२३२ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीका शुकदेवको सृष्टिके उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मोंका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म तेजोमयं शुक्रं यस्य सर्वमिदं जगत्।
एकस्य ब्रह्मभूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम् ॥ १ ॥

मूलम्

ब्रह्म तेजोमयं शुक्रं यस्य सर्वमिदं जगत्।
एकस्य ब्रह्मभूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— बेटा! तेजोमय ब्रह्म ही सबका बीज है, उसीसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है। उस एक ही ब्रह्मसे स्थावर और जंगम दोनोंकी उत्पत्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहर्मुखे विबुद्धः सन् सृजतेऽविद्यया जगत्।
अग्र एव महद्भूतमाशु व्यक्तात्मकं मनः ॥ २ ॥

मूलम्

अहर्मुखे विबुद्धः सन् सृजतेऽविद्यया जगत्।
अग्र एव महद्भूतमाशु व्यक्तात्मकं मनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले कह आये हैं, ब्रह्माजी अपने दिनके आरम्भमें जागकर अविद्या (त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके) द्वारा सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करते हैं। सबसे पहले महत्तत्त्व प्रकट होता है। उससे स्थूल सृष्टिका आधारभूत मन उत्पन्न होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिभूयेह चार्चिष्मद् व्यसृजत् सप्त मानसान्।
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अभिभूयेह चार्चिष्मद् व्यसृजत् सप्त मानसान्।
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मनकी दूरतक गति है तथा वह अनेक प्रकारसे गमनागमन करता है। प्रार्थना और संशय-वृत्तिशाली वह मन चैतन्यसे संयुक्त होकर सम्पूर्ण पदार्थोंको अभिभूत करके सात1 मानस ऋषियोंकी सृष्टि करता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया।
आकाशं जायते तस्मात् तस्य शब्दं गुणं विदुः ॥ ४ ॥

मूलम्

मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया।
आकाशं जायते तस्मात् तस्य शब्दं गुणं विदुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सृष्टिकी इच्छासे प्रेरित होनेपर मन नाना प्रकारकी सृष्टि करता है। उससे आकाशकी उत्पत्ति होती है। आकाशका गुण ‘शब्द’ माना गया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशात्‌ तु विकुर्वाणात्‌ सर्वगन्धवहः शुचिः।
बलवान् जायते वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ॥ ५ ॥

मूलम्

आकाशात्‌ तु विकुर्वाणात्‌ सर्वगन्धवहः शुचिः।
बलवान् जायते वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् जब आकाशमें विकार होता है, तब उससे पवित्र और सम्पूर्ण गन्धोंको वहन करनेवाले बलवान् वायुतत्त्वका आविर्भाव होता है। उसका गुण ‘स्पर्श’ माना गया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायोरपि विकुर्वाणाज्ज्योतिर्भवति भास्वरम् ।
रोचिष्णु जायते शुक्रं तद्रूपगुणमुच्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

वायोरपि विकुर्वाणाज्ज्योतिर्भवति भास्वरम् ।
रोचिष्णु जायते शुक्रं तद्रूपगुणमुच्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वायुमें भी विकार होता है और उससे प्रकाशपूर्ण अग्नि-तत्त्व प्रकट होता है। वह अग्नि-तत्त्व चमचमाता हुआ एवं दीप्तिमान् है। उसका गुण ‘रूप’ बताया जाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतिषोऽपि विकुर्वाणाद् भवन्त्यापो रसात्मिकाः।
अद्‌भ्यो गन्धवहा भूमिः सर्वेषां सृष्टिरुच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

ज्योतिषोऽपि विकुर्वाणाद् भवन्त्यापो रसात्मिकाः।
अद्‌भ्यो गन्धवहा भूमिः सर्वेषां सृष्टिरुच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अग्नि-तत्त्वमें विकार आनेपर रसमय जल-तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। जलसे गन्धका वहन करनेवाली पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंकी सृष्टि बतायी जाती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणाः सर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम्।
तेषां यावद् यथा यच्च तत्तत् तावद्‌गुणं स्मृतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

