२२७ बलिवासवसंवादे

भागसूचना

सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

इन्द्र और बलिका संवाद—काल और प्रारब्धकी महिमाका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे किं श्रेयः पुरुषस्य हि।
बन्धुनाशे महीपाल राज्यनाशेऽथवा पुनः ॥ १ ॥
त्वं हि नः परमो वक्ता लोकेऽस्मिन् भरतर्षभ।
एतद् भवन्तं पृच्छामि तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥

मूलम्

मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे किं श्रेयः पुरुषस्य हि।
बन्धुनाशे महीपाल राज्यनाशेऽथवा पुनः ॥ १ ॥
त्वं हि नः परमो वक्ता लोकेऽस्मिन् भरतर्षभ।
एतद् भवन्तं पृच्छामि तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भूपाल! जो मनुष्य बन्धु-बान्धवोंका अथवा राज्यका नाश हो जानेपर घोर संकटमें पड़ गया हो, उसके कल्याणका क्या उपाय है? भरतश्रेष्ठ! इस संसारमें आप ही हमारे लिये सबसे श्रेष्ठ वक्ता हैं; इसलिये यह बात आपसे ही पूछता हूँ। आप यह सब मुझे बतानेकी कृपा करें॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रदारैः सुखैश्चैव वियुक्तस्य धनेन वा।
मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे धृतिः श्रेयस्करी नृप ॥ ३ ॥
धैर्येण युक्तस्य सतः शरीरं न विशीर्यते।

मूलम्

पुत्रदारैः सुखैश्चैव वियुक्तस्य धनेन वा।
मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे धृतिः श्रेयस्करी नृप ॥ ३ ॥
धैर्येण युक्तस्य सतः शरीरं न विशीर्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजा युधिष्ठिर! जिसके स्त्री-पुत्र मर गये हों, सुख छिन गया हो अथवा धन नष्ट हो गया हो और इन कारणोंसे जो कठिन विपत्तिमें फँस गया हो, उसका तो धैर्य धारण करनेमें ही कल्याण है। जो धैर्यसे युक्त है, उस सत्पुरुषका शरीर चिन्ताके कारण नष्ट नहीं होता॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशोकता सुखं धत्ते धत्ते चारोग्यमुत्तमम् ॥ ४ ॥
आरोग्याच्च शरीरस्य स पुनर्विन्दते श्रियम्।

मूलम्

विशोकता सुखं धत्ते धत्ते चारोग्यमुत्तमम् ॥ ४ ॥
आरोग्याच्च शरीरस्य स पुनर्विन्दते श्रियम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शोकहीनता सुख और उत्तम आरोग्यका उत्पादन करती है, शरीरके नीरोग होनेसे मनुष्य फिर धन-सम्पत्तिका उपार्जन कर लेता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च प्राज्ञो नरस्तात सात्त्विकीं वृत्तिमास्थितः ॥ ५ ॥
तस्यैश्वर्यं च धैर्यं च व्यवसायश्च कर्मसु।

मूलम्

यच्च प्राज्ञो नरस्तात सात्त्विकीं वृत्तिमास्थितः ॥ ५ ॥
तस्यैश्वर्यं च धैर्यं च व्यवसायश्च कर्मसु।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जो बुद्धिमान् मनुष्य सदा सात्त्विक वृत्तिका सहारा लिये रहता है। उसीको ऐश्वर्य और धैर्यकी प्राप्ति होती है तथा वही सम्पूर्ण कर्मोंमें उद्योगशील होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ॥ ६ ॥
बलिवासवसंवादं पुनरेव युधिष्ठिर ।

मूलम्

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ॥ ६ ॥
बलिवासवसंवादं पुनरेव युधिष्ठिर ।

अनुवाद (हिन्दी)

यधिष्ठिर! इस विषयमें पुनः बलि और इन्द्रके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्ते देवासुरे युद्धे दैत्यदानवसंक्षये ॥ ७ ॥
विष्णुक्रान्तेषु लोकेषु देवराजे शतक्रतौ।
इज्यमानेषु देवेषु चातुर्वर्ण्ये व्यवस्थिते ॥ ८ ॥
समृद्धमात्रे त्रैलोक्ये प्रीतियुक्ते स्वयम्भुवि।

मूलम्

वृत्ते देवासुरे युद्धे दैत्यदानवसंक्षये ॥ ७ ॥
विष्णुक्रान्तेषु लोकेषु देवराजे शतक्रतौ।
इज्यमानेषु देवेषु चातुर्वर्ण्ये व्यवस्थिते ॥ ८ ॥
समृद्धमात्रे त्रैलोक्ये प्रीतियुक्ते स्वयम्भुवि।

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें जब दैत्यों और दानवोंका संहार करनेवाला देवासुर-संग्राम समाप्त हो गया, वामनरूपधारी भगवान् विष्णुने अपने पैरोंसे तीनों लोकोंको नाप लिया और सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले इन्द्र जब देवताओंके राजा हो गये, तब देवताओंकी सब ओर आराधना होने लगी। चारों वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्ममें स्थित रहने लगे। तीनों लोकोंका अभ्युदय होने लगा और सबको सुखी देखकर स्वयम्भू ब्रह्माजी अत्यन्त प्रसन्न रहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यामपि चर्षिभिः ॥ ९ ॥
गन्धर्वैर्भुजगेन्द्रैश्च सिद्धैश्चान्यैर्वृतः प्रभुः ।
चतुर्दन्तं सुदान्तं च वारणेन्द्रं श्रिया वृतम्।
आरुह्यैरावतं शक्रस्त्रैलोक्यमनुसंययौ ॥ १० ॥

मूलम्

रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यामपि चर्षिभिः ॥ ९ ॥
गन्धर्वैर्भुजगेन्द्रैश्च सिद्धैश्चान्यैर्वृतः प्रभुः ।
चतुर्दन्तं सुदान्तं च वारणेन्द्रं श्रिया वृतम्।
आरुह्यैरावतं शक्रस्त्रैलोक्यमनुसंययौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं दिनोंकी बात है, देवराज इन्द्र अपने ऐरावत नामक गजराजपर, जो चार सुन्दर दाँतोंसे सुशोभित और दिव्य शोभासे सम्पन्न था, आरूढ़ हो तीनों लोकोंमें भ्रमण करनेके लिये निकले। उस समय त्रिलोकीनाथ इन्द्र रुद्र, वसु, आदित्य, अश्विनीकुमार, ऋषिगण, गन्धर्व, नाग, सिद्ध तथा विद्याधरों आदिसे घिरे हुए थे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचित् समुद्रान्ते कस्मिंश्चिद् गिरिगह्वरे।
बलिं वैरोचनिं वज्री ददर्शोपससर्प च ॥ ११ ॥

मूलम्

स कदाचित् समुद्रान्ते कस्मिंश्चिद् गिरिगह्वरे।
बलिं वैरोचनिं वज्री ददर्शोपससर्प च ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घूमते-घूमते वे किसी समय समुद्रतटपर जा पहुँचे। वहाँ किसी पर्वतकी गुफामें उन्हें विरोचनकुमार बलि दिखायी दिये। उन्हें देखते ही इन्द्र हाथमें वज्र लिये उनके पास जा पहुँचे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमैरावतमूर्धस्थं प्रेक्ष्य देवगणैर्वृतम् ।
सुरेन्द्रमिन्द्रं दैत्येन्द्रो न शुशोच न विव्येथे ॥ १२ ॥

मूलम्

तमैरावतमूर्धस्थं प्रेक्ष्य देवगणैर्वृतम् ।
सुरेन्द्रमिन्द्रं दैत्येन्द्रो न शुशोच न विव्येथे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रको ऐरावतकी पीठपर बैठे देख दैत्यराज बलिके मनमें तनिक भी शोक या व्यथा नहीं हुई॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूष्ट्‌वा तमविकारस्थं तिष्ठन्तं निर्भयं बलिम्।
अधिरूढो द्विपश्रेष्ठमित्युवाच शतक्रतुः ॥ १३ ॥

मूलम्

दूष्ट्‌वा तमविकारस्थं तिष्ठन्तं निर्भयं बलिम्।
अधिरूढो द्विपश्रेष्ठमित्युवाच शतक्रतुः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें निर्भय और निर्विकार होकर खड़ा देख श्रेष्ठ गजराजपर चढ़े हुए शतक्रतु इन्द्रने उनसे इस प्रकार कहा—॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैत्य न व्यथसे शौर्यादथवा वृद्धसेवया।
तपसा भावितत्वाद् वा सर्वथैतत् सुदुष्करम् ॥ १४ ॥

मूलम्

दैत्य न व्यथसे शौर्यादथवा वृद्धसेवया।
तपसा भावितत्वाद् वा सर्वथैतत् सुदुष्करम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्य! तुम्हें अपने शत्रुकी समृद्धि देखकर व्यथा क्यों नहीं होती? क्या शौर्यसे अथवा बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करनेसे या तपस्यासे अन्तःकरण शुद्ध हो जानेके कारण तुम्हें शोक नहीं होता है? साधारण पुरुषके लिये तो यह धैर्य सर्वथा परम दुष्कर है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुभिर्वशमानीतो हीनः स्थानादनुत्तमात् ।
वैरोचने किमाश्रित्य शोचितव्ये न शोचसि ॥ १५ ॥

