२१९ पञ्चशिखवाक्यम्

भागसूचना

एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पंचशिखके द्वारा मोक्षतत्त्वका विवेचन एवं भगवान् विष्णुद्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेवकी परीक्षा और उनके लिये वरप्रदान

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनको जनदेवस्तु ज्ञापितः परमर्षिणा।
पुनरेवानुपप्रच्छ साम्पराये भवाभवौ ॥ १ ॥

मूलम्

जनको जनदेवस्तु ज्ञापितः परमर्षिणा।
पुनरेवानुपप्रच्छ साम्पराये भवाभवौ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! महर्षि पंचशिखके इस प्रकार उपदेश देनेपर जनदेव जनकने पुनः उनसे मृत्युके पश्चात् आत्माकी सत्ता या विनाशके विषयमें प्रश्न किया॥१॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् यदि न प्रेत्य संज्ञा भवति कस्यचित्।
एवं सति किमज्ञानं ज्ञानं वा किं करिष्यति ॥ २ ॥

मूलम्

भगवन् यदि न प्रेत्य संज्ञा भवति कस्यचित्।
एवं सति किमज्ञानं ज्ञानं वा किं करिष्यति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— भगवन्! यदि मृत्युके पश्चात् किसीकी कोई विशेष संज्ञा नहीं रह जाती तो उस स्थितिमें अज्ञान अथवा ज्ञान क्या करेगा?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमुच्छेदनिष्ठं स्यात् पश्य चैतद् द्विजोत्तम।
अप्रमत्तः प्रमत्तो वा किं विशेषं करिष्यति ॥ ३ ॥

मूलम्

सर्वमुच्छेदनिष्ठं स्यात् पश्य चैतद् द्विजोत्तम।
अप्रमत्तः प्रमत्तो वा किं विशेषं करिष्यति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! देखिये, मनुष्यकी मृत्युके साथ-साथ उसका सारा साधन नष्ट हो जाता है; फिर वह पहलेसे सावधान हो या असावधान, क्या विशेष लाभ उठा सकेगा?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंसर्गो हि भूतेषु संसर्गो वा विनाशिषु।
कस्मै क्रियेत कल्प्येत निश्चयः कोऽत्र तत्त्वतः ॥ ४ ॥

मूलम्

असंसर्गो हि भूतेषु संसर्गो वा विनाशिषु।
कस्मै क्रियेत कल्प्येत निश्चयः कोऽत्र तत्त्वतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्यु होनेके पश्चात् जीवात्माका विनाशशील पञ्चमहाभूतोंसे कोई संसर्ग रहता है या नहीं? यदि रहता है तो किसलिये रहता है? इस विषयमें यथार्थरूपसे क्या निश्चय किया जा सकता है?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसा हि प्रतिच्छन्नं विभ्रान्तमिव चातुरम्।
पुनः प्रशमयन् वाक्यैः कविः पञ्चशिखोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

तमसा हि प्रतिच्छन्नं विभ्रान्तमिव चातुरम्।
पुनः प्रशमयन् वाक्यैः कविः पञ्चशिखोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! राजा जनककी बुद्धिको अज्ञानान्धकारसे आच्छादित तथा आत्माके नाशकी सम्भावनासे भ्रान्त एवं व्याकुल जानकर ज्ञानी महात्मा पंचशिख उन्हें मधुर वचनोंद्वारा शान्त करते हुए-से बोले—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्छेदनिष्ठा नेहास्ति भावनिष्ठा न विद्यते।
अयं ह्यपि समाहारः शरीरेन्द्रियचेतसाम्।
वर्तते पृथगन्योन्यमप्यपाश्रित्य कर्मसु ॥ ६ ॥

मूलम्

उच्छेदनिष्ठा नेहास्ति भावनिष्ठा न विद्यते।
अयं ह्यपि समाहारः शरीरेन्द्रियचेतसाम्।
वर्तते पृथगन्योन्यमप्यपाश्रित्य कर्मसु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मृत्युके पश्चात् आत्माका न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकारमें ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला संघात है, यह भी शरीर, इन्द्रिय और मनका समूहमात्र है। यद्यपि ये सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक-दूसरेका आश्रय लेकर कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धातवः पञ्च भूतेषु खं वायुर्ज्योतिषो धरा।
ते स्वभावेन तिष्ठन्ति वियुज्यन्ते स्वभावतः ॥ ७ ॥

मूलम्

धातवः पञ्च भूतेषु खं वायुर्ज्योतिषो धरा।
ते स्वभावेन तिष्ठन्ति वियुज्यन्ते स्वभावतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंके शरीरमें उपादानके रूपमें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—ये पाँच धातु हैं। ये स्वभावसे ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशोवायुरूष्मा च स्नेहो यश्चापि पार्थिवः।
एष पञ्चसमाहारः शरीरमपि नैकधा ॥ ८ ॥

मूलम्

आकाशोवायुरूष्मा च स्नेहो यश्चापि पार्थिवः।
एष पञ्चसमाहारः शरीरमपि नैकधा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—इन पाँच तत्त्वोंके समाहारसे ही अनेक प्रकारके शरीरोंका निर्माण हुआ है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानमूष्मा च वायुश्च त्रिविधः कार्यसंग्रहः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः ।
प्राणापानौ विकारश्च धातवश्चात्र निःसृताः ॥ ९ ॥

