२२४ बलिवासवसंवादे

भागसूचना

चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बलि और इन्द्रका संवाद, बलिके द्वारा कालकी प्रबलताका प्रतिपादन करते हुए इन्द्रको फटकारना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरेव तु तं शक्रः प्रहसन्निदमब्रवीत्।
निःश्वसन्तं यथा नागं प्रव्याहाराय भारत ॥ १ ॥

मूलम्

पुनरेव तु तं शक्रः प्रहसन्निदमब्रवीत्।
निःश्वसन्तं यथा नागं प्रव्याहाराय भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! ऐसा कहकर सर्पके समान फुफकारते हुए बलिसे इन्द्रने पुनः अपना उत्कर्ष सूचित करनेके लिये हँसते हुए कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद् यानसहस्रेण ज्ञातिभिः परिवारितः।
लोकान् प्रतापयन् सर्वान् यास्यस्मानवितर्कयन् ॥ २ ॥
दृष्ट्वा सुकृपणां चेमामवस्थामात्मनो बले।
ज्ञातिमित्रपरित्यक्तः शोचस्याहो न शोचसि ॥ ३ ॥

मूलम्

यत् तद् यानसहस्रेण ज्ञातिभिः परिवारितः।
लोकान् प्रतापयन् सर्वान् यास्यस्मानवितर्कयन् ॥ २ ॥
दृष्ट्वा सुकृपणां चेमामवस्थामात्मनो बले।
ज्ञातिमित्रपरित्यक्तः शोचस्याहो न शोचसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— दैत्यराज बलि! पहले जो तुम सहस्रों वाहनों और भाई-बन्धुओंसे घिरकर सम्पूर्ण लोकोंको संताप देते और हम देवताओंको कुछ न समझते हुए यात्रा करते थे और अब बन्धु-बान्धवों तथा मित्रोंसे परित्यक्त होकर जो अपनी यह अत्यन्त दीनदशा देख रहे हो, इससे तुम्हारे मनमें शोक होता है या नहीं?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिं प्राप्यातुलां पूर्वं लोकांश्चात्मवशे स्थितान्।
विनिपातमिमं बाह्यं शोचस्याहो न शोचसि ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रीतिं प्राप्यातुलां पूर्वं लोकांश्चात्मवशे स्थितान्।
विनिपातमिमं बाह्यं शोचस्याहो न शोचसि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें तुमने सम्पूर्ण लोकोंको अपने अधीन कर लिया था और अनुपम प्रसन्नता प्राप्त की थी; किंतु इस समय बाह्य जगत्‌में तुम्हारा यह घोर पतन हुआ है, यह सब सोचकर तुम्हारे मनमें शोक होता है या नहीं?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

बलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्यमुपलक्ष्येह कालपर्यायधर्मतः ।
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् ॥ ५ ॥

मूलम्

अनित्यमुपलक्ष्येह कालपर्यायधर्मतः ।
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिने कहा— इन्द्र! कालचक्र स्वभावसे ही परिवर्तनशील है, उसके द्वारा यहाँकी प्रत्येक वस्तुको मैं अनित्य समझता हूँ, इसीलिये कभी शोक नहीं करता हूँ; क्योंकि यह सारा जगत् विनाशशील है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तवन्त इमे देहा भूतानां च सुराधिप।
तेन शक्र न शोचामि नापराधादिदं मम ॥ ६ ॥

मूलम्

अन्तवन्त इमे देहा भूतानां च सुराधिप।
तेन शक्र न शोचामि नापराधादिदं मम ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! प्राणियोंके ये सारे शरीर अन्तवान् हैं; इसलिये मैं कभी शोक नहीं करता हूँ। यह गर्दभका शरीर भी मुझे किसी अपराधसे नहीं प्राप्त हुआ है (मैंने इसे स्वेच्छासे ग्रहण किया है)॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं च शरीरं च जात्यैव सह जायते।
उभे सह विवर्धेते उभे सह विनश्यतः ॥ ७ ॥

मूलम्

जीवितं च शरीरं च जात्यैव सह जायते।
उभे सह विवर्धेते उभे सह विनश्यतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवन और शरीर दोनों जन्मके साथ ही उत्पन्न होते हैं, साथ ही बढ़ते हैं और साथ ही नष्ट हो जाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हीदृशमहं भावमवशः प्राप्य केवलम्।
यदेवमभिजानामि का व्यथा मे विजानतः ॥ ८ ॥

