२३१ शुकानुप्रश्ने

भागसूचना

एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शुकदेवजीका प्रश्न और व्यासजीका उनके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए कालका स्वरूप बताना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आद्यन्तं सर्वभूतानां ज्ञातुमिच्छामि कौरव।
ध्यानं कर्म च कालं च तथैवायुर्युगे युगे ॥ १ ॥

मूलम्

आद्यन्तं सर्वभूतानां ज्ञातुमिच्छामि कौरव।
ध्यानं कर्म च कालं च तथैवायुर्युगे युगे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— कुरुनन्दन! अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति किससे होती है? उनका अन्त कहाँ होता है? परमार्थकी प्राप्तिके लिये किसका ध्यान और किस कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये? कालका क्या स्वरूप है? तथा भिन्न-भिन्न युगोंमें मनुष्योंकी कितनी आयु होती है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकतत्त्वं च कार्त्स्न्येन भूतानामागतिं गतिम्।
सर्गश्च निधनं चैव कुत एतत् प्रवर्तते ॥ २ ॥

मूलम्

लोकतत्त्वं च कार्त्स्न्येन भूतानामागतिं गतिम्।
सर्गश्च निधनं चैव कुत एतत् प्रवर्तते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं लोकका तत्त्व पूर्णरूपसे जानना चाहता हूँ। प्राणियोंके आवागमन और सृष्टि-प्रलय किससे होते हैं?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तेऽनुग्रहे बुद्धिरस्मास्विह सतां वर।
एतद् भवन्तं पृच्छामि तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३ ॥

मूलम्

यदि तेऽनुग्रहे बुद्धिरस्मास्विह सतां वर।
एतद् भवन्तं पृच्छामि तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! यदि आपका हमलोगोंपर अनुग्रह करनेका विचार है तो मैं यही बात आपसे पूछता हूँ। आप मुझे बताइये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं हि कथितं श्रुत्वा भृगुभाषितमुत्तमम्।
भरद्वाजस्य विप्रर्षेस्ततो मे बुद्धिरुत्तमा ॥ ४ ॥

मूलम्

पूर्वं हि कथितं श्रुत्वा भृगुभाषितमुत्तमम्।
भरद्वाजस्य विप्रर्षेस्ततो मे बुद्धिरुत्तमा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले ब्रह्मर्षि भरद्वाजके प्रति भृगुजीका जो उत्तम उपदेश हुआ था, उसे आपके मुँहसे सुनकर मुझे उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाता परमधर्मिष्ठा दिव्यसंस्थान संस्थिता।
ततो भूयस्तु पृच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ५ ॥

मूलम्

जाता परमधर्मिष्ठा दिव्यसंस्थान संस्थिता।
ततो भूयस्तु पृच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी बुद्धि परम धर्मिष्ठ एवं दिव्य स्थितिमें स्थित हो गयी थी; इसीलिये फिर पूछता हूँ। आप इस विषयका वर्णन करनेकी कृपा करें॥५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
जगौ यद् भगवान् व्यासः पुत्राय परिपृच्छते ॥ ६ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
जगौ यद् भगवान् व्यासः पुत्राय परिपृच्छते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें भगवान् व्यासने अपने पुत्रके पूछनेपर जो उपदेश दिया था, वही प्राचीन इतिहास मैं दुहराऊँगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीत्य वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदस्तथा ।
अन्विच्छन्नैष्ठिकं कर्म धर्मनैपुणदर्शनात् ॥ ७ ॥
कृष्णद्वैपायनं व्यासं पुत्रो वैयासकिः शुकः।
पप्रच्छ संदेहमिमं छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ८ ॥

मूलम्

अधीत्य वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदस्तथा ।
अन्विच्छन्नैष्ठिकं कर्म धर्मनैपुणदर्शनात् ॥ ७ ॥
कृष्णद्वैपायनं व्यासं पुत्रो वैयासकिः शुकः।
पप्रच्छ संदेहमिमं छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगों और उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके व्यासपुत्र शुकदेवने नैष्ठिक कर्मको जाननेकी इच्छासे अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासकी धर्मज्ञानविषयक निपुणता देखकर उनसे अपने मनका संदेह पूछा। उन्हें यह विश्वास था कि पिताजीके उपदेशसे मेरा धर्म और अर्थविषयक सारा संशय दूर हो जायगा॥७-८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतग्रामस्य कर्तारं कालज्ञाने च निश्चयम्।
ब्राह्मणस्य च यत् कृत्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ९ ॥

