भागसूचना
षड्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्र और नमुचिका संवाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शतक्रतोश्च संवादं नमुचेश्च युधिष्ठिर ॥ १ ॥
मूलम्
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शतक्रतोश्च संवादं नमुचेश्च युधिष्ठिर ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इसी विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और नमुचिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया विहीनमासीनमक्षोभ्यामिव सागरम् ।
भवाभवज्ञं भूतानामित्युवाच पुरंदरः ॥ २ ॥
मूलम्
श्रिया विहीनमासीनमक्षोभ्यामिव सागरम् ।
भवाभवज्ञं भूतानामित्युवाच पुरंदरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, दैत्यराज नमुचि राजलक्ष्मीसे च्युत हो गये, तो भी वे प्रशान्त महासागरके समान क्षोभरहित बने रहे; क्योंकि वे कालक्रमसे होनेवाले प्राणियोंके अभ्युदय और पराभवके तत्त्वको जाननेवाले थे। उस समय देवराज इन्द्र उनके पास जाकर इस प्रकार बोले—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्धः पाशैशच्युतः स्थानाद् द्विषतां वशमागतः।
श्रिया विहीनो नमुचे शोचस्याहो न शोचसि ॥ ३ ॥
मूलम्
बद्धः पाशैशच्युतः स्थानाद् द्विषतां वशमागतः।
श्रिया विहीनो नमुचे शोचस्याहो न शोचसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नमुचे! तुम रस्सियोंसे बाँधे गये, राज्यसे भ्रष्ट हुए, शत्रुओंके वशमें पड़े और धन-सम्पत्तिसे वंचित हो गये। तुम्हें अपनी इस दुरवस्थापर शोक होता है या नहीं?’॥३॥
मूलम् (वचनम्)
नमुचिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिवार्येण शोकेन शरीरं चोपतप्यते।
अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति शोके नास्ति सहायता ॥ ४ ॥
मूलम्
अनिवार्येण शोकेन शरीरं चोपतप्यते।
अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति शोके नास्ति सहायता ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नमुचिने कहा— देवराज! यदि शोकको रोका न जाय तो उसके द्वारा शरीर संतप्त हो उठता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। शोकके द्वारा विपत्तिको दूर करनेमें भी कोई सहायता नहीं मिलती॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत्।
संतापाद् भ्रश्यते रूपं संतापाद् भ्रश्यते श्रियः ॥ ५ ॥
संतापाद् भ्रश्यते चायुर्धर्मश्चैव सुरेश्वर।
मूलम्
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत्।
संतापाद् भ्रश्यते रूपं संतापाद् भ्रश्यते श्रियः ॥ ५ ॥
संतापाद् भ्रश्यते चायुर्धर्मश्चैव सुरेश्वर।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! इसीलिये मैं शोक नहीं करता; क्योंकि यह सम्पूर्ण वैभव नाशवान् है। संताप करनेसे रूपका नाश होता है। संतापसे कान्ति फीकी पड़ जाती है और सुरेश्वर! संतापसे आयु तथा धर्मका भी नाश होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनीय खलु तद् दुःखमागतं वैमनस्यजम् ॥ ६ ॥
ध्यातव्यं मनसा हृद्यं कल्याणं संविजानता।
मूलम्
विनीय खलु तद् दुःखमागतं वैमनस्यजम् ॥ ६ ॥
ध्यातव्यं मनसा हृद्यं कल्याणं संविजानता।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः समझदार पुरुषको वैमनस्यके कारण प्राप्त हुए दुःखका निवारण करके मन-ही-मन हृदयस्थित कल्याणमय परमात्माका चिन्तन करना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा यदा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः।
