भागसूचना
चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणोंका कर्तव्य और उन्हें दान देनेकी महिमाका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतग्रामे नियुक्तं यत् तदेतत् कीर्तितं मया।
ब्राह्मणस्य तु यत् कृत्यं तत् ते वक्ष्यामि तच्छृणु॥१॥
मूलम्
भूतग्रामे नियुक्तं यत् तदेतत् कीर्तितं मया।
ब्राह्मणस्य तु यत् कृत्यं तत् ते वक्ष्यामि तच्छृणु॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— बेटा! तुमने भूतसमुदायके विषयमें जो प्रश्न किया था, उसीके उत्तरमें मैंने यह सब बताया है। अब मैं तुम्हें ब्राह्मणका जो कर्तव्य है, वह बता रहा हूँ, सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातकर्मप्रभृत्यस्य कर्मणां दक्षिणावताम् ।
क्रिया स्यादासमावृत्तेराचार्ये वेदपारगे ॥ २ ॥
मूलम्
जातकर्मप्रभृत्यस्य कर्मणां दक्षिणावताम् ।
क्रिया स्यादासमावृत्तेराचार्ये वेदपारगे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण-बालकके जातकर्मसे लेकर समावर्तनतक समस्त संस्कार वेदोंके पारंगत विद्वान् आचार्यके निकट रहकर सम्पन्न होने चाहिये और उनमें समुचित दक्षिणा देनी चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्य वेदानखिलान् गुरुशुश्रूषणे रतः।
गुरूणामनृणो भूत्वा समावर्तेत यज्ञवित् ॥ ३ ॥
मूलम्
अधीत्य वेदानखिलान् गुरुशुश्रूषणे रतः।
गुरूणामनृणो भूत्वा समावर्तेत यज्ञवित् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपनयनके पश्चात् ब्राह्मण-बालक गुरुशुश्रूषामें तत्पर हो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे। तत्पश्चात् पर्याप्त गुरु-दक्षिणा दे। गुरु-ऋणसे उऋण हो वह यज्ञवेत्ता बालक समावर्तन-संस्कारके पश्चात् घर लौटे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्येणाभ्यनुज्ञातश्चतुर्णामेकमाश्रमम् ।
आविमोक्षाच्छरीरस्य सोऽवतिष्ठेद् यथाविधि ॥ ४ ॥
मूलम्
आचार्येणाभ्यनुज्ञातश्चतुर्णामेकमाश्रमम् ।
आविमोक्षाच्छरीरस्य सोऽवतिष्ठेद् यथाविधि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आचार्यकी आज्ञा लेकर चारों आश्रमोंमेंसे किसी एक आश्रममें शास्त्रोक्त विधिके अनुसार जीवनपर्यन्त रहे (अथवा क्रमशः सभी आश्रमोंमें प्रवेश करे)॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजासर्गेण दारैश्च ब्रह्मचर्येण वा पुनः।
वने गुरुसकाशे वा यतिधर्मेण वा पुनः ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रजासर्गेण दारैश्च ब्रह्मचर्येण वा पुनः।
वने गुरुसकाशे वा यतिधर्मेण वा पुनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी इच्छा हो तो स्त्री-परिग्रह करके गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए संतान उत्पन्न करे अथवा आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे या वनमें रहकर वानप्रस्थ-धर्मका आचरण करे अथवा गुरुके समीप रहे या संन्यास-धर्मके अनुसार जीवन व्यतीत करे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते।
यत्र पक्वकषायो हि दान्तः सर्वत्र सिध्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते।
यत्र पक्वकषायो हि दान्तः सर्वत्र सिध्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह गृहस्थ-आश्रम सब धर्मोंका मूल कहा जाता है। इसमें रहकर अन्तःकरणके रागादि दोष पक जानेपर जितेन्द्रिय पुरुषको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजावान् श्रोत्रियो यज्वा मुक्त एव ऋणैस्त्रिभिः।
अथान्यानाश्रमान् पश्चात् पूतो गच्छेत कर्मभिः ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रजावान् श्रोत्रियो यज्वा मुक्त एव ऋणैस्त्रिभिः।
