भागसूचना
अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा जनकके दरबारमें पञ्चशिखका आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतोंके निराकरणपूर्वक शरीरसे भिन्न आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ जनको मिथिलाधिपः।
जगाम मोक्षं मोक्षज्ञो भोगानुत्सृज्य मानुषान् ॥ १ ॥
मूलम्
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ जनको मिथिलाधिपः।
जगाम मोक्षं मोक्षज्ञो भोगानुत्सृज्य मानुषान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— सदाचारके ज्ञाता पितामह! मोक्षधर्मको जाननेवाले मिथिलानरेश जनकने मानवभोगोंका परित्याग करके किस प्रकारके आचरणसे मोक्ष प्राप्त किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
येन वृत्तेन धर्मज्ञः स जगाम महत्सुखम् ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
येन वृत्तेन धर्मज्ञः स जगाम महत्सुखम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके आचरणसे धर्मज्ञ राजा जनक महान् सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुए थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनको जनदेवस्तु मिथिलायां जनाधिपः।
और्ध्वदेहिकधर्माणामासीद् युक्तो विचिन्तने ॥ ३ ॥
मूलम्
जनको जनदेवस्तु मिथिलायां जनाधिपः।
और्ध्वदेहिकधर्माणामासीद् युक्तो विचिन्तने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालकी बात है, मिथिलामें जनकवंशी राजा जनदेव राज्य करते थे। वे सदा देह-त्यागके पश्चात् आत्माके अस्तित्वरूप धर्मोंके ही चिन्तनमें लगे रहते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य स्म शतमाचार्या वसन्ति सततं गृहे।
दर्शयन्तः पृथग्धर्मान् नानाश्रमनिवासिनः ॥ ४ ॥
मूलम्
तस्य स्म शतमाचार्या वसन्ति सततं गृहे।
दर्शयन्तः पृथग्धर्मान् नानाश्रमनिवासिनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके दरबारमें सौ आचार्य बराबर रहा करते थे, जो विभिन्न आश्रमोंके निवासी थे और उन्हें भिन्न-भिन्न धर्मोंका उपदेश देते रहते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तेषां प्रेत्यभावे च प्रेत्यजातौ विनिश्चये।
आगमस्थः स भूयिष्ठमात्मतत्त्वे न तुष्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
स तेषां प्रेत्यभावे च प्रेत्यजातौ विनिश्चये।
आगमस्थः स भूयिष्ठमात्मतत्त्वे न तुष्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस शरीरको त्याग देनेके पश्चात् जीवकी सत्ता रहती है या नहीं, अथवा देह-त्यागके बाद उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं’, इस विषयमें उन आचार्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त था, वे लोग आत्मतत्त्वके विषयमें जैसा विचार उपस्थित करते थे, उससे शास्त्रानुयायी राजा जनदेवको विशेष संतोष नहीं होता था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र पञ्चशिखो नाम कापिलेयो महामुनिः।
परिधावन् महीं कृत्स्नां जगाम मिथिलामथ ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्र पञ्चशिखो नाम कापिलेयो महामुनिः।
परिधावन् महीं कृत्स्नां जगाम मिथिलामथ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार कपिलाके पुत्र महामुनि पंचशिख सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करते हुए मिथिलामें जा पहुँचे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसंन्यासधर्माणां तत्त्वज्ञानविनिश्चये ।
सुपर्यवसितार्थश्च निर्द्वन्द्वो नष्टसंशयः ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्वसंन्यासधर्माणां तत्त्वज्ञानविनिश्चये ।
