भागसूचना
द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सनत्कुमारजीका ऋषियोंको भगवत्स्वरूपका उपदेश देना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिदाहुर्द्विजा लोके त्रिधा राजन्ननेकधा।
न प्रत्ययो न चान्यच्च दृश्यते ब्रह्म नैव तत्॥
नानाविधानि शास्त्राणि युक्ताश्चैव पृथग्विधाः।
किमधिष्ठाय तिष्ठामि तन्मे ब्रूहि पितामह॥
मूलम्
केचिदाहुर्द्विजा लोके त्रिधा राजन्ननेकधा।
न प्रत्ययो न चान्यच्च दृश्यते ब्रह्म नैव तत्॥
नानाविधानि शास्त्राणि युक्ताश्चैव पृथग्विधाः।
किमधिष्ठाय तिष्ठामि तन्मे ब्रूहि पितामह॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— राजन्! जगत्में कुछ विद्वान् जड और चेतन अथवा प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वोंका प्रतिपादन करते हैं। कुछ लोग जीव, ईश्वर और प्रकृति—इन तीन तत्त्वोंका वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान् अनेक तत्त्वोंका निरूपण करते रहते हैं; अतः कहीं न विश्वास किया जा सकता है, न अविश्वास। इसके सिवा वह परब्रह्म परमात्मा दिखायी नहीं देता है। नाना प्रकारके शास्त्र हैं और भिन्न-भिन्न प्रकारसे उनका वर्णन किया गया है; इसलिये पितामह! मैं किस सिद्धान्तका आश्रय लेकर रहूँ, यह मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वे स्वे युक्ता महात्मानः शास्त्रेषु प्रभविष्णवः।
वर्तन्ते पण्डिता लोके को विद्वान् कश्च पण्डितः॥
मूलम्
स्वे स्वे युक्ता महात्मानः शास्त्रेषु प्रभविष्णवः।
वर्तन्ते पण्डिता लोके को विद्वान् कश्च पण्डितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! शास्त्रोंके विचारमें प्रभावशाली सभी महात्मा अपने-अपने सिद्धान्तके प्रतिपादनमें स्थित हैं। ऐसे पण्डित इस जगत्में बहुत हैं; परंतु उनमें वास्तवमें कौन तत्त्वको जाननेवाला विद्वान् है और कौन शास्त्रचर्चामें पण्डित है? यह कहना कठिन है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां तत्त्वमज्ञाय यथारुचि तथा भवेत्।
अस्मिन्नर्थे पुराभूतमितिहासं पुरातनम् ॥
महाविवादसंयुक्तमृषीणां भावितात्मनाम् ।
मूलम्
सर्वेषां तत्त्वमज्ञाय यथारुचि तथा भवेत्।
अस्मिन्नर्थे पुराभूतमितिहासं पुरातनम् ॥
महाविवादसंयुक्तमृषीणां भावितात्मनाम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सबके तत्त्वको भलीभाँति समझकर जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार आचरण करे। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है। एक समय बहुत-से भावितात्मा मुनियोंका इसी विषयको लेकर आपसमें बड़ा भारी वाद-विवाद हुआ था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमवत्पार्श्व आसीना ऋषयः संशितव्रताः॥
षण्णां तानि सहस्राणि ऋषीणां गणमाहितम्।
मूलम्
हिमवत्पार्श्व आसीना ऋषयः संशितव्रताः॥
षण्णां तानि सहस्राणि ऋषीणां गणमाहितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
हिमालय पर्वतके पार्श्वभागमें कठोर व्रतका पालन करनेवाले छः हजार ऋषियोंकी एक बैठक हुई थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र केचिद् ध्रुवं विश्वं सेश्वरं तु निरीश्वरम्।
प्राकृतं कारणं नास्ति सर्वं नैवमिदं जगत्॥
मूलम्
तत्र केचिद् ध्रुवं विश्वं सेश्वरं तु निरीश्वरम्।
प्राकृतं कारणं नास्ति सर्वं नैवमिदं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे कुछ लोग इस जगत्को ध्रुव (सदा रहनेवाला) बताते थे, कुछ इसे ईश्वरसहित कहते थे और कुछ लोग बिना ईश्वरके ही जगत्की उत्पत्तिका प्रतिपादन करते थे। कुछ लोगोंका कहना था कि इसका कोई प्राकृत कारण नहीं है तथा कुछ लोगोंका मत यह था कि वास्तवमें इस सम्पूर्ण जगत्की सत्ता है ही नहीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन चापरे विप्राः स्वभावं कर्म चापरे।
पौरुषं कर्म दैवं च यत् स्वभावादिरेव तम्॥
मूलम्
अनेन चापरे विप्राः स्वभावं कर्म चापरे।
पौरुषं कर्म दैवं च यत् स्वभावादिरेव तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार दूसरे ब्राह्मणोंमेंसे कुछ लोग स्वभावको, कितने ही कर्मको, बहुतेरे पुरुषार्थको, दूसरे लोग दैवको और अन्य बहुत-से लोग स्वभाव-कर्म आदि सभीको जगत्का कारण बताते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाहेतुशतैर्युक्ता नानाशास्त्रप्रवर्तकाः ।
स्वभावाद् ब्राह्मणा राजञ्जिगीषन्तः परस्परम्॥
मूलम्
नानाहेतुशतैर्युक्ता नानाशास्त्रप्रवर्तकाः ।
स्वभावाद् ब्राह्मणा राजञ्जिगीषन्तः परस्परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे नाना प्रकारके शास्त्रोंके प्रवर्तक थे तथा अनेक प्रकारकी सैकड़ों युक्तियोंद्वारा अपने मतका पोषण करते थे। राजन्! वे सभी ब्राह्मण स्वभावसे ही इस शास्त्रार्थमें एक दूसरेको पराजित करनेकी इच्छा करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु मूलमुद्भूतं वादिप्रत्यर्थिसंयुतम् ।
पात्रदण्डविघातं च वल्कलाजिनवाससाम् ॥
एके मन्युसमापन्नास्ततः शान्ता द्विजोत्तमाः।
वशिष्ठमब्रुवन् सर्वे त्वं नो ब्रूहि सनातनम्॥
नाहं जानामि विप्रेन्द्राः प्रत्युवाच स तान् प्रभुः।
मूलम्
ततस्तु मूलमुद्भूतं वादिप्रत्यर्थिसंयुतम् ।
पात्रदण्डविघातं च वल्कलाजिनवाससाम् ॥
एके मन्युसमापन्नास्ततः शान्ता द्विजोत्तमाः।
वशिष्ठमब्रुवन् सर्वे त्वं नो ब्रूहि सनातनम्॥
