२२५ श्रीसंनिधानः

भागसूचना

पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

इन्द्र और लक्ष्मीका संवाद, बलिको त्यागकर आयी हुई लक्ष्मीकी इन्द्रके द्वारा प्रतिष्ठा

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतक्रतुरथापश्यद् बलेर्दीप्तां महात्मनः ।
स्वरूपिणीं शरीराद्धि निष्क्रामन्तीं तदा श्रियम् ॥ १ ॥

मूलम्

शतक्रतुरथापश्यद् बलेर्दीप्तां महात्मनः ।
स्वरूपिणीं शरीराद्धि निष्क्रामन्तीं तदा श्रियम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर इन्द्रने देखा कि महात्मा बलिके शरीरसे परम सुन्दरी तथा कान्तिमती लक्ष्मी मूर्तिमती होकर निकल रही हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां दृष्ट्वा प्रभया दीप्तां भगवान् पाकशासनः।
विस्मयोत्फुल्लनयनो बलिं पप्रच्छ वासवः ॥ २ ॥

मूलम्

तां दृष्ट्वा प्रभया दीप्तां भगवान् पाकशासनः।
विस्मयोत्फुल्लनयनो बलिं पप्रच्छ वासवः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाकशासन भगवान् इन्द्र प्रभासे प्रकाशित होनेवाली उस लक्ष्मीको देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। उनके नेत्र विस्मयसे खिल उठे। उन्होंने बलिसे पूछा॥२॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बले केयमपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी।
त्वत्तः स्थिता सकेयूरा दीप्यमाना स्वतेजसा ॥ ३ ॥

मूलम्

बले केयमपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी।
त्वत्तः स्थिता सकेयूरा दीप्यमाना स्वतेजसा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— बले! यह वेणी धारण करनेवाली कान्तिमयी कौन सुन्दरी तुम्हारे शरीरसे निकल कर खड़ी है? इसकी भुजाओंमें बाजूबंद शोभा पा रहे हैं और यह अपने तेजसे उद्‌भासित हो रही है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

बलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हीमामासुरीं वेद्मि न दैवीं च न मानुषीम्।
त्वमेनां पृच्छ वा मा वा यथेष्टं कुरु वासव॥४॥

मूलम्

न हीमामासुरीं वेद्मि न दैवीं च न मानुषीम्।
त्वमेनां पृच्छ वा मा वा यथेष्टं कुरु वासव॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिने कहा— इन्द्र! मेरी समझमें न तो यह असुरकुलकी स्त्री है, न देवजातिकी है और न मानवी ही है। तुम जानना चाहते हो तो इसीसे पूछो अथवा न पूछो। जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो॥४॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

का त्वं बलेरपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी।
अजानतो ममाचक्ष्व नामधेयं शुचिस्मिते ॥ ५ ॥
का त्वं तिष्ठसि मामेवं दीप्यमाना स्वतेजसा।
हित्वा दैत्यवरं सुभ्रु तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ६ ॥

मूलम्

का त्वं बलेरपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी।
अजानतो ममाचक्ष्व नामधेयं शुचिस्मिते ॥ ५ ॥
का त्वं तिष्ठसि मामेवं दीप्यमाना स्वतेजसा।
हित्वा दैत्यवरं सुभ्रु तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रने पूछा— पवित्र मुसकानवाली सुन्दरी! बलिके शरीरसे निकलकर खड़ी हुई तुम कौन हो? तुम्हारी चमक-दमक अद्‌भुत है। तुम्हारी वेणी भी अत्यन्त सुन्दर है। मैं तुम्हें जानता नहीं हूँ; इसलिये पूछता हूँ। तुम मुझे अपना नाम बताओ। सुभ्रू! दैत्यराजको त्यागकर अपने तेजसे मुझे प्रकाशित करती हुई इस प्रकार तुम कौन खड़ी हो? मेरे प्रश्नके अनुसार अपना परिचय दो॥५-६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मां विरोचनो वेद नायं वैरोचनो बलिः।
आहुर्मां दुःसहेत्येवं विधित्सेति च मां विदुः ॥ ७ ॥