सुपर्यवसितार्थश्च निर्द्वन्द्वो नष्टसंशयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सम्पूर्ण संन्यास-धर्मोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानके निर्णयमें एक सुनिश्चित सिद्धान्तके पोषक थे। उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था। वे निर्द्वन्द्व होकर विचरा करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणामाहुरेकं तं यं कामानावृतं नृषु।
शाश्वतं सुखमत्यन्तमन्विच्छन्तं सुदुर्लभम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ऋषीणामाहुरेकं तं यं कामानावृतं नृषु।
शाश्वतं सुखमत्यन्तमन्विच्छन्तं सुदुर्लभम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें ऋषियोंमें अद्वितीय बताया जाता है। वे कामनासे सर्वथा शून्य थे। वे मनुष्योंके हृदयमें अपने उपदेशद्वारा अत्यन्त दुर्लभ सनातन सुखकी प्रतिष्ठा करना चाहते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाहुः कपिलं सांख्याः परमर्षिं प्रजापतिम्।
स मन्ये तेन रूपेण विस्मापयति हि स्वयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
यमाहुः कपिलं सांख्याः परमर्षिं प्रजापतिम्।
स मन्ये तेन रूपेण विस्मापयति हि स्वयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यके विद्वान् तो उन्हें साक्षात् प्रजापति महर्षि कपिलका ही स्वरूप बताते हैं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक भगवान् कपिल स्वयं पंचशिखके रूपमें आकर लोगोंको आश्चर्यमें डाल रहे हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसुरेः प्रथमं शिष्यं यमाहुश्चिरजीविनम्।
पञ्चस्रोतसि यः सत्रमास्ते वर्षसहस्रिकम् ॥ १० ॥
मूलम्
आसुरेः प्रथमं शिष्यं यमाहुश्चिरजीविनम्।
पञ्चस्रोतसि यः सत्रमास्ते वर्षसहस्रिकम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें आसुरि मुनिका प्रथम शिष्य और चिरंजीवी बताया जाता है। उन्होंने एक हजार वर्षोंतक मानस यज्ञका अनुष्ठान किया था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समासीनमागम्य कापिलं मण्डलं महत्।
पञ्चस्रोतसि निष्णातः पञ्चरात्रविशारदः ॥ ११ ॥
पञ्चज्ञः पञ्चकृत्पञ्चगुणः पञ्चशिखः स्मृतः।
पुरुषावस्थमव्यक्तं परमार्थं न्यवेदयत् ॥ १२ ॥
मूलम्
तं समासीनमागम्य कापिलं मण्डलं महत्।
पञ्चस्रोतसि निष्णातः पञ्चरात्रविशारदः ॥ ११ ॥
पञ्चज्ञः पञ्चकृत्पञ्चगुणः पञ्चशिखः स्मृतः।
पुरुषावस्थमव्यक्तं परमार्थं न्यवेदयत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय आसुरि मुनि अपने आश्रममें बैठे हुए थे। इसी समय कपिलमतावलम्बी मुनियोंका महान् समुदाय वहाँ आया और प्रत्येक पुरुषके भीतर स्थित, अव्यक्त एवं परमार्थतत्त्वके विषयमें उनसे कुछ कहनेका अनुरोध करने लगा। उन्हींमें पंचशिख भी थे, जो पाँच स्रोतों (इन्द्रियों) वाले मनके व्यापार (ऊहापोह) में कुशल थे, पंचरात्र आगमके विशेषज्ञ थे, पाँच कोशोंके ज्ञाता और तद्विषयक पाँच प्रकारकी उपासनाओंके जानकार थे। शाम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान—इन पाँच गुणोंसे भी युक्त थे। उन पाँचों कोशोंसे भिन्न होनेके कारण उनके शिखास्थानीय जो ब्रह्म है, वह पंचशिख कहा गया है। उसके ज्ञाता होनेसे ऋषिको भी ‘पंचशिख’ माना गया है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टसत्रेण संसिद्धो भूयश्च तपसाऽऽसुरिः।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्व्यक्तिं बुबुधे देवदर्शनः ॥ १३ ॥
मूलम्