मूलम्

न हीदृशमहं भावमवशः प्राप्य केवलम्।
यदेवमभिजानामि का व्यथा मे विजानतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इस गर्दभ-शरीरको पाकर भी विवश नहीं हुआ हूँ। जब मैं इस प्रकार देहकी अनित्यता और आत्माकी असंगताको जानता हूँ, तब यह जानते हुए मुझे क्या व्यथा हो सकती है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतानां निधनं निष्ठा स्रोतसामिव सागरः।
नैतत् सम्यग्विजानन्तो नरा मुह्यन्ति वज्रधृक् ॥ ९ ॥

मूलम्

भूतानां निधनं निष्ठा स्रोतसामिव सागरः।
नैतत् सम्यग्विजानन्तो नरा मुह्यन्ति वज्रधृक् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रधारी इन्द्र! जैसे जलके प्रवाहोंका अन्तिम आश्रय समुद्र है, उसी प्रकार शरीरधारियोंकी अन्तिम गति मृत्यु है। जो पुरुष इस बातको अच्छी तरह जानते हैं, वे कभी मोहमें नहीं पड़ते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्वेवं नाभिजानन्ति रजोमोहपरायणाः।
ते कृच्छ्रं प्राप्य सीदन्ति बुद्धिर्येषां प्रणश्यति ॥ १० ॥

मूलम्

ये त्वेवं नाभिजानन्ति रजोमोहपरायणाः।
ते कृच्छ्रं प्राप्य सीदन्ति बुद्धिर्येषां प्रणश्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग रजोगुण (काम-क्रोध) और मोहके वशीभूत हो इस बातको भलीभाँति नहीं जानते हैं तथा जिनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वे संकटमें पड़नेपर बहुत दुखी होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिलाभात्‌ तु पुरुषः सर्वं तुदति किल्बिषम्।
विपाप्मा लभते सत्त्वं सत्त्वस्थः सम्प्रसीदति ॥ ११ ॥

मूलम्

बुद्धिलाभात्‌ तु पुरुषः सर्वं तुदति किल्बिषम्।
विपाप्मा लभते सत्त्वं सत्त्वस्थः सम्प्रसीदति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे सद्‌बुद्धि प्राप्त होती है, वह पुरुष उस बुद्धिके द्वारा सारे पापोंको नष्ट कर देता है। पापहीन होनेपर उसे सत्त्वगुणकी प्राप्ति होती है और सत्त्वगुणमें स्थित होकर वह सात्त्विक प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु ये निवर्तन्ते जायन्ते वा पुनः पुनः।
कृपणाः परितप्यन्ते तैरर्थैरभिचोदिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततस्तु ये निवर्तन्ते जायन्ते वा पुनः पुनः।
कृपणाः परितप्यन्ते तैरर्थैरभिचोदिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन्दबुद्धि मानव सत्त्वगुणसे भ्रष्ट हो जाते हैं, वे बारंबार इस संसारमें जन्म लेते हैं तथा रजोगुणजनित काम, क्रोध आदि दोषोंसे प्रेरित होकर सदा संतप्त होते रहते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थसिद्धिमनर्थं च जीवितं मरणं तथा।
सुखदुःखफले चैव न द्वेष्मि न च कामये ॥ १३ ॥

मूलम्

अर्थसिद्धिमनर्थं च जीवितं मरणं तथा।
सुखदुःखफले चैव न द्वेष्मि न च कामये ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं न तो अर्थसिद्धि, जीवन और सुखमय फलकी कामना करता हूँ और न अनर्थ, मृत्यु एवं दुःखमय फलसे द्वेष ही रखता हूँ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं हन्ति हतो ह्येव यो नरो हन्ति कञ्चन।
उभौ तौ न विजानीतो यश्च हन्ति हतश्च यः॥१४॥

मूलम्

हतं हन्ति हतो ह्येव यो नरो हन्ति कञ्चन।
उभौ तौ न विजानीतो यश्च हन्ति हतश्च यः॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य किसीकी हत्या करता है, वह वास्तवमें स्वयं मरा हुआ होते हुए मरे हुएको ही मारता है। जो मारता है और जो मारा जाता है, वे दोनों ही आत्माको नहीं जानते हैं (क्योंकि आत्मा हननक्रियाका न तो कर्म है, न कर्ता)॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वा जित्वा च मघवन् यः कश्चित् पुरुषायते।
अकर्ता ह्येव भवति कर्ता ह्येव करोति तत् ॥ १५ ॥