मूलम्

न मां विरोचनो वेद नायं वैरोचनो बलिः।
आहुर्मां दुःसहेत्येवं विधित्सेति च मां विदुः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मी बोली— मुझे न तो विरोचन जानता है और न उसका पुत्र यह बलि। लोग मुझे दुःसहा कहते हैं और कुछ लोग मुझे विधित्साके नामसे भी जानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतिर्लक्ष्मीति मामाहुः श्रीरित्येवं च वासव।
त्वं मां शक्र न जानीषे सर्वे देवा न मां विदुः॥८॥

मूलम्

भूतिर्लक्ष्मीति मामाहुः श्रीरित्येवं च वासव।
त्वं मां शक्र न जानीषे सर्वे देवा न मां विदुः॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! जानकार मनुष्य मुझे भूति, लक्ष्मी और श्री भी कहते हैं। शक्र! तुम मुझे नहीं जानते तथा सम्पूर्ण देवताओंको भी मेरे विषयमें कुछ भी ज्ञान नहीं है॥८॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं त्वं मम कृते उताहो बलिनः कृते।
दुःसहे विजहास्येनं चिरसंवासिनी सती ॥ ९ ॥

मूलम्

किमिदं त्वं मम कृते उताहो बलिनः कृते।
दुःसहे विजहास्येनं चिरसंवासिनी सती ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने पूछा— दुःसहे! तुमने चिरकालतक राजा बलिके शरीरमें निवास किया है, अब क्या तुम मेरे लिये अथवा बलिके ही हितके लिये इनका त्याग कर रही हो?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नो धाता न विधाता मां विदधाति कथंचन।
कालस्तु शक्र पर्यागान्मैनं शक्रावमन्यथाः ॥ १० ॥

मूलम्

नो धाता न विधाता मां विदधाति कथंचन।
कालस्तु शक्र पर्यागान्मैनं शक्रावमन्यथाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— इन्द्र! धाता या विधाता किसी प्रकार भी मुझे किसी कार्यमें नियुक्त नहीं कर सकते हैं; किंतु कालका ही आदेश मुझे मानना पड़ता है। वही काल इस समय बलिका परित्याग करनेके लिये मुझे प्रेरित करनेके निमित्त उपस्थित हुआ है। इन्द्र! तुम उस कालकी अवहेलना न करना॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्वया बलिस्त्यक्तः किमर्थं वा शिखण्डिनि।
कथं च मां न जह्यास्त्वं तन्मे ब्रूहि शुचिस्मिते॥११॥

मूलम्

कथं त्वया बलिस्त्यक्तः किमर्थं वा शिखण्डिनि।
कथं च मां न जह्यास्त्वं तन्मे ब्रूहि शुचिस्मिते॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने पूछा— वेणी धारण करनेवाली लक्ष्मी! तुमने बलिका कैसे और किसलिये त्याग किया है? शुचिस्मिते! तुम मेरा त्याग किस प्रकार नहीं करोगी? यह मुझे बताओ॥११॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्ये स्थितास्मि दाने च व्रते तपसि चैव हि।
पराक्रमे च धर्मे च पराचीनस्ततो बलिः ॥ १२ ॥

मूलम्

सत्ये स्थितास्मि दाने च व्रते तपसि चैव हि।
पराक्रमे च धर्मे च पराचीनस्ततो बलिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— मैं सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम और धर्ममें निवास करती हूँ। राजा बलि इन सबसे विमुख हो चुके हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्योऽयं पुरा भूत्वा सत्यवादी जितेन्द्रियः।
अभ्यसूयद् ब्राह्मणानामुच्छिष्टश्चास्पृशद् घृतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