इष्टसत्रेण संसिद्धो भूयश्च तपसाऽऽसुरिः।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्व्यक्तिं बुबुधे देवदर्शनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आसुरि तपोबलसे दिव्य दृष्टि प्राप्त कर चुके थे। ज्ञानयज्ञके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके उन्होंने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको स्पष्टरूपसे समझ लिया था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तदेकाक्षरं ब्रह्म नानारूपं प्रदृश्यते।
आसुरिर्मण्डले तस्मिन् प्रतिपेदे तदव्ययम् ॥ १४ ॥
मूलम्
यत् तदेकाक्षरं ब्रह्म नानारूपं प्रदृश्यते।
आसुरिर्मण्डले तस्मिन् प्रतिपेदे तदव्ययम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपोंमें दिखायी देता है, उसका ज्ञान आसुरिने उस मुनिमण्डलीमें प्रतिपादित किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पञ्चशिखः शिष्यो मानुष्या पयसा भृतः।
ब्राह्मणी कपिला नाम काचिदासीत् कुटुम्बिनी ॥ १५ ॥
तस्याः पुत्रत्वमागम्य स्त्रियाः स पिबति स्तनौ।
ततः स कापिलेयत्वं लेभे बुद्धिं च नैष्ठिकीम् ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्य पञ्चशिखः शिष्यो मानुष्या पयसा भृतः।
ब्राह्मणी कपिला नाम काचिदासीत् कुटुम्बिनी ॥ १५ ॥
तस्याः पुत्रत्वमागम्य स्त्रियाः स पिबति स्तनौ।
ततः स कापिलेयत्वं लेभे बुद्धिं च नैष्ठिकीम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींके शिष्य पंचशिख थे, जो मानवी स्त्रीके दूधसे पले थे। कपिला नामवाली कोई कुटुम्बिनी ब्राह्मणी थी। उसी स्त्रीके पुत्रभावको प्राप्त होकर वे उसके स्तनोंका दूध पीते थे; अतः कपिलाका पुत्र कहलानेके कारण कापिलेय नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। उन्होंने नैष्ठिक (ब्रह्ममें निष्ठा रखनेवाली) बुद्धि प्राप्त की थी॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे भगवानाह कापिलेयस्य सम्भवम्।
तस्य तत् कापिलेयत्वं सर्ववित्त्वमनुत्तमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एतन्मे भगवानाह कापिलेयस्य सम्भवम्।
तस्य तत् कापिलेयत्वं सर्ववित्त्वमनुत्तमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कापिलेयके जन्मका यह वृतान्त मुझे भगवान्ने बताया था। उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होनेका यही परम उत्तम वृत्तान्त है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामान्यं जनकं ज्ञात्वा धर्मज्ञो ज्ञानमुत्तमम्।
उपेत्य शतमाचार्यान् मोहयामास हेतुभिः ॥ १८ ॥
मूलम्
सामान्यं जनकं ज्ञात्वा धर्मज्ञो ज्ञानमुत्तमम्।
उपेत्य शतमाचार्यान् मोहयामास हेतुभिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ पंचशिखने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था। वे राजा जनकको सौ आचार्योंपर समानभावसे अनुरक्त जान उनके दरबारमें गये और वहाँ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनोंद्वारा उन सब आचार्योंको मोहित कर दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनकस्त्वभिसंरक्तः कापिलेयानुदर्शनात् ।
उत्सृज्य शतमाचार्यान् पृष्ठतोऽनुजगाम तम् ॥ १९ ॥
मूलम्
जनकस्त्वभिसंरक्तः कापिलेयानुदर्शनात् ।
उत्सृज्य शतमाचार्यान् पृष्ठतोऽनुजगाम तम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पंच-शिखका ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्योंको छोड़कर उन्हींके पीछे चलने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै परमकल्याय प्रणताय च धर्मतः।
अब्रवीत् परमं मोक्षं यत् तत् सांख्येऽभिधीयते ॥ २० ॥
मूलम्
तस्मै परमकल्याय प्रणताय च धर्मतः।