नाहं जानामि विप्रेन्द्राः प्रत्युवाच स तान् प्रभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन वादी और प्रतिवादियोंमें मूलभूत प्रश्नको लेकर बड़ा भारी वाद-विवाद खड़ा हो गया। उनमेंसे कितने ही क्रोधमें भरकर एक दूसरेके पात्र, दण्ड, वल्कल, मृगचर्म और वस्त्रोंको भी नष्ट करने लगे। तत्पश्चात् शान्त होनेपर वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण महर्षि वशिष्ठसे बोले—‘प्रभो! आप ही हमें सनातन तत्त्वका उपदेश करें।’ यह सुनकर वशिष्ठने उत्तर दिया—‘विप्रवरो! मैं उस सनातन तत्त्वके विषयमें कुछ नहीं जानता’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सर्वे सहिता विप्रा नारदमृषिमब्रुवन्॥
त्वं नो ब्रूहि महाभाग तत्त्वविच्च भवानसि।
मूलम्
ते सर्वे सहिता विप्रा नारदमृषिमब्रुवन्॥
त्वं नो ब्रूहि महाभाग तत्त्वविच्च भवानसि।
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे सब ब्राह्मण एक साथ नारदमुनिसे बोले—‘महाभाग! आप ही हमें सनातन तत्त्वका उपदेश करें; क्योंकि आप तत्त्ववेत्ता हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं द्विजा विजानामि क्व हि गच्छाम संगताः॥
इति तानाह भगवांस्ततः प्राह च स द्विजान्।
को विद्वानिह लोकेऽस्मिन्नमोहोऽमृतमद्भुतम् ॥
मूलम्
नाहं द्विजा विजानामि क्व हि गच्छाम संगताः॥
इति तानाह भगवांस्ततः प्राह च स द्विजान्।
को विद्वानिह लोकेऽस्मिन्नमोहोऽमृतमद्भुतम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् नारदने उन ब्राह्मणोंसे कहा—‘विप्रगण! मैं उस तत्त्वको नहीं जानता। हम सब लोग मिलकर कहीं और चलें। इस जगत्में कौन ऐसा विद्वान् है, जिसमें मोह न हो तथा जो उस अद्भुत अमृततत्त्वके प्रतिपादनमें समर्थ हो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च ते शुश्रुवुर्वाक्यं ब्राह्मणा ह्यशरीरिणः।
सनद्धाम द्विजा गत्वा पृच्छध्वं स च वक्ष्यति॥
मूलम्
तच्च ते शुश्रुवुर्वाक्यं ब्राह्मणा ह्यशरीरिणः।
सनद्धाम द्विजा गत्वा पृच्छध्वं स च वक्ष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बातचीत हो ही रही थी कि उन ब्राह्मणोंने किसी अदृश्य देवताकी बात सुनी—‘ब्राह्मणो! सनत्कुमारके आश्रमपर जाकर पूछो। वे तुम्हें तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह कश्चिद् द्विजवर्यसत्तमो
विभाण्डको मण्डितवेदराशिः ।
कस्त्वं भवानर्थविभेदमध्ये
न दृश्यसे वाक्यमुदीरयंश्च ॥
मूलम्
तमाह कश्चिद् द्विजवर्यसत्तमो
विभाण्डको मण्डितवेदराशिः ।
कस्त्वं भवानर्थविभेदमध्ये
न दृश्यसे वाक्यमुदीरयंश्च ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वेदराशिके ज्ञानसे सुशोभित विभाण्डक नामक किन्हीं ब्राह्मणशिरोमणिने उस अदृश्य देवतासे पूछा—‘हम लोगोंमें तत्त्वके विषयमें मतभेद उत्पन्न हो गया है; ऐसी स्थितिमें आप कौन हैं, जो बात तो कर रहे हैं, किंतु दीखते नहीं हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाहेदं तं भगवान् सनन्तं
महामुने विद्धि मां पण्डितोऽसि।
ऋषिं पुराणं सततैकरूपं
यमक्षयं वेदविदो वदन्ति ।
मूलम्
अथाहेदं तं भगवान् सनन्तं
महामुने विद्धि मां पण्डितोऽसि।
ऋषिं पुराणं सततैकरूपं
यमक्षयं वेदविदो वदन्ति ।
अनुवाद (हिन्दी)
(भीष्मजी कहते हैं—राजन्!) तब भगवान् सनत्कुमारने उनसे कहा—‘महामुने! तुम तो पण्डित हो। तुम मुझे सदा एकरूपसे ही विचरण करनेवाला पुरातन ऋषि सनत्कुमार समझो। मैं वही हूँ, जिसे वेदवेत्ता पुरुष अक्षय बताते हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनस्तमाहेदमसौ महात्मा
स्वरूपसंस्थं वद आह पार्थ।
त्वमेकोऽस्मदृषिपुङ्गवाद्य
न सत्स्वरूपमथवा पुनः किम्॥
मूलम्
पुनस्तमाहेदमसौ महात्मा
स्वरूपसंस्थं वद आह पार्थ।
त्वमेकोऽस्मदृषिपुङ्गवाद्य
न सत्स्वरूपमथवा पुनः किम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! तब उन महात्मा विभाण्डकने पुनः उनसे कहा—‘आदिमुनिप्रवर! आप अपने स्वरूपका परिचय दीजिये। केवल आप ही हमसे विलक्षण जान पड़ते हैं, आपका स्वरूप हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं है। अथवा यदि आपका भी कोई स्वरूप है तो वह कैसा है?’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाह गम्भीरतरानुपादं
वाक्यं महात्मा ह्यशरीर आदिः।
न ते मुने श्रोत्रमुखेऽपि चास्यं
न पादहस्तौ प्रपदात्मकेन ॥
मूलम्
अथाह गम्भीरतरानुपादं
वाक्यं महात्मा ह्यशरीर आदिः।
न ते मुने श्रोत्रमुखेऽपि चास्यं
न पादहस्तौ प्रपदात्मकेन ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस अदृश्य आदि-महात्माने गम्भीर स्वरमें यह बात कही—‘मुने! तुम्हारे न तो कान है, न मुख है, न हाथ है, न पैर है और न पैरोंके पंजे ही हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रुवन् मुनीन् सत्यमथो निरीक्ष्य
स्वमाह विद्वान् मनसा निगम्य।
ऋषे कथं वाक्यमिदं ब्रवीषि
न चास्य मन्ता न च विद्यते चेत्॥
न शुश्रुवुस्ततस्तत् तु प्रतिवाक्यं द्विजोत्तमाः।
निरीक्ष्यमाणा आकाशं प्रहसन्तस्ततस्ततः ॥
मूलम्
ब्रुवन् मुनीन् सत्यमथो निरीक्ष्य
स्वमाह विद्वान् मनसा निगम्य।
ऋषे कथं वाक्यमिदं ब्रवीषि
न चास्य मन्ता न च विद्यते चेत्॥
न शुश्रुवुस्ततस्तत् तु प्रतिवाक्यं द्विजोत्तमाः।
निरीक्ष्यमाणा आकाशं प्रहसन्तस्ततस्ततः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंसे बातचीत करते हुए विद्वान् विभाण्डकने अपने विषयमें जब यह सब सत्य देखा तो मन-ही-मन विचार करके कहा—‘ऋषे! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? यदि इसको जाननेवाला या न जाननेवाला कोई न रहे, तब क्या होगा?’ परंतु इसका उत्तर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको फिर नहीं सुनायी दिया। वे हँसते हुए आकाशकी ओर देखते ही रह गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्चर्यमिति मत्वा ते ययुर्हैमं महागिरिम्।
