भागसूचना
एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जैगीषव्यका असित-देवलको समत्वबुद्धिका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंशीलः किंसमाचारः किंविद्यः किंपराक्रमः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ १ ॥
मूलम्
किंशीलः किंसमाचारः किंविद्यः किंपराक्रमः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! कैसे शील, किस तरहके आचरण, कैसी विद्या और कैसे पराक्रमसे युक्त होनेपर मनुष्य प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोक्षधर्मेषु नियतो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं तत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ २ ॥
मूलम्
मोक्षधर्मेषु नियतो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं तत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो पुरुष मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर मोक्षोपयोगी धर्मोंके पालनमें संलग्न रहता है, वही प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
जैगीषव्यस्य संवादमसितस्य च भारत ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
जैगीषव्यस्य संवादमसितस्य च भारत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस विषयमें भी जैगीषव्य और असित-देवल मुनिका संवादरूप यह पुरातन इतिहास उदाहरणके तौरपर प्रस्तुत किया जाता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैगीषव्यं महाप्रज्ञं धर्माणामागतागमम् ।
अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमसितो देवलोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
जैगीषव्यं महाप्रज्ञं धर्माणामागतागमम् ।
अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमसितो देवलोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार सम्पूर्ण धर्मोंको जाननेवाले शास्त्रवेत्ता, महाज्ञानी और क्रोध एवं हर्षसे रहित जैगीषव्य मुनिसे असित-देवलने इस प्रकार पूछा॥४॥
मूलम् (वचनम्)
देवल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रीयसे वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यसे।
का ते प्रज्ञा कुतश्चैषा किं ते तस्याः परायणम्॥५॥
मूलम्
न प्रीयसे वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यसे।
का ते प्रज्ञा कुतश्चैषा किं ते तस्याः परायणम्॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवल बोले— मुनिवर! यदि आपको कोई प्रणाम करे, तो आप अधिक प्रसन्न नहीं होते और निन्दा करे तो भी आप उसपर क्रोध नहीं करते, यह आपकी बुद्धि कैसी है? कहाँसे प्राप्त हुई है? और आपकी इस बुद्धिका परम आश्रय क्या है?॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेनानुयुक्तः स तमुवाच महातपाः।
महद्वाक्यमसंदिग्धं पुष्कलार्थपदं शुचि ॥ ६ ॥
मूलम्
इति तेनानुयुक्तः स तमुवाच महातपाः।
महद्वाक्यमसंदिग्धं पुष्कलार्थपदं शुचि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! देवलके इस प्रकार प्रश्न करनेपर महातपस्वी जैगीषव्यने उनसे इस प्रकार संदेहरहित, प्रचुर अर्थका बोधक, पवित्र और उत्तम वचन कहा॥६॥
मूलम् (वचनम्)
जैगीषव्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
या गतिर्या परा काष्ठा या शान्तिः पुण्यकर्मणाम्।
तां तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि महतीमृषिसत्तम ॥ ७ ॥
मूलम्
या गतिर्या परा काष्ठा या शान्तिः पुण्यकर्मणाम्।
तां तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि महतीमृषिसत्तम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैगीषव्य बोले— मुनिश्रेष्ठ! पुण्यकर्म करनेवाले महापुरुषोंको जिसका आश्चय लेनेसे उत्तम गति, उत्कर्षकी चरम सीमा और परम शान्ति प्राप्त होती है, उस श्रेष्ठ बुद्धिका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दत्सु च समा नित्यं प्रशंसत्सु च देवल।
निह्नवन्ति च ये तेषां समयं सुकृतं च यत्॥८॥
मूलम्
निन्दत्सु च समा नित्यं प्रशंसत्सु च देवल।
निह्नवन्ति च ये तेषां समयं सुकृतं च यत्॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवल! महात्मा पुरुषोंकी कोई निन्दा करे या सदा उनकी प्रशंसा करे अथवा उनके सदाचार तथा पुण्य कर्मोंपर पर्दा डाले, किंतु वे सबके प्रति एक-सी ही बुद्धि रखते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्ताश्च न वदिष्यन्ति वक्तारमहिते हितम्।
प्रतिहन्तुं न चेच्छन्ति हन्तारं वै मनीषिणः ॥ ९ ॥
मूलम्