अब्रवीत् परमं मोक्षं यत् तत् सांख्येऽभिधीयते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिवर पंचशिखने राजाको धर्मानुसार चरणोंमें पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्षका उपदेश दिया, जिसका सांख्यशास्त्रमें वर्णन है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातिनिर्वेदमुक्त्वा स कर्मनिर्वेदमब्रवीत् ।
कर्मनिर्वेदमुक्त्वा च सर्वनिर्वेदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
मूलम्
जातिनिर्वेदमुक्त्वा स कर्मनिर्वेदमब्रवीत् ।
कर्मनिर्वेदमुक्त्वा च सर्वनिर्वेदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ‘जातिनिर्वेद’1 का वर्णन करके ‘कर्मनिर्वेद’2 का उपदेश किया। तत्पश्चात् ‘सर्वनिर्वेद’3 की बात बतायी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थं धर्मसंसर्गः कर्मणां च फलोदयः।
तमनाश्वासिकं मोहं विनाशि चलमध्रुवम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यदर्थं धर्मसंसर्गः कर्मणां च फलोदयः।
तमनाश्वासिकं मोहं विनाशि चलमध्रुवम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा—‘जिसके लिये धर्मका आचरण किया जाता है, जो कर्मोंके फलका उदय होनेपर प्राप्त होता है, वह इहलोक या परलोकका भोग नश्वर है। उसपर आस्था करना उचित नहीं। वह मोहरूप, चंचल और अस्थिर है’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यमाने विनाशे च प्रत्यक्षे लोकसाक्षिके।
आगमात् परमस्तीति ब्रुवन्नपि पराजितः ॥ २३ ॥
मूलम्
दृश्यमाने विनाशे च प्रत्यक्षे लोकसाक्षिके।
आगमात् परमस्तीति ब्रुवन्नपि पराजितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ नास्तिक ऐसा कहा करते हैं कि देहरूपी आत्माका विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है। सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है। फिर भी यदि कोई शास्त्रप्रमाणकी ओट लेकर देहसे भिन्न आत्माकी सत्ताका प्रतिपादन करता है तो वह परास्त है; क्योंकि उसका कथन लोकानुभवके विरुद्ध है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनात्मा ह्यात्मनो मृत्युः क्लेशो मृत्युर्जरामयः।
आत्मानं मन्यते मोहात् तदसम्यक् परं मतम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अनात्मा ह्यात्मनो मृत्युः क्लेशो मृत्युर्जरामयः।
आत्मानं मन्यते मोहात् तदसम्यक् परं मतम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्माके स्वरूपभूत शरीरका अभाव होना ही उसकी मृत्यु है। इस दृष्टिसे दुःख, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकारके रोग—ये सभी आत्माकी मृत्यु ही हैं (क्योंकि इनके द्वारा शरीरका आंशिक विनाश होता रहता है)। फिर भी जो लोग आत्माको देहसे भिन्न मानते हैं, उनकी यह मान्यता बहुत ही असंगत है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेदेवमप्यस्ति यल्लोके नोपपद्यते।
अजरोऽयममृत्युश्व राजासौ मन्यते यथा ॥ २५ ॥
मूलम्
अथ चेदेवमप्यस्ति यल्लोके नोपपद्यते।
अजरोऽयममृत्युश्व राजासौ मन्यते यथा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ऐसी वस्तुका भी अस्तित्व मान लिया जाय, जो लोकमें सम्भव नहीं है अर्थात् यदि शास्त्रके आधारपर यह स्वीकार कर लिया जाय कि शरीरसे भिन्न कोई अजर-अमर आत्मा है, जो स्वर्गादि लोकोंमें दिव्य सुख भोगता है, तब तो बन्दीजन जो राजाको अजर-अमर कहते हैं, उनकी वह बात भी ठीक माननी पड़ेगी (सारांश यह है कि जैसे बन्दीजन आशीर्वादमें उपचारतः राजाको अजर-अमर कहते हैं, उसी प्रकार यह शास्त्रका वचन भी औपचारिक ही है। नीरोग शरीरको ही अजर-अमर और यहाँके प्रत्यक्ष सुख-भोगको ही स्वर्गीय सुख कहा गया है)॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति नास्तीति चाप्येतत् तस्मिन्नसति लक्षणे।