अथान्यानाश्रमान् पश्चात् पूतो गच्छेत कर्मभिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ पुरुष संतान उत्पन्न करके पितृ-ऋणसे, वेदोंका स्वाध्याय करके ऋषि-ऋणसे और यज्ञोंका अनुष्ठान करके देव-ऋणसे छुटकारा पाता है। इस प्रकार तीनों ऋणोंसे मुक्त हो विहित कर्मोंका सम्पादन करके पवित्र बने। तत्पश्चात् दूसरे आश्रमोंमें प्रवेश करे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् पृथिव्यां पुण्यतमं विद्यात् स्थानं तदावसेत्।
यतेत तस्मिन् प्रामाण्यं गन्तुं यशसि चोत्तमे ॥ ८ ॥
मूलम्
यत् पृथिव्यां पुण्यतमं विद्यात् स्थानं तदावसेत्।
यतेत तस्मिन् प्रामाण्यं गन्तुं यशसि चोत्तमे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पृथ्वीपर जो स्थान पवित्र एवं उत्तम जान पड़े, वहीं निवास करे। उसी स्थानमें रहकर वह उत्तम यशके विषयमें अपनेको आदर्श पुरुष बनानेका प्रयत्न करे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा वा सुमहता विद्यानां पारणेन वा।
इज्यया वा प्रदानैर्वा विप्राणां वर्धते यशः ॥ ९ ॥
यावदस्य भवत्यस्मिन् कीर्तिर्लोके यशस्करी।
तावत् पुण्यकृतां लोकाननन्तान् पुरुषोऽश्नुते ॥ १० ॥
मूलम्
तपसा वा सुमहता विद्यानां पारणेन वा।
इज्यया वा प्रदानैर्वा विप्राणां वर्धते यशः ॥ ९ ॥
यावदस्य भवत्यस्मिन् कीर्तिर्लोके यशस्करी।
तावत् पुण्यकृतां लोकाननन्तान् पुरुषोऽश्नुते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् तप, पूर्ण विद्याध्ययन, यज्ञ अथवा दान करनेसे ब्राह्मणोंका यश बढ़ता है। जबतक इस जगत्में यशको बढ़ानेवाली उसकी कीर्ति बनी रहती है, तबतक वह पुण्यवानोंके अक्षय लोकोंमें निवास करके दिव्य सुख भोगता रहता है॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यापयेदधीयीत याजयेत यजेत वा।
न वृथा प्रतिगृह्णीयान्न च दद्यात् कथंचन ॥ ११ ॥
मूलम्
अध्यापयेदधीयीत याजयेत यजेत वा।
न वृथा प्रतिगृह्णीयान्न च दद्यात् कथंचन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रह—इन छः कर्मोंका आश्रय लेना चाहिये; परंतु उसे किसी तरह न तो अनुचित प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये, न व्यर्थ दान ही देना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्यतः शिष्यतो वापि कन्याया वा धनं महत्।
यदाऽऽगच्छेद् यजेद् दद्यान्नैकोऽश्नीयात् कथंचन ॥ १२ ॥
मूलम्
याज्यतः शिष्यतो वापि कन्याया वा धनं महत्।
यदाऽऽगच्छेद् यजेद् दद्यान्नैकोऽश्नीयात् कथंचन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यजमानसे, शिष्यसे अथवा कन्या-शुल्कसे जब महान् धन प्राप्त हो, तब उसके द्वारा यज्ञ करे, दान दे, अकेला किसी तरह उस धनका उपभोग न करे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहमावसतो ह्यस्य नान्यत् तीर्थं प्रतिग्रहात्।
देवर्षिपितृगुर्वर्थं वृद्धातुरबुभुक्षताम् ॥ १३ ॥
मूलम्
गृहमावसतो ह्यस्य नान्यत् तीर्थं प्रतिग्रहात्।
देवर्षिपितृगुर्वर्थं वृद्धातुरबुभुक्षताम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, ऋषि, पितर, गुरु, वृद्ध, रोगी और भूखे मनुष्योंको भोजन देनेके लिये गृहस्थ ब्राह्मणको प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये। प्रतिग्रहके सिवा ब्राह्मणके लिये धनसंग्रहका दूसरा कोई पवित्र मार्ग नहीं है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्हिताधितप्तानां यथाशक्ति बुभूषताम् ।
देवानामतिशक्त्यापि देयमेषां कृतादपि ॥ १४ ॥
अर्हतामनुरूपाणां नादेयं ह्यस्ति किंचन।
उच्चैः श्रवसमप्यश्वं प्रापणीयं सतां विदुः ॥ १५ ॥
मूलम्
अन्तर्हिताधितप्तानां यथाशक्ति बुभूषताम् ।
देवानामतिशक्त्यापि देयमेषां कृतादपि ॥ १४ ॥
अर्हतामनुरूपाणां नादेयं ह्यस्ति किंचन।
उच्चैः श्रवसमप्यश्वं प्रापणीयं सतां विदुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दारिद्र्यग्रस्त होनेके कारण लज्जासे छिपे-छिपे फिरते हैं तथा अत्यन्त संतप्त हैं, अथवा जो यथाशक्ति अपनी पारमार्थिक उन्नतिके लिये प्रयत्न करना चाहते हैं, ऐसे भूदेवोंको उपार्जित धनमेंसे यथाशक्ति देना चाहिये। योग्य एवं पूजनीय ब्राह्मणोंके लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। वैसे सत्पात्रोंके लिये तो उच्चैःश्रवा घोड़ा भी दिया जा सकता है, यह श्रेष्ठ पुरुषोंका मत है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुनीय यथाकामं सत्यसंधो महाव्रतः।