गुणाः सर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम्।
तेषां यावद् यथा यच्च तत्तत् तावद्‌गुणं स्मृतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीछे प्रकट हुए वायु आदि भूत उत्तरोत्तर अपने पूर्ववर्ती सभी भूतोंके गुण धारण करते हैं। इन सब भूतोंमेंसे जो भूत जितने समयतक जिस प्रकार रहता है, उसके गुण भी उतने ही समयतक रहते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्याप्सु चेद् गन्धं केचिद् ब्रूयुरनैपुणात्।
पृथिव्यामेव तं विद्यादपां वायोश्च संश्रितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

उपलभ्याप्सु चेद् गन्धं केचिद् ब्रूयुरनैपुणात्।
पृथिव्यामेव तं विद्यादपां वायोश्च संश्रितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कुछ मनुष्य जलमें गन्ध पाकर अयोग्यतावश यह कहने लगें कि यह जलका ही गुण है तो उनका वह कथन मिथ्या होगा; क्योंकि गन्ध वास्तवमें पृथ्वीका गुण है; अतः उसे पृथ्वीमें ही स्थित जानना चाहिये। जल और वायुमें तो वह आगन्तुककी भाँति स्थित होता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते सप्तविधात्मानो नानावीर्याः पृथक् पृथक्।
नाशक्नुवन् प्रजाः स्रष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः ॥ १० ॥

मूलम्

एते सप्तविधात्मानो नानावीर्याः पृथक् पृथक्।
नाशक्नुवन् प्रजाः स्रष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये नाना प्रकारकी शक्तिवाले महत्तत्त्व, मन (अहंकार) और पञ्चसूक्ष्म महाभूत—सात पदार्थ पृथक्-पृथक् रहकर जबतक सब-के-सब मिल न सकें; तबतक उनमें प्रजाकी सृष्टि करनेकी शक्ति नहीं आयी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते समेत्य महात्मानो ह्यन्योन्यमभिसंश्रिताः।
शरीराश्रयणं प्राप्तास्ततः पुरुष उच्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

ते समेत्य महात्मानो ह्यन्योन्यमभिसंश्रिताः।
शरीराश्रयणं प्राप्तास्ततः पुरुष उच्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु ये सातों व्यापक पदार्थ ईश्वरकी इच्छा होनेपर जब एक-दूसरेसे मिलकर परस्पर सहयोगी हो गये, तब भिन्न-भिन्न शरीरके आकारमें परिणत हुए। उस शरीरनामक पुरमें निवास करनेके कारण जीवात्मा पुरुष कहलाता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरं श्रयणाद् भवति मूर्तिमत्‌ षोडशात्मकम्।
तमाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मणा ॥ १२ ॥

मूलम्

शरीरं श्रयणाद् भवति मूर्तिमत्‌ षोडशात्मकम्।
तमाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मणा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पञ्च स्थूल महाभूत, दस इन्द्रियाँ और मन—इन सोलह तत्त्वोंसे शरीरका निर्माण हुआ है। इन सबका आश्रय होनेके कारण ही देहको शरीर कहते हैं। शरीरके उत्पन्न होनेपर उसमें जीवोंके भोगावशिष्ट कर्मोंके साथ सूक्ष्म महाभूत प्रवेश करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतान्युपादाय तपसश्चरणाय हि ।
आदिकर्ता स भूतानां तमेवाहुः प्रजापतिम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सर्वभूतान्युपादाय तपसश्चरणाय हि ।
आदिकर्ता स भूतानां तमेवाहुः प्रजापतिम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतोंके आदि कर्ता ब्रह्माजी ही तपस्याके लिये समस्त सूक्ष्म भूतोंको साथ लेकर समष्टि शरीरमें प्रवेश करके स्थित होते हैं; इसलिये मुनिजन उन्हें प्रजापति कहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च।
ततः स सृजति ब्रह्मा देवर्षिपितृमानवान् ॥ १४ ॥
लोकान् नदीः समुद्रांश्च दिशः शैलान् वनस्पतीन्।
नरकिन्नररक्षांसि वयःपशुमृगोरगान् ।
अव्ययं च व्ययं चैव द्वयं स्थावरजङ्गमम् ॥ १५ ॥