मूलम्

शत्रुभिर्वशमानीतो हीनः स्थानादनुत्तमात् ।
वैरोचने किमाश्रित्य शोचितव्ये न शोचसि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विरोचनकुमार! तुम शत्रुओंके वशमें पड़े और उत्तम स्थान (राज्य) से भ्रष्ट हुए—इस प्रकार शोचनीय दशामें पड़कर भी तुम किस बलका सहारा लेकर शोक नहीं करते हो?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रैष्ठ्यं प्राप्य स्वजातीनां महाभोगाननुत्तमान्।
हृतस्वरत्नराज्यस्त्वं ब्रूहि कस्मान्न शोचसि ॥ १६ ॥

मूलम्

श्रैष्ठ्यं प्राप्य स्वजातीनां महाभोगाननुत्तमान्।
हृतस्वरत्नराज्यस्त्वं ब्रूहि कस्मान्न शोचसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने अपने जाति-भाइयोंमें सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया था और परम उत्तम महान् भोगोंपर अधिकार जमा रखा था; किंतु इस समय तुम्हारे रत्न और राज्यका अपहरण हो गया है, तो भी बताओ, तुम्हें शोक क्यों नहीं होता है?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरो हि पुरा भूत्वा पितृपैतामहे पदे।
तत्त्वमद्य हृतं दृष्ट्‌वा सपत्नैः किं न शोचसि ॥ १७ ॥

मूलम्

ईश्वरो हि पुरा भूत्वा पितृपैतामहे पदे।
तत्त्वमद्य हृतं दृष्ट्‌वा सपत्नैः किं न शोचसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहले तो तुम अपने बाप-दादोंके राज्यपर बैठकर तीनों लोकोंके ईश्वर बने हुए थे। अब उस राज्यको शत्रुओंने छीन लिया; यह देखकर भी तुम्हें शोक क्यों नहीं होता है?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बद्धश्व वारुणैः पाशैर्वज्रेण च समाहतः।
हृतदारो हृतधनो ब्रूहि कस्मान्न शोचसि ॥ १८ ॥

मूलम्

बद्धश्व वारुणैः पाशैर्वज्रेण च समाहतः।
हृतदारो हृतधनो ब्रूहि कस्मान्न शोचसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें वरुणके पाशसे बाँधा गया, वज्रसे घायल किया गया तथा तुम्हारी स्त्री और धनका भी अपहरण कर लिया गया; फिर भी बोलो, तुम्हें शोक कैसे नहीं होता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टश्रीर्विभवभ्रष्टो यन्न शोचसि दुष्करम्।
त्रैलोक्यराज्यनाशे हि कोऽन्यो जीवितुमुत्सहेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

नष्टश्रीर्विभवभ्रष्टो यन्न शोचसि दुष्करम्।
त्रैलोक्यराज्यनाशे हि कोऽन्यो जीवितुमुत्सहेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी राज्यलक्ष्मी नष्ट हो गयी। तुम अपने धन-वैभवसे हाथ धो बैठे। इतनेपर भी जो तुम्हें शोक नहीं होता है, यह दूसरोंके लिये बड़ा कठिन है। तीनों लोकोंका राज्य नष्ट हो जानेपर भी तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीवित रहनेके लिये उत्साह दिखा सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चान्यच्च परुषं ब्रुवन्तं परिभूय तम्।
श्रुत्वा सुखमसम्भ्रान्तो बलिर्वैरोचनोऽब्रवीत् ॥ २० ॥

मूलम्

एतच्चान्यच्च परुषं ब्रुवन्तं परिभूय तम्।
श्रुत्वा सुखमसम्भ्रान्तो बलिर्वैरोचनोऽब्रवीत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये तथा और भी बहुत-सी कठोर बातें सुनाकर इन्द्रने बलिका तिरस्कार किया। विरोचनकुमार बलिने वे सारी बातें बड़े आनन्दसे सुन लीं और मनमें तनिक भी घबराहट न लाकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया॥

मूलम् (वचनम्)

बलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगृहीते मयि भृशं शक्र किं कत्थितेन ते।
वज्रमुद्यम्य तिष्ठन्तं पश्यामि त्वां पुरंदर ॥ २१ ॥

मूलम्

निगृहीते मयि भृशं शक्र किं कत्थितेन ते।
वज्रमुद्यम्य तिष्ठन्तं पश्यामि त्वां पुरंदर ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिने कहा— इन्द्र! जब मैं शत्रुओं अथवा कालके द्वारा भलीभाँति बन्दी बना लिया गया हूँ, तब मेरे सामने इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनानेसे तुम्हें क्या लाभ होगा? पुरंदर! मैं देखता हूँ, आज तुम वज्र उठाये मेरे सामने खड़े हो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथञ्चिच्छक्ततां गतः।
कस्त्वदन्य इमां वाचं सुक्रूरां वक्तुमर्हति ॥ २२ ॥

मूलम्

अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथञ्चिच्छक्ततां गतः।
कस्त्वदन्य इमां वाचं सुक्रूरां वक्तुमर्हति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु पहले तुममें ऐसा करनेकी शक्ति नहीं थी। अब किसी तरह शक्ति आ गयी है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा अत्यन्त क्रूर वचन कह सकता है?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य शक्तोऽपि कुरुते दयाम्।
हस्तप्राप्तस्य वीरस्य तं चैव पुरुषं विदुः ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य शक्तोऽपि कुरुते दयाम्।
हस्तप्राप्तस्य वीरस्य तं चैव पुरुषं विदुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शक्तिशाली होकर भी अपने वशमें पड़े हुए अथवा हाथमें आये हुए वीर शत्रुपर दया करता है, उसे अच्छे लोग उत्तम पुरुष मानते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिश्चयो हि युद्धेषु द्वयोर्विवदमानयोः।
एकः प्राप्नोति विजयमेकश्चैव पराजयम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अनिश्चयो हि युद्धेषु द्वयोर्विवदमानयोः।
एकः प्राप्नोति विजयमेकश्चैव पराजयम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दो व्यक्तियोंमें विवाद एवं युद्ध छिड़ जाता है, तब किसकी जीत होगी—इसका कोई निश्चय नहीं रहता है। उनमेंसे एक पक्ष विजयी होता है और दूसरेको पराजय प्राप्त होती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा च तेऽभूत् स्वभावोऽयमिति ते देवपुङ्गव।
ईश्वरः सर्वभूतानां विक्रमेण जितो बलात् ॥ २५ ॥

मूलम्

मा च तेऽभूत् स्वभावोऽयमिति ते देवपुङ्गव।
ईश्वरः सर्वभूतानां विक्रमेण जितो बलात् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये देवराज! तुम्हारा स्वभाव ऐसा न हो, तुम ऐसा न समझ लो कि मैंने अपने बल और पराक्रमसे ही समस्त प्राणियोंके स्वामी मुझ बलिपर विजय पायी है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक्र कृतं त्वया।
यत् त्वमेवंगतो वज्रिन् यद्वाप्येवंगता वयम् ॥ २६ ॥

मूलम्

नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक्र कृतं त्वया।
यत् त्वमेवंगतो वज्रिन् यद्वाप्येवंगता वयम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रधारी इन्द्र! आज जो तुम इस प्रकार राज-वैभवसे सम्पन्न हो अथवा हमलोग जो इस दीन दशाको पहुँच गये हैं, यह सब न तो तुम्हारा किया हुआ है और न हमारा ही किया हुआ है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमासं यथाद्य त्वं भविता त्वं यथा वयम्।
मावमंस्था मया कर्म दुष्कृतं कृतमित्युत ॥ २७ ॥

मूलम्

अहमासं यथाद्य त्वं भविता त्वं यथा वयम्।
मावमंस्था मया कर्म दुष्कृतं कृतमित्युत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज जैसे तुम हो, कभी मैं भी ऐसा ही था और इस समय जिस दशामें हमलोग पड़े हुए हैं, कभी तुम्हारी भी वैसी ही अवस्था होगी; अतः तुम यह समझकर कि मैंने बड़ा दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है, मेरा अपमान न करो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणाधिगच्छति।
पर्यायेणासि शक्रत्वं प्राप्तः शक्र न कर्मणा ॥ २८ ॥

मूलम्

सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणाधिगच्छति।
पर्यायेणासि शक्रत्वं प्राप्तः शक्र न कर्मणा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक पुरुष बारी-बारीसे सुख और दुःख पाता है। इन्द्र! तुम भी अपने पराक्रमसे नहीं, कालक्रमसे ही इन्द्रपदको प्राप्त हुए हो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालःकाले नयति मां त्वां च कालो नयत्ययम्।
तेनाहं त्वं यथा नाद्य त्वं चापि न यथा वयम्॥२९॥

मूलम्

कालःकाले नयति मां त्वां च कालो नयत्ययम्।
तेनाहं त्वं यथा नाद्य त्वं चापि न यथा वयम्॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल ही मुझे कुसमयकी ओर ले जा रहा है और यह काल ही तुम्हें अच्छे दिन दिखा रहा है; इसलिये आज जैसे तुम हो, वैसा मैं नहीं हूँ और जैसे हमलोग हैं, वैसे तुम नहीं हो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मातृपितृशुश्रूषा न च दैवतपूजनम्।
नान्यो गुणसमाचारः पुरुषस्य सुखावहः ॥ ३० ॥