स्वैः प्राणैर्ब्राह्मणप्राणान् परित्राय दिवं गतः ॥ १६ ॥
मूलम्
अनुनीय यथाकामं सत्यसंधो महाव्रतः।
स्वैः प्राणैर्ब्राह्मणप्राणान् परित्राय दिवं गतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् व्रतधारी राजा सत्यसंधने इच्छानुसार अनुनय-विनय करके अपने प्राणोंद्वारा एक ब्राह्मणके प्राणोंकी रक्षा की थी, ऐसा करके वे स्वर्गलोकमें गये थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रन्तिदेवश्च सांकृत्यो वसिष्ठाय महात्मने।
अपः प्रदाय शीतोष्णा नाकपृष्ठे महीयते ॥ १७ ॥
मूलम्
रन्तिदेवश्च सांकृत्यो वसिष्ठाय महात्मने।
अपः प्रदाय शीतोष्णा नाकपृष्ठे महीयते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संकृतिके पुत्र राजा रन्तिदेवने महात्मा वसिष्ठको शीतोष्ण जल प्रदान किया था, जिससे वे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्रेयश्चेन्द्रदमनो ह्यर्हते विविधं धनम्।
दत्त्वा लोकान् ययौ धीमाननन्तान् स महीपतिः ॥ १८ ॥
मूलम्
आत्रेयश्चेन्द्रदमनो ह्यर्हते विविधं धनम्।
दत्त्वा लोकान् ययौ धीमाननन्तान् स महीपतिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्रिवंशज बुद्धिमान् राजा इन्द्रदमनने एक योग्य ब्राह्मणको नाना प्रकारके धनका दान करके अक्षय लोक प्राप्त किये थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिरौशीनरोऽङ्गानि सुतं च प्रियमौरसम्।
ब्राह्मणार्थमुपाहृत्य नाकपृष्ठमितो गतः ॥ १९ ॥
मूलम्
शिबिरौशीनरोऽङ्गानि सुतं च प्रियमौरसम्।
ब्राह्मणार्थमुपाहृत्य नाकपृष्ठमितो गतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उशीनरके पुत्र राजा शिबिने किसी ब्राह्मणके लिये अपने शरीर और प्रिय औरस पुत्रका दान कर दिया था, जिससे वे यहाँसे स्वर्गलोकमें गये थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतर्दनः काशिपतिः प्रदाय नयने स्वके।
ब्राह्मणायातुलां कीर्तिमिह चामुत्र चाश्नुते ॥ २० ॥
मूलम्
प्रतर्दनः काशिपतिः प्रदाय नयने स्वके।
ब्राह्मणायातुलां कीर्तिमिह चामुत्र चाश्नुते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशिराज प्रतर्दनने किसी ब्राह्यणको अपने दोनों नेत्र प्रदान करके इस लोकमें अनुपम कीर्ति प्राप्त की और परलोकमें वे उत्तम सुख भोगते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यमष्टशलाकं तु सौवर्णं परमर्द्धिमत्।
छत्रं देवावृधो दत्त्वा सराष्ट्रोऽभ्यपतद् दिवम् ॥ २१ ॥
मूलम्
दिव्यमष्टशलाकं तु सौवर्णं परमर्द्धिमत्।
छत्रं देवावृधो दत्त्वा सराष्ट्रोऽभ्यपतद् दिवम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा देवावृधने आठ शलाकाओं (ताड़ियों) से युक्त सोनेका बना हुआ बहुमूल्य छत्र दान करके अपने देशकी प्रजाके साथ स्वर्गलोक प्राप्त किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांकृतिश्च तथाऽऽत्रेयः शिष्येभ्यो ब्रह्म निर्गुणम्।
उपदिश्य महातेजा गतो लोकाननुत्तमान् ॥ २२ ॥
मूलम्
सांकृतिश्च तथाऽऽत्रेयः शिष्येभ्यो ब्रह्म निर्गुणम्।
उपदिश्य महातेजा गतो लोकाननुत्तमान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्रिवंशमें उत्पन्न महातेजस्वी सांकृति अपने शिष्योंको निर्गुण ब्रह्मका उपदेश देकर उत्तम लोकोंको प्राप्त हुए॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बरीषो गवां दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यः प्रतापवान्।
अर्बुदानि दशैकं च सराष्ट्रोऽभ्यपतद् दिवम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अम्बरीषो गवां दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यः प्रतापवान्।