सनत्कुमारसंकाशं सगणा मुनिसत्तमाः ॥
मूलम्
आश्चर्यमिति मत्वा ते ययुर्हैमं महागिरिम्।
सनत्कुमारसंकाशं सगणा मुनिसत्तमाः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है’ ऐसा मानकर वे सभी मुनिश्रेष्ठ दल-बलसहित सुवर्णमय महागिरि मेरुपर सनत्कुमारजीके पास गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पर्वतं समारुह्य ददृशुर्ध्यानमाश्रिताः।
कुमारं देवमर्हन्तं वेदपाराविवर्जितम् ॥
मूलम्
तं पर्वतं समारुह्य ददृशुर्ध्यानमाश्रिताः।
कुमारं देवमर्हन्तं वेदपाराविवर्जितम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्वतपर आरूढ़ हो ध्यानका आश्रय ले उन ऋषियोंने पूजनीय देव सनत्कुमारको देखा, जो निरन्तर वेदके पारायणमें लगे हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संवत्सरे पूर्णे प्रकृतिस्थं महामुनिम्।
सनत्कुमारं राजेन्द्र प्रणिपत्य द्विजाः स्थिताः॥
आगतान् भगवानाह ज्ञाननिर्धूतकल्मषः ।
ज्ञातं मया मुनिगणा वाक्यं तदशरीरिणः॥
कार्यमद्य यथाकामं पृच्छध्वं मुनिपुङ्गवाः।
मूलम्
ततः संवत्सरे पूर्णे प्रकृतिस्थं महामुनिम्।
सनत्कुमारं राजेन्द्र प्रणिपत्य द्विजाः स्थिताः॥
आगतान् भगवानाह ज्ञाननिर्धूतकल्मषः ।
ज्ञातं मया मुनिगणा वाक्यं तदशरीरिणः॥
कार्यमद्य यथाकामं पृच्छध्वं मुनिपुङ्गवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! एक वर्ष पूर्ण होनेपर जब महामुनि सनत्कुमार प्रकृतिस्थ हुए, तब वे ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये। ज्ञानसे जिनके सारे पाप धुल गये थे, उन भगवान् सनत्कुमारने वहाँ पधारे हुए ऋषियोंसे कहा—‘मुनिगण! अदृश्य देवताने जो बात कही है, वह मुझे ज्ञात है; अतः आज आपलोगोंके प्रश्नोंका उत्तर देना है। मुनिवरो! आप इच्छानुसार प्रश्न करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रुवन् प्राञ्जलयो महामुनिं
द्विजोत्तमं ज्ञाननिधिं सुनिर्मलम् ।
कथं वयं ज्ञाननिधिं वरेण्यं
यक्ष्यामहे विश्वरूपं कुमार ॥
मूलम्
तमब्रुवन् प्राञ्जलयो महामुनिं
द्विजोत्तमं ज्ञाननिधिं सुनिर्मलम् ।
कथं वयं ज्ञाननिधिं वरेण्यं
यक्ष्यामहे विश्वरूपं कुमार ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(भीष्मजी कहते हैं—) तब उन ब्राह्मणोंने हाथ जोड़कर परम निर्मल ज्ञाननिधि द्विजश्रेष्ठ महामुनि सनत्कुमारसे कहा—‘कुमार! हमलोग ज्ञानके भण्डार और सर्वश्रेष्ठ विश्वरूप परमेश्वरका किस प्रकार यजन करें?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद नो भगवन् ज्ञानलेशं
मधु प्रयाताय सुखाय सन्तः।
यत् तत्पदं विश्वरूपं महामुने
तत्र ब्रूहि किं कुत्र महानुभाव॥
मूलम्
प्रसीद नो भगवन् ज्ञानलेशं
मधु प्रयाताय सुखाय सन्तः।
यत् तत्पदं विश्वरूपं महामुने
तत्र ब्रूहि किं कुत्र महानुभाव॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! महामुने! महानुभाव! आप हमपर प्रसन्न होइये और हमें ज्ञानरूपी मधुर अमृतका लेशमात्र दान दीजिये; क्योंकि संत अपने शरणागतोंको सदा सुख देते हैं। वह जो विश्वरूप पद है, वह क्या है? यह हमें बताइये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैर्वियुक्तो भगवान् महात्मा
यः संगवान् सत्यवित् तच्छृणुष्व।
मूलम्
स तैर्वियुक्तो भगवान् महात्मा
यः संगवान् सत्यवित् तच्छृणुष्व।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार विशेष अनुरोध करनेपर परब्रह्म परमात्मामें आसक्तचित्त सत्यवेत्ता महात्मा भगवान् सनत्कुमारने जो कुछ कहा, उसे सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकसाहस्रकलेषु चैव
प्रसन्नधातुं च शुभाज्ञया सत्॥
मूलम्
अनेकसाहस्रकलेषु चैव
प्रसन्नधातुं च शुभाज्ञया सत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अनेक सहस्र ऋषियोंके बीचमें बैठे थे। उन्होंने उनके शुभ निवेदनसे सत्स्वरूप आनन्दमय परमेश्वरका इस प्रकार प्रतिपादन प्रारम्भ किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाह पूर्वं युष्मासु ह्यशरीरी द्विजोत्तमाः।
तथैव वाक्यं तत् सत्यमजानन्तश्च कीर्तितम्॥
मूलम्
यथाह पूर्वं युष्मासु ह्यशरीरी द्विजोत्तमाः।
तथैव वाक्यं तत् सत्यमजानन्तश्च कीर्तितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमार बोले— द्विजोत्तमो! आपलोगोंके बीचमें पहले अदृश्य देवताने जो कुछ कहा था, उनका वह कथन उसी रूपमें सत्य है। आपलोगोंने उसे न जानते हुए ही उसके साथ वार्तालाप किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुध्वं परमं कारणमस्ति। स एव सर्वं विद्वान् बिभेति न गच्छति। कुत्राहं कस्य नाहं केन केनेत्यवर्तमानो विजानाति।
मूलम्
शृणुध्वं परमं कारणमस्ति। स एव सर्वं विद्वान् बिभेति न गच्छति। कुत्राहं कस्य नाहं केन केनेत्यवर्तमानो विजानाति।
अनुवाद (हिन्दी)
सुनिये, वह विश्वरूप परमात्मा सबका परम कारण है। जो उस सर्वस्वरूप परमेश्वरको जानता है, वह न तो भयभीत होता है और न कहीं जाता है। मैं कहाँ हूँ? किसका हूँ? किसका नहीं हूँ? किस-किस साधनसे कार्य करता हूँ? इत्यादि विचारोंमें न पड़कर परमात्माको अनुभव करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स युगतो व्यापी । स पृथक् स्थितः । तदपरमार्थम् ।
मूलम्