मूलम्

न मातृपितृशुश्रूषा न च दैवतपूजनम्।
नान्यो गुणसमाचारः पुरुषस्य सुखावहः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता-पिताकी सेवा, देवताओंकी पूजा तथा अन्य सद्‌गुणयुक्त सदाचार भी बुरे दिनोंमें किसी पुरुषके लिये सुखदायक नहीं होता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः।
शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः।
शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालसे पीड़ित हुए मनुष्यको न विद्या, न तप, न दान, न मित्र और न बन्धु-बान्धव ही कष्टसे बचा पाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागामिनमनर्थं हि प्रतिघातशतैरपि ।
शक्नुवन्ति प्रतिव्योढुमृते बुद्धिबलान्नराः ॥ ३२ ॥

मूलम्

नागामिनमनर्थं हि प्रतिघातशतैरपि ।
शक्नुवन्ति प्रतिव्योढुमृते बुद्धिबलान्नराः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य बुद्धि-बलके सिवा और किसी उपायसे सैकड़ों आघात करके भी आनेवाले अनर्थको नहीं रोक सकते॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्यायैर्हन्यमानानां परित्राता न विद्यते।
इदं तु दुःखं यच्छक्र कर्ताहमिति मन्यसे ॥ ३३ ॥

मूलम्

पर्यायैर्हन्यमानानां परित्राता न विद्यते।
इदं तु दुःखं यच्छक्र कर्ताहमिति मन्यसे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालक्रमसे जिनपर आघात होता है—स्वयं काल जिन्हें पीड़ा देता है, उनकी रक्षा कोई नहीं कर सकता। शक्र! तुम जो अपनेको इस परिस्थितिका कर्ता मानते हो, यही तुम्हारे लिये दुःखकी बात है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि कर्ता भवेत् कर्ता न क्रियेत कदाचन।
यस्मात्तु क्रियते कर्ता तस्मात् कर्ताप्यनीश्वरः ॥ ३४ ॥

मूलम्

यदि कर्ता भवेत् कर्ता न क्रियेत कदाचन।
यस्मात्तु क्रियते कर्ता तस्मात् कर्ताप्यनीश्वरः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कार्य करनेवाला पुरुष स्वयं ही कर्ता होता तो उसको उत्पन्न करनेवाला दूसरा कोई कभी न होता। वह दूसरेके द्वारा उत्पन्न किया जाता है; इसलिये कालके सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेनाहं त्वामजयं कालेनाहं जितस्त्वया।
गन्ता गतिमतां कालः कालः कलयति प्रजाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

कालेनाहं त्वामजयं कालेनाहं जितस्त्वया।
गन्ता गतिमतां कालः कालः कलयति प्रजाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालकी सहायता पाकर मैंने तुमपर विजय पायी थी और कालके ही सहयोगसे अब तुमने मुझे पराजित कर दिया है। काल ही जानेवाले प्राणियोंके साथ जाता या उन्हें गमनकी शक्ति प्रदान करता है और वही समस्त प्रजाका संहार करता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्र प्राकृतया बुद्ध्या प्रलयं नावबुद्ध्यसे।
केचित् त्वां बहु मन्यन्ते श्रैष्ठ्यं प्राप्तं स्वकर्मणा ॥ ३६ ॥

मूलम्

इन्द्र प्राकृतया बुद्ध्या प्रलयं नावबुद्ध्यसे।
केचित् त्वां बहु मन्यन्ते श्रैष्ठ्यं प्राप्तं स्वकर्मणा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! तुम्हारी बुद्धि साधारण है; इसलिये उसके द्वारा तुम एक-न-एक दिन अवश्य होनेवाले अपने विनाशकी बात नहीं समझ पाते। संसारमें कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो तुम्हें अपने ही पराक्रमसे श्रेष्ठताको प्राप्त हुआ मानते और तुम्हें अधिक महत्त्व देते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमस्मद्विधो नाम जानन् लोकप्रवृत्तयः।
कालेनाभ्याहतः शोचेन्मुह्येद् वाप्यथ विभ्रमेत् ॥ ३७ ॥

मूलम्

कथमस्मद्विधो नाम जानन् लोकप्रवृत्तयः।
कालेनाभ्याहतः शोचेन्मुह्येद् वाप्यथ विभ्रमेत् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु मेरे-जैसा पुरुष जो जगत्‌की प्रवृत्तिको जानता है-उन्नति और अवनतिका कारण काल-प्रारब्ध ही है; ऐसा समझता है, वह तुम्हें महत्त्व कैसे दे सकता है? जो कालसे पीड़ित है, वह प्राणी शोकग्रस्त, मोहित अथवा भ्रान्त भी हो सकता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं कालपरीतस्य मम वा मद्विधस्य वा।
बुद्धिर्व्यसनमासाद्य भिन्ना नौरिव सीदति ॥ ३८ ॥

मूलम्

नित्यं कालपरीतस्य मम वा मद्विधस्य वा।
बुद्धिर्व्यसनमासाद्य भिन्ना नौरिव सीदति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं होऊँ या मेरे-जैसा दूसरा कोई पुरुष हो। जब काल (प्रारब्ध) से आक्रान्त हो जाता है, तब सदा ही उसकी बुद्धि संकटमें पड़कर फटी हुई नौकाके समान शिथिल हो जाती है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं च त्वं च ये चान्ये भविष्यन्ति सुराधिपाः।
ते सर्वे शक्र यास्यन्ति मार्गमिन्द्रशतैर्गतम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

अहं च त्वं च ये चान्ये भविष्यन्ति सुराधिपाः।
ते सर्वे शक्र यास्यन्ति मार्गमिन्द्रशतैर्गतम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! मैं, तुम या और जो लोग भी देवेश्वरके पदपर प्रतिष्ठित होंगे, वे सब-के-सब उसी मार्गपर जायँगे, जिसपर पहलेके सैकड़ों इन्द्र जा चुके हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामप्येवं सुदुर्धर्षं ज्वलन्तं परया श्रिया।
काले परिणते कालः कालयिष्यति मामिव ॥ ४० ॥

मूलम्

त्वामप्येवं सुदुर्धर्षं ज्वलन्तं परया श्रिया।
काले परिणते कालः कालयिष्यति मामिव ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि आज तुम इस प्रकार दुर्धर्ष हो और अत्यन्त तेजसे प्रज्वलित हो रहे हो; किंतु जब समय परिवर्तित होगा, अर्थात् जब तुम्हारा प्रारब्ध खराब होगा, तब मेरी ही भाँति तुम्हें भी काल अपना शिकार बना लेगा—इन्द्रपदसे भ्रष्ट कर देगा॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनीन्द्रसहस्राणि दैवतानां युगे युगे।
अभ्यतीतानि कालेन कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ४१ ॥

मूलम्

बहूनीन्द्रसहस्राणि दैवतानां युगे युगे।
अभ्यतीतानि कालेन कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युग-युगमें (प्रत्येक मन्वन्तरमें) इन्द्रोंका परिवर्तन होनेके कारण अबतक देवताओंके अनेक सहस्र इन्द्र कालके गालमें चले गये हैं; अतः कालका उल्लङ्घन करना किसीके लिये अत्यन्त कठिन है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु लब्ध्वा संस्थानमात्मानं बहु मन्यसे।
सर्वभूतभवं देवं ब्रह्माणमिव शाश्वतम् ॥ ४२ ॥
न चेदमचलं स्थानमनन्तं वापि कस्यचित्।
त्वं तु बालिशया बुद्ध्या ममेदमिति मन्यसे ॥ ४३ ॥

मूलम्

इदं तु लब्ध्वा संस्थानमात्मानं बहु मन्यसे।
सर्वभूतभवं देवं ब्रह्माणमिव शाश्वतम् ॥ ४२ ॥
न चेदमचलं स्थानमनन्तं वापि कस्यचित्।
त्वं तु बालिशया बुद्ध्या ममेदमिति मन्यसे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम इस शरीरको पाकर समस्त प्राणियोंको जन्म देनेवाले सनातन देव भगवान् ब्रह्माजीकी भाँति अपनेको बहुत बड़ा मानते हो; किंतु तुम्हारा यह इन्द्रपद आजतक (किसीके लिये भी) अविचल या अनन्त कालतक रहनेवाला नहीं सिद्ध हुआ—इसपर कितने ही आये और चले गये। केवल तुम्हीं अपनी मूढ़बुद्धिके कारण इसे अपना मानते हो॥४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविश्वस्ते विश्वसिषि मन्यसे वाध्रुवे ध्रुवम्।
नित्यं कालपरीतात्मा भवत्येवं सुरेश्वर ॥ ४४ ॥

मूलम्

अविश्वस्ते विश्वसिषि मन्यसे वाध्रुवे ध्रुवम्।
नित्यं कालपरीतात्मा भवत्येवं सुरेश्वर ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! नाशवान् होनेके कारण जो विश्वासके योग्य नहीं है, उस राज्यपर तुम विश्वास करते हो और जो अस्थिर है, उसे स्थिर मानते हो; किंतु इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि कालने जिसके हृदयपर अधिकार कर लिया हो, वह सदा ऐसी ही विपरीत भावनासे भावित होता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममेयमिति मोहात् त्वं राजश्रियमभीप्ससि।
नेयं तव न चास्माकं न चान्येषां स्थिरा सदा॥४५॥

मूलम्

ममेयमिति मोहात् त्वं राजश्रियमभीप्ससि।
नेयं तव न चास्माकं न चान्येषां स्थिरा सदा॥४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मोहवश जिस राजलक्ष्मीको ‘यह मेरी है’ ऐसा समझकर पाना चाहते हो, वह न तुम्हारी है, न हमारी है और न दूसरोंकी ही है। वह किसीके पास भी सदा स्थिर नहीं रहती॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिक्रम्य बहूनन्यांस्त्वयि तावदियं गता।
कंचित् कालमियं स्थित्वा त्वयि वासव चञ्चला ॥ ४६ ॥
गौर्निपानमिवोत्सृज्य पुनरन्यं गमिष्यति ।

