भागसूचना
त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मप्रलय एवं महाप्रलयका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्याहारं तु वक्ष्यामि शर्वर्यादौ गतेऽहनि।
यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वमीश्वरः ॥ १ ॥
मूलम्
प्रत्याहारं तु वक्ष्यामि शर्वर्यादौ गतेऽहनि।
यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वमीश्वरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— बेटा! अब मैं यह बता रहा हूँ कि ब्रह्माजीका दिन बीतनेपर उनकी रात्रि आरम्भ होनेके पहले ही किस प्रकार इस सृष्टिका लय होता है तथा लोकेश्वर ब्रह्माजी स्थूल जगत्को अत्यन्त सूक्ष्म करके इसे कैसे अपने भीतर लीन कर लेते हैं?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवि सूर्यस्तथा सप्त दहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेतत् तदार्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते जगत् ॥ २ ॥
मूलम्
दिवि सूर्यस्तथा सप्त दहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेतत् तदार्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते जगत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब प्रलयका समय आता है, तब आकाशमें ऊपरसे सूर्य और नीचेसे अग्निकी सात ज्वालाएँ संसारको भस्म करने लगती हैं। उस समय यह सारा जगत् ज्वालाओंसे व्याप्त होकर जाज्वल्यमान दिखायी देने लगता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यां यानि भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च ॥ ३ ॥
मूलम्
पृथिव्यां यानि भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूतलके जितने भी चराचर प्राणी हैं, वे सब पहले ही दग्ध होकर पृथ्वीमें एकाकार हो जाते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रलीने सर्वस्मिन् स्थावरे जङ्गमे तथा।
निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्दृश्यते कूर्मपृष्ठवत् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः प्रलीने सर्वस्मिन् स्थावरे जङ्गमे तथा।
निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्दृश्यते कूर्मपृष्ठवत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर स्थावर-जंगम सम्पूर्ण प्राणियोंके लीन हो जानेपर तृण और वृक्षोंसे रहित हुई यह भूमि कछुएकी पीठ-सी दिखायी देने लगती है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमेरपि गुणं गन्धमाप आददते यदा।
आत्तगन्धा तदा भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते ॥ ५ ॥
मूलम्
भूमेरपि गुणं गन्धमाप आददते यदा।
आत्तगन्धा तदा भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् जब जल पृथ्वीके गुण गन्धको ग्रहण कर लेता है, तब गन्धहीन हुई पृथ्वी अपने कारणभूत जलमें लीन हो जाती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्तत्र प्रतिष्ठन्ति ऊर्मिमत्यो महास्वनाः।
सर्वमेवेदमापूर्य तिष्ठन्ति च चरन्ति च ॥ ६ ॥
मूलम्
आपस्तत्र प्रतिष्ठन्ति ऊर्मिमत्यो महास्वनाः।
सर्वमेवेदमापूर्य तिष्ठन्ति च चरन्ति च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो जल गम्भीर शब्द करता हुआ चारों ओर उमड़ पड़ता है और उसमें उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं। वह सम्पूर्ण विश्वको अपनेमें निमग्न करके लहराता रहता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपामपि गुणं तात ज्योतिराददते यदा।
आपस्तदा त्वात्तगुणा ज्योतिःषूपरमन्ति वै ॥ ७ ॥
मूलम्
अपामपि गुणं तात ज्योतिराददते यदा।
आपस्तदा त्वात्तगुणा ज्योतिःषूपरमन्ति वै ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तदनन्तर तेज जलके गुण रसको ग्रहण कर लेता है और रसहीन जल तेजमें लीन हो जाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाऽऽदित्यं स्थितं मध्ये गूहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेवेदमर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते नभः ॥ ८ ॥
मूलम्
यदाऽऽदित्यं स्थितं मध्ये गूहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेवेदमर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते नभः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जब आगकी लपटें सूर्यको अपने भीतर करके चारों ओरसे ढक लेती हैं, तब सम्पूर्ण आकाश ज्वालाओंसे व्याप्त होकर प्रज्वलित होता-सा जान पड़ता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुराददते यदा।
प्रशाम्यति ततो ज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान् ॥ ९ ॥
मूलम्
ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुराददते यदा।
प्रशाम्यति ततो ज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तेजके गुण रूपको वायुतत्त्व ग्रहण कर लेता है। इससे आग शान्त हो जाती है और वायुमें मिल जाती है। तब वायु अपने महान् वेगसे सम्पूर्ण आकाशको क्षुब्ध कर डालती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु स्वनमासाद्य वायुः सम्भवमात्मनः।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च दोधवीति दिशो दश ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्तु स्वनमासाद्य वायुः सम्भवमात्मनः।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च दोधवीति दिशो दश ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बड़े जोरसे हरहराती और अपने वेगसे उत्पन्न आवाजको फैलाती हुई ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर दसों दिशाओंमें चलने लगती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते यदा।