मूलम्

ज्ञानमूष्मा च वायुश्च त्रिविधः कार्यसंग्रहः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः ।
प्राणापानौ विकारश्च धातवश्चात्र निःसृताः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरमें ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण)—इनका समुदाय समस्त कर्मोंका संग्राहक-गण है; क्योंकि इन्हींसे इन्द्रिय, इन्द्रियोंके विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकार और धातु प्रकट हुए हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवणं स्पर्शनं जिह्वा दृष्टिर्नासा तथैव च।
इन्द्रियाणीति पञ्चैते चित्तपूर्वं गता गुणाः ॥ १० ॥

मूलम्

श्रवणं स्पर्शनं जिह्वा दृष्टिर्नासा तथैव च।
इन्द्रियाणीति पञ्चैते चित्तपूर्वं गता गुणाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रवण, त्वचा, जिह्वा, नेत्र और नासिका—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। शब्द आदि गुण चित्तसे संयुक्त होकर इन इन्द्रियोंके विषय होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र विज्ञानसंयुक्ता त्रिविधा चेतना ध्रुवा।
सुखदुःखेति यामाहुरदुःखामसुखेति च ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्र विज्ञानसंयुक्ता त्रिविधा चेतना ध्रुवा।
सुखदुःखेति यामाहुरदुःखामसुखेति च ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विज्ञानयुक्त चेतना (विषयोंकी उपादेयता, हेयता और उपेक्षणीयताके कारण) निश्चय ही तीन प्रकारकी होती है। उसे अदुःखा, असुखा और सुख-दुःखा कहते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शं च रूपं च रसो गन्धश्च मूर्तयः।
एते ह्यामरणात् पञ्च षड्‌गुणा ज्ञानसिद्धये ॥ १२ ॥

मूलम्

शब्दः स्पर्शं च रूपं च रसो गन्धश्च मूर्तयः।
एते ह्यामरणात् पञ्च षड्‌गुणा ज्ञानसिद्धये ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तथा मूर्त द्रव्य—ये छः गुण जीवकी मृत्युके पहलेतक इन्द्रियजन्य ज्ञानके साधक होते हैं (इनके साथ इन्द्रियोंका संयोग होनेपर ही भिन्न-भिन्न विषयोंका ज्ञान होता है)॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु कर्मविसर्गश्च सर्वतत्त्वार्थनिश्चयः ।
तमाहुः परमं शुक्रं बुद्धिरित्यव्ययं महत् ॥ १३ ॥

मूलम्

तेषु कर्मविसर्गश्च सर्वतत्त्वार्थनिश्चयः ।
तमाहुः परमं शुक्रं बुद्धिरित्यव्ययं महत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रोत्र आदि इन्द्रियोंमें उनके विषयोंका विसर्जन (त्याग) करनेसे सम्पूर्ण तत्त्वोंके यथार्थ निश्चयरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चयको अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपद कहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं गुणसमाहारमात्मभावेन पश्यतः ।
असम्यग्दर्शनैर्दुःखमनन्तं नोपशाम्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

इमं गुणसमाहारमात्मभावेन पश्यतः ।
असम्यग्दर्शनैर्दुःखमनन्तं नोपशाम्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग गुणोंके संघातरूप इस शरीरको ही आत्मा समझ लेते हैं, उन्हें मिथ्या ज्ञानके कारण अनन्त दुःखोंकी प्राप्ति होती है और उनकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनात्मेति च यद् दृष्टं तेनाहं न ममेत्यपि।
वर्तते किमधिष्ठानात् प्रसक्ता दुःखसंसृतिः ॥ १५ ॥

मूलम्

अनात्मेति च यद् दृष्टं तेनाहं न ममेत्यपि।
वर्तते किमधिष्ठानात् प्रसक्ता दुःखसंसृतिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत जिनकी दृष्टिमें यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, फिर उन्हें दुःखपरम्परा कैसे प्राप्त हो; उन दुःखोंके लिये आधार ही क्या रह जाता है?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र सम्यग्वधो नाम त्यागशास्त्रमनुत्तमम्।
शृणु यत् तव मोक्षाय भाष्यमाणं भविष्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

अत्र सम्यग्वधो नाम त्यागशास्त्रमनुत्तमम्।
शृणु यत् तव मोक्षाय भाष्यमाणं भविष्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं उस परम उत्तम सांख्यशास्त्रका वर्णन करता हूँ, जिसका नाम है सम्यग्वध (सम्यग्‌रूपेण दुःखोंका नाश करनेवाला)। उसमें त्यागकी प्रधानता है। तुम ध्यान देकर सुनो। उसका उपदेश तुम्हारे लिये मोक्षदायक होगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्याग एव हि सर्वेषां युक्तानामपि कर्मणाम्।
नित्यं मिथ्याविनीतानां क्लेशो दुःखवहो मतः ॥ १७ ॥

मूलम्

त्याग एव हि सर्वेषां युक्तानामपि कर्मणाम्।
नित्यं मिथ्याविनीतानां क्लेशो दुःखवहो मतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग मुक्तिके लिये प्रयत्नशील हों, उन सबको चाहिये कि सम्पूर्ण कर्मोंमें अहंता, ममता, आसक्ति और कामनाका त्याग करे। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शाम, दम आदि साधनोंमें तत्पर) होनेका झूठा दावा करते हैं, उन्हें अविद्या आदि दुःखदायी क्लेश प्राप्त होते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रव्यत्यागे तु कर्माणि भोगत्यागे व्रतान्यपि।
सुखत्यागे तपो योगं सर्वत्यागे समापना ॥ १८ ॥