स युगतो व्यापी । स पृथक् स्थितः । तदपरमार्थम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह परमात्मा युग-युगमें व्यापक है। वह जडात्मक प्रपंचसे अत्यन्त भिन्न रूपमें पृथक् स्थित है। उस परमात्मासे भिन्न जो कोई भी जड वस्तु है, उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वायुरेकः सन् बहुधेरितः। यथावद् द्विजे मृगे व्याघ्रे च। मनुजे वेणुसंश्रयो भिद्यते वायुरर्थैकः। आत्मा तथासौ परमात्मासावन्य इव भाति।
मूलम्
यथा वायुरेकः सन् बहुधेरितः। यथावद् द्विजे मृगे व्याघ्रे च। मनुजे वेणुसंश्रयो भिद्यते वायुरर्थैकः। आत्मा तथासौ परमात्मासावन्य इव भाति।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वायु एक होकर भी अनेक रूपोंमें संचरित होता है। पक्षी, मृग, व्याघ्र और मनुष्यमें तथा वेणुमें यथार्थ रूपसे स्थित होकर एक ही वायुके भिन्न-भिन्न स्वरूप हो जाते हैं। जो आत्मा है वही परमात्मा है; परंतु वह जीवात्मासे भिन्न-सा जान पड़ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमात्मा स एव गच्छति। सर्वमात्मा पश्यन् शृणोति जिघ्रति भाषते।
मूलम्
एवमात्मा स एव गच्छति। सर्वमात्मा पश्यन् शृणोति जिघ्रति भाषते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वह आत्मा ही परमात्मा है। वही जाता है, वह आत्मा ही सबको देखता है, सबकी बातें सुनता है, सभी गंधोंको सूँघता है और सबसे बातचीत करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रेऽस्य तं महात्मानं परितो दश रश्मयः।
विनिष्क्रम्य यथासूर्यमनुगच्छति तं प्रभुम्॥
मूलम्
चक्रेऽस्य तं महात्मानं परितो दश रश्मयः।
विनिष्क्रम्य यथासूर्यमनुगच्छति तं प्रभुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेवके चक्रमें सब ओर दस-दस किरणें हैं, जो वहाँसे निकलकर महात्मा भगवान् सूर्यके पीछे-पीछे चलती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिने दिनेऽस्तमभ्येति पुनरुद्गच्छते दिशः।
तावुभौ न रवौ चास्तां तथा वित्त शरीरिणम्॥
मूलम्
दिने दिनेऽस्तमभ्येति पुनरुद्गच्छते दिशः।
तावुभौ न रवौ चास्तां तथा वित्त शरीरिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेव प्रतिदिन अस्त होते और पुनः पूर्वदिशामें उदित होते हैं; परंतु वे उदय और अस्त दोनों ही सूर्यमें नहीं हैं। इसी प्रकार शरीरके अन्तर्गत अन्तर्यामीरूपसे जो भगवान् नारायण विराजमान हैं, उनको जानो (उनमें शरीर और अशरीरभाव सूर्यमें उदय-अस्तकी ही भाँति कल्पित हैं)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिते वित्त विप्रेन्द्रा भक्षणे चरणे परः।
ऊर्ध्वमेकस्तथाधस्तादेकस्तिष्ठति चापरः ॥
मूलम्
पतिते वित्त विप्रेन्द्रा भक्षणे चरणे परः।
ऊर्ध्वमेकस्तथाधस्तादेकस्तिष्ठति चापरः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवरो! आपलोगोंको गिरते-पड़ते, चलते-फिरते और खाते-पीते प्रत्येक कार्यके समय, ऊपर-नीचे आदि प्रत्येक देश और दिशामें एकमात्र भगवान् नारायण सर्वत्र विराज रहे हैं—ऐसा अनुभव करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यसदनं ज्ञेयं समेत्य परमं पदम्।
आत्मना ह्यात्मदीपं तमात्मनि ह्यात्मपूरुषम्॥
मूलम्
हिरण्यसदनं ज्ञेयं समेत्य परमं पदम्।
आत्मना ह्यात्मदीपं तमात्मनि ह्यात्मपूरुषम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका दिव्य सुवर्णमय धाम ही परमपद जानना चाहिये, उसे पाकर जीवन कृतार्थ हो जाता है। वह स्वयं ही अपना प्रकाशक और स्वयं ही अपने-आपमें अन्तर्यामी आत्मा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचितं संचितं पूर्वं भ्रमरो वर्तते भ्रमन्।
योऽभिमानीव जानाति न मुह्यति न हीयते॥
मूलम्
संचितं संचितं पूर्वं भ्रमरो वर्तते भ्रमन्।
योऽभिमानीव जानाति न मुह्यति न हीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भौंरा पहले रसका संचय कर लेता है तब फूलके चारों ओर चक्कर लगाने लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानी पुरुष देहाभिमानी-जैसा बनकर लोकसंग्रहके लिये सब विषयोंका अनुभव करता है वह न तो मोहमें पड़ता है और न क्षीण ही होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनं
हृदा मनीषा पश्यति रूपमस्य।
इज्यते यस्तु मन्त्रेण यजमानो द्विजोत्तमः॥
मूलम्
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनं
हृदा मनीषा पश्यति रूपमस्य।
इज्यते यस्तु मन्त्रेण यजमानो द्विजोत्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई भी उस परमात्माको अपने चर्मचक्षुओंसे नहीं देख सकता। अन्तःकरणमें स्थित निर्मल बुद्धिके द्वारा ही उसके रूपको ज्ञानी पुरुष देख पाता है। उस परमात्माका मन्त्रद्वारा यजन किया जाता है तथा श्रेष्ठ द्विज ही उसका यजन करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव धर्मी न चाधर्मी द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
ज्ञानतृप्तः सुखं शेते ह्यमृतात्मा न संशयः॥
मूलम्
नैव धर्मी न चाधर्मी द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
ज्ञानतृप्तः सुखं शेते ह्यमृतात्मा न संशयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अमृतस्वरूप परमात्मा न धर्मी है, न अधर्मी। वह द्वन्द्वोंसे अतीत और ईर्ष्या-द्वेषसे शून्य है। इसमें संदेह नहीं कि वह ज्ञानसे परितृप्त होकर सुखपूर्वक सोता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेष जगत्सृष्टिं कुरुते मायया प्रभुः।
न जानाति विमूढात्मा कारणं चात्मनो ह्यसौ॥
मूलम्
एवमेष जगत्सृष्टिं कुरुते मायया प्रभुः।