मूलम्

हत्वा जित्वा च मघवन् यः कश्चित् पुरुषायते।
अकर्ता ह्येव भवति कर्ता ह्येव करोति तत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मघवन्! जो कोई किसीको मारकर या जीतकर अपने पौरुषपर गर्व करता है, वह वास्तवमें उस पुरुषार्थका कर्ता ही नहीं है; क्योंकि जो जगत्‌का कर्ता, जो परमात्मा है, वही उस कर्मका भी कर्ता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि लोकस्य कुरुते विनाशप्रभवावुभौ।
कृतं हि तत् कृतेनैव कर्ता तस्यापि चापरः ॥ १६ ॥

मूलम्

को हि लोकस्य कुरुते विनाशप्रभवावुभौ।
कृतं हि तत् कृतेनैव कर्ता तस्यापि चापरः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण जगत्‌का संहार और सृष्टि—इन दोनों कार्योंको कौन करता है? वह सब प्राणियोंके कर्मोंद्वारा ही किया गया है और उसका भी प्रयोजक कोई और (ईश्वर) ही है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी ज्योतिराकाशमापो वायुश्च पञ्चमः।
एतद्योनीनि भूतानि तत्र का परिदेवना ॥ १७ ॥

मूलम्

पृथिवी ज्योतिराकाशमापो वायुश्च पञ्चमः।
एतद्योनीनि भूतानि तत्र का परिदेवना ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—ये ही सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंके कारण हैं; अतः उनके लिये शोक और विलापकी क्या आवश्यकता है?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाविद्योऽल्पविद्यश्च बलवान् दुर्बलश्च यः।
दर्शनीयो विरूपश्च सुभगो दुर्भगश्च यः ॥ १८ ॥
सर्वं कालः समादत्ते गम्भीरः स्वेन तेजसा।
तस्मिन् कालवशं प्राप्ते का व्यथा मे विजानतः ॥ १९ ॥

मूलम्

महाविद्योऽल्पविद्यश्च बलवान् दुर्बलश्च यः।
दर्शनीयो विरूपश्च सुभगो दुर्भगश्च यः ॥ १८ ॥
सर्वं कालः समादत्ते गम्भीरः स्वेन तेजसा।
तस्मिन् कालवशं प्राप्ते का व्यथा मे विजानतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई बड़ा भारी विद्वान् हो या अल्पविद्यासे युक्त, बलवान् हो या दुर्बल, सुन्दर हो या कुरूप, सौभाग्यशाली हो या दुर्भाग्ययुक्त, गम्भीर काल सबको अपने तेजसे ग्रहण कर लेता है; अतः उन सबके कालके अधीन हो जानेपर जगत्‌की क्षणभंगुरताको जाननेवाले मुझ बलिको क्या व्यथा हो सकती है?॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दग्धमेवानुदहति हतमेवानुहन्यते ।
नश्यते नष्टमेवाग्रे लब्धव्यं लभते नरः ॥ २० ॥

मूलम्

दग्धमेवानुदहति हतमेवानुहन्यते ।
नश्यते नष्टमेवाग्रे लब्धव्यं लभते नरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कालके द्वारा दग्ध हो चुका है, उसीको पीछेसे आग जलाती है। जिसे कालने पहलेसे ही मार डाला है, वही किसी दूसरेके द्वारा मारा जाता है। जो पहलेसे ही नष्ट हो चुकी है, वही वस्तु किसीके द्वारा नष्ट की जाती है तथा जिसका मिलना पहलेसे ही निश्चित है, उसीको मनुष्य हस्तगत करता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्य द्वीपः कुतः पारो नावारः सम्प्रदृश्यते।
नान्तमस्य प्रपश्यामि विधेर्दिव्यस्य चिन्तयन् ॥ २१ ॥

मूलम्

नास्य द्वीपः कुतः पारो नावारः सम्प्रदृश्यते।
नान्तमस्य प्रपश्यामि विधेर्दिव्यस्य चिन्तयन् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बहुत सोचनेपर भी दिव्य विधाता कालका अन्त नहीं देख पाता हूँ। उस समुद्र-जैसे कालका कहीं द्वीप भी नहीं है, फिर पार कहाँसे प्राप्त हो सकता है? उसका आर-पार कहीं नहीं दिखायी देता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मे पश्यतः कालो भूतानि न विनाशयेत्।
स्यान्मे हर्षश्च दर्पश्च क्रोधश्चैव शचीपते ॥ २२ ॥

मूलम्

यदि मे पश्यतः कालो भूतानि न विनाशयेत्।
स्यान्मे हर्षश्च दर्पश्च क्रोधश्चैव शचीपते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपते! यदि काल मेरे देखते-देखते समस्त प्राणियोंका विनाश नहीं करता तो मुझे हर्ष होता, अपनी शक्तिपर गर्व होता और उस क्रूर कालपर मुझे क्रोध भी होता॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुषभक्षं तु मां ज्ञात्वा प्रविविक्तजने गृहे।
बिभ्रतं गार्दभं रूपमागत्य परिगर्हसे ॥ २३ ॥

