२२१ अमृतप्राशनिकः

भागसूचना

एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथिसेवा आदिका विवेचन तथा यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करनेवालेको परम उत्तम गतिकी प्राप्तिका कथन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजातयो व्रतोपेता यदिदं भुञ्जते हविः।
अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत् पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

द्विजातयो व्रतोपेता यदिदं भुञ्जते हविः।
अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत् पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! व्रतयुक्त द्विजगण वेदोक्त सकामकर्मोंके फलकी इच्छासे हविष्यान्नका भोजन करते हैं, उनका यह काय उचित है या नहीं?॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवेदोक्तव्रतोपेता भुञ्जानाः कार्यकारिणः ।
वेदोक्तेषु च भुञ्जाना व्रतलुब्धा युधिष्ठिर ॥ २ ॥

मूलम्

अवेदोक्तव्रतोपेता भुञ्जानाः कार्यकारिणः ।
वेदोक्तेषु च भुञ्जाना व्रतलुब्धा युधिष्ठिर ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो लोग अवैदिक व्रतका आश्रय ले हविष्यान्नका भोजन करते हैं, वे स्वेच्छाचारी हैं और जो वेदोका व्रतोंमें प्रवृत्त हो सकाम यज्ञ करते और उसमें खाते हैं, वे भी उस व्रतके फलोंके प्रति लोलुप कहे जाते हैं (अतः उन्हें भी बारंबार इस संसारमें आना पड़ता है)॥२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः।
एतत् तपो महाराज उताहो किं तपो भवेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः।
एतत् तपो महाराज उताहो किं तपो भवेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— महाराज! संसारके साधारण लोग जो उपवासको ही तप कहते हैं, क्या वास्तवमें यही तप है या दूसरा। यदि दूसरा है तो उस तपका क्या स्वरूप है?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासपक्षोपवासेन मन्यन्ते यत् तपो जनाः।
आत्मतन्त्रोपघातस्तु न तपस्तत्सतां मतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

मासपक्षोपवासेन मन्यन्ते यत् तपो जनाः।
आत्मतन्त्रोपघातस्तु न तपस्तत्सतां मतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! साधारण जन जो महीने-पंद्रह दिन उपवास करके उसे तप मानते हैं, उनका वह कार्य धर्मके साधनभूत शरीरका शोषण करनेवाला है; अतः श्रेष्ठ पुरुषोंके मतमें वह तप नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यागश्च संनतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम्।
सदोपवासी च भवेद् ब्रह्मचारी सदा भवेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

त्यागश्च संनतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम्।
सदोपवासी च भवेद् ब्रह्मचारी सदा भवेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मतमें तो त्याग और विनय ही उत्तम तप है। इनका पालन करनेवाला मनुष्य नित्य उपवासी और सदा ब्रह्मचारी है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिश्च स्यात् सदा विप्रो दैवतं च सदा भवेत्।
कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च भारत ॥ ६ ॥

मूलम्

मुनिश्च स्यात् सदा विप्रो दैवतं च सदा भवेत्।
कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च भारत ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! त्यागी और विनयी ब्राह्मण सदा मुनि और सर्वदा देवता समझा जाता है। वह कुटुम्बके साथ रहकर भी निरन्तर धर्मपालनकी इच्छा रखे और निद्रा तथा आलस्यको कभी पास न आने दे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमांसादी सदा च स्यात् पवित्रश्च सदा भवेत्।
अमृताशी सदा च स्याद् देवतातिथिपूजकः ॥ ७ ॥

मूलम्

अमांसादी सदा च स्यात् पवित्रश्च सदा भवेत्।
अमृताशी सदा च स्याद् देवतातिथिपूजकः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मांस कभी न खाय, सदा पवित्र रहे, वैश्वदेव आदि यज्ञसे बचे हुए अमृतमय अन्नका भोजन तथा देवता और अतिथियोंकी पूजा करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विघसाशी सदा च स्यात् सदा चैवातिथिव्रतः।
श्रद्दधानः सदा च स्याद् देवताद्विजपूजकः ॥ ८ ॥

मूलम्

विघसाशी सदा च स्यात् सदा चैवातिथिव्रतः।
श्रद्दधानः सदा च स्याद् देवताद्विजपूजकः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे सदा यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता, अतिथिसेवाका व्रती, श्रद्धालु तथा देवता और ब्राह्मणोंका पूजक होना चाहिये॥८॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं सदोपवासी स्याद् ब्रह्मचारी कथं भवेत्।
विघसाशी कथं च स्यात् सदा चैवातिथिव्रतः ॥ ९ ॥

मूलम्

कथं सदोपवासी स्याद् ब्रह्मचारी कथं भवेत्।
विघसाशी कथं च स्यात् सदा चैवातिथिव्रतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! मनुष्य नित्य उपवास करनेवाला कैसे हो सकता है? वह सतत ब्रह्मचारी कैसे रह सकता है? वह किस प्रकार अन्न ग्रहण करे, जिससे सदा यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता हो सके तथा वह निरन्तर अतिथिसेवाका व्रत भी कैसे निभा सकता है?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तरा प्रातराशं च सायमाशं तथैव च।
सदोपवासी स भवेद् यो न भुङ्‌क्तेऽन्तरा पुनः ॥ १० ॥