किमधिष्ठाय तद् ब्रूयाल्लोकयात्राविनिश्चयम् ॥ २६ ॥
मूलम्
अस्ति नास्तीति चाप्येतत् तस्मिन्नसति लक्षणे।
किमधिष्ठाय तद् ब्रूयाल्लोकयात्राविनिश्चयम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आत्मा है या नहीं—यह संशय उपस्थित होनेपर अनुमानसे उसके अस्तित्वका साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता, जो कहीं दोषयुक्त न होता हो; फिर किस अनुमानका आश्रय लेकर लोकव्यवहारका निश्चय किया जा सकता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं ह्येतयोर्मूलं कृतान्तौतिह्ययोरपि ।
प्रत्यक्षेणागमो भिन्नः कृतान्तो वा न किञ्चन ॥ २७ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं ह्येतयोर्मूलं कृतान्तौतिह्ययोरपि ।
प्रत्यक्षेणागमो भिन्नः कृतान्तो वा न किञ्चन ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनुमान और आगम—इन दोनों प्रमाणोंका मूल प्रत्यक्ष प्रमाण है। आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है—उसकी प्रामाणिकता नहीं स्वीकार की जा सकती॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्रानुमानेऽस्मिन् कृतं भावयतोऽपि च।
नान्यो जीवः शरीरस्य नास्तिकानां मते स्थितः ॥ २८ ॥
मूलम्
यत्र यत्रानुमानेऽस्मिन् कृतं भावयतोऽपि च।
नान्यो जीवः शरीरस्य नास्तिकानां मते स्थितः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ-कहीं भी ईश्वर, अदृष्ट अथवा नित्य आत्माकी सिद्धिके लिये अनुमान किया जाता है, वहाँ साध्य-साधनके लिये की हुई भावना भी व्यर्थ है, अतः नास्तिकोंके मतमें जीवात्माकी शरीरसे भिन्न कोई सत्ता नहीं है—यह बात स्थिर हुई॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेतो वटकणीकायां घृतपाकाधिवासनम् ।
जातिः स्मृतिरयस्कान्तः सूर्यकान्तोऽम्बुभक्षणम् ॥ २९ ॥
मूलम्
रेतो वटकणीकायां घृतपाकाधिवासनम् ।
जातिः स्मृतिरयस्कान्तः सूर्यकान्तोऽम्बुभक्षणम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वटवृक्षके बीजमें पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा आदि छिपे होते हैं, जैसे गायके द्वारा खायी हुई घासमेंसे घी, दूध आदि प्रकट होते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध द्रव्योंका पाक एवं अधिवासन करनेसे उसमें नशा पैदा करनेवाली शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार वीर्यसे ही शरीर आदिके साथ चेतनता भी प्रकट होती है। इसके सिवा जाति, स्मृति, अयस्कान्तमणि, सूर्यकानामणि और बड़वानलके द्वारा समुद्रके जलका पान आदि दृष्टान्तोंसे भी देहातिरिक्त चैतन्यकी सिद्धि नहीं होती[^*]॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेतीभूतेऽत्ययश्चैव देवताद्युपयाचनम् ।
मृते कर्मनिवृत्तिश्च प्रमाणमिति निश्चयः ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रेतीभूतेऽत्ययश्चैव देवताद्युपयाचनम् ।
मृते कर्मनिवृत्तिश्च प्रमाणमिति निश्चयः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इस नास्तिक मतका खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीरमें जो चेतनताका अभाव देखा जाता है, वही देहातिरिक्त आत्माके अस्तित्वमें प्रमाण है (यदि चेतनता देहका ही धर्म हो तो मृतक शरीरमें भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिये; परंतु मृत्युके पश्चात् कुछ कालतक शरीर तो रहता है, पर उसमें चेतनता नहीं रहती; अतः यह सिद्ध हो जाता है कि चेतन आत्मा शरीरसे भिन्न है)। नास्तिक भी रोग आदिकी निवृत्तिके लिये मन्त्र, जप तथा तान्त्रिक पद्धतिसे देवता आदिकी