प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नादवत् ॥ ११ ॥
मूलम्
वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते यदा।
प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नादवत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद आकाश वायुके गुण स्पर्शको भी ग्रस लेता है। तब वायु शान्त हो जाती और आकाशमें मिल जाती है; फिर तो आकाश महान् शब्दसे युक्त हो अकेला ही रह जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरूपमरसस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत्।
सर्वलोकप्रणदितं खं तु तिष्ठति नादवत् ॥ १२ ॥
मूलम्
अरूपमरसस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत्।
सर्वलोकप्रणदितं खं तु तिष्ठति नादवत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका नाम भी नहीं रह जाता। किसी भी मूर्त पदार्थकी सत्ता नहीं रहती। जिसका शब्द सभी लोकोंमें निनादित होता था, वह आकाश ही केवल शब्द गुणसे युक्त होकर शेष रहता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशस्य गुणं शब्दमभिव्यक्तात्मकं मनः।
मनसो व्यक्तमव्यक्तं ब्राह्मः सम्प्रतिसंचरः ॥ १३ ॥
मूलम्
आकाशस्य गुणं शब्दमभिव्यक्तात्मकं मनः।
मनसो व्यक्तमव्यक्तं ब्राह्मः सम्प्रतिसंचरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् दृश्य प्रपंचको व्यक्त करनेवाला मन आकाशके गुण शब्दको, जो मनसे ही प्रकट हुआ था, अपनेमें लीन कर लेता है। इस तरह व्यक्त मन और अव्यक्त (महत्तत्त्व) का ब्रह्माके मनमें लय होना ब्राह्म प्रलय कहलाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदात्मगुणमाविश्य मनो ग्रसति चन्द्रमाः।
मनस्युपरते चापि चन्द्रमस्युपतिष्ठते ॥ १४ ॥
मूलम्
तदात्मगुणमाविश्य मनो ग्रसति चन्द्रमाः।
मनस्युपरते चापि चन्द्रमस्युपतिष्ठते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाप्रलयके समय चन्द्रमा व्यक्त मनको आत्मगुणमें प्रविष्ट करके स्वयं उसको ग्रस लेते हैं। तब मन उपरत (शान्त) हो जाता है; फिर वह चन्द्रमामें उपस्थित रहता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु कालेन महता संकल्पः कुरुते वशे।
चित्तं ग्रसति संकल्पं तच्च ज्ञानमनुत्तमम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तं तु कालेन महता संकल्पः कुरुते वशे।
चित्तं ग्रसति संकल्पं तच्च ज्ञानमनुत्तमम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् संकल्प (अव्यक्त मन) दीर्घकालमें उस व्यक्तमनसहित चन्द्रमाको अपने वशीभूत कर लेता है और समष्टि बुद्धि संकल्पको ग्रस लेती है। उसी बुद्धिको परम उत्तम ज्ञान माना गया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो गिरति विज्ञानं कालं बलमिति श्रुतिः।
बलं कालो ग्रसति तु तं विद्वान् कुरुते वशे॥१६॥
मूलम्
कालो गिरति विज्ञानं कालं बलमिति श्रुतिः।
बलं कालो ग्रसति तु तं विद्वान् कुरुते वशे॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुननेमें आया है कि काल ज्ञान (समष्टि बुद्धि) को ग्रस लेता है, शक्ति उस कालको अपने अधीन कर लेती है; फिर महाकाल शक्तिको और परब्रह्म महाकालको अपने अधीन कर लेता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशस्य यथा घोषं तं विद्वान् कुरुतेऽऽत्मनि।
तदव्यक्तं परं ब्रह्म तच्छाश्वतमनुत्तमम्।
एवं सर्वाणि भूतानि ब्रह्मैव प्रतिसंचरः ॥ १७ ॥
मूलम्
आकाशस्य यथा घोषं तं विद्वान् कुरुतेऽऽत्मनि।
तदव्यक्तं परं ब्रह्म तच्छाश्वतमनुत्तमम्।
एवं सर्वाणि भूतानि ब्रह्मैव प्रतिसंचरः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार आकाश अपने गुण शब्दको आत्मसात् कर लेता है, उसी प्रकार ब्रह्म महाकालको अपनेमें विलीन कर लेता है। वह परब्रह्म परमात्मा अव्यक्त, सनातन और सर्वोत्तम है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंका लय होता है और सबके लयका अधिष्ठान परब्रह्म परमात्मा ही है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावत् कीर्तितं सम्यगेवमेतदसंशयम् ।
बोध्यं विद्यामयं दृष्ट्वा योगिभिः परमात्मभिः ॥ १८ ॥
मूलम्
यथावत् कीर्तितं सम्यगेवमेतदसंशयम् ।
बोध्यं विद्यामयं दृष्ट्वा योगिभिः परमात्मभिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परमात्मस्वरूप योगियोंने इस ज्ञानमय बोध्यतत्त्वका साक्षात्कार करके इसका यथार्थरूपसे वर्णन किया है, यह उत्तम ज्ञान निःसंदेह ऐसा ही है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विस्तारसंक्षेपौ ब्रह्माव्यक्ते पुनः पुनः।
युगसाहस्रयोरादावहोरात्रस्तथैव च ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं विस्तारसंक्षेपौ ब्रह्माव्यक्ते पुनः पुनः।
युगसाहस्रयोरादावहोरात्रस्तथैव च ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बारंबार अव्यक्त परब्रह्ममें सृष्टिका विस्तार और लय होता है। ब्रह्माजीका दिन एक हजार चतुर्युगका होता है और उनकी रात भी उतनी ही बड़ी होती है; यह बात पहले ही बता दी गयी है॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकका अनुप्रश्नविषयक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३३॥