मूलम्

तुषभक्षं तु मां ज्ञात्वा प्रविविक्तजने गृहे।
बिभ्रतं गार्दभं रूपमागत्य परिगर्हसे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस एकान्त गृहमें गर्दभका रूप धारण किये मुझे भूसी खाता जानकर तुम यहाँ आये हो और मेरी निन्दा करते हो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छन्नहं विकुर्यां हि रूपाणि बहुधाऽऽत्मनः।
विभीषणानि यानीक्ष्य पलायेथास्त्वमेव मे ॥ २४ ॥

मूलम्

इच्छन्नहं विकुर्यां हि रूपाणि बहुधाऽऽत्मनः।
विभीषणानि यानीक्ष्य पलायेथास्त्वमेव मे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं चाहूँ तो अपने बहुत-से ऐसे भयानक रूप प्रकट कर सकता हूँ, जिन्हें देखकर तुम्हीं मेरे निकटसे भाग खड़े होओगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालः सर्वं समादत्ते कालः सर्वं प्रयच्छति।
कालेन विहितं सर्वं मा कृथाः शक्र पौरुषम् ॥ २५ ॥

मूलम्

कालः सर्वं समादत्ते कालः सर्वं प्रयच्छति।
कालेन विहितं सर्वं मा कृथाः शक्र पौरुषम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! काल ही सबको ग्रहण करता है, काल ही सब कुछ देता है तथा कालने ही सब कुछ किया है; अतः अपने पुरुषार्थका गर्व न करो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा सर्वं प्रव्यथितं मयि क्रुद्धे पुरंदर।
अवैमि त्वस्य लोकस्य धर्मं शक्र सनातनम् ॥ २६ ॥

मूलम्

पुरा सर्वं प्रव्यथितं मयि क्रुद्धे पुरंदर।
अवैमि त्वस्य लोकस्य धर्मं शक्र सनातनम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरन्दर! पूर्वकालमें मेरे कुपित होनेपर सारा जगत् व्यथित हो उठता था। इस लोककी कभी वृद्धि होती है और कभी ह्रास। यह इसका सनातन स्वभाव है। शक्र! इस बातको मैं अच्छी तरह जानता हूँ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमप्येवमवेक्षस्व माऽऽत्मना विस्मयं गमः।
प्रभवश्च प्रभावश्च नात्मसंस्थः कदाचन ॥ २७ ॥

मूलम्

त्वमप्येवमवेक्षस्व माऽऽत्मना विस्मयं गमः।
प्रभवश्च प्रभावश्च नात्मसंस्थः कदाचन ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम भी जगत्‌को इसी दृष्टिसे देखो। अपने मनमें विस्मित न होओ। प्रभुता और प्रभाव अपने अधीन नहीं हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौमारमेव ते चित्तं तथैवाद्य यथा पुरा।
समवेक्षस्व मघवन् बुद्धिं विन्दस्व नैष्ठिकीम् ॥ २८ ॥

मूलम्

कौमारमेव ते चित्तं तथैवाद्य यथा पुरा।
समवेक्षस्व मघवन् बुद्धिं विन्दस्व नैष्ठिकीम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा चित्त अभी बालकके समान है। वह जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। मघवन्! इस बातकी ओर दृष्टिपात करो और नैष्ठिक बुद्धि प्राप्त करो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः।
आसन् सर्वे मम वशे तत् सर्वं वेत्थ वासव॥२९॥

मूलम्

देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः।
आसन् सर्वे मम वशे तत् सर्वं वेत्थ वासव॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! एक दिन देवता, मनुष्य, पितर, गन्धर्व, नाग और राक्षस—ये सभी मेरे अधीन थे। वह सब कुछ तुम जानते हो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनो बलिः।
इति मामभ्यपद्यन्त बुद्धिमात्सर्यमोहिताः ॥ ३० ॥

मूलम्

नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनो बलिः।
इति मामभ्यपद्यन्त बुद्धिमात्सर्यमोहिताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे शत्रु अपने बुद्धिगत द्वेषसे मोहित होकर मेरी शरण ग्रहण करते हुए ऐसा कहा करते थे कि विरोचनकुमार बलि जिस दिशामें हों, उस दिशाको भी हमारा नमस्कार है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं तदनुशोचामि नात्मभ्रंशं शचीपते।
एवं मे निश्चिता बुद्धिः शास्तुस्तिष्ठाम्यहं वशे ॥ ३१ ॥