मूलम्

द्रव्यत्यागे तु कर्माणि भोगत्यागे व्रतान्यपि।
सुखत्यागे तपो योगं सर्वत्यागे समापना ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंमें द्रव्यका त्याग करनेके लिये यज्ञ आदि कर्म, भोगका त्याग करनेके लिये व्रत, दैहिक सुखोंके त्यागके लिये तप और सब कुछ (अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि) त्याग देनेके लिये योगके अनुष्ठानकी आज्ञा दी गयी है। यही त्यागकी चरम सीमा है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मार्गोऽयमद्वैधः सर्वत्यागस्य दर्शितः।
विप्रहाणाय दुःखस्य दुर्गतिस्त्वन्यथा भवेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्य मार्गोऽयमद्वैधः सर्वत्यागस्य दर्शितः।
विप्रहाणाय दुःखस्य दुर्गतिस्त्वन्यथा भवेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वस्व-त्यागका यह एकमात्र मार्ग ही दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये उत्तम बताया गया है, इसके विपरीत आचरण करनेवालोंको दुर्गति भोगनी पड़ती है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चज्ञानेन्द्रियाण्युक्त्वा मनःषष्ठानि चेतसि ।
बलषष्ठानि वक्ष्यामि पञ्चकर्मेन्द्रियाणि तु ॥ २० ॥

मूलम्

पञ्चज्ञानेन्द्रियाण्युक्त्वा मनःषष्ठानि चेतसि ।
बलषष्ठानि वक्ष्यामि पञ्चकर्मेन्द्रियाणि तु ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमें स्थित मनसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियोंका वर्णन करके अब पाँच कर्मेन्द्रियोंका वर्णन करूँगा। जिनके साथ प्राणशक्ति छठी बतायी गयी है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तौ कर्मेन्द्रियं ज्ञेयमथ पादौ गतीन्द्रियम्।
प्रजनानन्दयोः शेफो निसर्ग पायुरिन्द्रियम् ॥ २१ ॥

मूलम्

हस्तौ कर्मेन्द्रियं ज्ञेयमथ पादौ गतीन्द्रियम्।
प्रजनानन्दयोः शेफो निसर्ग पायुरिन्द्रियम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों हाथोंको काम करनेवाली इन्द्रिय जानना चाहिये, दोनों पैर चलने-फिरनेका काम करनेवाली इन्द्रिय हैं। लिंग संतानोत्पादन एवं मैथुनजनित आनन्दकी प्राप्ति करनेके लिये है। गुदनामक इन्द्रियका कार्य मल-त्याग करना है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक् च शब्दविशेषार्थमिति पञ्चान्वितं विदुः।
एवमेकादशैतानि बुद्ध्याऽऽशु विसृजेन्मनः ॥ २२ ॥

मूलम्

वाक् च शब्दविशेषार्थमिति पञ्चान्वितं विदुः।
एवमेकादशैतानि बुद्ध्याऽऽशु विसृजेन्मनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वाक्-इन्द्रिय शब्दविशेषका उच्चारण करनेके लिये है। इस प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियोंको पाँच विषयोंसे युक्त माना गया है। मनसहित एकादश इन्द्रियोंके विषयोंका बुद्धिके द्वारा शीघ्र त्याग कर देना चाहिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णौ शब्दश्च चित्तं च त्रयः श्रवणसंग्रहे।
तथा स्पर्शे तथा रूपे तथैव रसगन्धयोः ॥ २३ ॥

मूलम्

कर्णौ शब्दश्च चित्तं च त्रयः श्रवणसंग्रहे।
तथा स्पर्शे तथा रूपे तथैव रसगन्धयोः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रवण-कालमें श्रोत्ररूपी इन्द्रिय, शब्दरूपी विषय और चित्तरूपी कर्ता—इन तीनोंका संयोग होता है, इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस तथा गन्धके अनुभव-कालमें भी इन्द्रिय, विषय एवं मनका संयोग अपेक्षित है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पञ्चत्रिका ह्येते गुणास्तदुपलब्धये।
येनायं त्रिविधो भावः पर्यायात् समुपस्थितः ॥ २४ ॥

मूलम्

एवं पञ्चत्रिका ह्येते गुणास्तदुपलब्धये।
येनायं त्रिविधो भावः पर्यायात् समुपस्थितः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ये तीन-तीनके पाँच समुदाय हैं, ये सब गुण कहे गये हैं। इनसे शब्दादि विषयोंका ग्रहण होता है, जिससे ये कर्ता, कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी-बारीसे उपस्थित होते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्त्विको राजसश्चापि तामसश्चापि ते त्रयः।
त्रिविधा वेदना येषु प्रसूताः सर्वसाधनाः ॥ २५ ॥

मूलम्

सात्त्विको राजसश्चापि तामसश्चापि ते त्रयः।
त्रिविधा वेदना येषु प्रसूताः सर्वसाधनाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे एक-एकके सात्त्विक, राजस और तामस तीन-तीन भेद होते हैं। उनसे प्राप्त होनेवाले अनुभव भी तीन प्रकारके ही हैं। जो हर्ष, प्रीति आदि सभी भावोंके साधक हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।
अकुतश्चित् कुतश्चिद् वा चिन्तितः सात्त्विको गुणः ॥ २६ ॥