न जानाति विमूढात्मा कारणं चात्मनो ह्यसौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा ये भगवान् अपनी मायाद्वारा जगत्की सृष्टि करते हैं। जिसका हृदय मोहसे आच्छन्न है वह अपने कारणभूत परमात्माको नहीं जानता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्याता द्रष्टा तथा मन्ता बोद्धा दृष्टान् स एव सः।
को विद्वान् परमात्मानमनन्तं लोकभावनम्॥
यत्तु शक्यं मया प्रोक्तं गच्छध्वं मुनिपुङ्गवाः।
मूलम्
ध्याता द्रष्टा तथा मन्ता बोद्धा दृष्टान् स एव सः।
को विद्वान् परमात्मानमनन्तं लोकभावनम्॥
यत्तु शक्यं मया प्रोक्तं गच्छध्वं मुनिपुङ्गवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
वही ध्यान, दर्शन, मनन और देखी हुई वस्तुओंका बोध प्राप्त करनेवाला है। सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति करनेवाले उस अनन्त परमात्माको कौन जान सकता है? मुनिवरो! मुझसे जहाँतक हो सकता था मैंने इसका स्वरूप बता दिया। अब आपलोग जाइये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रणम्य विप्रेन्द्रा ज्ञानसागरसम्भवम्।
सनत्कुमारं संदृश्य जग्मुस्ते रुचिरं पुनः॥
मूलम्
एवं प्रणम्य विप्रेन्द्रा ज्ञानसागरसम्भवम्।
सनत्कुमारं संदृश्य जग्मुस्ते रुचिरं पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार ज्ञानके समुद्रकी उत्पत्तिके कारणभूत मनोहर आकृतिवाले सनत्कुमारको प्रणाम करके उनका दर्शन करनेके पश्चात् वे सब ऋषि-मुनि वहाँसे चले गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय ज्ञानयोगपरो भव।
ज्ञानमेव महाराज सर्वदुःखविनाशनम् ॥
मूलम्
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय ज्ञानयोगपरो भव।
ज्ञानमेव महाराज सर्वदुःखविनाशनम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महाराज कुन्तीनन्दन! तुम भी ज्ञानयोगके साधनमें तत्पर हो जाओ। ऐसा ज्ञान ही सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं महादुःखसमाकराणां
नृणां परित्राणविनिर्मितं पुरा ।
पुराणपुंसा ऋषिणा महात्मना
महामुनीनां प्रवरेण तद् ध्रुवम्॥)
मूलम्
इदं महादुःखसमाकराणां
नृणां परित्राणविनिर्मितं पुरा ।
पुराणपुंसा ऋषिणा महात्मना
महामुनीनां प्रवरेण तद् ध्रुवम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग महान् दुःखके आकर बने हुए हैं, उन मनुष्योंके परित्राणके लिये पूर्वकालमें पुराणपुरुष महात्मा महामुनिशिरोमणि नारायणऋषिने इस ज्ञानको प्रकट किया था, यह अविनाशी है॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं कर्म लोकेऽस्मिन् शुभं वा यदि वाशुभम्।
पुरुषं योजयत्येव फलयोगेन भारत ॥ ९ ॥
कर्तास्ति तस्य पुरुष उताहो नेति संशयः।
एतदिच्छामि तत्त्वेन त्वत्तः श्रोतुं पितामह ॥ २ ॥
मूलम्
यदिदं कर्म लोकेऽस्मिन् शुभं वा यदि वाशुभम्।
पुरुषं योजयत्येव फलयोगेन भारत ॥ ९ ॥
कर्तास्ति तस्य पुरुष उताहो नेति संशयः।
एतदिच्छामि तत्त्वेन त्वत्तः श्रोतुं पितामह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भारत! इस लोकमें जो यह शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, वह पुरुषको उसके सुख-दुःखरूप फल भोगनेमें लगा ही देता है; परंतु पुरुष उस कर्मका कर्ता है या नहीं, इस विषयमें मुझे संदेह है; अतः पितामह! मैं आपके द्वारा इसका तत्त्वयुक्त समाधान सुनना चाहता हूँ॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्रादस्य च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्रादस्य च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और प्रह्लादके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असक्तं धूतपाप्मानं कुले जातं बहुश्रुतम्।
अस्तब्धमनहङ्कारं सत्त्वस्थं समये रतम् ॥ ४ ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिं दान्तं शून्यागारनिवासिनम् ।
चराचराणां भूतानां विदितप्रभवाप्ययम् ॥ ५ ॥
अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमप्रियेषु प्रियेषु च ।
काञ्चने वाथ लोष्टे वा उभयोः समदर्शनम् ॥ ६ ॥
आत्मनि श्रेयसि ज्ञाने धीरं निश्चितनिश्चयम्।
परावरज्ञं भूतानां सर्वज्ञं समदर्शनम् ॥ ७ ॥
(भक्तं भागवतं नित्यं नारायणपरायणम्।
ध्यायन्तं परमात्मानं हिरण्यकशिपोः सुतम्॥)
शक्रः प्रह्रादमासीनमेकान्ते संयतेन्द्रियम् ।
बुभुत्समानस्तत्प्रज्ञामभिगम्येदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
मूलम्
असक्तं धूतपाप्मानं कुले जातं बहुश्रुतम्।
अस्तब्धमनहङ्कारं सत्त्वस्थं समये रतम् ॥ ४ ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिं दान्तं शून्यागारनिवासिनम् ।
चराचराणां भूतानां विदितप्रभवाप्ययम् ॥ ५ ॥
अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमप्रियेषु प्रियेषु च ।
काञ्चने वाथ लोष्टे वा उभयोः समदर्शनम् ॥ ६ ॥
आत्मनि श्रेयसि ज्ञाने धीरं निश्चितनिश्चयम्।
परावरज्ञं भूतानां सर्वज्ञं समदर्शनम् ॥ ७ ॥
(भक्तं भागवतं नित्यं नारायणपरायणम्।
ध्यायन्तं परमात्मानं हिरण्यकशिपोः सुतम्॥)
शक्रः प्रह्रादमासीनमेकान्ते संयतेन्द्रियम् ।