मूलम्

नाहं तदनुशोचामि नात्मभ्रंशं शचीपते।
एवं मे निश्चिता बुद्धिः शास्तुस्तिष्ठाम्यहं वशे ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपते! मुझे अपने इस पतनके लिये तनिक भी शोक नहीं होता है, मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय है कि मैं सदा सबके शासक ईश्वरके वशमें हूँ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यते हि कुले जातो दर्शनीयः प्रतापवान्।
दुःखं जीवन् सहामात्यो भवितव्यं हि तत् तथा ॥ ३२ ॥

मूलम्

दृश्यते हि कुले जातो दर्शनीयः प्रतापवान्।
दुःखं जीवन् सहामात्यो भवितव्यं हि तत् तथा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ दर्शनीय एवं प्रतापी पुरुष अपने मन्त्रियोंके साथ दुःखपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है, उसका वैसा ही भवितव्य था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दौष्कुलेयस्तथा मूढो दुर्जातः शक्र दृश्यते।
सुखं जीवन् सहामात्यो भवितव्यं हि तत् तथा ॥ ३३ ॥

मूलम्

दौष्कुलेयस्तथा मूढो दुर्जातः शक्र दृश्यते।
सुखं जीवन् सहामात्यो भवितव्यं हि तत् तथा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! एक नीच कुलमें उत्पन्न हुआ मूढ़ मनुष्य जिसका जन्म दुराचारसे हुआ है, अपने मन्त्रियोंसहित सुखी जीवन बिताता देखा जाता है। उसकी भी वैसी ही होनहार समझनी चाहिये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्याणी रूपसम्पन्ना दुर्भगा शक्र दृश्यते।
अलक्षणा विरूपा च सुभगा दृश्यते परा ॥ ३४ ॥

मूलम्

कल्याणी रूपसम्पन्ना दुर्भगा शक्र दृश्यते।
अलक्षणा विरूपा च सुभगा दृश्यते परा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्र! एक कल्याणमय आचार-विचार रखनेवाली सुरूपवती युवती विधवा हुई देखी जाती है और दूसरी कुलक्षणा और कुरूपा स्त्री सौभाग्यवती दिखायी देती है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक्र त्वया कृतम्।
यत् त्वमेवंगतो वज्रिन् यच्चाप्येवंगता वयम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक्र त्वया कृतम्।
यत् त्वमेवंगतो वज्रिन् यच्चाप्येवंगता वयम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रधारी इन्द्र! आज तो तुम इस तरह समृद्धिशाली हो गये हो और हमलोग जो ऐसी अवस्थामें पहुँच गये हैं, यह न तो हमारा किया हुआ है और न तुमने ही कुछ किया है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कर्म भविताप्येतत् कृतं मम शतक्रतो।
ऋद्धिर्वाऽप्यथवा नर्द्धिः पर्यायकृतमेव तत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

न कर्म भविताप्येतत् कृतं मम शतक्रतो।
ऋद्धिर्वाऽप्यथवा नर्द्धिः पर्यायकृतमेव तत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शतक्रतो! इस समय मैं इस परिस्थितिमें हूँ और जो कर्म मेरे इस शरीरसे हो रहा है, यह सब मेरा किया हुआ नहीं है। समृद्धि और निर्धनता (प्रारब्धके अनुसार) बारी-बारीसे सबपर आती है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यामि त्वां विराजन्तं देवराजमवस्थितम्।
श्रीमन्तं द्युतिमन्तं च गर्जमानं ममोपरि ॥ ३७ ॥

मूलम्

पश्यामि त्वां विराजन्तं देवराजमवस्थितम्।
श्रीमन्तं द्युतिमन्तं च गर्जमानं ममोपरि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं देखता हूँ, इस समय तुम देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हो। अपने कान्तिमान् और तेजस्वी स्वरूपसे विराज रहे हो और मेरे ऊपर बारंबार गर्जना करते हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं नैव न चेत् कालो मामाक्रम्य स्थितो भवेत्।
पातयेयमहं त्वाद्य सवज्रमपि मुष्टिना ॥ ३८ ॥

मूलम्

एवं नैव न चेत् कालो मामाक्रम्य स्थितो भवेत्।
पातयेयमहं त्वाद्य सवज्रमपि मुष्टिना ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु यदि इस तरह काल मुझपर आक्रमण करके मेरे सिरपर सवार न होता तो मैं आज वज्र लिये होनेपर भी तुम्हें केवल मुक्केसे मारकर धरतीपर गिरा देता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु विक्रमकालोऽयं शान्तिकालोऽयमागतः।
कालः स्थापयते सर्वं कालः पचति वै तथा ॥ ३९ ॥