मूलम्

प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।
अकुतश्चित् कुतश्चिद् वा चिन्तितः सात्त्विको गुणः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्तकी शान्ति-ये सब भाव बिना किसी कारणके स्वतः हों या कारणवश (भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सत्संग आदिके कारण) हों, सात्त्विक गुण माने गये हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाऽक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुतः ॥ २७ ॥

मूलम्

अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाऽक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

असंतोष, संताप, शोक, लोभ और असहनशीलता—ये किसी कारणसे हों या अकारण—रजोगुणके चिह्न हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविवेकस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदपि वर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ २८ ॥

मूलम्

अविवेकस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदपि वर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्न और आलस्य—ये किसी तरह भी क्यों न हों, तमोगुणके ही विविध रूप हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्यपेक्षेत तत् तथा ॥ २९ ॥

मूलम्

अत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्यपेक्षेत तत् तथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमें जो शरीर या मनमें प्रीतिके संयोगसे उदित हो, वह सात्त्विक भाव है और उसको सत्त्वगुणकी वृद्धि जाननी चाहिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वसंतोषसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येवं ततस्तदपि चिन्तयेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

यत् त्वसंतोषसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येवं ततस्तदपि चिन्तयेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने लिये असंतोषजनक एवं अप्रीतिकर हो, उसको रजोगुणकी प्रवृत्ति एवं अभिवृद्धि समझनी चाहिये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीर या मनमें जो अतर्क्य, अज्ञेय एवं मोह-संयुक्त भाव प्रादुर्भूत हो, उसको तमोगुणजनित जानना चाहिये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीत्रं व्योमाश्रितं भूतं शब्दः श्रोत्रं समाश्रितः।
नोभयं शब्दविज्ञाने विज्ञानस्येतरस्य वा ॥ ३२ ॥

मूलम्

श्रीत्रं व्योमाश्रितं भूतं शब्दः श्रोत्रं समाश्रितः।
नोभयं शब्दविज्ञाने विज्ञानस्येतरस्य वा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्दका आधार श्रोत्रेन्द्रिय है और श्रोत्रेन्द्रियका आधार आकाश है; अतः वह आकाशरूप ही है। ऐसी स्थितिमें शब्दका अनुभव करते समय आकाश और श्रोत्र—ये दोनों ही ज्ञान अथवा अज्ञानके विषय नहीं होते हैं1॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चेति पञ्चमी।
स्पर्शे रूपे रसे गन्धे तानि चेतो मनश्च तत्॥३३॥

मूलम्

एवं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चेति पञ्चमी।
स्पर्शे रूपे रसे गन्धे तानि चेतो मनश्च तत्॥३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका भी क्रमशः स्पर्श, रूप, रस और गन्धके आश्रय तथा अपने आधारभूत महाभूतोंके स्वरूप हैं। इन सबका कारण मन है, इसलिये ये सब-के-सब मनःस्वरूप हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वकर्मयुगपद्भावो दशस्वेतेषु तिष्ठति ।
चित्तमेकादशं विद्धि बुद्धिर्द्वादशमी भवेत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

स्वकर्मयुगपद्भावो दशस्वेतेषु तिष्ठति ।
चित्तमेकादशं विद्धि बुद्धिर्द्वादशमी भवेत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दसों इन्द्रियोंमें अपने-अपने विषयोंको एक साथ भी ग्रहण करनेकी शक्ति होती है। ग्यारहवाँ मन और बारहवीं बुद्धि—इनको इन्द्रियोंका सहायक समझना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामयुगपद्भाव उच्छेदो नास्ति तामसे।
आस्थितो युगपद्भावो व्यवहारः स लौकिकः ॥ ३५ ॥

मूलम्

तेषामयुगपद्भाव उच्छेदो नास्ति तामसे।
आस्थितो युगपद्भावो व्यवहारः स लौकिकः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तमोगुणजनित सुषुप्तिकालमें अपने कारणमें विलीन हो जानेसे इन्द्रियाँ विषयोंका ग्रहण नहीं कर सकतीं, किंतु उनका नाश नहीं होता है। उनमें जो अपने विषयोंको एक साथ ग्रहण करनेकी शक्ति है, वह लौकिक व्यवहारमें ही दिखायी देती है (सुषुप्तिकालमें नहीं)॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाण्यपि सूक्ष्माणि दृष्ट्वा पूर्वश्रुतागमात्।
चिन्तयन्नानुपर्येति त्रिभिरेवान्वितो गुणैः ॥ ३६ ॥

मूलम्

इन्द्रियाण्यपि सूक्ष्माणि दृष्ट्वा पूर्वश्रुतागमात्।
चिन्तयन्नानुपर्येति त्रिभिरेवान्वितो गुणैः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जाग्रत्-अवस्थाके देखने-सुनने आदिके द्वारा पूर्ववासनावश शब्द आदि विषयोंकी प्राप्ति होनेसे स्वप्नदर्शी पुरुष सूक्ष्म ग्यारह इन्द्रियोंको देखकर विषयसंगकी भावना करता हुआ सत्त्व आदि तीनों गुणोंसे युक्त हो शरीरके भीतर ही इच्छानुसार घूमता रहता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तमोपहतं चित्तमाशु संहारमध्रुवम्।
करोत्युपरमं काये तदाहुस्तामसं बुधाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