बुभुत्समानस्तत्प्रज्ञामभिगम्येदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीके मनमें किसी विषयके प्रति आसक्ति नहीं थी। उनके सारे पाप धुल गये थे। वे कुलीन और बहुश्रुत विद्वान् थे। वे गर्व और अहंकारसे रहित थे। वे धर्मकी मर्यादाके पालनमें तत्पर और शुद्ध सत्त्वगुणमें स्थित रहते थे। निन्दा और स्तुतिको समान समझते, मन और इन्द्रियोंको काबूमें रखते और एकान्त स्थानमें निवास करते थे। उन्हें चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाशका ज्ञान था। अप्रियकी प्राप्तिमें क्रोधयुक्त तथा प्रियकी प्राप्ति होनेपर हर्षयुक्त नहीं होते थे। मिट्टीके ढेले और सुवर्ण दोनोंमें उनकी समानदृष्टि थी। वे ज्ञानस्वरूप कल्याणमय परमात्माके ध्यानमें स्थित और धीर थे। उन्हें परमात्मतत्त्वका पूर्ण निश्चय हो गया था। उन्हें परावरस्वरूप ब्रह्मका पूर्ण ज्ञान था। वे सर्वज्ञ, सम्पूर्णभूत-प्राणियोंमें समदर्शी एवं जितेन्द्रिय थे। वे भगवान् नारायणके प्रिय भक्त और सदा उन्हींके चिन्तनमें तत्पर रहनेवाले थे। हिरण्यकशिपुनन्दन प्रह्लादजीको एकान्तमें बैठकर परमात्मा श्रीहरिका ध्यान करते देख इन्द्र उनकी बुद्धि और विचारको जाननेकी इच्छासे उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले—॥४-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैः कश्चित् सम्मतो लोके गुणैः स्यात् पुरुषो नृषु।
भवत्यनपगान् सर्वांस्तान् गुणाल्लँक्षयामहे ॥ ९ ॥
मूलम्
यैः कश्चित् सम्मतो लोके गुणैः स्यात् पुरुषो नृषु।
भवत्यनपगान् सर्वांस्तान् गुणाल्लँक्षयामहे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दैत्यराज! संसारमें जिन गुणोंको पाकर कोई भी पुरुष सम्मानित हो सकता है, उन सबको मैं आपके भीतर स्थिरभावसे स्थित देखता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ते लक्ष्यते बुद्धिः समा बालजनैरिह।
आत्मानं मन्यमानः सन् श्रेयः किमिह मन्यसे ॥ १० ॥
मूलम्
अथ ते लक्ष्यते बुद्धिः समा बालजनैरिह।
आत्मानं मन्यमानः सन् श्रेयः किमिह मन्यसे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपकी बुद्धि बालकोंके समान राग-द्वेषसे रहित दिखायी देती है। आप आत्माका अनुभव करते हैं, इसीलिये आपकी ऐसी स्थिति है; अतः मैं पूछता हूँ कि इस जगत्में आप किसको आत्मज्ञानका सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हैं?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद् द्विषतां वशमागतः।
श्रिया विहीनः प्रह्राद शोचितव्ये न शोचसि ॥ ११ ॥
मूलम्
बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद् द्विषतां वशमागतः।
श्रिया विहीनः प्रह्राद शोचितव्ये न शोचसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप रस्सियोंसे बाँधे गये, अपने राज्यसे भ्रष्ट हुए और शत्रुओंके वशमें पड़ गये थे। आप अपनी राज्यलक्ष्मीसे वंचित हो गये। प्रह्लादजी! ऐसी शोचनीय स्थितिमें पड़ जानेपर भी आप शोक नहीं कर रहे हैं?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञालाभात् तु दैतेय उताहो धृतिमत्तया।
प्रह्राद सुस्थरूपोऽसि पश्यन् व्यसनमात्मनः ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रज्ञालाभात् तु दैतेय उताहो धृतिमत्तया।
प्रह्राद सुस्थरूपोऽसि पश्यन् व्यसनमात्मनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रह्लादजी! आप अपने ऊपर संकट आया देखकर भी निश्चिन्त कैसे हैं? दैत्यराज! आपकी यह स्थिति आत्मज्ञानके कारण है या धैर्यके कारण?’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति संचोदितस्तेन धीरो निश्चितनिश्चयः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा स्वां प्रज्ञामनुवर्णयन् ॥ १३ ॥
मूलम्
इति संचोदितस्तेन धीरो निश्चितनिश्चयः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा स्वां प्रज्ञामनुवर्णयन् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके इस प्रकार पूछनेपर परमात्मतत्त्वको निश्चितरूपसे जाननेवाले धीरबुद्धि प्रह्लादजीने अपने ज्ञानका वर्णन करते हुए मधुर वाणीमें कहा॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च भूतानां यो न बुद्ध्यते।
तस्य स्तम्भो भवेद् बाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च भूतानां यो न बुद्ध्यते।
तस्य स्तम्भो भवेद् बाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजी बोले— देवराज! जो प्राणियोंकी प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानता, उसीको अविवेकके कारण स्तम्भ (जडता या मोह) होता है। जिसे आत्माका साक्षात्कार हो गया है, उसको कभी मोह नहीं होता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावात् सम्प्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तथैव च।
सर्वे भावास्तथाभावाः पुरुषार्थो न विद्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वभावात् सम्प्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तथैव च।
सर्वे भावास्तथाभावाः पुरुषार्थो न विद्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब तरहके भाव और अभाव स्वभावसे ही आते-जाते रहते हैं। उसके लिये पुरुषका कोई प्रयत्न नहीं होता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषार्थस्य चाभावे नास्ति कश्चिच्च कारकः।
स्वयं न कुर्वतस्तस्य जातु मानो भवेदिह ॥ १६ ॥
मूलम्
पुरुषार्थस्य चाभावे नास्ति कश्चिच्च कारकः।
स्वयं न कुर्वतस्तस्य जातु मानो भवेदिह ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषका प्रयत्न न होनेसे कोई पुरुष कर्ता नहीं हो सकता; परंतु स्वयं कभी न करते हुए भी उसे इस जगत्में कर्तापनका अभिमान हो जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु कर्तारमात्मानं मन्यते साध्वसाधु वा।
तस्य दोषवती प्रज्ञा अतत्त्वज्ञेति मे मतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
यस्तु कर्तारमात्मानं मन्यते साध्वसाधु वा।