मूलम्

स वै सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च।
ततः स सृजति ब्रह्मा देवर्षिपितृमानवान् ॥ १४ ॥
लोकान् नदीः समुद्रांश्च दिशः शैलान् वनस्पतीन्।
नरकिन्नररक्षांसि वयःपशुमृगोरगान् ।
अव्ययं च व्ययं चैव द्वयं स्थावरजङ्गमम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे ब्रह्मा ही चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं। वे ही देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, नाना प्रकारके लोक, नदी, समुद्र, दिशा, पर्वत, वनस्पति, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग तथा सर्पोंको भी उत्पन्न करते हैं। अक्षय आकाश आदि और क्षयशील चराचर प्राणियोंकी सृष्टि भी उन्हींके द्वारा हुई है॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे।
तान्येव प्रतिपाद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥ १६ ॥

मूलम्

तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे।
तान्येव प्रतिपाद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकल्पकी सृष्टिमें जिन प्राणियोंद्वारा जैसे कर्म किये गये होते हैं, दूसरे कल्पोंमें बारंबार जन्म लेनेपर वे उन पूर्वकृत कर्मोंकी वासनासे प्रभावित होनेके कारण वैसे ही कर्म करने लगते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।
तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात् तत् तस्य रोचते ॥ १७ ॥

मूलम्

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।
तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात् तत् तस्य रोचते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक जन्ममें मनुष्य हिंसा-अहिंसा, कोमलता-कठोरता, धर्म-अधर्म और सच-झूठ आदि जिन गुणों या दोषोंको अपनाता है, दूसरे जन्ममें भी उनके संस्कारोंसे प्रभावित होकर उन्हीं गुणोंको वह पसंद करता और वैसे ही कार्योंमें लग जाता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु ।
विनियोगं च भूतानां धातैव विदधात्युत ॥ १८ ॥

मूलम्

महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु ।
विनियोगं च भूतानां धातैव विदधात्युत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश आदि महाभूतोंमें, शब्द आदि विषयोंमें तथा देवता आदिकी आकृतियोंमें जो अनेकता और भिन्नता है तथा प्राणियोंकी जो भिन्न-भिन्न कार्योंमें नियुक्ति है, इन सबका विधान विधाता ही करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित् पुरुषकारं तु प्राहुः कर्मसु मानवाः।
दैवमित्यपरे विप्राः स्वभावं भूतचिन्तकाः ॥ १९ ॥

मूलम्

केचित् पुरुषकारं तु प्राहुः कर्मसु मानवाः।
दैवमित्यपरे विप्राः स्वभावं भूतचिन्तकाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग कर्मोंकी सिद्धिमें पुरुषार्थको ही प्रधान मानते हैं। दूसरे ब्राह्मण दैवको प्रधानता देते हैं और भूतचिन्तक नास्तिकगण स्वभावको ही कार्यसिद्धिका कारण बताते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिः स्वभावतः।
त्रय एतेऽपृथग्भूता न विवेकं तु केचन ॥ २० ॥

मूलम्

पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिः स्वभावतः।
त्रय एतेऽपृथग्भूता न विवेकं तु केचन ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ विद्वान् कहते हैं कि पुरुषार्थ, दैव और स्वभावसे अनुगृहीत कर्म—इन तीनोंके सहयोगसे फलकी सिद्धि होती है। ये तीनों मिलकर ही कार्यसाधक होते हैं। इनका अलग-अलग होना कार्यकी सिद्धिका हेतु नहीं होता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतमेव च नैवं च न चोभे नानुभे न च।
कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ॥ २१ ॥

मूलम्

एतमेव च नैवं च न चोभे नानुभे न च।
कर्मस्था विषयं ब्रूयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मवादी इस विषयमें यह पुरुषार्थ ही कार्यसाधक है, ऐसा नहीं कहते। ऐसा नहीं है, अर्थात् पुरुषार्थ नहीं, दैव कारण है, यह भी नहीं कहते। दोनों मिलकर कार्यसिद्धिके हेतु हैं, यह भी नहीं कहते और दोनों नहीं हैं, यह भी नहीं कहते हैं। तात्पर्य यह है कि वे इस विषयमें कुछ निश्चय नहीं कर पाते हैं; परंतु जो सत्त्वस्वरूप परमात्मामें स्थित हुए योगी हैं, वे समदर्शी हैं अर्थात् शम (ब्रह्म) को ही कारण मानते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः।
तेन सर्वानवाप्नोति यान् कामान् मनसेच्छति ॥ २२ ॥