यत् तमोपहतं चित्तमाशु संहारमध्रुवम्।
करोत्युपरमं काये तदाहुस्तामसं बुधाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुषुप्तिकालमें जब चित्त तमोगुणसे अभिभूत होकर अपने प्रवृत्ति और प्रकाश-स्वभावका शीघ्र ही संहार करके थोड़ी देरके लिये इन्द्रियोंके व्यापारको बंद कर देता है, उस समय शरीरमें जो सुखकी प्रतीति होती है, उसे विद्वान् पुरुष तामस सुख कहते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदागमसंयुक्तं न कृच्छ्रमनुपश्यति।
अथ तत्राप्युपादत्ते तमोऽव्यक्तमिवानृतम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

यद् यदागमसंयुक्तं न कृच्छ्रमनुपश्यति।
अथ तत्राप्युपादत्ते तमोऽव्यक्तमिवानृतम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुषुप्तिकालमें स्वप्नदर्शी पुरुष उपस्थित दुःखको प्रत्यक्षकी भाँति अनुभव नहीं करता है। इसलिये वह सुषुप्तिकालमें भी तमोगुणयुक्त मिथ्या सुखका अनुभव करता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेष प्रसंख्यातः स्वकर्मप्रत्ययो गुणः।
कथञ्चिद् वर्तते सम्यक् केषांचिद् वा निवर्तते ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवमेष प्रसंख्यातः स्वकर्मप्रत्ययो गुणः।
कथञ्चिद् वर्तते सम्यक् केषांचिद् वा निवर्तते ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने कर्मके अनुसार गुणकी प्राप्तिके विषयमें कहा गया है। अज्ञानियोंके ये गुण सम्यक्‌रूपेण प्रवृत्त होते हैं और ज्ञानियोंके निवृत्त हो जाते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाहुः समाहारं क्षेत्रमध्यात्मचिन्तकाः ।
स्थितो मनसि यो भावः स वै क्षेत्रज्ञ उच्यते॥४०॥

मूलम्

एतदाहुः समाहारं क्षेत्रमध्यात्मचिन्तकाः ।
स्थितो मनसि यो भावः स वै क्षेत्रज्ञ उच्यते॥४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियोंके संघातको क्षेत्र कहते हैं और मनमें जो चेतन सत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) कहलाता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सति क उच्छेदः शाश्वतो वा कथं भवेत्।
स्वभावाद् वर्तमानेषु सर्वभूतेषु हेतुतः ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवं सति क उच्छेदः शाश्वतो वा कथं भवेत्।
स्वभावाद् वर्तमानेषु सर्वभूतेषु हेतुतः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी अवस्थामें आत्माका विनाश कैसे हो सकता है? अथवा हेतुपूर्वक प्रकृतिके अनुसार प्रवृत्त पञ्चमहाभूतोंसे उसका शाश्वत संसर्ग भी कैसे रह सकता है?॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथार्णवगता नद्यो व्यक्तीर्जहति नाम च।
नदाश्च ता नियच्छन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः ॥ ४२ ॥

मूलम्

यथार्णवगता नद्यो व्यक्तीर्जहति नाम च।
नदाश्च ता नियच्छन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नद और नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम और व्यक्तित्व (रूप) को त्याग देती हैं तथा जैसे बड़े-बड़े नद छोटी-छोटी नदियोंको अपनेमें विलीन कर लेते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मामें विलीन हो जाता है। यही मोक्ष है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सति कुतः संज्ञा प्रेत्यभावे पुनर्भवेत्।
प्रतिसम्मिश्रिते जीवेऽगृह्यमाणे च सर्वतः ॥ ४३ ॥

मूलम्

एवं सति कुतः संज्ञा प्रेत्यभावे पुनर्भवेत्।
प्रतिसम्मिश्रिते जीवेऽगृह्यमाणे च सर्वतः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवके ब्रह्ममें विलीन हो जानेपर उसके नाम-रूपका किसी प्रकार भी ग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी दशामें मृत्युके पश्चात् जीवकी संज्ञा कैसे रहेगी?॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां च यो वेद विमोक्षबुद्धि-
मात्मानमन्विच्छति चाप्रमत्तः ।
न लिप्यते कर्मफलैरनिष्टैः
पत्रं बिसस्येव जलेन सिक्तम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

इमां च यो वेद विमोक्षबुद्धि-
मात्मानमन्विच्छति चाप्रमत्तः ।
न लिप्यते कर्मफलैरनिष्टैः
पत्रं बिसस्येव जलेन सिक्तम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस मोक्षविद्याको जानता है और सावधानीके साथ आत्मतत्त्वका अनुसंधान करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी भाँति कर्मके अनिष्ट फलोंसे कभी लिप्त नहीं होता॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढैर्हि पाशैर्बहुभिर्विमुक्तः
प्रजानिमित्तैरपि दैवतैश्च ।
यदा ह्यसौ सुखदुःखे जहाति
मुक्तस्तदाग्र्यां गतिमेत्यलिङ्गः ॥ ४५ ॥