अर्बुदानि दशैकं च सराष्ट्रोऽभ्यपतद् दिवम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतापी राजा अम्बरीषने ब्राह्मणोंको ग्यारह अर्बुद (एक अरब दस करोड़) गौएँ दानमें देकर देशवासियोंसहित स्वर्गलोक प्राप्त किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावित्री कुण्डले दिव्ये शरीरं जनमेजयः।
ब्राह्मणार्थे परित्यज्य जग्मतुर्लोकमुत्तमम् ॥ २४ ॥
मूलम्
सावित्री कुण्डले दिव्ये शरीरं जनमेजयः।
ब्राह्मणार्थे परित्यज्य जग्मतुर्लोकमुत्तमम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्रीने दो दिव्य कुण्डल दान किये थे और राजा जनमेजयने ब्राह्मणके लिये अपने शरीरका परित्याग किया था। इससे वे दोनों उत्तम लोकमें गये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वरत्नं वृषादर्भिर्युवनाश्वः प्रियाः स्त्रियः।
रम्यमावसथं चैव दत्त्वा स्वर्लोकमास्थितः ॥ २५ ॥
मूलम्
सर्वरत्नं वृषादर्भिर्युवनाश्वः प्रियाः स्त्रियः।
रम्यमावसथं चैव दत्त्वा स्वर्लोकमास्थितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृषदर्भके पुत्र युवनाश्व सब प्रकारके रत्न, अभीष्ट स्त्रियाँ तथा सुरम्य गृह दान करके स्वर्गलोकमें निवास करते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमी राष्ट्रं च वैदेहो जामदग्न्यो वसुन्धराम्।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ चापि गयश्चोर्वीं सपत्तनाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
निमी राष्ट्रं च वैदेहो जामदग्न्यो वसुन्धराम्।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ चापि गयश्चोर्वीं सपत्तनाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहराज निमिने अपना राज्य और जमदग्निनन्दन परशुराम तथा राजा गयने नगरोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणको दानमें दे दी थी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर्षति च पर्जन्ये सर्वभूतानि भूतकृत्।
वसिष्ठो जीवयामास प्रजापतिरिव प्रजाः ॥ २७ ॥
मूलम्
अवर्षति च पर्जन्ये सर्वभूतानि भूतकृत्।
वसिष्ठो जीवयामास प्रजापतिरिव प्रजाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार पानी न बरसनेपर महर्षि वसिष्ठने प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले दूसरे प्रजापतिके समान सम्पूर्ण प्रजाको जीवनदान दिया था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन्धमस्य पुत्रस्तु कृतात्मा मरुतस्तथा।
कन्यामङ्गिरसे दत्त्वा दिवमाशु जगाम ह ॥ २८ ॥
मूलम्
करन्धमस्य पुत्रस्तु कृतात्मा मरुतस्तथा।
कन्यामङ्गिरसे दत्त्वा दिवमाशु जगाम ह ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
करन्धमके पुण्यात्मा पुत्र राजा मरुत्तने महर्षि अंगिराको कन्यादान करके तत्काल स्वर्गलोक प्राप्त कर लिया था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मदत्तश्च पाञ्चाल्यो राजा बुद्धिमतां वरः।
निधिं शङ्खं द्विजाग्रेभ्यो दत्त्वा लोकानवाप्तवान् ॥ २९ ॥
मूलम्
ब्रह्मदत्तश्च पाञ्चाल्यो राजा बुद्धिमतां वरः।
निधिं शङ्खं द्विजाग्रेभ्यो दत्त्वा लोकानवाप्तवान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ पांचाल राज ब्रह्मदत्तने उत्तम ब्राह्मणोंको शंखनिधि देकर पुण्यलोक प्राप्त किये थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा मित्रसहश्चापि वसिष्ठाय महात्मने।
मदयन्तीं प्रियां दत्त्वा तया सह दिवं गतः ॥ ३० ॥
मूलम्
राजा मित्रसहश्चापि वसिष्ठाय महात्मने।
मदयन्तीं प्रियां दत्त्वा तया सह दिवं गतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा मित्रसहने महात्मा वसिष्ठको अपनी प्यारी रानी मदयन्ती देकर उसके साथ ही स्वर्गलोकमें पदार्पण किया था॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रजिच्च राजर्षिः प्राणानिष्टान् महायशाः।