मूलम्

भूतग्रामस्य कर्तारं कालज्ञाने च निश्चयम्।
ब्राह्मणस्य च यत् कृत्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी बोले— पिताजी! समस्त प्राणि-समुदायको उत्पन्न करनेवाला कौन है? कालके ज्ञानके विषयमें आपका क्या निश्चय है? और ब्राह्मणका क्या कर्तव्य है? ये सब बातें आप बतानेकी कृपा करें॥९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै प्रोवाच तत् सर्वं पिता पुत्राय पृच्छते।
अतीतानागते विद्वान् सर्वज्ञः सर्वधर्मवित् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मै प्रोवाच तत् सर्वं पिता पुत्राय पृच्छते।
अतीतानागते विद्वान् सर्वज्ञः सर्वधर्मवित् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! भूत और भविष्यके ज्ञाता तथा सम्पूर्ण धर्मोंको जाननेवाले सर्वज्ञ विद्वान् पिता व्यासने अपने पुत्रके पूछनेपर उसे उन सब बातोंका इस प्रकार उपदेश किया॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यन्तमजं दिव्यमजरं ध्रुवमव्ययम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं ब्रह्माग्रे सम्प्रवर्तते ॥ ११ ॥

मूलम्

अनाद्यन्तमजं दिव्यमजरं ध्रुवमव्ययम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं ब्रह्माग्रे सम्प्रवर्तते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— बेटा! सृष्टिके आरम्भमें अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्य, अजर-अमर, ध्रुव, अविकारी, अतर्क्य और ज्ञानातीत ब्रह्म ही रहता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव
त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्‌ कलां ताम्।
त्रिंशत्कलश्चापि भवेन्मुहूर्तो
भागः कलाया दशमश्च यः स्यात् ॥ १२ ॥

मूलम्

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव
त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्‌ कलां ताम्।
त्रिंशत्कलश्चापि भवेन्मुहूर्तो
भागः कलाया दशमश्च यः स्यात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब कालका विभाग इस प्रकार समझना चाहिये) पंद्रह निमेषकी एक काष्ठा और तीस काष्ठाकी एक कला गिननी चाहिये। तीस कलाका एक मुहूर्त होता है। उसके साथ कलाका दसवाँ भाग और सम्मिलित होता है अर्थात् तीस कला और तीन काष्ठाका एक मुहूर्त होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च
रात्रिश्च संख्या मुनिभिः प्रणीता।
मासः स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंशत्
संवत्सरो द्वादशमास उक्तः ॥ १३ ॥

मूलम्

त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च
रात्रिश्च संख्या मुनिभिः प्रणीता।
मासः स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंशत्
संवत्सरो द्वादशमास उक्तः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीस मुहूर्तका एक दिन-रात होता है। महर्षियोंने दिन और रात्रिके मुहूर्तोंकी संख्या उतनी ही बतायी है। तीस रात-दिनका एक मास और बारह मासोंका एक संवत्सर बताया गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरं द्वे त्वयने वदन्ति
संख्याविदो दक्षिणमुत्तरं च ॥ १४ ॥

मूलम्

संवत्सरं द्वे त्वयने वदन्ति
संख्याविदो दक्षिणमुत्तरं च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष दो अयनोंको मिलाकर एक संवत्सर कहते हैं। वे दो अयन हैं—उत्तरायण और दक्षिणायन॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषलौकिके।
रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः ॥ १५ ॥

मूलम्

अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषलौकिके।
रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यलोकके दिन-रातका विभाग सूर्यदेव करते हैं। रात प्राणियोंके सोनेके लिये है और दिन काम करनेके लिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तयोः पुनः।
शुक्लोऽहः कर्मचेष्टायां कृष्णः स्पप्नाय शर्वरी ॥ १६ ॥