उक्ताश्च न वदिष्यन्ति वक्तारमहिते हितम्।
प्रतिहन्तुं न चेच्छन्ति हन्तारं वै मनीषिणः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन मनीषी पुरुषोंसे कोई कटु वचन कह दे तो वे उस कटुवादी पुरुषको बदलेमें कुछ नहीं कहते। अपना अहित करनेवालेका भी हित ही चाहते हैं तथा जो उन्हें मारता है, उसे भी वे बदलेमें मारना नहीं चाहते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाप्राप्तमनुशोचन्ति प्राप्तकालानि कुर्वते ।
न चातीतानि शोचन्ति न चैव प्रतिजानते ॥ १० ॥
मूलम्
नाप्राप्तमनुशोचन्ति प्राप्तकालानि कुर्वते ।
न चातीतानि शोचन्ति न चैव प्रतिजानते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अभी सामने नहीं आयी है या भविष्यमें होनेवाली है, उसके लिये वे शोक या चिन्ता नहीं करते हैं। वर्तमान समयमें जो कार्य प्राप्त हैं, उन्हींको वे करते हैं। जो बातें बीत गयी हैं, उनके लिये भी उन्हें शोक नहीं होता है और वे किसी बातकी प्रतिज्ञा नहीं करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्राप्तानां च पूज्यानां कामादर्थेषु देवल।
यथोपपत्तिं कुर्वन्ति शक्तिमन्तः कृतव्रताः ॥ ११ ॥
मूलम्
सम्प्राप्तानां च पूज्यानां कामादर्थेषु देवल।
यथोपपत्तिं कुर्वन्ति शक्तिमन्तः कृतव्रताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवल! यदि कोई कामना मनमें लेकर किन्हीं विशेष प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये पूजनीय पुरुष उनके पास आ जायँ तो वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले शक्तिशाली महात्मा यथाशक्ति उनके कार्य-साधनकी चेष्टा करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्वविद्या महाप्राज्ञा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः।
मनसा कर्मणा वाचा नापराध्यन्ति कर्हिचित् ॥ १२ ॥
मूलम्
पक्वविद्या महाप्राज्ञा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः।
मनसा कर्मणा वाचा नापराध्यन्ति कर्हिचित् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका ज्ञान परिपक्व होता है। वे महाज्ञानी, क्रोधको जीतनेवाले और जितेन्द्रिय होते हैं तथा मन, वाणी और शरीरसे कभी किसीका अपराध नहीं करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनीर्षवो न चान्योन्यं विहिंसन्ति कदाचन।
न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
अनीर्षवो न चान्योन्यं विहिंसन्ति कदाचन।
न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मनमें एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्या नहीं होती। वे कभी हिंसा नहीं करते तथा वे धीर पुरुष दूसरोंकी समृद्धियोंसे कभी मन-ही-मन जलते नहीं हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दाप्रशंसे चात्यर्थं न वदन्ति परस्य ये।
न च निन्दाप्रशंसाभ्यां विक्रियन्ते कदाचन ॥ १४ ॥
मूलम्
निन्दाप्रशंसे चात्यर्थं न वदन्ति परस्य ये।
न च निन्दाप्रशंसाभ्यां विक्रियन्ते कदाचन ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दूसरोंकी न तो निन्दा करते हैं और न अधिक प्रशंसा ही। उनकी भी कोई निन्दा या प्रशंसा करे तो उनके मनमें कभी विकार नहीं होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतश्च प्रशान्ता ये सर्वभूतहिते रताः।
न क्रुद्ध्यन्ति न हृष्यन्ति नापराध्यन्ति कर्हिचित् ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्वतश्च प्रशान्ता ये सर्वभूतहिते रताः।
न क्रुद्ध्यन्ति न हृष्यन्ति नापराध्यन्ति कर्हिचित् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सर्वथा शान्त और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते हैं, न कभी क्रोध करते हैं, न हर्षित होते हैं और न किसीका अपराध ही करते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुच्य हृदयग्रन्थिं चङ्क्रमन्ति यथासुखम्।
न येषां बान्धवाः सन्ति ये चान्येषां न बान्धवाः॥१६॥
मूलम्
विमुच्य हृदयग्रन्थिं चङ्क्रमन्ति यथासुखम्।
न येषां बान्धवाः सन्ति ये चान्येषां न बान्धवाः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे हृदयकी अज्ञानमयी गाँठ खोलकर चारों ओर आनन्दके साथ विचरा करते हैं। न उनके कोई भाई-बन्धु होते हैं और न वे ही दूसरोंके भाई-बन्धु होते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमित्राश्च न सन्त्येषां ये चामित्रा न कस्यचित्।
य एवं कुर्वते मर्त्याः सुखं जीवन्ति सर्वदा ॥ १७ ॥
मूलम्
अमित्राश्च न सन्त्येषां ये चामित्रा न कस्यचित्।