मूलम्

न तु विक्रमकालोऽयं शान्तिकालोऽयमागतः।
कालः स्थापयते सर्वं कालः पचति वै तथा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु यह मेरे लिये पराक्रम प्रकट करनेका समय नहीं है; अपितु शान्त रहनेका समय आया है। काल ही सबको विभिन्न अवस्थाओंमें स्थापित करके सबका पालन करता है और काल ही सबको पकाता (क्षीण करता) है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां चेदभ्यागतः कालो दानवेश्वरपूजितम्।
गर्जन्तं प्रतपन्तं च कमन्यं नागमिष्यति ॥ ४० ॥

मूलम्

मां चेदभ्यागतः कालो दानवेश्वरपूजितम्।
गर्जन्तं प्रतपन्तं च कमन्यं नागमिष्यति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन मैं दानवेश्वरोंद्वारा पूजित था और मैं भी गर्जता तथा अपना प्रताप सर्वत्र फैलाता था। जब मुझपर भी कालका आक्रमण हुआ है, तब दूसरे किसपर वह आक्रमण नहीं करेगा?॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वादशानां तु भवतामादित्यानां महात्मनाम्।
तेजांस्येकेन सर्वेषां देवराज धृतानि मे ॥ ४१ ॥

मूलम्

द्वादशानां तु भवतामादित्यानां महात्मनाम्।
तेजांस्येकेन सर्वेषां देवराज धृतानि मे ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! तुमलोग जो बारह महात्मा आदित्य कहलाते हो, तुम सब लोगोंके तेज मैंने अकेले धारण कर रखे थे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेवोद्वहाम्यापो विसृजामि च वासव।
तपामि चैव त्रैलोक्यं विद्योताम्यहमेव च ॥ ४२ ॥

मूलम्

अहमेवोद्वहाम्यापो विसृजामि च वासव।
तपामि चैव त्रैलोक्यं विद्योताम्यहमेव च ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! मैं ही सूर्य बनकर अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीका जल ऊपर उठाता और मेघ बनकर वर्षा करता था। मैं ही त्रिलोकीको ताप देता और विद्युत् बनकर प्रकाश फैलाता था॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरक्षामि विलुम्पामि ददाम्यहमथाददे ।
संयच्छामि नियच्छामि लोकेषु प्रभुरीश्वरः ॥ ४३ ॥

मूलम्

संरक्षामि विलुम्पामि ददाम्यहमथाददे ।
संयच्छामि नियच्छामि लोकेषु प्रभुरीश्वरः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं प्रजाकी रक्षा करता था और लुटेरोंको लूट भी लेता था। मैं सदा दान देता और प्रजासे कर लेता था। मैं ही सम्पूर्ण लोकोंका शासक और प्रभु होकर सबको संयम-नियममें रखता था॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्य विनिवृत्तं मे प्रभुत्वममराधिप।
कालसैन्यावगाढस्य सर्वं न प्रतिभाति मे ॥ ४४ ॥

मूलम्

तदद्य विनिवृत्तं मे प्रभुत्वममराधिप।
कालसैन्यावगाढस्य सर्वं न प्रतिभाति मे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमरेश्वर! आज मेरी वह प्रभुता समाप्त हो गयी। कालकी सेनासे मैं आक्रान्त हो गया हूँ; अतः मेरा वह सब ऐश्वर्य अब प्रकाशित नहीं हो रहा है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं कर्ता न चैव त्वं नान्यः कर्ता शचीपते।
पर्यायेण हि भुज्यन्ते लोकाः शक्र यदृच्छया ॥ ४५ ॥

मूलम्

नाहं कर्ता न चैव त्वं नान्यः कर्ता शचीपते।
पर्यायेण हि भुज्यन्ते लोकाः शक्र यदृच्छया ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपति इन्द्र! न मैं कर्ता हूँ, न तुम कर्ता हो और न कोई दूसरा ही कर्ता है। काल बारी-बारीसे अपनी इच्छाके अनुसार सम्पूर्ण लोकोंका उपभोग करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासमासार्धवेश्मानमहोरात्राभिसंवृतम् ।
ऋतुद्वारं वर्षमुखमायुर्वेदविदो जनाः ॥ ४६ ॥