मूलम्

तपो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः।
तेन सर्वानवाप्नोति यान् कामान् मनसेच्छति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तप ही जीवके कल्याणका मुख्य साधन है। तपका मूल है शम और दम। पुरुष अपने मनसे जिन-जिन कामनाओंको पाना चाहता है, उन सबको वह तपस्यासे प्राप्त कर लेता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसा तदवाप्नोति यद्भूतं सृजते जगत्।
स तद्भूतश्च सर्वेषां भूतानां भवति प्रभुः ॥ २३ ॥

मूलम्

तपसा तदवाप्नोति यद्भूतं सृजते जगत्।
स तद्भूतश्च सर्वेषां भूतानां भवति प्रभुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्यासे वह उस परमात्मसत्ताको भी प्राप्त कर लेता है, जिससे इस जगत्‌की सृष्टि होती है। तपसे परमात्मस्वरूप होकर मनुष्य समस्त प्राणियोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम् ।
अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ॥ २४ ॥

मूलम्

ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम् ।
अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपके ही प्रभावसे महर्षिगण दिन-रात वेदोंका अध्ययन करते थे। तपःशक्तिसे सम्पन्न होकर ही ब्रह्माजीने आदि-अन्तसे रहित वेदमयी वाणीका प्रथम उच्चारण किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु सृष्टयः।
नानारूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम् ॥ २५ ॥
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः।

मूलम्

ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु सृष्टयः।
नानारूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम् ॥ २५ ॥
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंके नाम, वेदोक्त सृष्टिक्रमके अनुसार रचे हुए सब पदार्थोंके नाम, प्राणियोंके अनेकविध रूप तथा उनके कर्मोंका विधान—यह सब कुछ वे ऐश्वर्यशाली प्रजापति सृष्टिके आदिकालमें वेदोक्त शब्दोंके अनुसार ही रचते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामधेयानि चर्षीणां याश्च वेदेषु सृष्टयः ॥ २६ ॥
शर्वर्यन्ते सुजातानामन्येभ्यो विदधात्यजः ।

मूलम्

नामधेयानि चर्षीणां याश्च वेदेषु सृष्टयः ॥ २६ ॥
शर्वर्यन्ते सुजातानामन्येभ्यो विदधात्यजः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंमें ऋषियोंके नाम तो हैं ही, सृष्टिमें उत्पन्न हुए सब पदार्थोंके भी नाम हैं। अजन्मा ब्रह्माजी अपनी रात्रिके अन्तमें अर्थात् नूतन सृष्टिके प्रभातकालमें अपने द्वारा रचे गये सभी पदार्थोंका दूसरोंके लिये नाम-निर्देश करते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामभेदतपःकर्मयज्ञाख्या लोकसिद्धयः ॥ २७ ॥

मूलम्

नामभेदतपःकर्मयज्ञाख्या लोकसिद्धयः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर ब्रह्माजीने ऋग्वेद आदिके नाम, वर्ण और आश्रमके भेद, तप, शाम, दम (कृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रत), कर्म (संध्योपासन आदि नित्य-कर्म) और ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ बनाये। ये नाम आदि लौकिक सिद्धियाँ हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मसिद्धिस्तु वेदेषु प्रोच्यते दशभिः क्रमैः।
यदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः।
तदन्तेषु यथायुक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते ॥ २८ ॥

मूलम्

आत्मसिद्धिस्तु वेदेषु प्रोच्यते दशभिः क्रमैः।
यदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः।
तदन्तेषु यथायुक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा (के मोक्ष) की सिद्धि तो वेदोंमें दस1 उपायोंद्वारा बतायी जाती है। जो गहन (दुर्बोध) ब्रह्म वेदवाक्योंमें वेददर्शी विद्वानोंद्वारा वर्णित हुआ है और वेदान्तवचनोंमें जिसका स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है, वह क्रमयोगसे लक्षित होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मजोऽयं पृथग्भावो द्वन्द्वयुक्तोऽपि देहिनः।
तमात्मसिद्धिर्विज्ञानाज्जहाति पुरुषो बलात् ॥ २९ ॥