तस्य दोषवती प्रज्ञा अतत्त्वज्ञेति मे मतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आत्माको शुभ या अशुभ कर्मोंका कर्ता मानता है, उसकी बुद्धि दोषसे युक्त और तत्त्वज्ञानसे रहित है—ऐसी मेरी मान्यता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि स्यात् पुरुषः कर्ता शक्रात्मश्रेयसे ध्रुवम्।
आरम्भास्तस्य सिद्ध्येयुर्न तु जातु परा भवेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
यदि स्यात् पुरुषः कर्ता शक्रात्मश्रेयसे ध्रुवम्।
आरम्भास्तस्य सिद्ध्येयुर्न तु जातु परा भवेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! यदि पुरुष ही कर्ता होता तो वह अपने कल्याणके लिये जो कुछ भी करता, उसके भी सारे कार्य अवश्य सिद्ध होते। उसे अपने प्रयत्नमें कभी पराभव नहीं प्राप्त होता॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टस्य हि निर्वृत्तिरनिर्वृत्तिः प्रियस्य च।
लक्ष्यते यतमानानां पुरुषार्थस्ततः कुतः ॥ १९ ॥
मूलम्
अनिष्टस्य हि निर्वृत्तिरनिर्वृत्तिः प्रियस्य च।
लक्ष्यते यतमानानां पुरुषार्थस्ततः कुतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु देखा यह जाता है कि इष्टसिद्धिके लिये प्रयत्न करनेवालोंको अनिष्टकी भी प्राप्ति होती है और इष्टकी सिद्धिसे वे वंचित रह जाते हैं; अतः पुरुषार्थकी प्रधानता कहाँ रही?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टस्याभिनिर्वृत्तिमिष्टसंवृत्तिमेव च ।
अप्रयत्नेन पश्यामः केषाञ्चित् तत्स्वभावतः ॥ २० ॥
मूलम्
अनिष्टस्याभिनिर्वृत्तिमिष्टसंवृत्तिमेव च ।
अप्रयत्नेन पश्यामः केषाञ्चित् तत्स्वभावतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही प्राणियोंको बिना किसी प्रयत्नके ही हमलोग अनिष्टकी प्राप्ति और इष्टका निवारण होते देखते हैं। यह बात स्वभावसे ही होती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिरूपतराः केचिद् दृश्यन्ते बुद्धिमत्तराः।
विरूपेभ्योऽल्पबुद्धिभ्यो लिप्समाना धनागमम् ॥ २१ ॥
मूलम्
प्रतिरूपतराः केचिद् दृश्यन्ते बुद्धिमत्तराः।
विरूपेभ्योऽल्पबुद्धिभ्यो लिप्समाना धनागमम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही सुन्दर और अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष भी कुरूप और अल्पबुद्धि मनुष्योंसे धन पानेकी आशा करते देखे जाते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावप्रेरिताः सर्वे निविशन्ते गुणा यदा।
शुभाशुभास्तदा तत्र कस्य किं मानकारणम् ॥ २२ ॥
मूलम्
स्वभावप्रेरिताः सर्वे निविशन्ते गुणा यदा।
शुभाशुभास्तदा तत्र कस्य किं मानकारणम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शुभ और अशुभ सभी प्रकारके गुण स्वभावकी ही प्रेरणासे प्राप्त होते हैं, तब किसीको भी उनपर अभिमान करनेका क्या कारण है?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावादेव तत्सर्वमिति मे निश्चिता मतिः।
आत्मप्रतिष्ठा प्रज्ञा वा मम नास्ति ततोऽन्यथा ॥ २३ ॥
मूलम्
स्वभावादेव तत्सर्वमिति मे निश्चिता मतिः।
आत्मप्रतिष्ठा प्रज्ञा वा मम नास्ति ततोऽन्यथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी तो यह निश्चित धारणा है कि स्वभावसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। मेरी आत्मनिष्ठ बुद्धि भी इसके विपरीत विचार नहीं रखती॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मजं त्विह मन्यन्ते फलयोगं शुभाशुभम्।
कर्मणां विषयं कृत्स्नमहं वक्ष्यामि तच्छृणु ॥ २४ ॥
मूलम्
कर्मजं त्विह मन्यन्ते फलयोगं शुभाशुभम्।
कर्मणां विषयं कृत्स्नमहं वक्ष्यामि तच्छृणु ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँपर जो शुभ और अशुभ फलकी प्राप्ति होती है, उसमें लोग कर्मको ही कारण मानते हैं; अतः मैं तुमसे कर्मके विषयका ही पूर्णतया वर्णन करता हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वेदयते कश्चिदोदनं वायसो ह्यदन्।
एवं सर्वाणि कर्माणि स्वभावस्यैव लक्षणम् ॥ २५ ॥
मूलम्
यथा वेदयते कश्चिदोदनं वायसो ह्यदन्।
एवं सर्वाणि कर्माणि स्वभावस्यैव लक्षणम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई कौआ कहीं गिरे हुए भातको खाते समय काँव-काँव करके अन्य काकोंको यह जता देता है कि यहाँ अन्न है, उसी प्रकार समस्त कर्म अपने स्वभावको ही सूचित करनेवाले हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकारानेव यो वेद न वेद प्रकृतिं पराम्।
तस्य स्तम्भो भवेद् बाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः ॥ २६ ॥
मूलम्
विकारानेव यो वेद न वेद प्रकृतिं पराम्।
तस्य स्तम्भो भवेद् बाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विकारों (कार्यों) को ही जानता है, उनकी परम प्रकृति (स्वभाव) को नहीं जानता, उसीको अविवेकके कारण मोह या अभिमान होता है। जो इस बातको ठीक-ठीक समझता है, उसे मोह नहीं होता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावभाविनो भावान् सर्वानेवेह निश्चयात्।
बुद्ध्यमानस्य दर्पो वा मानो वा किं करिष्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
स्वभावभाविनो भावान् सर्वानेवेह निश्चयात्।
बुद्ध्यमानस्य दर्पो वा मानो वा किं करिष्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी भाव स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। इस बातको जो निश्चितरूपसे जान लेता है, उसका दर्प या अभिमान क्या बिगाड़ सकता है?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेद धर्मविधिं कृत्स्नं भूतानां चाप्यनित्यताम्।
