२३० वासुदेवोग्रसेनसंवादे

भागसूचना

त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवाद—नारदजीकी लोकप्रियताके हेतुभूत गुणोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियः सर्वस्य लोकस्य सर्वसत्त्वाभिनन्दिता।
गुणैः सर्वैरुपेतश्च को न्वस्ति भुवि मानवः ॥ १ ॥

मूलम्

प्रियः सर्वस्य लोकस्य सर्वसत्त्वाभिनन्दिता।
गुणैः सर्वैरुपेतश्च को न्वस्ति भुवि मानवः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! इस भूतलपर कौन ऐसा मनुष्य है; जो सब लोगोंका प्रिय, सम्पूर्ण प्राणियोंको आनन्द प्रदान करनेवाला तथा समस्त सद्‌गुणोंसे सम्पन्न है॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि पृच्छतो भरतर्षभ।
उग्रसेनस्य संवादं नारदे केशवस्य च ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि पृच्छतो भरतर्षभ।
उग्रसेनस्य संवादं नारदे केशवस्य च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे इस प्रश्नके उत्तरमें मैं श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवाद सुनाता हूँ, जो नारदजीके विषयमें हुआ था॥२॥

मूलम् (वचनम्)

उग्रसेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य संकल्पते लोको नारदस्य प्रकीर्तने।
मन्ये स गुणसम्पन्नो ब्रूहि तन्मम पृच्छतः ॥ ३ ॥

मूलम्

यस्य संकल्पते लोको नारदस्य प्रकीर्तने।
मन्ये स गुणसम्पन्नो ब्रूहि तन्मम पृच्छतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रसेन बोले— जनार्दन! सब लोग जिनके गुणोंका कीर्तन करनेकी इच्छा रखते हैं, वे नारदजी मेरी समझमें अवश्य उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हैं; अतः मैं उनके गुणोंके विषयमें पूछता हूँ, तुम मुझे बताओ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुकुराधिप यान् मन्ये शृणु तान् मे विवक्षतः।
नारदस्य गुणान् साधून् संक्षेपेण नराधिप ॥ ४ ॥

मूलम्

कुकुराधिप यान् मन्ये शृणु तान् मे विवक्षतः।
नारदस्य गुणान् साधून् संक्षेपेण नराधिप ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने कहा— कुकुरकुलके स्वामी! नरेश्वर! मैं नारदके जिन उत्तम गुणोंको मानता और जानता हूँ, उन्हें संक्षेपसे बताना चाहता हूँ। आप मुझसे उनका श्रवण कीजिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चारित्रनिमित्तोऽस्याहंकारो देहतापनः ।
अभिन्नश्रुतचारित्रस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ५ ॥

मूलम्

न चारित्रनिमित्तोऽस्याहंकारो देहतापनः ।
अभिन्नश्रुतचारित्रस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीमें शास्त्रज्ञान और चरित्रबल दोनों एक साथ संयुक्त हैं। फिर भी उनके मनमें अपनी सच्चरित्रताके कारण तनिक भी अभिमान नहीं है। वह अभिमान शरीरको संतप्त करनेवाला है। उसके न होनेसे ही नारदजीकी सर्वत्र पूजा (प्रतिष्ठा) होती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरतिः क्रोधचापल्ये भयं नैतानि नारदे।
अदीर्घसूत्रः शूरश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ६ ॥

मूलम्

अरतिः क्रोधचापल्ये भयं नैतानि नारदे।
अदीर्घसूत्रः शूरश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीमें अप्रीति, क्रोध, चपलता और भय—ये दोष नहीं हैं, वे दीर्घसूत्री (किसी कामको विलम्बसे करनेवाले या आलसी) नहीं हैं तथा धर्म और दया आदि करनेमें बड़े शूरवीर हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपास्यो नारदो बाढं वाचि नास्य व्यतिक्रमः।
कामतो यदि वा लोभात् तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ७ ॥

मूलम्

उपास्यो नारदो बाढं वाचि नास्य व्यतिक्रमः।
कामतो यदि वा लोभात् तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही नारद उपासना करनेके योग्य हैं। कामना या लोभसे भी कभी उनके द्वारा अपनी बात पलटी नहीं जाती; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मविधितत्त्वज्ञः क्षान्तः शक्तो जितेन्द्रियः।
ऋजुश्च सत्यवादी च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ८ ॥