ब्रह्मण्योऽयं पुरा भूत्वा सत्यवादी जितेन्द्रियः।
अभ्यसूयद् ब्राह्मणानामुच्छिष्टश्चास्पृशद् घृतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पहले ब्राह्मणोंके हितैषी, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे; किंतु आगे चलकर ब्राह्मणोंके प्रति इनकी दोषदृष्टि हो गयी तथा इन्होंने जूठे हाथसे घी छू दिया था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञशीलः सदा भूत्वा मामेव यजत स्वयम्।
प्रोवाच लोकान् मूढात्मा कालेनोपनिपीडितः ॥ १४ ॥

मूलम्

यज्ञशीलः सदा भूत्वा मामेव यजत स्वयम्।
प्रोवाच लोकान् मूढात्मा कालेनोपनिपीडितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले ये सदा यज्ञ किया करते थे; किंतु आगे चलकर कालसे पीड़ित एवं मोहितचित्त होकर इन्होंने सब लोगोंको स्वयं ही स्पष्टरूपसे आदेश दिया कि तुम सब लोग मेरा ही यजन करो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपाकृता ततः शक्र त्वयि वत्स्यामि वासव।
अप्रमत्तेन धार्यास्मि तपसा विक्रमेण च ॥ १५ ॥

मूलम्

अपाकृता ततः शक्र त्वयि वत्स्यामि वासव।
अप्रमत्तेन धार्यास्मि तपसा विक्रमेण च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! इस प्रकार इनके द्वारा तिरस्कृत होकर अब मैं तुममें ही निवास करूँगी। तुम्हें सदा सावधान रहकर तपस्या और पराक्रमद्वारा मुझे धारण करना चाहिये॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति देवमनुष्येषु सर्वभूतेषु वा पुमान्।
यस्त्वामेको विषहितुं शक्नुयात् कमलालये ॥ १६ ॥

मूलम्

नास्ति देवमनुष्येषु सर्वभूतेषु वा पुमान्।
यस्त्वामेको विषहितुं शक्नुयात् कमलालये ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— कमलालये! देवताओं, मनुष्यों अथवा सम्पूर्ण प्राणियोंमें कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है जो अकेला तुम्हारा भार सहन कर सके?॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव देवो न गन्धर्वो नासुरो न च राक्षसः।
यो मामेको विषहितुं शक्तः कश्चित् पुरंदर ॥ १७ ॥

मूलम्

नैव देवो न गन्धर्वो नासुरो न च राक्षसः।
यो मामेको विषहितुं शक्तः कश्चित् पुरंदर ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— पुरंदर! देवता, गन्धर्व, असुर और राक्षस कोई भी अकेला मेरा भार सहन नहीं कर सकता॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठेथा मयि नित्यं त्वं यथा तद् ब्रूहि मे शुभे।
तत् करिष्यामि ते वाक्यमृतं तत् वक्तुमर्हसि ॥ १८ ॥

मूलम्

तिष्ठेथा मयि नित्यं त्वं यथा तद् ब्रूहि मे शुभे।
तत् करिष्यामि ते वाक्यमृतं तत् वक्तुमर्हसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— शुभे! तुम जिस प्रकार मेरे निकट सदा निवास कर सको, वह उपाय मुझे बताओ। मैं तुम्हारी आज्ञाका यथार्थरूपसे पालन करूँगा; क्योंकि तुम वह उपाय मुझे अवश्य बता सकती हो॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थास्यामि नित्यं देवेन्द्र यथा त्वयि निबोध तत्।
विधिना वेददृष्टेन चतुर्धा विभजस्व माम् ॥ १९ ॥

मूलम्

स्थास्यामि नित्यं देवेन्द्र यथा त्वयि निबोध तत्।
विधिना वेददृष्टेन चतुर्धा विभजस्व माम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— देवेन्द्र! मैं जिस उपायसे तुम्हारे निकट सदा निवास कर सकूँगी, वह बताती हूँ, सुनो। तुम वेदमें बतायी हुई विधिसे मुझे चार भागोंमें विभक्त करो॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं वै त्वां निधास्यामि यथाशक्ति यथाबलम्।
न तु मेऽतिक्रमः स्याद् वै सदा लक्ष्मि तवान्तिके॥२०॥