मूलम्

पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तयोः पुनः।
शुक्लोऽहः कर्मचेष्टायां कृष्णः स्पप्नाय शर्वरी ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंके एक मासमें पितरोंका एक दिन-रात होता है। शुक्लपक्ष उनके काम-काज करनेके लिये दिन है और कृष्णपक्ष उनके विश्रामके लिये रात है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद् दक्षिणायनम् ॥ १७ ॥

मूलम्

दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद् दक्षिणायनम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंका एक वर्ष देवताओंके एक दिन-रातके बराबर है, उनके दिन-रातका विभाग इस प्रकार है। उत्तरायण उनका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ते रात्र्यहनी पूर्वं कीर्तिते जीवलौकिके।
तयोः संख्याय वर्षाग्रं ब्राह्मे वक्ष्याम्यहःक्षपे ॥ १८ ॥
पृथक् संवत्सराग्राणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।
कृते त्रेतायुगे चैव द्वापरे च कलौ तथा ॥ १९ ॥

मूलम्

ये ते रात्र्यहनी पूर्वं कीर्तिते जीवलौकिके।
तयोः संख्याय वर्षाग्रं ब्राह्मे वक्ष्याम्यहःक्षपे ॥ १८ ॥
पृथक् संवत्सराग्राणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।
कृते त्रेतायुगे चैव द्वापरे च कलौ तथा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले मनुष्योंके जो दिन-रात बताये गये हैं, उन्हींकी संख्याके हिसाबसे अब मैं ब्रह्माके दिन-रातका मान बताता हूँ। साथ ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—इन चारों युगोंकी वर्ष-संख्या भी अलग-अलग बता रहा हूँ॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥ २० ॥

मूलम्

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके चार हजार वर्षोंका एक सत्ययुग होता है। सत्ययुगमें चार सौ दिव्य वर्षोंकी संध्या होती है और उतने ही वर्षोंका एक संध्यांश भी होता है (इस प्रकार सत्ययुग अड़तालीस सौ दिव्य वर्षोंका होता है)॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतरेषु ससंध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।
एक पादेन हीयन्ते सहस्राणि शतानि च ॥ २१ ॥

मूलम्

इतरेषु ससंध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।
एक पादेन हीयन्ते सहस्राणि शतानि च ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संध्या और संध्यांशोंसहित अन्य तीन युगोंमें यह (चार हजार आठ सौ वर्षोंकी) संख्या क्रमशः एक-एक चौथाई घटती जाती है1॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानि शाश्वताल्ँलोकान् धारयन्ति सनातनान्।
एतद् ब्रह्मविदां तात विदितं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

एतानि शाश्वताल्ँलोकान् धारयन्ति सनातनान्।
एतद् ब्रह्मविदां तात विदितं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये चारों युग प्रवाहरूपसे सदा रहनेवाले सनातन लोकोंको धारण करते हैं। तात! यह युगात्मक काल ब्रह्मवेत्ताओंके सनातन ब्रह्मका ही स्वरूप है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुष्पात् सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे।
नाधर्मेणागमः कश्चित् परस्तस्य प्रवर्तते ॥ २३ ॥

मूलम्

चतुष्पात् सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे।
नाधर्मेणागमः कश्चित् परस्तस्य प्रवर्तते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें सत्य और धर्मके चारों चरण मौजूद रहते हैं—उस समय सत्य और धर्मका पूरा-पूरा पालन होता है उस समय कोई भी धर्मशास्त्र अधर्मसे संयुक्त नहीं होता; उसका उत्तम रीतिसे पालन होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतरेष्वागमाद् धर्मः पादशस्त्ववरोप्यते ।
चौर्यकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते ॥ २४ ॥

मूलम्

इतरेष्वागमाद् धर्मः पादशस्त्ववरोप्यते ।
चौर्यकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य युगोंमें शास्त्रोक्त धर्मका क्रमशः एक-एक चरण क्षीण होता जाता है और चोरी, असत्य तथा छल-कपट आदिके द्वारा अधर्मकी वृद्धि होने लगती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः ।
कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वयः ॥ २५ ॥