तदा तस्य प्रसिध्यन्ति सर्वार्था नात्र संशयः ॥ ७ ॥
मूलम्
यदा यदा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः।
तदा तस्य प्रसिध्यन्ति सर्वार्था नात्र संशयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष जब-जब कल्याणस्वरूप परमात्माके चिन्तनमें मन लगाता है, तब-तब उसके सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता।
तेनानुयुक्तः प्रवणादिवोदकं
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ ८ ॥
मूलम्
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता
गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता।
तेनानुयुक्तः प्रवणादिवोदकं
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्का शासन करनेवाला एक ही है, दूसरा नहीं। वही शासक गर्भमें सोये हुए जीवका भी शासन करता है, जैसे जल निम्न स्थानकी ओर ही प्रवाहित होता है, उसी प्रकार प्राणी उस शासकसे प्रेरित होकर उसकी अभीष्ट दिशाको ही गमन करता है। उस ईश्वरकी जैसी प्रेरणा होती है, उसीके अनुसार मैं भी कार्यभार वहन करता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवाभवौ त्वभिजानन् गरीयो
ज्ञानाच्छ्रेयो न तु तद् वै करोमि।
आशासु धर्म्यासु परासु कुर्वन्
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ ९ ॥
मूलम्
भवाभवौ त्वभिजानन् गरीयो
ज्ञानाच्छ्रेयो न तु तद् वै करोमि।
आशासु धर्म्यासु परासु कुर्वन्
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं प्राणियोंके अभ्युदय और पराभवको जानता हूँ। श्रेष्ठ तत्त्वसे भी परिचित हूँ और ज्ञानसे कल्याणकी प्राप्ति होती है, इस बातको भी समझता हूँ, तथापि उसका सम्पादन नहीं करता हूँ। इसके विपरीत धर्म-सम्मत अथवा अधर्मयुक्त आशाएँ मनमें लेकर जैसी अन्तर्यामीकी प्रेरणा होती है, उसके अनुसार कार्यभार वहन करता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथास्य प्राप्तव्यं प्राप्नोत्येव तथा तथा।
भवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथा तथा ॥ १० ॥
मूलम्
यथा यथास्य प्राप्तव्यं प्राप्नोत्येव तथा तथा।
भवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथा तथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषको जो वस्तु जिस प्रकार मिलनेवाली होती है, वह उस प्रकार मिल ही जाती है। जिस वस्तुकी जैसी होनहार होती है, वह वैसी होती ही है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्रैव संयुक्तो धात्रा गर्भे पुनः पुनः।
तत्र तत्रैव वसति न यत्र स्वयमिच्छति ॥ ११ ॥
मूलम्
यत्र यत्रैव संयुक्तो धात्रा गर्भे पुनः पुनः।
तत्र तत्रैव वसति न यत्र स्वयमिच्छति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाता जिस-जिस गर्भमें रहनेके लिये जीवको बार-बार प्रेरित करते हैं, वह जीव उसी-उसी गर्भमें वास करता है; किंतु वह स्वयं जहाँ रहनेकी इच्छा करता है, वहाँ नहीं रह पाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भावो योऽयमनुप्राप्तो भवितव्यमिदं मम।
इति यस्य सदा भावो न स मुह्येत् कदाचन॥१२॥
मूलम्
भावो योऽयमनुप्राप्तो भवितव्यमिदं मम।
इति यस्य सदा भावो न स मुह्येत् कदाचन॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे जो यह अवस्था प्राप्त हुई है, ऐसी ही होनहार थी। जिसके हृदयमें सदा इस तरहकी भावना होती है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यायैर्हन्यमानानामभियोक्ता न विद्यते ।