मूलम्

मासमासार्धवेश्मानमहोरात्राभिसंवृतम् ।
ऋतुद्वारं वर्षमुखमायुर्वेदविदो जनाः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदवेत्ता पुरुष कहते हैं कि मास और पक्ष कालके आवास (शरीर) हैं। दिन और रात उसके आवरण (वस्त्र) हैं। ऋतुएँ द्वार (मन-इन्द्रिय) हैं और वर्ष मुख है। वह काल आयुस्वरूप है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुः सर्वमिदं चिन्त्यं जनाः केचिन्मनीषया।
अस्याः पञ्चैव चिन्तायाः पर्येष्यामि च पञ्चधा ॥ ४७ ॥

मूलम्

आहुः सर्वमिदं चिन्त्यं जनाः केचिन्मनीषया।
अस्याः पञ्चैव चिन्तायाः पर्येष्यामि च पञ्चधा ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ विद्वान् अपनी बुद्धिके बलसे कहते हैं कि यह सब कुछ कालसंज्ञक ब्रह्म है। इसका इसी रूपमें चिन्तन करना चाहिये। इस चिन्तनके मास आदि उपर्युक्त पाँच ही विषय हैं। मैं पूर्वोक्त पाँच भेदोंसे युक्त कालको जानता हूँ॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्भीरं गहनं ब्रह्म महत्तोयार्णवं यथा।
अनादिनिधनं चाहुरक्षरं क्षरमेव च ॥ ४८ ॥

मूलम्

गम्भीरं गहनं ब्रह्म महत्तोयार्णवं यथा।
अनादिनिधनं चाहुरक्षरं क्षरमेव च ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कालरूप ब्रह्म अनन्त जलसे भरे हुए महासागरके समान गम्भीर एवं गहन है। उसका कहीं आदि-अन्त नहीं है। उसे ही क्षर एवं अक्षररूप बताया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वेषु लिङ्गमावेश्य निर्लिङ्गमपि तत् स्वयम्।
मन्यन्ते ध्रुवमेवैनं ये जनास्तत्त्वदर्शिनः ॥ ४९ ॥

मूलम्

सत्त्वेषु लिङ्गमावेश्य निर्लिङ्गमपि तत् स्वयम्।
मन्यन्ते ध्रुवमेवैनं ये जनास्तत्त्वदर्शिनः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग तत्त्वदर्शी हैं, वे निश्चितरूपसे ऐसा मानते हैं कि वह कालरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं निराकार होते हुए भी समस्त प्राणियोंके भीतर जीवका प्रवेश कराता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतानां तु विपर्यासं कुरुते भगवानिति।
न ह्येतावद् भवेद् गम्यं न यस्मात् प्रभवेत्‌ पुनः॥५०॥

मूलम्

भूतानां तु विपर्यासं कुरुते भगवानिति।
न ह्येतावद् भवेद् गम्यं न यस्मात् प्रभवेत्‌ पुनः॥५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् काल ही समस्त प्राणियोंकी अवस्थामें उलट-फेर कर देते हैं। कोई भी व्यक्ति उनके इस माहात्म्यको समझ नहीं पाता। कालकी ही महिमासे पराजित होकर मनुष्य कुछ भी कर नहीं पाता॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिं हि सर्वभूतानामगत्वा क्व गमिष्यति।
यो धावता न हातव्यस्तिष्ठन्नपि न हीयते ॥ ५१ ॥
तमिन्द्रियाणि सर्वाणि नानुपश्यन्ति प्रञ्चधा।
आहुश्चैनं केचिदग्निं केचिदाहुः प्रजापतिम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

गतिं हि सर्वभूतानामगत्वा क्व गमिष्यति।
यो धावता न हातव्यस्तिष्ठन्नपि न हीयते ॥ ५१ ॥
तमिन्द्रियाणि सर्वाणि नानुपश्यन्ति प्रञ्चधा।
आहुश्चैनं केचिदग्निं केचिदाहुः प्रजापतिम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! समस्त प्राणियोंकी गति जो काल है, उसको प्राप्त हुए बिना तुम कहाँ जाओगे? मनुष्य भागकर भी उसे छोड़ नहीं सकता—उससे दूर नहीं जा सकता और न खड़ा होकर ही उसके चंगुलसे छूट सकता है। श्रवण आदि समस्त इन्द्रियाँ मास-पक्ष आदि पाँच भेदोंसे युक्त उस कालका अनुभव नहीं कर पातीं। कुछ लोग इन कालदेवताको अग्नि कहते हैं और कुछ प्रजापति॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतून् मासार्धमासांश्च दिवसांश्च क्षणांस्तथा।
पूर्वाह्णमपराह्णं च मध्याह्नमपि चापरे ॥ ५३ ॥
मुहूर्तमपि चैवाहुरेकं सन्तमनेकधा ।
तं कालमिति जानीहि यस्य सर्वमिदं वशे ॥ ५४ ॥