आराधना करते हैं। (वह देवता क्या है? यदि पाञ्चभौतिक है तो घट आदिकी भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थोंसे भिन्न है तो चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो गयी; अतः देहसे भिन्न आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभवसे सिद्ध हो जाता है और देह ही आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध जान पड़ता है)। यदि शरीरकी मृत्युके साथ आत्माकी भी मृत्यु मान ली जाय, तब तो उसके किये हुए कर्मोंका भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेवाला कोई नहीं रह जायगा और देहकी उत्पत्तिमें अकृताभ्यागम (बिना किये हुए कर्मका ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा) माननेका प्रसंग उपस्थित होगा। ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्माकी सत्ता अवश्य है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्वेते हेतवः सन्ति ये केचिन्मूर्तिसंस्थिताः।
अमूर्तस्य हि मूर्तेन सामान्यं नोपपद्यते ॥ ३१ ॥
मूलम्
नन्वेते हेतवः सन्ति ये केचिन्मूर्तिसंस्थिताः।
अमूर्तस्य हि मूर्तेन सामान्यं नोपपद्यते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नास्तिकोंकी ओरसे जो कोई हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं, वे सब मूर्त पदार्थ हैं। मूर्त जड पदार्थसे मूर्त जड पदार्थकी ही उत्पत्ति होती है। यही उन दृष्टान्तोंद्वारा सिद्ध होता है। जैसे काष्ठसे अग्निकी उत्पत्ति (यदि पञ्चभूतोंसे आत्माकी अथवा मूर्तसे अमूर्तकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तब तो पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थोंसे आकाशकी भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो असम्भव है)। आत्मा अमूर्त पदार्थ है और देह मूर्त; अतः अमूर्तकी मूर्तके साथ समानता अथवा मूर्त भूतोंके संयोगसे अमूर्त चेतन आत्माकी उत्पत्ति नहीं हो सकती॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्या कर्म तृष्णा च केचिदाहुः पुनर्भवे।
कारणं लोभमोहौ तु दोषाणां तु निषेवणम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
अविद्या कर्म तृष्णा च केचिदाहुः पुनर्भवे।
कारणं लोभमोहौ तु दोषाणां तु निषेवणम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग अविद्या, कर्म, तृष्णा, लोभ, मोह तथा दोषोंके सेवनको पुनर्जन्ममें कारण बताते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्यां क्षेत्रमाहुर्हि कर्म बीजं तथा कृतम्।
तृष्णा संजननं स्नेह एष तेषां पुनर्भवः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अविद्यां क्षेत्रमाहुर्हि कर्म बीजं तथा कृतम्।
तृष्णा संजननं स्नेह एष तेषां पुनर्भवः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविद्याको वे क्षेत्र कहते हैं। पूर्व-जन्मोंका किया हुआ कर्म बीज है और तृष्णा अंकुरकी उत्पत्ति करानेवाला स्नेह या जल है। यही उनके मतमें पुनर्जन्मका प्रकार है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् गूढे च दग्धे च भिन्ने मरणधर्मिणि।
अन्योऽस्माज्जायते देहस्तमाहुः सत्त्वसंक्षयम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तस्मिन् गूढे च दग्धे च भिन्ने मरणधर्मिणि।
अन्योऽस्माज्जायते देहस्तमाहुः सत्त्वसंक्षयम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अविद्या आदि कारणसमूह सुषुप्ति और प्रलयमें भी संस्काररूपमें गूढ़भावसे स्थित रहते हैं। उनके रहते हुए जब एक मरणधर्मा शरीर नष्ट हो जाता है, तब उसीसे पूर्वाक्त अविद्या आदिके कारण दूसरा शरीर उत्पन्न हो जाता है। जब ज्ञानके द्वारा अविद्या आदि निमित्त दग्ध हो जाते हैं, तब शरीर-नाशके पश्चात् सत्त्व (बुद्धि) का क्षयरूप मोक्ष होता है, ऐसा उनका कथन है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा स्वरूपतश्चान्यो जातितः शुभतोऽर्थतः।