मूलम्

अतिक्रम्य बहूनन्यांस्त्वयि तावदियं गता।
कंचित् कालमियं स्थित्वा त्वयि वासव चञ्चला ॥ ४६ ॥
गौर्निपानमिवोत्सृज्य पुनरन्यं गमिष्यति ।

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! यह चञ्चला राजलक्ष्मी दूसरे बहुत-से राजाओंको लाँघकर इस समय तुम्हारे पास आयी है और कुछ कालतक तुम्हारे यहाँ ठहरकर फिर उसी तरह दूसरेके पास चली जायगी, जैसे गौ जल पीनेके स्थानका परित्याग करके चली जाती है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजलोका ह्यतिक्रान्ता यान्न संख्यातुमुत्सहे ॥ ४७ ॥
त्वत्तो बहुतराश्चान्ये भविष्यन्ति पुरंदर।

मूलम्

राजलोका ह्यतिक्रान्ता यान्न संख्यातुमुत्सहे ॥ ४७ ॥
त्वत्तो बहुतराश्चान्ये भविष्यन्ति पुरंदर।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरंदर! अबतक इसने जितने राजाओंका परित्याग किया है, उनकी गणना मैं नहीं कर सकता। तुम्हारे बाद भी बहुत-से नरेश इसके अधिकारी होंगे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवृक्षौषधिरत्नेयं सहसत्त्ववनाकरा ॥ ४८ ॥
तानिदानीं न पश्यामि यैर्भुक्तेयं पुरा मही।

मूलम्

सवृक्षौषधिरत्नेयं सहसत्त्ववनाकरा ॥ ४८ ॥
तानिदानीं न पश्यामि यैर्भुक्तेयं पुरा मही।

अनुवाद (हिन्दी)

जिन लोगोंने पहले वृक्ष, ओषधि, रत्न, जीव-जन्तु, वन और खानोंसहित इस सारी पृथ्वीका उपभोग किया है, उन सबको मैं इस समय नहीं देखता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथुरैलो मयो भीमो नरकः शम्बरस्तथा ॥ ४९ ॥
अश्वग्रीवः पुलोमा च स्वर्भानुरमितध्वजः।
प्रह्रादो नमुचिर्दक्षो विप्रचित्तिर्विरोचनः ॥ ५० ॥
ह्रीनिषेवः सुहोत्रश्च भूरिहा पुष्पवान् वृषः।
सत्येषुर्ऋषभो बाहुः कपिलाश्वो विरूपकः ॥ ५१ ॥
बाणः कार्तस्वरो वह्निर्विश्वदंष्ट्रोऽथ नैर्ऋतिः।
संकोचोऽथ वरीताक्षो वराहाश्वो रुचिप्रभः ॥ ५२ ॥
विश्वजित् प्रतिरूपश्च वृषाण्डो विष्करो मधुः।
हिरण्यकशिपुश्चैव कैटभश्चैव दानवः ॥ ५३ ॥
दैतेया दानवाश्चैव सर्वे ते नैर्ऋतैः सह।
एते चान्ये च बहवः पूर्वे पूर्वतराश्च ये ॥ ५४ ॥
दैत्येन्द्रा दानवेन्द्राश्च यांश्चान्याननुशुश्रुम ।
बहवः पूर्वदैत्येन्द्राः संत्यज्य पृथिवीं गताः ॥ ५५ ॥
कालेनाभ्याहताः सर्वे कालो हि बलवत्तरः।

मूलम्

पृथुरैलो मयो भीमो नरकः शम्बरस्तथा ॥ ४९ ॥
अश्वग्रीवः पुलोमा च स्वर्भानुरमितध्वजः।
प्रह्रादो नमुचिर्दक्षो विप्रचित्तिर्विरोचनः ॥ ५० ॥
ह्रीनिषेवः सुहोत्रश्च भूरिहा पुष्पवान् वृषः।
सत्येषुर्ऋषभो बाहुः कपिलाश्वो विरूपकः ॥ ५१ ॥
बाणः कार्तस्वरो वह्निर्विश्वदंष्ट्रोऽथ नैर्ऋतिः।
संकोचोऽथ वरीताक्षो वराहाश्वो रुचिप्रभः ॥ ५२ ॥
विश्वजित् प्रतिरूपश्च वृषाण्डो विष्करो मधुः।
हिरण्यकशिपुश्चैव कैटभश्चैव दानवः ॥ ५३ ॥
दैतेया दानवाश्चैव सर्वे ते नैर्ऋतैः सह।
एते चान्ये च बहवः पूर्वे पूर्वतराश्च ये ॥ ५४ ॥
दैत्येन्द्रा दानवेन्द्राश्च यांश्चान्याननुशुश्रुम ।
बहवः पूर्वदैत्येन्द्राः संत्यज्य पृथिवीं गताः ॥ ५५ ॥
कालेनाभ्याहताः सर्वे कालो हि बलवत्तरः।

अनुवाद (हिन्दी)

पृथु, इलानन्दन पुरूरवा, मय, भीम, नरकासुर, शम्बरासुर, अश्वग्रीव, पुलोमा, स्वर्भानु, अमितध्वज, प्रह्लाद, नमुचि, दक्ष, विप्रचित्ति, विरोचन, ह्रीनिषेव, सुहोत्र, भूरिहा, पुष्पवान्, वृष, सत्येषु, ऋषभ, बाहु, कपिलाश्व, विरूपक, बाण, कार्तस्वर, वह्नि, विश्वदंष्ट्र, नैर्ऋति, संकोच, वरीताक्ष, वराहाश्व, रुचिप्रभ, विश्वजित्, प्रतिरूप, वृषाण्ड, विष्कर, मधु, हिरण्यकशिपु और कैटभ—ये तथा और भी बहुत-से दैत्य, दानव एवं राक्षस सभी इस पृथ्वीके स्वामी हो चुके हैं। पहलेके और बहुत पहलेके ये पूर्वोक्त तथा अन्य अनेक दैत्यराज, दानवराज एवं दूसरे-दूसरे नरेश जिनका नाम हमलोग सुनते आ रहे हैं, कालसे पीड़ित हो सभी इस पृथ्वीको छोड़कर चले गये; क्योंकि काल ही सबसे बड़ा बलवान् हैं॥४९—५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैः क्रतुशतैरिष्टं न त्वमेकः शतक्रतुः ॥ ५६ ॥
सर्वे धर्मपराश्चासन् सर्वे सततसत्रिणः।
अन्तरिक्षचराः सर्वे सर्वेऽभिमुखयोधिनः ॥ ५७ ॥

मूलम्

सर्वैः क्रतुशतैरिष्टं न त्वमेकः शतक्रतुः ॥ ५६ ॥
सर्वे धर्मपराश्चासन् सर्वे सततसत्रिणः।
अन्तरिक्षचराः सर्वे सर्वेऽभिमुखयोधिनः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल तुमने ही सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया हो, यह बात नहीं है। उन सभी राजाओंने सौ-सौ यज्ञ किये थे। सभी धर्मपरायण थे और सभी निरन्तर यज्ञमें संलग्न रहते थे। वे सभी आकाशमें विचरनेकी शक्ति रखते थे और युद्धमें शत्रुके सामने डटकर लोहा लेनेवाले थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे संहननोपेताः सर्वे परिघबाहवः।
सर्वे मायाशतधराः सर्वे ते कामरूपिणः ॥ ५८ ॥

मूलम्

सर्वे संहननोपेताः सर्वे परिघबाहवः।
सर्वे मायाशतधराः सर्वे ते कामरूपिणः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब-के-सब सुदृढ़ शरीरसे सुशोभित होते थे। उन सबकी भुजाएँ परिघ (लोहदण्ड) के समान मोटी और मजबूत थीं। वे सभी सैकड़ों माया जानते और इच्छानुसार रूप धारण करते थे॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते पराजिताः।
सर्वे सत्यव्रतपराः सर्वे कामविहारिणः ॥ ५९ ॥

मूलम्

सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते पराजिताः।
सर्वे सत्यव्रतपराः सर्वे कामविहारिणः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग समराङ्गणमें पहुँचकर कभी पराजित होते नहीं सुने गये थे। सभी सत्यव्रतका पालन करनेमें तत्पर और इच्छानुसार विहार करनेवाले थे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे वेदव्रतपराः सर्वे चैव बहुश्रुताः।
सर्वे सम्मतमैश्वर्यमीश्वराः प्रतिपेदिरे ॥ ६० ॥

मूलम्

सर्वे वेदव्रतपराः सर्वे चैव बहुश्रुताः।
सर्वे सम्मतमैश्वर्यमीश्वराः प्रतिपेदिरे ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी वेदोक्त व्रतको धारण करनेवाले और बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी लोकेश्वर थे और सबने मनोवाञ्छित ऐश्वर्य प्राप्त किया था॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैश्वर्यमदस्तेषां भूतपूर्वो महात्मनाम्।
सर्वे यथार्हदातारः सर्वे विगतमत्सराः ॥ ६१ ॥