मूलम्

दृढैर्हि पाशैर्बहुभिर्विमुक्तः
प्रजानिमित्तैरपि दैवतैश्च ।
यदा ह्यसौ सुखदुःखे जहाति
मुक्तस्तदाग्र्यां गतिमेत्यलिङ्गः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु संतानोंके प्रति आसक्तिके कारण और भिन्न-भिन्न देवताओंकी प्रसन्नताके लिये अज्ञानियोंद्वारा जो सकाम कर्म किये जाते हैं, ये सब मनुष्यके लिये नाना प्रकारके सुदृढ़ बन्धन हैं। जब वह इन बन्धनोंसे छूटकर सुख-दुःखकी चिन्ता छोड़ देता है, उस समय सूक्ष्म शरीरके अभिमानका त्याग करके सर्वश्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतिप्रमाणागममङ्गलैश्च
शेते जरामृत्युभयादभीतः ।
क्षीणे च पुण्ये विगते च पापे
ततो निमित्ते च फले विनष्टे।
अलेपमाकाशमलिङ्गमेव-
मास्थाय पश्यन्ति महत्यसक्ताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

श्रुतिप्रमाणागममङ्गलैश्च
शेते जरामृत्युभयादभीतः ।
क्षीणे च पुण्ये विगते च पापे
ततो निमित्ते च फले विनष्टे।
अलेपमाकाशमलिङ्गमेव-
मास्थाय पश्यन्ति महत्यसक्ताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुति-प्रतिपादित प्रमाणोंका विचार और शास्त्रमें बताये हुए मंगलमय साधनोंका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य जरा और मृत्युके भयसे रहित होकर सुखसे सोता है। जब पुण्य और पापका क्षय तथा उनसे मिलनेवाले सुख-दुःख आदि फलोंका नाश हो जाता है, उस समय सम्पूर्ण पदार्थोंमें सर्वथा आसक्तिसे रहित पुरुष आकाशके समान निर्लेप और निर्गुण परमात्मामें स्थित हुए उसका साक्षात्कार कर लेते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोर्णनाभिः परिवर्तमान-
स्तन्तुक्षये तिष्ठति पात्यमानः ।
तथा विमुक्तः प्रजहाति दुःखं
विध्वंसते लोष्ट इवाद्रिमृच्छन् ॥ ४७ ॥

मूलम्

यथोर्णनाभिः परिवर्तमान-
स्तन्तुक्षये तिष्ठति पात्यमानः ।
तथा विमुक्तः प्रजहाति दुःखं
विध्वंसते लोष्ट इवाद्रिमृच्छन् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मकड़ी जाला तानकर उसपर चक्कर लगाती रहती है; किंतु उन जालोंका नाश हो जानेपर एक स्थानपर स्थित हो जाती है, उसी प्रकार अविद्याके वशीभूत हो नीचे गिरनेवाला जीव कर्मजालमें पड़कर भटकता रहता है और उससे छूटनेपर दुःखसे रहित हो जाता है। जैसे पर्वतपर फेंका हुआ मिट्‌टीका ढेला उससे टकराकर चूर-चूर हो जाता है, उसी प्रकार उसके सम्पूर्ण दुःखोंका विध्वंस हो जाता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा रुरुः शृङ्गमथो पुराणं
हित्वा त्वचं वाप्युरगो यथा च।
विहाय गच्छत्यनवेक्षमाण-
स्तथा विमुक्तो विजहाति दुःखम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

यथा रुरुः शृङ्गमथो पुराणं
हित्वा त्वचं वाप्युरगो यथा च।
विहाय गच्छत्यनवेक्षमाण-
स्तथा विमुक्तो विजहाति दुःखम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे रुरुनामक मृग अपने पुराने सींगको और साँप अपनी केंचुलको त्यागकर उसकी ओर देखे बिना ही चल देता है, उसी प्रकार ममता और अभिमानसे रहित हुआ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो अपने सम्पूर्ण दुःखोंको दूर कर देता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुमं यथा वाप्युदके पतन्त-
मुत्सृज्य पक्षी निपतत्यसक्तः ।
तथा ह्यसौ सुखदुःखे विहाय
मुक्तः परार्घ्यां गतिमेत्यलिङ्गः ॥ ४९ ॥

मूलम्

द्रुमं यथा वाप्युदके पतन्त-
मुत्सृज्य पक्षी निपतत्यसक्तः ।
तथा ह्यसौ सुखदुःखे विहाय
मुक्तः परार्घ्यां गतिमेत्यलिङ्गः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार पक्षी वृक्षको जलमें गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्षका परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दुःख—दोनोंका त्याग करके सूक्ष्म शरीरसे रहित हो उत्तम गतिको प्राप्त होता है॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि च भवति मैथिलेन गीतं
नगरमुपाहितमग्निनाभिवीक्ष्य ।
न खलु मम हि दह्यतेऽत्र किंचित्
स्वयमिदमाह किल स्म भूमिपालः ॥ ५० ॥
इदममृतपदं निशम्य राजा
स्वयमिह पञ्चशिखेन भाष्यमाणम् ।
निखिलमभिसमीक्ष्य निश्चितार्थः
परमसुखी विजहार वीतशोकः ॥ ५१ ॥