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् ॥ २८ ॥
मूलम्
वेद धर्मविधिं कृत्स्नं भूतानां चाप्यनित्यताम्।
तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! मैं धर्मकी पूरी-पूरी विधि तथा सम्पूर्ण भूतोंकी अनित्यताको जानता हूँ। इसलिये, ‘यह सब नाशवान् है’ ऐसा समझकर किसीके लिये शोक नहीं करता॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्ममो निरहंकारो निराशीर्मुक्तबन्धनः ।
स्वस्थो व्यपेतः पश्यामि भूतानां प्रभवाप्ययौ ॥ २९ ॥
मूलम्
निर्ममो निरहंकारो निराशीर्मुक्तबन्धनः ।
स्वस्थो व्यपेतः पश्यामि भूतानां प्रभवाप्ययौ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ममता, अहंकार तथा कामनाओंसे शून्य और सब प्रकारके बन्धनोंसे रहित हो आत्मनिष्ठ एवं असंग रहकर मैं प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाशको सदा देखता रहता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतप्रज्ञस्य दान्तस्य वितृष्णस्य निराशिषः।
नायासो विद्यते शक्र पश्यतो लोकमव्ययम् ॥ ३० ॥
मूलम्
कृतप्रज्ञस्य दान्तस्य वितृष्णस्य निराशिषः।
नायासो विद्यते शक्र पश्यतो लोकमव्ययम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! मैं शुद्ध-बुद्धि तथा मन और इन्द्रियोंको अपने अधीन करके स्थित हूँ। मैं तृष्णा और कामनासे रहित हूँ और सदा अविनाशी आत्मापर ही दृष्टि रखता हूँ, इसलिये मुझे कभी कष्ट नहीं होता॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतौ च विकारे च न मे प्रीतिर्न च द्विषे।
द्वेष्टारं च न पश्यामि यो मामद्य ममायते ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रकृतौ च विकारे च न मे प्रीतिर्न च द्विषे।
द्वेष्टारं च न पश्यामि यो मामद्य ममायते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति और उसके कार्योंके प्रति मेरे मनमें न तो राग है, न द्वेष। मैं किसीको न अपना द्वेषी समझता हूँ और न आत्मीय ही मानता हूँ॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोर्ध्वं नावाङ्न तिर्यक् च न क्वचिच्छक्र कामये।
न हि ज्ञेये न विज्ञाने न ज्ञाने कर्म विद्यते॥३२॥
मूलम्
नोर्ध्वं नावाङ्न तिर्यक् च न क्वचिच्छक्र कामये।
न हि ज्ञेये न विज्ञाने न ज्ञाने कर्म विद्यते॥३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! मुझे ऊपर (स्वर्गकी), नीचे (पातालकी) तथा बीचके लोक (मर्त्यलोक) की भी कभी कामना नहीं होती। ज्ञान-विज्ञान और ज्ञेयके निमित्त भी मेरे लिये कोई कर्म आवश्यक नहीं है॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनैषा लभ्यते प्रज्ञा येन शान्तिरवाप्यते।
प्रब्रूहि तमुपायं मे सम्यक् प्रह्राद पृच्छतः ॥ ३३ ॥
मूलम्
येनैषा लभ्यते प्रज्ञा येन शान्तिरवाप्यते।
प्रब्रूहि तमुपायं मे सम्यक् प्रह्राद पृच्छतः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— प्रह्लादजी! जिस उपायसे ऐसी बुद्धि और इस तरहकी शान्ति प्राप्त होती है, उसे पूछता हूँ। आप मुझे अच्छी तरह उसे बताइये॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्जवेनाप्रमादेन प्रसादेनात्मवत्तया ।
वृद्धशुश्रूषया शक्र पुरुषो लभते महत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
आर्जवेनाप्रमादेन प्रसादेनात्मवत्तया ।
वृद्धशुश्रूषया शक्र पुरुषो लभते महत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादने कहा— इन्द्र! सरलता, सावधानी, बुद्धिकी निर्मलता, चित्तकी स्थिरता तथा बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करनेसे पुरुषको महत्-पदकी प्राप्ति होती है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावाल्लभते प्रज्ञां शान्तिमेति स्वभावतः।
स्वभावादेव तत्सर्वं यत्किंचिदनुपश्यसि ॥ ३५ ॥
मूलम्
स्वभावाल्लभते प्रज्ञां शान्तिमेति स्वभावतः।
स्वभावादेव तत्सर्वं यत्किंचिदनुपश्यसि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन गुणोंको अपनानेपर स्वभावसे ही ज्ञान प्राप्त होता है, स्वभावसे ही शान्ति मिलती है तथा जो कुछ भी तुम देख रहे हो, सब स्वभावसे ही प्राप्त होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो दैत्यपतिना शक्रो विस्मयमागमत्।
प्रीतिमांश्च तदा राजंस्तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
इत्युक्तो दैत्यपतिना शक्रो विस्मयमागमत्।
प्रीतिमांश्च तदा राजंस्तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दैत्यराज प्रह्लादके इस प्रकार कहनेपर इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उनके वचनोंकी प्रशंसा की॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तदाभ्यर्च्य दैत्येन्द्रं त्रैलोक्यपतिरीश्वरः।
असुरेन्द्रमुपामन्त्र्य जगाम स्वं निवेशनम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
स तदाभ्यर्च्य दैत्येन्द्रं त्रैलोक्यपतिरीश्वरः।
असुरेन्द्रमुपामन्त्र्य जगाम स्वं निवेशनम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, त्रिलोकीनाथ देवेश्वर इन्द्रने उस समय दैत्यों और असुरोंके स्वामी प्रह्लादका पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे अपने निवास-स्थान स्वर्गलोकको चले गये॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शक्रप्रह्रादसंवादो नाम द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें इन्द्र और प्रह्रादका संवादनामक दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४५ श्लोक मिलाकर कुल ८२ श्लोक हैं)