मूलम्

न चैश्वर्यमदस्तेषां भूतपूर्वो महात्मनाम्।
सर्वे यथार्हदातारः सर्वे विगतमत्सराः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महामना नरेशोंको पहले कभी भी ऐश्वर्यका मद नहीं हुआ था। वे सब-के-सब यथायोग्य दान करनेवाले और ईर्ष्या-द्वेषसे रहित थे॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे सर्वेषु भूतेषु यथावत् प्रतिपेदिरे।
सर्वे दाक्षायणीपुत्राः प्राजापत्या महाबलाः ॥ ६२ ॥

मूलम्

सर्वे सर्वेषु भूतेषु यथावत् प्रतिपेदिरे।
सर्वे दाक्षायणीपुत्राः प्राजापत्या महाबलाः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ यथायोग्य बर्ताव करते थे। उन सबका जन्म दक्ष-कन्याओंके गर्भसे हुआ था और वे सभी महाबलशाली वीर प्रजापति कश्यपकी संतान थे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वलन्तः प्रतपन्तश्च कालेन प्रतिसंहृताः।
त्वं चैवेमां यदा भुक्त्वा पृथिवीं त्यक्षसे पुनः ॥ ६३ ॥
न शक्ष्यसि तदा शक्र नियन्तुं शोकमात्मनः।

मूलम्

ज्वलन्तः प्रतपन्तश्च कालेन प्रतिसंहृताः।
त्वं चैवेमां यदा भुक्त्वा पृथिवीं त्यक्षसे पुनः ॥ ६३ ॥
न शक्ष्यसि तदा शक्र नियन्तुं शोकमात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! वे सभी नरेश अपने तेजसे प्रज्वलित होनेवाले और प्रतापी थे, किंतु कालने उन सबका संहार कर दिया। तुम जब इस पृथ्वीका उपभोग करके पुनः इसे छोड़ोगे, तब अपने शोकको रोकनेमें समर्थ न हो सकोगे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्चेच्छां कामभोगेषु मुञ्चेमं श्रीभवं मदम् ॥ ६४ ॥
एवं स्वराज्यनाशे त्वं शोकं सम्प्रसहिष्यसि।

मूलम्

मुञ्चेच्छां कामभोगेषु मुञ्चेमं श्रीभवं मदम् ॥ ६४ ॥
एवं स्वराज्यनाशे त्वं शोकं सम्प्रसहिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम काम-भोगकी इच्छाको छोड़ो और राजलक्ष्मीके इस मदको त्याग दो। इस दशामें यदि तुम्हारे राज्यका नाश हो जाय तो तुम उस शोकको सह सकोगे॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोककाले शुचो मा त्वं हर्षकाले च मा हृषः॥६५॥
अतीतानागतं हित्वा प्रत्युत्पन्नेन वर्तय।

मूलम्

शोककाले शुचो मा त्वं हर्षकाले च मा हृषः॥६५॥
अतीतानागतं हित्वा प्रत्युत्पन्नेन वर्तय।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम शोकका अवसर आनेपर शोक न करो और हर्षके समय हर्षित मत होओ। भूत और भविष्यकी चिन्ता छोड़कर वर्तमान कालमें जो वस्तु उपलब्ध हो, उसीसे जीवन-निर्वाह करो॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां चेदभ्यागतः कालः सदा युक्तमतन्द्रितः ॥ ६६ ॥
क्षमस्व नचिरादिन्द्र त्वामप्युपगमिष्यति ।

मूलम्

मां चेदभ्यागतः कालः सदा युक्तमतन्द्रितः ॥ ६६ ॥
क्षमस्व नचिरादिन्द्र त्वामप्युपगमिष्यति ।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! मैं सदा सावधान रहता था, तथापि कभी आलस्य न करनेवाले कालका यदि मुझपर आक्रमण हो गया तो तुमपर भी शीघ्र ही उस कालका आक्रमण होगा। इस कटु सत्यके लिये मुझे क्षमा करना॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रासयन्निव देवेन्द्र वाग्भिस्तक्षसि मामिह ॥ ६७ ॥
संयते मयि नूनं त्वमात्मानं बहु मन्यसे।

मूलम्

त्रासयन्निव देवेन्द्र वाग्भिस्तक्षसि मामिह ॥ ६७ ॥
संयते मयि नूनं त्वमात्मानं बहु मन्यसे।

अनुवाद (हिन्दी)

देवेन्द्र! इस समय भयभीत करते हुए-से तुम यहाँ अपने वाग्बाणोंसे मुझे छेदे डालते हो। मैं अपनेको संयममें रखकर शान्त बैठा हूँ; इसीलिये अवश्य तुम अपनेको बहुत बड़ा समझने लगे हो॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालः प्रथममायान्मां पश्चात् त्वामनुधावति ॥ ६८ ॥
तेन गर्जसि देवेन्द्र पूर्वं कालहते मयि।

मूलम्

कालः प्रथममायान्मां पश्चात् त्वामनुधावति ॥ ६८ ॥
तेन गर्जसि देवेन्द्र पूर्वं कालहते मयि।

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! जिस कालका पहले मुझपर धावा हुआ है, वही पीछे तुमपर भी चढ़ाई करेगा। मैं पहले कालसे पीड़ित हो गया हूँ; इसीलिये तुम सामने खड़े होकर गरज रहे हो॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि स्थातुमलं लोके मम क्रुद्धस्य संयुगे ॥ ६९ ॥
कालस्तु बलवान् प्राप्तस्तेन तिष्ठसि वासव।

मूलम्

को हि स्थातुमलं लोके मम क्रुद्धस्य संयुगे ॥ ६९ ॥
कालस्तु बलवान् प्राप्तस्तेन तिष्ठसि वासव।

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यथा संसारमें कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें कुपित होनेपर मेरे सामने ठहर सके। इन्द्र! बलवान् काल (अदृष्ट) ने मुझपर आक्रमण किया है, इसीसे तुम मेरे सम्मुख खड़े हुए हो॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद् वर्षसहस्रान्तं पूर्णं भवितुमर्हति ॥ ७० ॥
यथा मे सर्वगात्राणि न सुस्थानि महौजसः।
अहमैन्द्राच्च्युतः स्थानात् त्वमिन्द्रः प्रकृतो दिवि ॥ ७१ ॥

मूलम्

यत् तद् वर्षसहस्रान्तं पूर्णं भवितुमर्हति ॥ ७० ॥
यथा मे सर्वगात्राणि न सुस्थानि महौजसः।
अहमैन्द्राच्च्युतः स्थानात् त्वमिन्द्रः प्रकृतो दिवि ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंका वह सहस्रों वर्षका समय अब पूरा होना ही चाहता है, जबतक कि तुम्हें इन्द्रके पदपर रहना है। कालके ही प्रभावसे मुझ महाबली वीरके अब सारे अंग उतने स्वस्थ नहीं रह गये हैं। मैं इन्द्रपदसे गिरा दिया गया और तुम स्वर्गमें इन्द्र बना दिये गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुचित्रे जीवलोकेऽस्मिन्नुपास्यः कालपर्ययात् ।
किं हि कृत्वा त्वमिन्द्रोऽद्य किं वा कृत्वा वयं च्युताः॥७२॥

मूलम्

सुचित्रे जीवलोकेऽस्मिन्नुपास्यः कालपर्ययात् ।
किं हि कृत्वा त्वमिन्द्रोऽद्य किं वा कृत्वा वयं च्युताः॥७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालके उलट-फेरसे ही इस विचित्र जीवलोकमें तुम सबके आराध्य बन गये हो। भला बताओ तो तुम कौन-सा शुभ कर्म करके आज इन्द्र हो गये और हम कौन-सा अशुभ कर्म करके इन्द्रपदसे नीचे गिर गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालः कर्ता विकर्ता च सर्वमन्यदकारणम्।
नाशं विनाशमैश्वर्यं सुखं दुःखं भवाभवौ ॥ ७३ ॥
विद्वान् प्राप्यैवमत्यर्थं न प्रहृष्येन्न च व्यथेत्।

मूलम्

कालः कर्ता विकर्ता च सर्वमन्यदकारणम्।
नाशं विनाशमैश्वर्यं सुखं दुःखं भवाभवौ ॥ ७३ ॥
विद्वान् प्राप्यैवमत्यर्थं न प्रहृष्येन्न च व्यथेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

काल (प्रारब्ध) ही सबकी उत्पत्ति और संहारका कर्ता है। दूसरी सारी वस्तुएँ इसमें कारण नहीं मानी जा सकतीं; अतः विद्वान् पुरुष नाश-विनाश, ऐश्वर्य, सुख-दुःख, अभ्युदय या पराभव पाकर न तो अत्यन्त हर्ष माने और न अधिक व्यथित ही हो॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव हीन्द्र वेत्थास्मान् वेदाहं त्वां च वासव ॥ ७४ ॥
किं कत्थसे मां किं च त्वं कालेन निरपत्रपः।

मूलम्

त्वमेव हीन्द्र वेत्थास्मान् वेदाहं त्वां च वासव ॥ ७४ ॥
किं कत्थसे मां किं च त्वं कालेन निरपत्रपः।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! हम कैसे हैं, यह तुम्हीं अच्छी तरह जानते हो। वासव! मैं तुम्हें भली-भाँति जानता हूँ; फिर भी तुम लज्जाको तिलाञ्जलि दे क्यों मेरे सामने व्यर्थ आत्मश्लाघा कर रहे हो। वास्तवमें काल ही यह सब कुछ करा रहा है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव हि पुरा वेत्थ यत् तदा पौरुषं मम॥७५॥
समरेषु च विक्रान्तं पर्याप्तं तन्निदर्शनम्।