मूलम्

कर्मजोऽयं पृथग्भावो द्वन्द्वयुक्तोऽपि देहिनः।
तमात्मसिद्धिर्विज्ञानाज्जहाति पुरुषो बलात् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देहाभिमानी जीवको जो यह पृथक्-पृथक् शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंका भोग प्राप्त होता है, वह कर्मजनित है। मनुष्य तत्त्वज्ञानके द्वारा उस द्वन्द्वभोगको त्याग देता है तथा ज्ञानके ही बलसे आत्मसिद्धि (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ३० ॥

मूलम्

द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मके दो स्वरूप जानने चाहिये—एक शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म, जो शब्दब्रह्म अर्थात् वेदका पूर्ण विद्वान् है, वह सुगमतासे परब्रह्मका साक्षात्कार कर लेता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
परिचारयज्ञाः शूद्रास्तु तपोयज्ञा द्विजातयः ॥ ३१ ॥

मूलम्

आलम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
परिचारयज्ञाः शूद्रास्तु तपोयज्ञा द्विजातयः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंके लिये तप ही यज्ञ है, क्षत्रियोंके लिये हिंसाप्रधान युद्ध आदि ही यज्ञ हैं, वैश्योंके लिये घृत आदि हविष्यकी आहुति देना ही यज्ञ है और शूद्रोंके लिये तीनों वर्णोंकी सेवा ही यज्ञ है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतायुगे विधिस्त्वेष यज्ञानां न कृते युगे।
द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा ॥ ३२ ॥

मूलम्

त्रेतायुगे विधिस्त्वेष यज्ञानां न कृते युगे।
द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह यज्ञोंका विधान त्रेतायुगमें ही था, सत्ययुगमें नहीं। द्वापरसे क्रमशः क्षीण होते हुए यज्ञ कलियुगमें लुप्त हो जाते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपृथग्धर्मिणो मर्त्या ऋक्सामानि यजूंषि च।
काम्या इष्टीः पृथग् दृष्ट्‌वा तपोभिस्तप एव च ॥ ३३ ॥

मूलम्

अपृथग्धर्मिणो मर्त्या ऋक्सामानि यजूंषि च।
काम्या इष्टीः पृथग् दृष्ट्‌वा तपोभिस्तप एव च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें अद्वैत-धर्ममें निष्ठा रखनेवाले मनुष्य ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद तथा सकाम इष्टियोंको ज्ञानरूप तपस्यासे भिन्न देखकर उन सबको छोड़ केवल ज्ञानरूप तपस्यामें ही संलग्न होते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन् महाबलाः।
संयन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः ॥ ३४ ॥

मूलम्

त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन् महाबलाः।
संयन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रेतायुगमें जो महाबली नरेश प्रकट हुए थे, वे सब-के-सब समस्त चराचर प्राणियोंके नियन्ता थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतायां संहता वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।
संरोधादायुषस्त्वेते भ्रश्यन्ते द्वापरे युगे ॥ ३५ ॥

मूलम्

त्रेतायां संहता वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।
संरोधादायुषस्त्वेते भ्रश्यन्ते द्वापरे युगे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रेतायुगमें वेद, यज्ञ और वर्णाश्रम-धर्म सुव्यवस्थितरूपसे पालित होते थे; परंतु द्वापरयुगमें आयुकी न्यूनता होनेसे लोगोंमें उनके पालनका उत्साह कम हो गया—वे वेद यज्ञ आदिसे च्युत होने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यन्ते न च दृश्यन्ते वेदाः कलियुगेऽखिलाः।
उत्सीदन्ते सयज्ञाश्च केवलाधर्मपीडिताः ॥ ३६ ॥

मूलम्

दृश्यन्ते न च दृश्यन्ते वेदाः कलियुगेऽखिलाः।
उत्सीदन्ते सयज्ञाश्च केवलाधर्मपीडिताः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुग आनेपर तो कहीं वेदोंका दर्शन होता है और कहीं नहीं होता है। उस समय केवल अधर्मसे पीड़ित होकर यज्ञ और वेद लुप्त हो जाते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते युगे यस्तु धर्मो ब्राह्मणेषु प्रदृश्यते।
आत्मवत्सु तपोवत्सु श्रुतवत्सु प्रतिष्ठितः ॥ ३७ ॥