मूलम्

अध्यात्मविधितत्त्वज्ञः क्षान्तः शक्तो जितेन्द्रियः।
ऋजुश्च सत्यवादी च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अध्यात्मशास्त्रके तत्त्वज्ञ विद्वान्, क्षमाशील, शक्तिमान, जितेन्द्रिय, सरल और सत्यवादी हैं। इसीलिये वे सर्वत्र पूजे जाते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजसा यशसा बुद्ध्या ज्ञानेन विनयेन च।
जन्मना तपसा वृद्धस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ९ ॥

मूलम्

तेजसा यशसा बुद्ध्या ज्ञानेन विनयेन च।
जन्मना तपसा वृद्धस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी तेज, बुद्धि, यश, ज्ञान, विनय, जन्म और तपस्याद्वारा भी सबसे बढ़े-चढ़े हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुशीलः सुखसंवेशः सुभोजः स्वादरः शुचिः।
सुवाक्यश्चाप्यनीर्ष्यश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १० ॥

मूलम्

सुशीलः सुखसंवेशः सुभोजः स्वादरः शुचिः।
सुवाक्यश्चाप्यनीर्ष्यश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सुशील, सुखसे सोनेवाले, पवित्र भोजन करनेवाले, उत्तम आदरके पात्र, पवित्र, उत्तम वचन बोलनेवाले तथा ईर्ष्यासे रहित हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा हुई है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्याणं कुरुते बाढं पापमस्मिन्न विद्यते।
न प्रीयते परानर्थैस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ११ ॥

मूलम्

कल्याणं कुरुते बाढं पापमस्मिन्न विद्यते।
न प्रीयते परानर्थैस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे खुले दिलसे सबका कल्याण करते हैं। उनके मनमें लेशमात्र भी पाप नहीं है। दूसरोंका अनर्थ देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं होती; इसीलिये उनका सब जगह सम्मान होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदश्रुतिभिराख्यानैरर्थानभिजिगीषति ।
तितिक्षुरनवज्ञाता तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १२ ॥

मूलम्

वेदश्रुतिभिराख्यानैरर्थानभिजिगीषति ।
तितिक्षुरनवज्ञाता तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी वेदों और उपनिषदोंकी, श्रुतियों तथा इतिहास-पुराणकी कथाओंद्वारा प्रस्तुत विषयोंको समझाने और सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं। वे सहनशील तो हैं ही, कभी किसीकी अवज्ञा नहीं करते हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समत्वाच्च प्रियो नास्ति नाप्रियश्च कथंचन।
मनोऽनुकूलवादी च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १३ ॥

मूलम्

समत्वाच्च प्रियो नास्ति नाप्रियश्च कथंचन।
मनोऽनुकूलवादी च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सर्वत्र समभाव रखते हैं; इसलिये उनका न कोई प्रिय है और न किसी तरह अप्रिय ही है। वे मनके अनुकूल बोलते हैं, इसलिये सर्वत्र उनका आदर होता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुश्रुतश्चित्रकथः पण्डितोऽलालसोऽशठः ।
अदीनोऽक्रोधनोऽलुब्धस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १४ ॥

मूलम्

बहुश्रुतश्चित्रकथः पण्डितोऽलालसोऽशठः ।
अदीनोऽक्रोधनोऽलुब्धस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हैं और उनका कथा कहनेका ढंग भी बड़ा विचित्र है। उनमें पूर्ण पाण्डित्य होनेके साथ ही लालसा और शठताका भी अभाव है। दीनता, क्रोध और लोभ आदि दोषसे वे सर्वथा रहित हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्थे धने वा कामे वा भूतपूर्वोऽस्य विग्रहः।
दोषाश्चास्य समुच्छिन्नास्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १५ ॥

मूलम्

नार्थे धने वा कामे वा भूतपूर्वोऽस्य विग्रहः।
दोषाश्चास्य समुच्छिन्नास्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन, अन्य कोई प्रयोजन अथवा कामके विषयमें नारदजीका पहले कभी किसीके साथ कलह हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें समस्त दोषोंका अभाव है, इसीलिये उनका सब जगह आदर होता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढभक्तिरनिन्द्यात्मा श्रुतवाननृशंसवान् ।
वीतसम्मोहदोषश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १६ ॥

मूलम्

दृढभक्तिरनिन्द्यात्मा श्रुतवाननृशंसवान् ।
वीतसम्मोहदोषश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी मेरे प्रति दृढ़ भक्ति है। उनका हृदय शुद्ध है। वे विद्वान् और दयालु हैं। उनके मोह आदि दोष दूर हो गये हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असक्तः सर्वभूतेषु सक्तात्मेव च लक्ष्यते।
अदीर्घसंशयो वाग्मी तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १७ ॥