मूलम्

त्वमेव हि पुरा वेत्थ यत् तदा पौरुषं मम॥७५॥
समरेषु च विक्रान्तं पर्याप्तं तन्निदर्शनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

पहले मैं जो पुरुषार्थ प्रकट कर चुका हूँ, उसको सबसे अधिक तुम्हीं जानते हो। कई बारके युद्धोंमें तुम मेरा पराक्रम देख चुके हो। इस समय एक ही दृष्टान्त देना काफी होगा॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्याश्चैव रुद्राश्च साध्याश्च वसुभिः सह ॥ ७६ ॥
मया विनिर्जिताः पूर्वं मरुतश्च शचीपते।
त्वमेव शक्र जानासि देवासुरसमागमे ॥ ७७ ॥

मूलम्

आदित्याश्चैव रुद्राश्च साध्याश्च वसुभिः सह ॥ ७६ ॥
मया विनिर्जिताः पूर्वं मरुतश्च शचीपते।
त्वमेव शक्र जानासि देवासुरसमागमे ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीवल्लभ इन्द्र! पहले जब देवासुरसंग्राम हुआ था, उस समयकी बात तुम्हें अच्छी तरह याद होगी। मैंने अकेले ही समस्त आदित्यों, रुद्रों, साध्यों, वसुओं तथा मरुद्‌गणोंको परास्त किया था॥७६-७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेता विबुधा भग्नास्तरसा समरे मया।
पर्वताश्चासकृत् क्षिप्ताः सवनाः सवनौकसः ॥ ७८ ॥
सटङ्कशिखरा भग्नाः समरे मुर्ध्नि ते मया।
किं नु शक्यं मया कर्तुं कालो हि दुरतिक्रमः॥७९॥

मूलम्

समेता विबुधा भग्नास्तरसा समरे मया।
पर्वताश्चासकृत् क्षिप्ताः सवनाः सवनौकसः ॥ ७८ ॥
सटङ्कशिखरा भग्नाः समरे मुर्ध्नि ते मया।
किं नु शक्यं मया कर्तुं कालो हि दुरतिक्रमः॥७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे वेगसे सब देवता युद्धका मैदान छोड़कर एक साथ ही भाग खड़े हुए थे। वन एवं वनवासियोंसहित कितने ही पर्वत, मैंने बारंबार तुमलोगोंपर चलाये थे। तुम्हारे सिरपर भी सुदृढ़ पाषाण और शिखरोंसहित बहुत-से पर्वत मैंने फोड़ डाले थे; किंतु इस समय मैं क्या कर सकता हूँ; क्योंकि कालका उल्लङ्घण करना बहुत कठिन है॥७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि त्वां नोत्सहे हन्तुं सवज्रमपि मुष्टिना।
न तु विक्रमकालोऽयं क्षमाकालोऽयमागतः ॥ ८० ॥

मूलम्

न हि त्वां नोत्सहे हन्तुं सवज्रमपि मुष्टिना।
न तु विक्रमकालोऽयं क्षमाकालोऽयमागतः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे हाथमें वज्र रहनेपर भी मैं केवल मुक्केसे मारकर तुम्हें यमलोक न पहुँचा सकूँ, ऐसी बात नहीं है। किंतु मेरे लिये यह पराक्रम दिखानेका नहीं, क्षमा करनेका समय आया है॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन त्वां मर्षये शक्र दुर्मर्षणतरस्त्वया।
तं मां परिणते काले परीतं कालवह्निना ॥ ८१ ॥
नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे।

मूलम्

तेन त्वां मर्षये शक्र दुर्मर्षणतरस्त्वया।
तं मां परिणते काले परीतं कालवह्निना ॥ ८१ ॥
नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! यही कारण है कि मैं तुम्हारे सब अपराध चुपचाप सहे लेता हूँ। अब भी मेरा वेग तुम्हारे लिये अत्यन्त दुःसह है। किंतु जब समयने पलटा खाया है, कालरूपी अग्निने मुझे सब ओरसे घेर लिया है और मैं कालपाशसे निश्चितरूपसे बँध गया हूँ, तब तुम मेरे सामने खड़े होकर अपनी झूठी बड़ाई किये जा रहे हो॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य दुरतिक्रमः ॥ ८२ ॥
बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा।

मूलम्

अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य दुरतिक्रमः ॥ ८२ ॥
बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मनुष्य रस्सीसे किसी पशुको बाँध लेता है, उसी प्रकार यह भयंकर कालपुरुष मुझे अपने पाशमें बाँधे खड़ा है॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाभालाभौ सुखं दुःखं कामक्रोधौ भवाभवौ ॥ ८३ ॥
वधबन्धप्रमोक्षं च सर्वं कालेन लभ्यते।

मूलम्

लाभालाभौ सुखं दुःखं कामक्रोधौ भवाभवौ ॥ ८३ ॥
वधबन्धप्रमोक्षं च सर्वं कालेन लभ्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषको लाभ-हानि, सुख-दुःख, काम-क्रोध, अभ्युदयपराभव, वध, कैद और कैदसे छुटकारा—यह सब काल (प्रारब्ध) से ही प्राप्त होते हैं॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं कर्ता न कर्ता त्वं कर्ता यस्तु सदा प्रभुः॥८४॥
सोऽयं पचति कालो मां वृक्षे फलमिवागतम्।

मूलम्

नाहं कर्ता न कर्ता त्वं कर्ता यस्तु सदा प्रभुः॥८४॥
सोऽयं पचति कालो मां वृक्षे फलमिवागतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

न मैं कर्ता हूँ, न तुम कर्ता हो। जो वास्तवमें सदा कर्ता है, वह सर्वसमर्थ काल वृक्षपर लगे हुए फलके समान मुझे पका रहा है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्येव पुरुषः कुर्वन् सुखैः कालेन युज्यते ॥ ८५ ॥
पुनस्तान्येव कुर्वाणो दुःखैः कालेन युज्यते।

मूलम्

यान्येव पुरुषः कुर्वन् सुखैः कालेन युज्यते ॥ ८५ ॥
पुनस्तान्येव कुर्वाणो दुःखैः कालेन युज्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष कालका सहयोग पाकर जिन कर्मोंको करनेसे सुखी होता है, कालका सहयोग न मिलनेसे पुनः उन्हीं कर्मोंको करके वह दुःखका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च कालेन कालज्ञः स्पृष्टः शोचितुमर्हति ॥ ८६ ॥
तेन शक्र न शोचामि नास्ति शोके सहायता।

मूलम्

न च कालेन कालज्ञः स्पृष्टः शोचितुमर्हति ॥ ८६ ॥
तेन शक्र न शोचामि नास्ति शोके सहायता।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो कालके प्रभावको जानता है, वह उससे आक्रान्त होकर भी शोक नहीं करता; क्योंकि विपत्ति दूर करनेमें शोकसे कोई सहायता नहीं मिलती, इसलिये मैं शोक नहीं करता हूँ॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा हि शोचतः शोको व्यसनं नापकर्षति ॥ ८७ ॥
सामर्थ्यं शोचतो नास्तीत्यतोऽहं नाद्य शोचिमि।

मूलम्

यदा हि शोचतः शोको व्यसनं नापकर्षति ॥ ८७ ॥
सामर्थ्यं शोचतो नास्तीत्यतोऽहं नाद्य शोचिमि।

अनुवाद (हिन्दी)

जब शोक करनेवाले पुरुषका शोक उसके संकटको दूर नहीं हटा पाता है, उलटे शोकग्रस्त मनुष्यकी शक्ति क्षीण हो जाती है, तब शोक क्यों किया जाय? यही सोचकर मैं शोक नहीं करता हूँ॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः सहस्राक्षो भगवान् पाकशासनः ॥ ८८ ॥
प्रतिसंहृत्य संरम्भमित्युवाच शतक्रतुः ।

मूलम्

एवमुक्तः सहस्राक्षो भगवान् पाकशासनः ॥ ८८ ॥
प्रतिसंहृत्य संरम्भमित्युवाच शतक्रतुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

बलिके ऐसा कहनेपर सहस्रनेत्रधारी पाकशासन शतक्रतु भगवान् इन्द्रने अपने क्रोधको रोककर इस प्रकार कहा—॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवज्रमुद्यतं बाहुं दृष्ट्वा पाशांश्च वारुणान् ॥ ८९ ॥
कस्येह न व्यथेद् बुद्धिर्मृत्योरपि जिघांसतः।
सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी ॥ ९० ॥

मूलम्

सवज्रमुद्यतं बाहुं दृष्ट्वा पाशांश्च वारुणान् ॥ ८९ ॥
कस्येह न व्यथेद् बुद्धिर्मृत्योरपि जिघांसतः।
सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यराज! मेरे हाथको वज्र एवं वरुणपाशसहित ऊपर उठा देखकर मारनेकी इच्छासे आयी हुई मृत्युका भी दिल दहल जाता है; फिर दूसरा कौन है जिसकी बुद्धि व्यथित न हो। तुम्हारी बुद्धि तत्त्वको जाननेवाली और स्थिर है; इसलिये तनिक भी विचलित नहीं होती है॥८९-९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवं न व्यथसेऽद्य त्वं धैर्यात् सत्यपराक्रम।
को हि विश्वासमर्थेषु शरीरे वा शरीरभृत् ॥ ९१ ॥
कर्तुमुत्सहते लोके दृष्ट्‌वा सम्प्रस्थितं जगत्।