मूलम्

कृते युगे यस्तु धर्मो ब्राह्मणेषु प्रदृश्यते।
आत्मवत्सु तपोवत्सु श्रुतवत्सु प्रतिष्ठितः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें जिस चारों चरणोंवाले धर्मकी चर्चा की गयी है, वह अन्य युगोंमें भी मनको वशमें रखनेवाले तपस्वी एवं वेद-वेदान्तोंके ज्ञाता ब्राह्मणोंमें प्रतिष्ठित देखा जाता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सधर्मव्रतसंयोगं यथाधर्मं युगे युगे।
विक्रियन्ते स्वधर्मस्था वेदवादा यथागमम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

सधर्मव्रतसंयोगं यथाधर्मं युगे युगे।
विक्रियन्ते स्वधर्मस्था वेदवादा यथागमम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें मनुष्य स्वभावके अनुसार यज्ञ, व्रत और तीर्थाटन आदि करते हैं और त्रेता आदि युगमें वेदवादी एवं स्वधर्मनिष्ठ पुरुष शास्त्रके कथनानुसार धर्मके ह्राससे विकारको प्राप्त होते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विश्वानि भूतानि वृष्ट्या भूयांसि प्रावृषि।
सृज्यन्ते जङ्गमस्थानि तथा धर्मा युगे युगे ॥ ३९ ॥

मूलम्

यथा विश्वानि भूतानि वृष्ट्या भूयांसि प्रावृषि।
सृज्यन्ते जङ्गमस्थानि तथा धर्मा युगे युगे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वर्षाकालमें जलकी वर्षा होनेसे स्थावर और जंगम समस्त पदार्थ वृद्धिको प्राप्त होते हैं और वर्षा बीतनेपर उनका ह्रास होने लगता है, उसी प्रकार प्रत्येक युगमें धर्म और अधर्मकी वृद्धि एवं ह्रास होते रहते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्रह्महरादिषु ॥ ४० ॥

मूलम्

यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्रह्महरादिषु ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वसन्त आदि ऋतुओंमें फूल और फल आदि नाना प्रकारके ऋतुचिह्न दृष्टिगोचर होते हैं और भिन्न ऋतुओंमें उन चिह्नोंका दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरमें भी सृष्टि, रक्षा और संहारकी शक्तियाँ कभी न्यून और कभी अधिक दिखायी देती हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहितं कालनानात्वमनादिनिधनं तथा ।
कीर्तितं तत्पुरस्तात् ते तत्सूते चात्ति च प्रजाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

विहितं कालनानात्वमनादिनिधनं तथा ।
कीर्तितं तत्पुरस्तात् ते तत्सूते चात्ति च प्रजाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं ब्रह्माजीने ही सत्ययुग, त्रेता आदिके रूपमें कालभेदका विधान किया है। वह अनादि और अनन्त है। वह काल ही लोककी सृष्टि और संहार करता है। बेटा! यह बात मैं तुमसे पहले ही बता चुका हूँ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दधाति प्रभवे स्थानं भूतानां संयमो यमः।
स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वयुक्तानि भूरिशः ॥ ४२ ॥

मूलम्

दधाति प्रभवे स्थानं भूतानां संयमो यमः।
स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वन्द्वयुक्तानि भूरिशः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल ही सम्पूर्ण प्राणियोंको संयम और नियममें रखनेवाला है। वही उनकी उत्पत्तिके लिये स्थान धारण करता है। सारे प्राणी स्वभावसे ही द्वन्द्वोंसे युक्त होकर अत्यन्त कष्ट पाते हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्गकालक्रिया वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्।
प्रोक्तं ते पुत्र सर्वं वै यन्मां त्वं परिपृच्छसि॥४३॥

मूलम्

सर्गकालक्रिया वेदाः कर्ता कार्यं क्रियाफलम्।
प्रोक्तं ते पुत्र सर्वं वै यन्मां त्वं परिपृच्छसि॥४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने तुम्हें सृष्टि, काल, क्रिया, वेद, कर्ता, कार्य तथा क्रियाफल आदि सब विषय बता दिये॥४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीका अनुप्रश्नविषयक दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्

  1. इन सप्तर्षियोंके नाम इस प्रकार हैं—मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते॥[[(महा० शान्ति० ३४०।६९)]]‘‘‘मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ—ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजीके) द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं।’’’ ↩︎ ↩︎