मूलम्

असक्तः सर्वभूतेषु सक्तात्मेव च लक्ष्यते।
अदीर्घसंशयो वाग्मी तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सम्पूर्ण प्राणियोंमें आसक्तिसे रहित हैं; फिर भी आसक्त हुए-से दिखायी देते हैं। उनके मनमें दीर्घकालतक कोई संशय नहीं रहता और वे बहुत अच्छे वक्ता हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाधिर्नास्य कामार्थे नात्मानं स्तौति कर्हिचित्।
अनीर्षुर्मृदुसंवादस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १८ ॥

मूलम्

समाधिर्नास्य कामार्थे नात्मानं स्तौति कर्हिचित्।
अनीर्षुर्मृदुसंवादस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका मन कभी विषयभोगोंमें स्थित नहीं होता और वे कभी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं। किसीके प्रति ईर्ष्या नहीं रखते तथा सबसे मीठे वचन बोलते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकस्य विविधं चित्तं प्रेक्षते चाप्यकुत्सयन्।
संसर्गविद्याकुशलस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १९ ॥

मूलम्

लोकस्य विविधं चित्तं प्रेक्षते चाप्यकुत्सयन्।
संसर्गविद्याकुशलस्तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी लोगोंकी नाना प्रकारकी चित्तवृत्तिको देखते और समझते हैं। फिर भी किसीकी निन्दा नहीं करते। किसका संसर्ग कैसा है? इसके ज्ञानमें वे बड़े निपुण हैं; इसीलिये वे सर्वत्र पूजित होते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासूयत्यागमं कंचित् स्वनयेनोपजीवति ।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २० ॥

मूलम्

नासूयत्यागमं कंचित् स्वनयेनोपजीवति ।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे किसी शास्त्रमें दोषदृष्टि नहीं करते। अपनी नीतिके अनुसार जीवन-यापन करते हैं। समयको कभी व्यर्थ नहीं गँवाते और मनको वशमें रखते हैं; इसीलिये वे सर्वत्र सम्मानित होते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतश्रमः कृतप्रज्ञो न च तृप्तः समाधितः।
नित्ययुक्तोऽप्रमत्तश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २१ ॥

मूलम्

कृतश्रमः कृतप्रज्ञो न च तृप्तः समाधितः।
नित्ययुक्तोऽप्रमत्तश्च तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने योगाभ्यासके लिये बड़ा परिश्चम किया है। उनकी बुद्धि पवित्र है। उन्हें समाधिसे कभी तृप्ति नहीं होती। वे कर्तव्य-पालनके लिये सदा उद्यत रहते हैं और कभी प्रमाद नहीं करते हैं; इसीलिये सर्वत्र पूजे जाते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापत्रपश्च युक्तश्च नियुक्तः श्रेयसे परैः।
अभेत्ता परगुह्यानां तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २२ ॥

मूलम्

नापत्रपश्च युक्तश्च नियुक्तः श्रेयसे परैः।
अभेत्ता परगुह्यानां तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी निर्लज्ज नहीं हैं। दूसरोंकी भलाईके लिये सदा उद्यत रहते हैं; इसीलिये दूसरे लोग उन्हें अपने कल्याणकारी कार्योंमें लगाये रखते हैं तथा वे किसीके गुप्त रहस्यको कहीं प्रकट नहीं करते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हृष्यत्यर्थलाभेषु नालाभे तु व्यथत्यपि।
स्थिरबुद्धिरसक्तात्मा तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २३ ॥

मूलम्

न हृष्यत्यर्थलाभेषु नालाभे तु व्यथत्यपि।
स्थिरबुद्धिरसक्तात्मा तस्मात् सर्वत्र पूजितः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे धनका लाभ होनेसे प्रसन्न नहीं होते और उसके न मिलनेसे उन्हें दुःख भी नहीं होता है। उनकी बुद्धि स्थिर और मन आसक्तिरहित है; इसीलिये वे सर्वत्र पूजित हुए हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सर्वगुणसम्पन्नं दक्षं शुचिमनामयम्।
कालज्ञं च प्रियज्ञं च कः प्रियं न करिष्यति॥२४॥

मूलम्

तं सर्वगुणसम्पन्नं दक्षं शुचिमनामयम्।
कालज्ञं च प्रियज्ञं च कः प्रियं न करिष्यति॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सम्पूर्ण गुणोंसे सुशोभित, कार्यकुशल, पवित्र, नीरोग, समयका मूल्य समझनेवाले और परम प्रिय आत्मतत्त्वके ज्ञाता हैं; फिर कौन उन्हें अपना प्रिय नहीं बनायेगा?॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वासुदेवोग्रसेनसंवादे त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवादविषयक दो सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३०॥