मूलम्

ध्रुवं न व्यथसेऽद्य त्वं धैर्यात् सत्यपराक्रम।
को हि विश्वासमर्थेषु शरीरे वा शरीरभृत् ॥ ९१ ॥
कर्तुमुत्सहते लोके दृष्ट्‌वा सम्प्रस्थितं जगत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्यपराक्रमी वीर! तुम निश्चय ही धैर्यके कारण व्यथित नहीं होते हो। इस सम्पूर्ण जगत्‌को विनाशकी ओर जाते देखकर कौन शरीरधारी पुरुष धन-वैभव, विषय-भोग अथवा अपने शरीरपर भी विश्वास कर सकता है?॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्येवमेवैनं लोकं जानाम्यशाश्वतम् ॥ ९२ ॥
कालाग्नावाहितं घोरे गुह्ये सततगेऽक्षरे।

मूलम्

अहमप्येवमेवैनं लोकं जानाम्यशाश्वतम् ॥ ९२ ॥
कालाग्नावाहितं घोरे गुह्ये सततगेऽक्षरे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भी इसी प्रकार सर्वव्यापी, अविनाशी, घोर एवं गुह्य कालाग्निमें पड़े हुए इस जगत्‌को क्षणभंगुर ही जानता हूँ॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चात्र परिहारोऽस्ति कालस्पृष्टस्य कस्यचित् ॥ ९३ ॥
सूक्ष्माणां महतां चैव भूतानां परिपच्यताम्।

मूलम्

न चात्र परिहारोऽस्ति कालस्पृष्टस्य कस्यचित् ॥ ९३ ॥
सूक्ष्माणां महतां चैव भूतानां परिपच्यताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो कालकी पकड़में आ चुका है, ऐसे किसी भी पुरुषके लिये उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं है। सूक्ष्मसे सूक्ष्म और महान् भूत भी कालग्निमें पकाये जा रहे हैं, उनका भी उससे छुटकारा होनेवाला नहीं है॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीशस्याप्रमत्तस्य भूतानि पचतः सदा ॥ ९४ ॥
अनिवृत्तस्य कालस्य क्षयं प्राप्तो न मुच्यते।

मूलम्

अनीशस्याप्रमत्तस्य भूतानि पचतः सदा ॥ ९४ ॥
अनिवृत्तस्य कालस्य क्षयं प्राप्तो न मुच्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कालपर किसीका भी वश नहीं चलता। वह सदा सावधान रहकर सम्पूर्ण भूतोंको पकाता रहता है। वह कभी लौटनेवाला नहीं है। ऐसे कालके अधीन हुआ प्राणी उससे छुटकारा नहीं पाता है॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रमत्तः प्रमत्तेषु कालो जागर्ति देहिषु ॥ ९५ ॥
प्रयत्नेनाप्यपक्रान्तो दृष्टपूर्वो न केनचित्।

मूलम्

अप्रमत्तः प्रमत्तेषु कालो जागर्ति देहिषु ॥ ९५ ॥
प्रयत्नेनाप्यपक्रान्तो दृष्टपूर्वो न केनचित्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देहधारी जीव प्रमादमें पड़कर सोते हैं; किंतु काल सदा सावधान रहकर जागता रहता है। किसीके प्रयत्नसे भी कालको पीछे हटाया जा सका हो, ऐसा पहले कभी किसीने देखा नहीं है॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणः शाश्वतो धर्मः सर्वप्राणभृतां समः ॥ ९६ ॥
कालो न परिहार्यश्च न चास्यास्ति व्यतिक्रमः।

मूलम्

पुराणः शाश्वतो धर्मः सर्वप्राणभृतां समः ॥ ९६ ॥
कालो न परिहार्यश्च न चास्यास्ति व्यतिक्रमः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘काल पुरातन (अनादि), सनातन, धर्मस्वरूप और समस्त प्राणियोंके प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है। कालका किसीके द्वारा भी परिहार नहीं हो सकता और न उसका कोई उल्लङ्घन ही कर सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रांश्च मासांश्च क्षणान् काष्ठा लवान् कलाः ॥ ९७ ॥
सम्पीडयति यः कालो वृद्धि वार्धुषिको यथा।

मूलम्

अहोरात्रांश्च मासांश्च क्षणान् काष्ठा लवान् कलाः ॥ ९७ ॥
सम्पीडयति यः कालो वृद्धि वार्धुषिको यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ऋण देनेवाला पुरुष व्याजका हिसाब जोड़कर ऋण लेनेवालोंको तंग करता है, उसी प्रकार वह काल दिन, रात, मास, क्षण, काष्ठा, लव और कला तकका हिसाब लगाकर प्राणियोंको पीड़ा देता रहता है॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमद्य करिष्यामि श्वः कर्तास्मीति वादिनम् ॥ ९८ ॥
कालो हरति सम्प्राप्तो नदीवेग इव द्रुमम्।

मूलम्

इदमद्य करिष्यामि श्वः कर्तास्मीति वादिनम् ॥ ९८ ॥
कालो हरति सम्प्राप्तो नदीवेग इव द्रुमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे नदीका वेग सहसा बढ़कर किनारेके वृक्षका हरण कर लेता है। उसी प्रकार ‘यह आज करूँगा और वह कल पूरा करूँगा।’ ऐसा कहनेवाले पुरुषका काल सहसा आकर हरण कर लेता है॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदानीं तावदेवासौ मया दृष्टः कथं मृतः ॥ ९९ ॥
इति कालेन ह्रियतां प्रलापः श्रूयते नृणाम्।

मूलम्

इदानीं तावदेवासौ मया दृष्टः कथं मृतः ॥ ९९ ॥
इति कालेन ह्रियतां प्रलापः श्रूयते नृणाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

“अरे! अभी-अभी तो मैंने उसे देखा था। वह मर कैसे गया?’ इस प्रकार कालसे अपहृत होनेवालोंके लिये अन्य मनुष्योंका प्रलाप सुना जाता है॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नश्यन्त्यर्थास्तथा भोगाः स्थानमैश्वर्यमेव च ॥ १०० ॥
जीवितं जीवलोकस्य कालेनागम्य नीयते।

मूलम्

नश्यन्त्यर्थास्तथा भोगाः स्थानमैश्वर्यमेव च ॥ १०० ॥
जीवितं जीवलोकस्य कालेनागम्य नीयते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘धन और भोग नष्ट हो जाते हैं। स्थान और ऐश्वर्य छिन जाता है तथा इस जीव-जगत्‌के जीवनको भी काल आकर हर ले जाता है॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्छ्राया विनिपातान्ता भावोऽभावः स एव च ॥ १०१ ॥
अनित्यमध्रुवं सर्वं व्यवसायो हि दुष्करः।

मूलम्

उच्छ्राया विनिपातान्ता भावोऽभावः स एव च ॥ १०१ ॥
अनित्यमध्रुवं सर्वं व्यवसायो हि दुष्करः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऊँचे चढ़नेका अन्त है नीचे गिरना तथा जन्मका अन्त है मृत्यु। जो कुछ देखनेमें आता है, वह सब नाशवान् है, अस्थिर है तो भी इसका निरन्तर स्मरण रहना कठिन हो जाता है॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी ॥ १०२ ॥
अहमासं पुरा चेति मनसापि न बुद्ध्यते।

मूलम्

सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी ॥ १०२ ॥
अहमासं पुरा चेति मनसापि न बुद्ध्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अवश्य ही तुम्हारी बुद्धि तत्त्वको जाननेवाली तथा स्थिर है, इसीलिये उसे व्यथा नहीं होती। मैं पहले अत्यन्त ऐश्वर्यशाली था, इस बातको तुम मनसे भी स्मरण नहीं करते॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेनाक्रम्य लोकेऽस्मिन् पच्यमाने बलीयसा ॥ १०३ ॥
अज्येष्ठमकनिष्ठं च क्षिप्यमाणो न बुद्ध्यते।

मूलम्

कालेनाक्रम्य लोकेऽस्मिन् पच्यमाने बलीयसा ॥ १०३ ॥
अज्येष्ठमकनिष्ठं च क्षिप्यमाणो न बुद्ध्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अत्यन्त बलवान् काल इस सम्पूर्ण जगत्‌पर आक्रमण करके सबको अपनी आँचमें पका रहा है। वह इस बातको नहीं देखता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा? सब लोग कालाग्निमें झोंके जा रहे हैं, फिर भी किसीको चेत नहीं होता॥१०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईर्ष्याभिमानलोभेषु कामक्रोधभयेषु च ॥ १०४ ॥
स्पृहामोहाभिमानेषु लोकः सक्तो विमुह्यति।

मूलम्

ईर्ष्याभिमानलोभेषु कामक्रोधभयेषु च ॥ १०४ ॥
स्पृहामोहाभिमानेषु लोकः सक्तो विमुह्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोग ईर्ष्या, अभिमान, लोभ, काम, क्रोध, भय, स्पृहा, मोह और अभिमानमें फँसकर अपना विवेक खो बैठे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवांस्तु भावतत्त्वज्ञो विद्वान् ज्ञानतपोऽन्वितः ॥ १०५ ॥
कालं पश्यति सुव्यक्तं पाणावामलकं यथा।
कालचारित्रतत्त्वज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १०६ ॥
विवेचने कृतात्मासि स्पृहणीयो विजानताम्।
सर्वलोको ह्ययं मन्ये बुद्ध्या परिगतस्त्वया ॥ १०७ ॥