मूलम्

अन्तरा प्रातराशं च सायमाशं तथैव च।
सदोपवासी स भवेद् यो न भुङ्‌क्तेऽन्तरा पुनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो प्रतिदिन प्रातःकालके सिवा फिर शामको ही भोजन करे और बीचमें कुछ न खाय, वह नित्य उपवास करनेवाला होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्यां गच्छन् ब्रह्मचारी ऋतौ भवति वै द्विजः।
ऋतवादी भवेन्नित्यं ज्ञाननित्यश्च यो नरः ॥ ११ ॥

मूलम्

भार्यां गच्छन् ब्रह्मचारी ऋतौ भवति वै द्विजः।
ऋतवादी भवेन्नित्यं ज्ञाननित्यश्च यो नरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो द्विज केवल ऋतुस्नानके समय ही पत्नीके साथ समागम करता, सदा सत्य बोलता और नित्य ज्ञानमें स्थित रहता है, वह सदा ब्रह्मचारी ही होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भक्षयेत् तथा मांसममांसाशी भवत्यपि।
दाननित्यः पवित्रश्च अस्वप्नश्च दिवाऽस्वपन् ॥ १२ ॥

मूलम्

न भक्षयेत् तथा मांसममांसाशी भवत्यपि।
दाननित्यः पवित्रश्च अस्वप्नश्च दिवाऽस्वपन् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जो कभी मांस न खाय, वह अमांसाहारी होता है। जो नित्य दान करनेवाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिनमें कभी नहीं सोता, वह सदा जागनेवाला समझा जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृत्यातिथिषु यो भुङ्‌क्ते भुक्तवत्सु सदा सदा।
अमृतं केवलं भुङ्क्ते इति विद्धि युधिष्ठिर ॥ १३ ॥

मूलम्

भृत्यातिथिषु यो भुङ्‌क्ते भुक्तवत्सु सदा सदा।
अमृतं केवलं भुङ्क्ते इति विद्धि युधिष्ठिर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो सदा भरण-पोषण करनेके योग्य पिता-माता आदि कुटुम्बीजनों, सेवकों तथा अतिथियोंके भोजन कर लेनेपर ही खाता है, वह केवल अमृत भोजन करता है; ऐसा समझो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अदत्त्वा योऽतिथिभ्योऽन्नं न भुङ्क्ते सोऽतिथिप्रियः।
अदत्त्वान्नं दैवतेभ्यो यो न भुङ्क्ते स दैवतम्॥)

मूलम्

(अदत्त्वा योऽतिथिभ्योऽन्नं न भुङ्क्ते सोऽतिथिप्रियः।
अदत्त्वान्नं दैवतेभ्यो यो न भुङ्क्ते स दैवतम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो अतिथियोंको अन्न दिये बिना स्वयं भी नहीं खाता, वह अतिथिप्रिय है तथा जो देवताओंको अन्न दिये बिना भोजन नहीं करता, वह देवभक्त है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभुक्तवत्सु नाश्नानः सततं यस्तु वै द्विजः।
अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत ॥ १४ ॥

मूलम्

अभुक्तवत्सु नाश्नानः सततं यस्तु वै द्विजः।
अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो द्विज भृत्यों और अतिथियोंके भोजन न करनेपर स्वयं भी कभी अन्न ग्रहण नहीं करता, वह भोजन न करनेके उस पुण्यसे स्वर्गलोकपर विजय पा लेता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवताभ्यः पितृभ्यश्च भृत्येभ्योऽतिथिभिः सह।
अवशिष्टं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम् ॥ १५ ॥

मूलम्

देवताभ्यः पितृभ्यश्च भृत्येभ्योऽतिथिभिः सह।
अवशिष्टं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवगण, पितृगण, माता-पिता तथा अतिथियों-सहित भृत्यवर्गसे अवशिष्ट अन्नको ही जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता कहते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणा सह।
उपस्थिताश्चाप्सरोभिः परियान्ति दिवौकसः ॥ १६ ॥

मूलम्

तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणा सह।
उपस्थिताश्चाप्सरोभिः परियान्ति दिवौकसः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे पुरुषोंको अक्षयलोक प्राप्त होते हैं। ब्रह्माजी तथा अप्सराओंसहित समस्त देवता उनके घरपर आकर उनकी परिक्रमा किया करते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवताभिश्च ये सार्धं पितृभिश्चोपभुञ्जते।
रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा ॥ १७ ॥

मूलम्

देवताभिश्च ये सार्धं पितृभिश्चोपभुञ्जते।
रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवताओं और पितरोंके साथ (अर्थात् उन्हें उनका भाग अर्पण करके) भोजन करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र-पौत्रोंके साथ रहकर आनन्द भोगते हैं और परलोकमें भी उन्हें परम उत्तम गति प्राप्त होती है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अमृतप्राशनिको नाम एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अमृतभोजन-सम्बन्धी दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोकः हैं)