है और अधर्मकी इच्छा रखकर धर्म करता है, इस प्रकार अज्ञानपूर्वक दोनों तरहके कर्म करनेवाला देहधारी मनुष्य बारंबार जन्म लेता और मरता है॥३१-३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३५॥