ब्राह्मणार्थं परित्यज्य गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३१ ॥
मूलम्
सहस्रजिच्च राजर्षिः प्राणानिष्टान् महायशाः।
ब्राह्मणार्थं परित्यज्य गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महायशस्वी राजर्षि सहस्रजित् ब्राह्मणके लिये अपने प्यारे प्राणोंका परित्याग करके परम उत्तम लोकोंमें गये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वकामैश्च सम्पूर्णं दत्त्वा वेश्म हिरण्मयम्।
मुद्गलाय गतः स्वर्गं शतद्युम्नो महीपतिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वकामैश्च सम्पूर्णं दत्त्वा वेश्म हिरण्मयम्।
मुद्गलाय गतः स्वर्गं शतद्युम्नो महीपतिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज शतद्युम्न मुद्गल ब्राह्मणको समस्त भोगोंसे सम्पन्न सुवर्णमय भवन देकर स्वर्गलोकमें गये थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम्ना च द्युतिमान् नाम शाल्वराजः प्रतापवान्।
दत्त्वा राज्यमृचीकाय गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३३ ॥
मूलम्
नाम्ना च द्युतिमान् नाम शाल्वराजः प्रतापवान्।
दत्त्वा राज्यमृचीकाय गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतापी शाल्वराज द्युतिमान्ने ऋचीकको राज्य देकर परम उत्तम लोक प्राप्त किये थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोमपादश्च राजर्षिः शान्तां दत्त्वा सुतां प्रभुः।
ऋष्यशृङ्गाय विपुलैः सर्वकामैरयुज्यत ॥ ३४ ॥
मूलम्
लोमपादश्च राजर्षिः शान्तां दत्त्वा सुतां प्रभुः।
ऋष्यशृङ्गाय विपुलैः सर्वकामैरयुज्यत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्तिशाली राजर्षि लोमपाद अपनी पुत्री शान्ताका ऋष्यशृङ्ग मुनिको दान करके सब प्रकारके प्रचुर भोगोंसे सम्पन्न हो गये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदिराश्वश्च राजर्षिर्दत्त्वा कन्यां सुमध्यमाम्।
हिरण्यहस्ताय गतो लोकान् देवैरभिष्टुतान् ॥ ३५ ॥
मूलम्
मदिराश्वश्च राजर्षिर्दत्त्वा कन्यां सुमध्यमाम्।
हिरण्यहस्ताय गतो लोकान् देवैरभिष्टुतान् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षि मदिराश्व हिरण्यहस्तको अपनी सुन्दरी कन्या देकर देववन्दित लोकोंमें गये थे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा शतसहस्रं तु गवां राजा प्रसेनजित्।
सवत्सानां महातेजा गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
दत्त्वा शतसहस्रं तु गवां राजा प्रसेनजित्।
सवत्सानां महातेजा गतो लोकाननुत्तमान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी राजा प्रसेनजित्ने एक लाख सवत्सा गौओंका दान करके उत्तम लोक प्राप्त किये थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च बहवो दानेन तपसैव च।
महात्मानो गताः स्वर्गं शिष्टात्मानो जितेन्द्रियाः ॥ ३७ ॥
मूलम्
एते चान्ये च बहवो दानेन तपसैव च।
महात्मानो गताः स्वर्गं शिष्टात्मानो जितेन्द्रियाः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये तथा और भी बहुत-से शिष्ट स्वभाववाले जितेन्द्रिय महात्मा दान और तपस्यासे स्वर्गलोकमें चले गये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां प्रतिष्ठिता कीर्तिर्यावत् स्थास्यति मेदिनी।
दानयज्ञप्रजासर्गैरेते हि दिवमाप्नुवन् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तेषां प्रतिष्ठिता कीर्तिर्यावत् स्थास्यति मेदिनी।
दानयज्ञप्रजासर्गैरेते हि दिवमाप्नुवन् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक यह पृथ्वी रहेगी, तबतक उनकी कीर्ति संसारमें स्थिर रहेगी। उन सबने दान, यज्ञ और प्रजा-सृष्टिके द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त किया था॥३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकानुप्रश्नविषयक दो सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३४॥