मूलम्

अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः ।
कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगके मनुष्य नीरोग होते हैं। उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ वर्षोंकी आयुवाले होते हैं। त्रेतायुग आनेपर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ वर्षोंकी रह जाती है। इसी प्रकार द्वापरमें दो सौ और कलियुगमें सौ वर्षोंकी आयु होती है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीतीह नः श्रुतम्।
आयूंषि चाशिषश्चैव वेदस्यैव च यत्फलम् ॥ २६ ॥

मूलम्

वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीतीह नः श्रुतम्।
आयूंषि चाशिषश्चैव वेदस्यैव च यत्फलम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रेता आदि युगोंमें वेदोंका स्वाध्याय और मनुष्योंकी आयु घटने लगती है, ऐसा सुना गया है। उनकी कामनाओंकी सिद्धिमें भी बाधा पड़ती है और वेदाध्ययनके फलमें भी न्यूनता आ जाती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।
अन्ये कलियुगे नॄणां युगह्रासानुरूपतः ॥ २७ ॥

मूलम्

अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।
अन्ये कलियुगे नॄणां युगह्रासानुरूपतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युगोंके ह्रासके अनुसार सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगमें मनुष्योंके धर्म भी भिन्न-भिन्न प्रकारके हो जाते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम्।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ २८ ॥

मूलम्

तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम्।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें तपस्याको ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है। त्रेतामें ज्ञानको ही उत्तम बताया गया है। द्वापरमें यज्ञ और कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ कहा गया है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतां द्वादशसाहस्रीं युगाख्यां कवयो विदुः।
सहस्रपरिवर्तं तद् ब्राह्मं दिवसमुच्यते ॥ २९ ॥

मूलम्

एतां द्वादशसाहस्रीं युगाख्यां कवयो विदुः।
सहस्रपरिवर्तं तद् ब्राह्मं दिवसमुच्यते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार देवताओंके बारह हजार वर्षोंका एक चतुर्युग होता है; यह विद्वानोंकी मान्यता है। एक सहस्र चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन बताया जाता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्रिमेतावतीं चैव तदादौ विश्वमीश्वरः।
प्रलये ध्यानमाविश्य सुप्त्वा सोऽन्ते विबुद्ध्यते ॥ ३० ॥

मूलम्

रात्रिमेतावतीं चैव तदादौ विश्वमीश्वरः।
प्रलये ध्यानमाविश्य सुप्त्वा सोऽन्ते विबुद्ध्यते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतने ही युगोंकी उनकी एक रात्रि भी होती है। भगवान् ब्रह्मा अपने दिनके आरम्भमें संसारकी सृष्टि करते हैं और रातमें जब प्रलयका समय होता है, तब सबको अपनेमें लीन करके योगनिद्राका आश्रय ले सो जाते हैं; फिर प्रलयका अन्त होने अर्थात् रात बीतनेपर वे जाग उठते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ ३१ ॥

मूलम्

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक हजार चतुर्युगका जो ब्रह्माका एक दिन बताया गया है और उतनी ही बड़ी जो उनकी रात्रि कही गयी है, उसको जो लोग ठीक-ठीक जानते हैं, वे ही दिन और रात अर्थात् कालतत्त्वको जाननेवाले हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिबुद्धो विकुरुते ब्रह्माक्षय्यं क्षपाक्षये।
सृजते च महद्भूतं तस्माद् व्यक्तात्मकं मनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

प्रतिबुद्धो विकुरुते ब्रह्माक्षय्यं क्षपाक्षये।
सृजते च महद्भूतं तस्माद् व्यक्तात्मकं मनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रि समाप्त होनेपर जाग्रत् हुए ब्रह्माजी पहले अपने अक्षय स्वरूपको मायासे विकारयुक्त बनाते हैं फिर महत्तत्त्वको उत्पन्न करते हैं। तत्पश्चात् उससे स्थूल जगत्‌को धारण करनेवाले मनकी उत्पत्ति होती है॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकानुप्रश्ने एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकका अनुप्रश्नविषयक दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३१॥


  1. अर्थात् संध्या और संध्याशोंसहित त्रेतायुग छत्तीस सौ वर्षोंका, द्वापर चौबीस सौ वर्षोंका और कलियुग बारह सौ वर्षोंका होता है। ↩︎