मूलम्

अहं वै त्वां निधास्यामि यथाशक्ति यथाबलम्।
न तु मेऽतिक्रमः स्याद् वै सदा लक्ष्मि तवान्तिके॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— लक्ष्मी! मैं शारीरिक बल और मानसिक शक्तिके अनुसार तुम्हें धारण करूँगा, किंतु तुम्हारे निकट कभी मेरा परित्याग न हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिरेव मनुष्येषु धारिणी भूतभाविनी।
सा ते पादं तितिक्षेत समर्था हीति मे मतिः॥२१॥

मूलम्

भूमिरेव मनुष्येषु धारिणी भूतभाविनी।
सा ते पादं तितिक्षेत समर्था हीति मे मतिः॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी यह धारणा है कि मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाली यह पृथ्वी ही सबको धारण करती है। वह तुम्हारे पैरका भार सह सकेगी; क्योंकि वह सामर्थ्यशालिनी है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मे निहितः पादो योऽयं भूमौ प्रतिष्ठितः।
द्वितीयं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २२ ॥

मूलम्

एष मे निहितः पादो योऽयं भूमौ प्रतिष्ठितः।
द्वितीयं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— इन्द्र! यह जो मेरा एक पैर पृथ्वी पर रखा हुआ है, इसे मैंने यहीं प्रतिष्ठित कर दिया। अब तुम मेरे दूसरे पैरको भी सुप्रतिष्ठित करो॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप एव मनुष्येषु द्रवन्त्यः परिचारिणीः।
तास्ते पादं तितिक्षन्तामलमापस्तितिक्षितुम् ॥ २३ ॥

मूलम्

आप एव मनुष्येषु द्रवन्त्यः परिचारिणीः।
तास्ते पादं तितिक्षन्तामलमापस्तितिक्षितुम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— लक्ष्मी! मनुष्यलोकमें जल ही सब ओर प्रवाहित होता है; अतः वही तुम्हारे दूसरे पैरका भार सहन करे; क्योंकि जल इस कार्यके लिये पूर्ण समर्थ है॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मे निहितः पादो योऽयमप्सु प्रतिष्ठितः।
तृतीयं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २४ ॥

मूलम्

एष मे निहितः पादो योऽयमप्सु प्रतिष्ठितः।
तृतीयं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— इन्द्र! लो, मैंने यह पैर जलमें रख दिया। अब यह जलमें ही सुप्रतिष्ठित है। अब तुम मेरे तीसरे पैरको भलीभाँति स्थापित करो॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् वेदाश्च यज्ञाश्च यस्मिन्‌ देवाः प्रतिष्ठिताः।
तृतीयं पादमग्निस्ते सुधृतं धारयिष्यति ॥ २५ ॥

मूलम्

यस्मिन् वेदाश्च यज्ञाश्च यस्मिन्‌ देवाः प्रतिष्ठिताः।
तृतीयं पादमग्निस्ते सुधृतं धारयिष्यति ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— देवि! जिसमें वेद, यज्ञ और सम्पूर्ण देवता प्रतिष्ठित हैं। वे अग्निदेव तुम्हारे तीसरे पैरको अच्छी तरह धारण करेंगे॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मे निहितः पादो योऽयमग्नौ प्रतिष्ठितः।
चतुर्थं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २६ ॥

मूलम्

एष मे निहितः पादो योऽयमग्नौ प्रतिष्ठितः।
चतुर्थं शक्र पादं मे तस्मात् सुनिहितं कुरु ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— इन्द्र! यह तीसरा पाद मैंने अग्निमें रख दिया। अब यह अग्निमें प्रतिष्ठित है। इसके बाद मेरे चौथे पादको भलीभाँति स्थापित करो॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये वै सन्तो मनुष्येषु ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।
ते ते पादं तितिक्षन्तामलं सन्तस्तितिक्षितुम् ॥ २७ ॥