दुःखमेतत् तु यद् द्वेष्टा कर्ताहमिति मन्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
पर्यायैर्हन्यमानानामभियोक्ता न विद्यते ।
दुःखमेतत् तु यद् द्वेष्टा कर्ताहमिति मन्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालक्रमसे प्राप्त होनेवाले सुख-दुःखोंद्वारा जो लोग आहत होते हैं, उनके उस दुःखके लिये दूसरा कोई दोषी या अपराधी नहीं है। दुःख पानेका कारण तो यह है कि पुरुष वर्तमान दुःखसे द्वेष करके अपनेको उसका कर्ता मान बैठता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषींश्च देवांश्च महासुरांश्च
त्रैविद्यवृद्धांश्च वने मुनींश्च ।
कान्नापदो नोपनमन्ति लोके
परावरज्ञास्तु न सम्भ्रमन्ति ॥ १४ ॥
मूलम्
ऋषींश्च देवांश्च महासुरांश्च
त्रैविद्यवृद्धांश्च वने मुनींश्च ।
कान्नापदो नोपनमन्ति लोके
परावरज्ञास्तु न सम्भ्रमन्ति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि, देवता, बड़े-बड़े असुर, तीनों वेदोंके ज्ञानमें बढ़े हुए विद्वान् पुरुष तथा वनवासी मुनि—इनमेंसे किनके ऊपर संसारमें आपत्तियाँ नहीं आती हैं; परंतु जिन्हें सत्-असत्का विवेक है, वे मोह या भ्रममें नहीं पड़ते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पण्डितः क्रुद्ध्यति नाभिपद्यते
न चापि संसीदति न प्रहृष्यति।
न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचते
स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः ॥ १५ ॥
मूलम्
न पण्डितः क्रुद्ध्यति नाभिपद्यते
न चापि संसीदति न प्रहृष्यति।
न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचते
स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष कभी क्रोध नहीं करता, कहीं आसक्त नहीं होता, अनिष्टकी प्राप्ति होनेपर दुःखसे व्याकुल नहीं होता और किसी प्रिय वस्तुको पाकर अत्यन्त हर्षित नहीं होता है। आर्थिक कठिनाई या संकटके समय भी वह शोकग्रस्त नहीं होता है; अपितु हिमालयके समान स्वभावसे ही अविचल बना रहता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमर्थसिद्धिः परमा न मोहयेत्
तथैव काले व्यसनं न मोहयेत्।
सुखं च दुःखं च तथैव मध्यमं
निषेवते यः स धुरंधरो नरः ॥ १६ ॥
मूलम्
यमर्थसिद्धिः परमा न मोहयेत्
तथैव काले व्यसनं न मोहयेत्।
सुखं च दुःखं च तथैव मध्यमं
निषेवते यः स धुरंधरो नरः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे उत्तम अर्थसिद्धि मोहमें नहीं डालती, इसी तरह जो कभी संकट पड़नेपर धैर्य या विवेकको खो नहीं बैठता तथा सुखका, दुःखका और दोनोंके बीचकी अवस्थाका समान भावसे सेवन करता है, वही महान् कार्यभारको सँभालनेवाला श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां यामवस्थां पुरुषोऽधिगच्छेत्
तस्यां रमेतापरितप्यमानः ।
एवं प्रवृद्धं प्रणुदन्मनोजं
संतापनीयं सकलं शरीरात् ॥ १७ ॥
मूलम्
यां यामवस्थां पुरुषोऽधिगच्छेत्
तस्यां रमेतापरितप्यमानः ।
एवं प्रवृद्धं प्रणुदन्मनोजं
संतापनीयं सकलं शरीरात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष जिस-जिस अवस्थाको प्राप्त हो, उसीमें उसे संतप्त न होकर आनन्द मानना चाहिये। इस प्रकार संतापजनक बढ़े हुए कामको अपने शरीर और मनसे पूर्णतः निकाल दे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्सदःसत्परिषत् सभा च सा
प्राप्य यां न कुरुते सदा भयम्।
धर्मतत्त्वमवगाह्य बुद्धिमान्
योऽभ्युपैति स धुरंधरः पुमान् ॥ १८ ॥
मूलम्