मूलम्

अपि च भवति मैथिलेन गीतं
नगरमुपाहितमग्निनाभिवीक्ष्य ।
न खलु मम हि दह्यतेऽत्र किंचित्
स्वयमिदमाह किल स्म भूमिपालः ॥ ५० ॥
इदममृतपदं निशम्य राजा
स्वयमिह पञ्चशिखेन भाष्यमाणम् ।
निखिलमभिसमीक्ष्य निश्चितार्थः
परमसुखी विजहार वीतशोकः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! स्वयं आचार्य पंचशिखके बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानोपदेशको सुनकर राजा जनक एक निश्चित सिद्धान्तपर पहुँच गये और सारी बातोंपर विचार करके शोकरहित हो बड़े सुखसे रहने लगे; फिर तो उनकी स्थिति ही कुछ और हो गयी। एक बार उन मिथिलानरेश राजा जनकने मिथिला-नगरीको आगसे जलती देखकर स्वयं यह उद्‌गार प्रकट किया था कि इस नगरके जलनेसे मेरा कुछ भी नहीं जलता है॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं हि यः पठति विमोक्षनिश्चयं
महीपते सततमवेक्षते तथा ।
उपद्रवान् नानुभवत्यदुःखितः
प्रमुच्यते कपिलमिवैत्य मैथिलः ॥ ५२ ॥

मूलम्

इमं हि यः पठति विमोक्षनिश्चयं
महीपते सततमवेक्षते तथा ।
उपद्रवान् नानुभवत्यदुःखितः
प्रमुच्यते कपिलमिवैत्य मैथिलः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यहाँ जो मोक्षतत्त्वका निर्णय किया गया है, उसका जो पुरुष सदा स्वाध्याय और चिन्तन करता रहता है, उसे उपद्रवोंका कष्ट नहीं भोगना पड़ता। दुःख तो उसके पास कभी फटकने नहीं पाते हैं तथा जिस प्रकार राजा जनक कपिलमतावलम्बी पंचशिखके समागमसे इस ज्ञानको पाकर मुक्त हो गये थे, उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(श्रूयतां नृपशार्दूल यदर्थं दीपिता पुरा।
वह्निना दीपिता सा तु तन्मे शृणु महामते॥

मूलम्

(श्रूयतां नृपशार्दूल यदर्थं दीपिता पुरा।
वह्निना दीपिता सा तु तन्मे शृणु महामते॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! महामते! पूर्वकालमें जिस उद्‌देश्यसे अग्निद्वारा मिथिलानगरी जलायी गयी, उसे बताता हूँ, सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनको जनदेवस्तु कर्माण्याधाय चात्मनि।
सर्वभावमनुप्राप्य भावेन विचचार सः॥

मूलम्

जनको जनदेवस्तु कर्माण्याधाय चात्मनि।
सर्वभावमनुप्राप्य भावेन विचचार सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकवंशी राजा जनदेव परमात्मामें कर्मोंको स्थापित करके सर्वात्मताको प्राप्त होकर उसी भावसे सर्वत्र विचरण करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजन् ददंस्तथा जुह्वन् पालयन् पृथिवीमिमाम्।
अध्यात्मविन्महाप्राज्ञस्तन्मयत्वेन निष्ठितः ॥

मूलम्

यजन् ददंस्तथा जुह्वन् पालयन् पृथिवीमिमाम्।
अध्यात्मविन्महाप्राज्ञस्तन्मयत्वेन निष्ठितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ जनक अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता होनेके कारण निष्कामभावसे यज्ञ, दान, होम और पृथ्वीका पालन करते हुए भी उस अध्यात्मज्ञानमें ही तन्मय रहते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य हृदि संकल्पं ज्ञातुमैच्छत् स्वयं प्रभुः।
सर्वलोकाधिपस्तत्र द्विजरूपेण संयुतः ॥
मिथिलायां महाबुद्धिर्व्यलीकं किंचिदाचरन् ।
स गृहीत्वा द्विजश्रेष्ठैर्नृपाय प्रतिवेदितः॥
अपराधं समुद्दिश्य तं राजा प्रत्यभाषत॥

मूलम्

स तस्य हृदि संकल्पं ज्ञातुमैच्छत् स्वयं प्रभुः।
सर्वलोकाधिपस्तत्र द्विजरूपेण संयुतः ॥
मिथिलायां महाबुद्धिर्व्यलीकं किंचिदाचरन् ।
स गृहीत्वा द्विजश्रेष्ठैर्नृपाय प्रतिवेदितः॥
अपराधं समुद्दिश्य तं राजा प्रत्यभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति साक्षात् भगवान् नारायणने राजा जनकके मनोभावकी परीक्षा लेनेका विचार किया; अतः वे ब्राह्मणरूपसे वहाँ आये। उन परम बुद्धिमान् श्रीहरिने मिथिलानगरीमें कुछ प्रतिकूल आचरण किया। तब वहाँके श्रेष्ठ द्विजोंने उन्हें पकड़कर राजाको सौंप दिया। ब्राह्मणके अपराधको लक्ष्य करके राजाने उनसे इस प्रकार कहा॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वां ब्राह्मण दण्डेन नियोक्ष्यामि कथंचन।
मम राज्याद् विनिर्गच्छ यावत् सीमा भुवो मम॥