मूलम्

ये वै सन्तो मनुष्येषु ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।
ते ते पादं तितिक्षन्तामलं सन्तस्तितिक्षितुम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— देवि! मनुष्योंमें जो ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे आपके चौथे पादका भार वहन करें; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष उसे सहन करनेमें पूर्ण समर्थ हैं॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मे निहितः पादो योऽयं सत्सु प्रतिष्ठितः।
एवं हि निहितां शक्र भूतेषु परिधत्स्व माम् ॥ २८ ॥

मूलम्

एष मे निहितः पादो योऽयं सत्सु प्रतिष्ठितः।
एवं हि निहितां शक्र भूतेषु परिधत्स्व माम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— इन्द्र! यह मैंने अपना चौथा पाद रखा। अब यह सत्पुरुषोंमें प्रतिष्ठित हुआ। इसी प्रकार तुम अब सम्पूर्ण भूतोंमें मुझे स्थापित करके सब ओरसे मेरी रक्षा करो॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतानामिह यो वै त्वां मया विनिहितां सतीम्।
उपहन्यात् स मे धृष्यस्तथा शृण्वन्तु मे वचः ॥ २९ ॥

मूलम्

भूतानामिह यो वै त्वां मया विनिहितां सतीम्।
उपहन्यात् स मे धृष्यस्तथा शृण्वन्तु मे वचः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— देवि! मेरेद्वारा स्थापित की हुई आपको समस्त प्राणियोंमेंसे जो भी पीड़ा देगा, वह मेरेद्वारा दण्डनीय होगा। मेरी यह बात वे सब लोग सुन लें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्यक्तः श्रिया राजा दैत्यानां बलिरब्रवीत्।
यावत्‌ पुरस्तात् प्रतपेत्‌ तावद्‌ वै दक्षिणां दिशम्।
पश्चिमां तावदेवापि तथोदीचीं दिवाकरः ॥ ३० ॥

मूलम्

ततस्त्यक्तः श्रिया राजा दैत्यानां बलिरब्रवीत्।
यावत्‌ पुरस्तात् प्रतपेत्‌ तावद्‌ वै दक्षिणां दिशम्।
पश्चिमां तावदेवापि तथोदीचीं दिवाकरः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर लक्ष्मीसे परित्यक्त होकर दैत्यराज बलिने कहा—‘सूर्य जबतक पूर्वदिशामें प्रकाशित होंगे, तभीतक वे दक्षिण, पश्चिम और उत्तरदिशाको भी प्रकाशित करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मध्यंदिने सूर्यो नास्तमेति यदा तदा।
पुनर्देवासुरं युद्धं भावि जेतास्मि वस्तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

तथा मध्यंदिने सूर्यो नास्तमेति यदा तदा।
पुनर्देवासुरं युद्धं भावि जेतास्मि वस्तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब सूर्य केवल मध्याह्नकालमें ही स्थित रहेंगे, अस्ताचलको नहीं जायँगे, उस समय पुनः देवासुरसंग्राम होगा और उसमें मैं तुम सब देवताओंको परास्त करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वलोकान्‌ यदाऽऽदित्य एकस्थस्तापयिष्यति ।
तदा देवासुरे युद्धे जेताहं त्वां शतक्रतो ॥ ३२ ॥

मूलम्

सर्वलोकान्‌ यदाऽऽदित्य एकस्थस्तापयिष्यति ।
तदा देवासुरे युद्धे जेताहं त्वां शतक्रतो ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शतक्रतो! जब सूर्य एक स्थान अर्थात् ब्रह्मलोकमें ही स्थित होकर नीचेके सम्पूर्ण लोकोंको ताप देने लगेंगे, उस समय देवासुरसंग्राममें मैं तुम्हें अवश्य जीत लूँगा1’॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणोऽस्मि समादिष्टो न हन्तव्यो भवानिति।
तेन तेऽहं बले वज्रं न विमुञ्चामि मूर्धनि ॥ ३३ ॥