मूलम्

ऋतून् मासार्धमासांश्च दिवसांश्च क्षणांस्तथा।
पूर्वाह्णमपराह्णं च मध्याह्नमपि चापरे ॥ ५३ ॥
मुहूर्तमपि चैवाहुरेकं सन्तमनेकधा ।
तं कालमिति जानीहि यस्य सर्वमिदं वशे ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे लोग उस कालको ऋतु, मास, पक्ष, दिन, क्षण, पूर्वाह्ण, अपराह्ण और मध्याह्न कहते हैं। उसीको विद्वान् पुरुष मुहूर्त भी कहते हैं। वह एक होकर भी अनेक प्रकारका बताया जाता है। इन्द्र! तुम उस कालको इस प्रकार जानो। यह सारा जगत् उसीके अधीन है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनीन्द्रसहस्राणि समतीतानि वासव ।
बलवीर्योपपन्नानि यथैव त्वं शचीपते ॥ ५५ ॥

मूलम्

बहूनीन्द्रसहस्राणि समतीतानि वासव ।
बलवीर्योपपन्नानि यथैव त्वं शचीपते ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपति इन्द्र! जैसे तुम हो, वैसे ही बल और पराक्रमसे सम्पन्न अनेक सहस्र इन्द्र समाप्त हो चुके हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामप्यतिबलं शक्र देवराजं बलोत्कटम्।
प्राप्ते काले महावीर्यः कालः संशमयिष्यति ॥ ५६ ॥

मूलम्

त्वामप्यतिबलं शक्र देवराजं बलोत्कटम्।
प्राप्ते काले महावीर्यः कालः संशमयिष्यति ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्र! तुम अपनेको अत्यन्त शक्तिशाली और उत्कट बलसे युक्त देवराज समझते हो; परंतु समय आनेपर महापराक्रमी काल तुम्हें भी शान्त कर देगा॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इदं सर्वमादत्ते तस्माच्छक्र स्थिरो भव।
मया त्वया च पूर्वैश्च न स शक्योऽतिवर्तितुम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

य इदं सर्वमादत्ते तस्माच्छक्र स्थिरो भव।
मया त्वया च पूर्वैश्च न स शक्योऽतिवर्तितुम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! वह काल ही सम्पूर्ण जगत्‌को अपने वशमें कर लेता है; अतः तुम भी स्थिर रहो। मैं, तुम तथा हमारे पूर्वज भी कालकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यामेतां प्राप्य जानीषे राज्यश्रियमनुत्तमाम्।
स्थिता मयीति तन्मिथ्या नैषा ह्येकत्र तिष्ठति ॥ ५८ ॥

मूलम्

यामेतां प्राप्य जानीषे राज्यश्रियमनुत्तमाम्।
स्थिता मयीति तन्मिथ्या नैषा ह्येकत्र तिष्ठति ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम जिस इस परम उत्तम राजलक्ष्मीको पाकर यह जानते हो कि यह मेरे पास स्थिरभावसे रहेगी, तुम्हारी यह धारणा मिथ्या है; क्योंकि यह कहीं एक जगह बँधकर नहीं रहती है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिता हीन्द्र सहस्रेषु त्वद्विशिष्टतमेष्वियम्।
मां च लोला परित्यज्य त्वामगाद् विबुधाधिप ॥ ५९ ॥

मूलम्

स्थिता हीन्द्र सहस्रेषु त्वद्विशिष्टतमेष्वियम्।
मां च लोला परित्यज्य त्वामगाद् विबुधाधिप ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! यह लक्ष्मी तुमसे भी श्रेष्ठ सहस्रों पुरुषोंके पास रह चुकी है। देवेश्वर! इस समय यह चंचला मुझे भी छोड़कर तुम्हारे पास गयी है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैवं शक्र पुनः कार्षीः शान्तो भवितुमर्हसि।
त्वामप्येवंविधं ज्ञात्वा क्षिप्रमन्यं गमिष्यति ॥ ६० ॥

मूलम्

मैवं शक्र पुनः कार्षीः शान्तो भवितुमर्हसि।
त्वामप्येवंविधं ज्ञात्वा क्षिप्रमन्यं गमिष्यति ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्र! अब फिर तुम ऐसा बर्ताव न करना। अब तुमको शान्ति धारण कर लेनी चाहिये। तुम्हें भी मेरी-जैसी स्थितिमें जानकर यह लक्ष्मी शीघ्र किसी दूसरेके पास चली जायगी॥६०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि बलिवासवसंवादे चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें बलि और इन्द्रका संवादविषयक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२४॥