मूलम्

न त्वां ब्राह्मण दण्डेन नियोक्ष्यामि कथंचन।
मम राज्याद् विनिर्गच्छ यावत् सीमा भुवो मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने कहा— ब्राह्मण! मैं तुम्हें किसी प्रकार दण्ड नहीं दूँगा, तुम मेरे राज्यसे, जहाँतक मेरी राज्यभूमिकी सीमा है, उससे बाहर निकल जाओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तथा तेन मैथिलेन द्विजोत्तमः।
अब्रवीत् तं महात्मानं राजानं मन्त्रिभिर्वृतम्॥

मूलम्

इत्युक्तः स तथा तेन मैथिलेन द्विजोत्तमः।
अब्रवीत् तं महात्मानं राजानं मन्त्रिभिर्वृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेशके ऐसा कहनेपर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने मन्त्रियोंसे घिरे हुए उन महात्मा राजा जनकसे इस प्रकार कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेवं पद्मनाभस्य नित्यं पक्षपदाहितः।
अहो सिद्धार्थरूपोऽसि गमिष्ये स्वस्ति तेऽस्तु वै॥

मूलम्

त्वमेवं पद्मनाभस्य नित्यं पक्षपदाहितः।
अहो सिद्धार्थरूपोऽसि गमिष्ये स्वस्ति तेऽस्तु वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप सदा पद्‌मनाभ भगवान् नारायणके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले और उन्हींके शरणागत हैं। अहो! आप कृतार्थरूप हैं, आपका कल्याण हो! अब मैं चला जाऊँगा’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रस्तज्जिज्ञासुर्द्विजोत्तमः ।
अदहच्चाग्निना तस्य मिथिलां भगवान् स्वयम्॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रस्तज्जिज्ञासुर्द्विजोत्तमः ।
अदहच्चाग्निना तस्य मिथिलां भगवान् स्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहाँसे चल दिये। जाते-जाते राजाकी परीक्षा लेनेके लिये उन श्रेष्ठ ब्राह्मणरूपधारी भगवान् श्रीहरिने स्वयं ही मिथिलानगरीमें आग लगा दी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदीप्यमानां मिथिलां दृष्ट्‌वा राजा न कम्पितः।
जनैः स परिपृष्टस्तु वाक्यमेतदुवाच ह॥

मूलम्

प्रदीप्यमानां मिथिलां दृष्ट्‌वा राजा न कम्पितः।
जनैः स परिपृष्टस्तु वाक्यमेतदुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलाको जलती हुई देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुए। लोगोंके पूछनेपर उन्होंने उनसे यह बात कही—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तं बत मे वित्तं भाव्यं मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचन दह्यते॥

मूलम्

अनन्तं बत मे वित्तं भाव्यं मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचन दह्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे पास आत्मज्ञानरूप अनन्त धन है; अतः अब मेरे लिये कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है, इस मिथिला-नगरीके जल जानेपर भी मेरा कुछ नहीं जलता है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य भाषमाणस्य श्रुत्वा श्रुत्वा हृदि स्थितम्।
पुनः संजीवयामास मिथिलां तां द्विजोत्तमः॥

मूलम्

तदस्य भाषमाणस्य श्रुत्वा श्रुत्वा हृदि स्थितम्।
पुनः संजीवयामास मिथिलां तां द्विजोत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकके इस प्रकार कहनेपर उन द्विजश्रेष्ठने भी उनकी बात सुनी और उनके मनोभावको समझा; फिर उन्होंने मिथिलानगरीको पूर्ववत् सजीव एवं दाह-रहित कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं दर्शयामास वरं चास्मै ददौ पुनः।
धर्मे तिष्ठतु सद्‌भावो बुद्धिस्तेऽर्थे नराधिप॥
सत्ये तिष्ठस्व निर्विण्णः स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्।

मूलम्

आत्मानं दर्शयामास वरं चास्मै ददौ पुनः।
धर्मे तिष्ठतु सद्‌भावो बुद्धिस्तेऽर्थे नराधिप॥
सत्ये तिष्ठस्व निर्विण्णः स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्।

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही उन्होंने राजाको अपने साक्षात् स्वरूपका दर्शन कराया और उन्हें वर देते हुए पुनः कहा—‘नरेश्वर! तुम्हारा मन सद्‌भावपूर्वक धर्ममें लगा रहे और बुद्धि तत्त्वज्ञानमें परिनिष्ठित हो। सदा विषयोंसे विरक्त रहकर तुम सत्यके मार्गपर डटे रहो। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं जाता हूँ’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा भगवांश्चैनं तत्रैवान्तरधीयत ।
एतत्‌ ते कथितं राजन्‌ किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥)

मूलम्

इत्युक्त्वा भगवांश्चैनं तत्रैवान्तरधीयत ।
एतत्‌ ते कथितं राजन्‌ किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥)

अनुवाद (हिन्दी)

उनसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। राजन्! यह प्रसंग तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चशिखवाक्यं नाम एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पंचशिखका उपदेशनामक दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)


  1. ‘ये दोनों ज्ञान अथवा अज्ञानके विषय नहीं होते, इस कथनका अभिप्राय यों समझना चाहिये—जो श्रवणकालमें शब्दका अनुभव करता है, वह उसके साथ ही श्रोत्र और आकाशका अनुभव नहीं करता है। साथ ही उसे इन दोनोंका अज्ञान भी नहीं रहता; क्योंकि शब्दका श्रवणेन्द्रिय और आकाश दोनोंसे सम्बन्ध है। इन दोनोंके बिना शब्दका अनुभव हो ही नहीं सकता। ↩︎