मूलम्

भवांस्तु भावतत्त्वज्ञो विद्वान् ज्ञानतपोऽन्वितः ॥ १०५ ॥
कालं पश्यति सुव्यक्तं पाणावामलकं यथा।
कालचारित्रतत्त्वज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १०६ ॥
विवेचने कृतात्मासि स्पृहणीयो विजानताम्।
सर्वलोको ह्ययं मन्ये बुद्ध्या परिगतस्त्वया ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु तुम विद्वान्, ज्ञानी और तपस्वी हो। समस्त पदार्थोंके तत्त्वको जानते हो। कालकी लीला और उसके तत्त्वको समझते हो। सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हो। तत्त्वके विवेचनमें कुशल, मनको वशमें रखनेवाले तथा ज्ञानी पुरुषोंके आदर्श हो। इसीलिये हाथपर रक्खे हुए आँवलेके समान कालको स्पष्टरूपसे देख रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुमने अपनी बुद्धिसे सम्पूर्ण लोकोंका तत्त्व जान लिया है॥१०५—१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहरन् सर्वतो मुक्तो न क्वचित् परिषज्जते।
रजश्च हि तमश्च त्वां स्पृशते न जितेन्द्रियम् ॥ १०८ ॥

मूलम्

विहरन् सर्वतो मुक्तो न क्वचित् परिषज्जते।
रजश्च हि तमश्च त्वां स्पृशते न जितेन्द्रियम् ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम सर्वत्र विचरते हुए भी सबसे मुक्त हो। कहीं भी तुम्हारी आसक्ति नहीं है। तुमने अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है; इसलिये रजोगुण और तमोगुण तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकते॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्प्रीतिं नष्टसंतापमात्मानं त्वमुपाससे ।
सुहृदं सर्वभूतानां निर्वैरं शान्तमानसम् ॥ १०९ ॥

मूलम्

निष्प्रीतिं नष्टसंतापमात्मानं त्वमुपाससे ।
सुहृदं सर्वभूतानां निर्वैरं शान्तमानसम् ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो हर्षसे रहित, संतापसे शून्य, सम्पूर्ण भूतोंका सुहृद्, वैररहित और शान्तचित्त है, उस आत्माकी तुम उपासना करते हो॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा त्वां मम संजाता त्वय्यनुक्रोशिनी मतिः।
नाहमेतादृशं बुद्धं हन्तुमिच्छामि बन्धने ॥ ११० ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा त्वां मम संजाता त्वय्यनुक्रोशिनी मतिः।
नाहमेतादृशं बुद्धं हन्तुमिच्छामि बन्धने ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें देखकर मेरे मनमें दयाका संचार हो आया है। मैं ऐसे ज्ञानी पुरुषको बन्धनमें रखकर उसका वध करना नहीं चाहता॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यं परो धर्मो ह्यनुक्रोशश्च मे त्वयि।
मोक्ष्यन्ते वारुणाः पाशास्तवेमे कालपर्ययात् ॥ १११ ॥

मूलम्

आनृशंस्यं परो धर्मो ह्यनुक्रोशश्च मे त्वयि।
मोक्ष्यन्ते वारुणाः पाशास्तवेमे कालपर्ययात् ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसीके प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करना सबसे बड़ा धर्म है। तुम्हारे ऊपर मेरा पूर्ण अनुग्रह है। कुछ समय बीतनेपर तुम्हें बाँधनेवाले ये वरुणदेवताके पाश अपने आप ही तुम्हें छोड़ देंगे॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजानामपचारेण स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।
यदा श्वश्रूं स्नुषा वृद्धां परिचारेण योक्ष्यते ॥ ११२ ॥
पुत्रश्च पितरं मोहात् प्रेषयिष्यति कर्मसु।
ब्राह्मणैः कारयिष्यन्ति वृषलाः पादधावनम् ॥ ११३ ॥
शूद्राश्च ब्राह्मणीं भार्यामुपयास्यन्ति निर्भयाः।
वियोनिषु विमोक्ष्यन्ति बीजानि पुरुषा यदा ॥ ११४ ॥
संकरं कांस्यभाण्डैश्च बलिं चैव कुपात्रकेः।
चातुर्वर्ण्यं यदा कृत्स्नममर्यादं भविष्यति ॥ ११५ ॥
एकैकस्ते तदा पाशः क्रमशः परिमोक्ष्यते।

मूलम्

प्रजानामपचारेण स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।
यदा श्वश्रूं स्नुषा वृद्धां परिचारेण योक्ष्यते ॥ ११२ ॥
पुत्रश्च पितरं मोहात् प्रेषयिष्यति कर्मसु।
ब्राह्मणैः कारयिष्यन्ति वृषलाः पादधावनम् ॥ ११३ ॥
शूद्राश्च ब्राह्मणीं भार्यामुपयास्यन्ति निर्भयाः।
वियोनिषु विमोक्ष्यन्ति बीजानि पुरुषा यदा ॥ ११४ ॥
संकरं कांस्यभाण्डैश्च बलिं चैव कुपात्रकेः।
चातुर्वर्ण्यं यदा कृत्स्नममर्यादं भविष्यति ॥ ११५ ॥
एकैकस्ते तदा पाशः क्रमशः परिमोक्ष्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महान् असुर! जब प्रजाजनोंका न्यायके विपरीत आचरण होने लगेगा, तब तुम्हारा कल्याण होगा। जब पतोहू बूढ़ी साससे अपनी सेवा-टहल कराने लगेगी और पुत्र भी मोहवश पिताको विभिन्न प्रकारके कार्य करनेके लिये आज्ञा प्रदान करने लगेगा, शूद्र ब्राह्मणोंसे पैर धुलाने लगेंगे तथा वे निर्भय होकर ब्राह्मण जातिकी स्त्रीको अपनी भार्या बनाने लगेंगे, जब पुरुष निर्भय होकर मानवेतर योनियोंमें अपना वीर्य स्थापित करने लगेंगे, जब काँसेके पात्रमें ऊँच जाति और नीच जातिके लोग एक साथ भोजन करने लगेंगे एवं अपवित्र पात्रोंद्वारा देवपूजाके लिये उपहार अर्पित किया जायगा, सारा वर्णधर्म जब मर्यादाशून्य हो जायगा, उस समय क्रमशः तुम्हारा एक-एक पाश (बन्धन) खुलता जायगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मत्तस्ते भयं नास्ति समयं प्रतिपालय।
सुखी भव निराबाधः स्वस्थचेता निरामयः ॥ ११६ ॥

मूलम्

अस्मत्तस्ते भयं नास्ति समयं प्रतिपालय।
सुखी भव निराबाधः स्वस्थचेता निरामयः ॥ ११६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारी ओरसे तुम्हें कोई भय नहीं है। तुम समयकी प्रतीक्षा करो और निर्बाध, स्वस्थचित्त एवं रोगरहित हो सुखसे रहो’॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवमुक्त्वा भगवाञ्छतक्रतुः
प्रतिप्रयातो गजराजवाहनः ।
विजित्य सर्वानसुरान् सुराधिपो
ननन्द हर्षेण बभूव चैकराट् ॥ ११७ ॥

मूलम्

तमेवमुक्त्वा भगवाञ्छतक्रतुः
प्रतिप्रयातो गजराजवाहनः ।
विजित्य सर्वानसुरान् सुराधिपो
ननन्द हर्षेण बभूव चैकराट् ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिसे ऐसा कहकर गजराजकी सवारीपर चलनेवाले भगवान् शतक्रतु इन्द्र अपने स्थानको लौट गये। वे समस्त असुरोंपर विजय पाकर देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे और एकच्छत्रसम्राट् होकर हर्षसे प्रफुल्लित हो उठे थे॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महर्षयस्तुष्टुवुरञ्जसा च तं
वृषाकपिं सर्वचराचरेश्वरम् ।
हिमापहो हव्यमुवाह चाध्वरे
तथामृतं चार्पितमीश्वरोऽपि हि ॥ ११८ ॥

मूलम्

महर्षयस्तुष्टुवुरञ्जसा च तं
वृषाकपिं सर्वचराचरेश्वरम् ।
हिमापहो हव्यमुवाह चाध्वरे
तथामृतं चार्पितमीश्वरोऽपि हि ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महर्षियोंने सम्पूर्ण चराचर जगत्‌के स्वामी इन्द्रका भलीभाँति स्तवन किया। अग्निदेव यज्ञमण्डपमें देवताओंके लिये हविष्य वहन करने लगे और देवेश्वर इन्द्र भी सेवकोंद्वारा अर्पित अमृत पीने लगे॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजोत्तमैः सर्वगतैरभिष्टुतो
विदीप्ततेजा गतमन्युरीश्वरः ।
प्रशान्तचेता मुदितः स्वमालयं
त्रिविष्टपं प्राप्य मुमोद वासवः ॥ ११९ ॥

मूलम्

द्विजोत्तमैः सर्वगतैरभिष्टुतो
विदीप्ततेजा गतमन्युरीश्वरः ।
प्रशान्तचेता मुदितः स्वमालयं
त्रिविष्टपं प्राप्य मुमोद वासवः ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वत्र पहुँचनेकी शक्ति रखनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उद्दीप्त तेजस्वी और क्रोधशून्य हुए देवेश्वर इन्द्रकी स्तुति की; फिर वे इन्द्र शान्तचित्त एवं प्रसन्न हो अपने निवासस्थान स्वर्गलोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करने लगे॥११९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि बलिवासवसंवादे सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें बलि-वासवसंवादविषयक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२७॥