मूलम्

ब्रह्मणोऽस्मि समादिष्टो न हन्तव्यो भवानिति।
तेन तेऽहं बले वज्रं न विमुञ्चामि मूर्धनि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— बले! ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि तुम बलिका वध न करना; इसीलिये तुम्हारे मस्तकपर मैं अपना वज्र नहीं छोड़ रहा हूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेष्टं गच्छ दैत्येन्द्र स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।
आदित्यो नैव तपिता कदाचिन्मध्यतः स्थितः ॥ ३४ ॥

मूलम्

यथेष्टं गच्छ दैत्येन्द्र स्वस्ति तेऽस्तु महासुर।
आदित्यो नैव तपिता कदाचिन्मध्यतः स्थितः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैत्यराज! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चले जाओ। महान् असुर! तुम्हारा कल्याण हो। सूर्य कभी मध्याह्नमें ही स्थित होकर सम्पूर्ण लोकोंको ताप नहीं देंगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थापितो ह्यस्य समयः पूर्वमेव स्वयम्भुवा।
अजस्रं परियात्येष सत्येनावतपन् प्रजाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

स्थापितो ह्यस्य समयः पूर्वमेव स्वयम्भुवा।
अजस्रं परियात्येष सत्येनावतपन् प्रजाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने पहलेसे ही उनके लिये मर्यादा स्थापित कर दी है, अतः उसी सत्यमर्यादाके अनुसार सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको ताप प्रदान करते हुए निरन्तर परिभ्रमण करते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयनं तस्य षण्मासानुत्तरं दक्षिणं तथा।
येन संयाति लोकेषु शीतोष्णे विसृजन् रविः ॥ ३६ ॥

मूलम्

अयनं तस्य षण्मासानुत्तरं दक्षिणं तथा।
येन संयाति लोकेषु शीतोष्णे विसृजन् रविः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके दो मार्ग हैं—उत्तर और दक्षिण। छः महीनोंका उत्तरायण होता है और छः महीनोंका दक्षिणायन। उसीसे सम्पूर्ण जगत्‌में सर्दी-गर्मीकी सृष्टि करते हुए सूर्यदेव भ्रमण करते हैं॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत।
जगाम दक्षिणामाशामुदीचीं तु पुरंदरः ॥ ३७ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत।
जगाम दक्षिणामाशामुदीचीं तु पुरंदरः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! इन्द्रके ऐसा कहनेपर दैत्यराज बलि दक्षिणदिशाको चले गये और स्वयं इन्द्र उत्तरदिशाको॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद् बलिना गीतमनहंकारसंज्ञितम् ।
वाक्यं श्रुत्वा सहस्राक्षः खमेवारुरुहे तदा ॥ ३८ ॥

मूलम्

इत्येतद् बलिना गीतमनहंकारसंज्ञितम् ।
वाक्यं श्रुत्वा सहस्राक्षः खमेवारुरुहे तदा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बलिका वह पूर्वोक्त अनहंकारसंज्ञक वाक्य सुनकर सहस्रनेत्रधारी इन्द्र पुनः आकाशको ही उड़ चले॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि श्रीसंनिधानो नाम पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीसंनिधाननामक दो सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२५॥


  1. वैवस्वत मन्वन्तरको आठ भागोंमें विभक्त करके जब अन्तिम आठवाँ भाग व्यतीत होने लगेगा, तब पूर्व आदि चारों दिशाओंमें जो इन्द्र, यम, वरुण और कुबेरकी चार पुरियाँ हैं, वे नष्ट हो जायँगी। उस समय केवल ब्रह्मलोकमें स्थित होकर सूर्य नीचेके सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करेंगे। उसी समय सावर्णिक मन्वन्तरका आरम्भ होगा, जिसमें राजा बलि इन्द्र होंगे। (नीलकण्ठी) ↩︎