न तत्सदःसत्परिषत् सभा च सा
प्राप्य यां न कुरुते सदा भयम्।
धर्मतत्त्वमवगाह्य बुद्धिमान्
योऽभ्युपैति स धुरंधरः पुमान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न तो ऐसी कोई सभा है, न साधु-सत्पुरुषोंकी कोई परिषद् है और न कोई ऐसा जनसमाज ही है, जिसे पाकर कोई पुरुष कभी भय न करे। जो बुद्धिमान् धर्मतत्त्वमें अवगाहन करके उसीको अपनाता है, वही धुरंधर माना गया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्ञस्य कर्माणि दुरन्वयानि
न वै प्राज्ञो मुह्यति मोहकाले।
स्थानाच्च्युतश्चेन्न मुमोह गौतम-
स्तावत् कृच्छ्रामापदं प्राप्य वृद्धः ॥ १९ ॥
मूलम्
प्राज्ञस्य कर्माणि दुरन्वयानि
न वै प्राज्ञो मुह्यति मोहकाले।
स्थानाच्च्युतश्चेन्न मुमोह गौतम-
स्तावत् कृच्छ्रामापदं प्राप्य वृद्धः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषके सारे कार्य साधारण लोगोंके लिये दुर्बोध होते हैं। विद्वान् पुरुष मोहके अवसरपर भी मोहित नहीं होता। जैसे वृद्ध गौतममुनि अत्यन्त कष्टजनक विपत्तिमें पड़कर और पदच्युत होकर भी मोहित नहीं हुए॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मन्त्रबलवीर्येण प्रज्ञया पौरुषेण च।
न शीलेन न वृत्तेन तथा नैवार्थसम्पदा।
अलभ्यं लभते मर्त्यस्तत्र का परिदेवना ॥ २० ॥
मूलम्
न मन्त्रबलवीर्येण प्रज्ञया पौरुषेण च।
न शीलेन न वृत्तेन तथा नैवार्थसम्पदा।
अलभ्यं लभते मर्त्यस्तत्र का परिदेवना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु नहीं मिलनेवाली होती है, उसको कोई मनुष्य मन्त्र, बल, पराक्रम, बुद्धि, पुरुषार्थ, शील, सदाचार और धन-सम्पत्तिसे भी नहीं पा सकता; फिर उसके लिये शोक क्यों किया जाय?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेवमनुजातस्य धातारो विदधुः पुरा।
तदेवानुचरिष्यामि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
यदेवमनुजातस्य धातारो विदधुः पुरा।
तदेवानुचरिष्यामि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें विधाताने मेरे लिये जैसा विधान रच रक्खा है, मैं जन्मके पश्चात् उसीका अनुसरण करता आया हूँ और आगे भी करूँगा; अतः मृत्यु मेरा क्या करेगी?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धव्यान्येव लभते गन्तव्यान्येव गच्छति।
प्राप्तव्यान्येव चाप्नोति दुःखानि च सुखानि च ॥ २२ ॥
मूलम्
लब्धव्यान्येव लभते गन्तव्यान्येव गच्छति।
प्राप्तव्यान्येव चाप्नोति दुःखानि च सुखानि च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको प्रारब्धके विधानसे जो कुछ पाना है, उसीको वह पाता है। जहाँ जाना है, वहीं वह जाता है और जो भी सुख या दुःख उसके लिये प्राप्तव्य हैं, उन्हें वह प्राप्त करता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विदित्वा कार्त्स्न्येन यो न मुह्यति मानवः।
कुशली सर्वदुःखेषु स वै सर्वधनो नरः ॥ २३ ॥
मूलम्
एतद् विदित्वा कार्त्स्न्येन यो न मुह्यति मानवः।
कुशली सर्वदुःखेषु स वै सर्वधनो नरः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह पूर्णरूपसे जानकर जो मनुष्य कभी मोहित नहीं होता है, वह सब प्रकारके दुःखोंमें सकुशल रहता है और वही हर तरहसे धनवान् है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शक्रनमुचिसंवादो नाम षड्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें इन्द्र और नमुचिका संवादनामक दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२६॥