य एवं कुर्वते मर्त्याः सुखं जीवन्ति सर्वदा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न उनके कोई शत्रु होते हैं और न वे ही किसीके शत्रु होते हैं। जो मनुष्य ऐसा करते हैं, वे सदा सुखसे जीवन बिताते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये धर्मं चानुरुद्ध्यन्ते धर्मज्ञा द्विजसत्तम।
ये ह्यतो विच्युता मार्गात् ते हृष्यन्त्युद्विजन्ति च ॥ १८ ॥
मूलम्
ये धर्मं चानुरुद्ध्यन्ते धर्मज्ञा द्विजसत्तम।
ये ह्यतो विच्युता मार्गात् ते हृष्यन्त्युद्विजन्ति च ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! जो धर्मके अनुसार चलते हैं, वे ही धर्मज्ञ हैं। तथा जो धर्ममार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें ही हर्ष-उद्वेग आदि प्राप्त होते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्थितस्तमहं मार्गमसूयिष्यामि कं कथम्।
निन्द्यमानः प्रशस्तो वा हृष्येऽहं केन हेतुना ॥ १९ ॥
मूलम्
आस्थितस्तमहं मार्गमसूयिष्यामि कं कथम्।
निन्द्यमानः प्रशस्तो वा हृष्येऽहं केन हेतुना ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने भी उसी धर्ममार्गका अवलम्बन किया है; अतः अपनी निन्दा सुनकर क्यों किसीके प्रति द्वेष-दृष्टि करूँ? अथवा प्रशंसा सुनकर भी किसलिये हर्ष मानूँ?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यदिच्छन्ति तत् तस्मादपि गच्छन्तु मानवाः।
न मे निन्दाप्रशंसाभ्यां ह्रासवृद्धी भविष्यतः ॥ २० ॥
मूलम्
यद् यदिच्छन्ति तत् तस्मादपि गच्छन्तु मानवाः।
न मे निन्दाप्रशंसाभ्यां ह्रासवृद्धी भविष्यतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य निन्दा और प्रशंसामेंसे जिससे जो-जो लाभ उठाना चाहते हों, उससे वह-वह लाभ उठा लें। उस निन्दा और प्रशंसासे न मेरी कोई हानि होगी, न लाभ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य तत्त्ववित् ।
विषस्येवोद्विजेन्नित्यं सम्मानस्य विचक्षणः ॥ २१ ॥
मूलम्
अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य तत्त्ववित् ।
विषस्येवोद्विजेन्नित्यं सम्मानस्य विचक्षणः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान् मनुष्य सम्मानको विषके तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवज्ञातः सुखं शेते इह चामुत्र चाभयम्।
विमुक्तः सर्वदोषेभ्यो योऽवमन्ता स बध्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
अवज्ञातः सुखं शेते इह चामुत्र चाभयम्।
विमुक्तः सर्वदोषेभ्यो योऽवमन्ता स बध्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त महात्मा पुरुष अपमानित होनेपर भी इस लोक और परलोकमें निर्भय होकर सुखसे सोता है; परंतु उसका अपमान करनेवाला पुरुष पापाबन्धनमें पड़ जाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परां गतिं च ये केचित् प्रार्थयन्ति मनीषिणः।
एतद् व्रतं समाश्रित्य सुखमेधन्ति ते जनाः ॥ २३ ॥
मूलम्
परां गतिं च ये केचित् प्रार्थयन्ति मनीषिणः।
एतद् व्रतं समाश्रित्य सुखमेधन्ति ते जनाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनीषी पुरुष उत्तम गति प्राप्त करना चाहते हैं, वे इस उत्तम व्रतका आश्चय लेकर सुखी एवं अभ्युदयशील होते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतश्च समाहृत्य क्रतून् सर्वान् जितेन्द्रियः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ २४ ॥
मूलम्
सर्वतश्च समाहृत्य क्रतून् सर्वान् जितेन्द्रियः।
प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्ध्रुवम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि सारे काम्य-कर्मोंका परित्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें कर ले। फिर वह प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्य देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
पदमन्ववरोहन्ति प्राप्तस्य परमां गतिम् ॥ २५ ॥
मूलम्
नास्य देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
पदमन्ववरोहन्ति प्राप्तस्य परमां गतिम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमगतिको प्राप्त हुए उस ज्ञानी महात्माके पदका अनुसरण न देवता कर पाते हैं न गन्धर्व, न पिशाच कर पाते हैं और न राक्षस ही॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जैगीषव्यासितसंवादे एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जैगीषव्य और असित-देवलसंवादविषयक दो सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२९॥