कथमस्मिन् स इत्येवं सर्वं वा स्यादसंहितम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
यदा स्वरूपतश्चान्यो जातितः शुभतोऽर्थतः।
कथमस्मिन् स इत्येवं सर्वं वा स्यादसंहितम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उपर्युक्त नास्तिक मतमें आस्तिकलोग इस प्रकार दोष देते हैं—) क्षणिक विज्ञानवादीकी मान्यताके अनुसार शरीर और जीव जब क्षणिक हैं, तब पूर्व-क्षणवर्ती शरीरसे परक्षणवर्ती शरीर रूप, जाति, धर्म और प्रयोजन सभी दृष्टियोंसे भिन्न हैं। ऐसी अवस्थामें यह वही है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा (स्मृति) नहीं हो सकती। अथवा भोग, मोक्ष आदि सब कुछ बिना इच्छा किये ही अकस्मात् प्राप्त हो जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा (उस दशामें यह भी कहा जा सकता है कि मोक्षकी इच्छा करनेवाला दूसरा है, साधन करनेवाला दूसरा है और उससे मुक्त होनेवाला भी दूसरा ही है)॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सति च का प्रीतिर्दानविद्यातपोबलैः।
यदस्याचरितं कर्म सर्वमन्यत् प्रपद्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं सति च का प्रीतिर्दानविद्यातपोबलैः।
यदस्याचरितं कर्म सर्वमन्यत् प्रपद्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ऐसी ही बात है, तब दान, विद्या, तपस्या और बलसे किसीको क्या प्रसन्नता होगी? क्योंकि उसका किया हुआ सारा कर्म दूसरेको ही अपना फल प्रदान करेगा (अर्थात् दान करते समय जो दाता है, वह क्षणिक विज्ञानवादके अनुसार फल-भोगकालमें नहीं रह जाता, अतः पुण्य या पाप एक करता है और उसका फल दूसरा भोगता है)॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि ह्ययमिहैवान्यैः प्राक् कृतैर्दुःखितो भवेत्।
सुखितो दुःखितो वापि दृश्यादृश्यविनिर्णयः ॥ ३७ ॥
मूलम्
अपि ह्ययमिहैवान्यैः प्राक् कृतैर्दुःखितो भवेत्।
सुखितो दुःखितो वापि दृश्यादृश्यविनिर्णयः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यदि कहें, यह आपत्ति तो अभीष्ट ही है कि कर्म करते समय जो कर्ता है, वह फल-भोग-कालमें नहीं है। एक विज्ञानसे उत्पन्न हुआ दूसरा विज्ञान ही फल भोगता है, तब तो) इस जगत्में यह देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त आदि दूसरोंके किये हुए अशुभ कर्मोंसे दुखी एवं परकृत शुभ कर्मोंसे सुखी हो सकता है (क्योंकि जब कर्ता दूसरा और भोक्ता दूसरा है, तब तो किसीका भी कर्म किसीको भी सुख-दुःख दे सकता है)। उस दशामें दृश्य और अदृश्यका निर्णय भी यही होगा कि जो पूर्वक्षणमें दृश्य था, वह वर्तमान क्षणमें अदृश्य हो गया तथा जो पहले अदृश्य था, वही इस समय दृश्य हो रहा है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि मुसलैर्हन्युः शरीरं तत् पुनर्भवेत्।
पृथग्ज्ञानं यदन्यच्च येनैतन्नोपपद्यते ॥ ३८ ॥
मूलम्
तथा हि मुसलैर्हन्युः शरीरं तत् पुनर्भवेत्।
पृथग्ज्ञानं यदन्यच्च येनैतन्नोपपद्यते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कहें, देवदत्तके ज्ञानसे यज्ञदत्तका ज्ञान पृथक् एवं विजातीय है, सजातीय विज्ञानधारामें ही कर्म और उसके फलका भोग प्राप्त होता है; अतः देवदत्तके किये हुए कर्मका भोग यज्ञदत्तको नहीं प्राप्त हो सकता, उस कारण पूर्वाक्त दोषकी आपत्ति सम्भव नहीं है, तब हम यह पूछते हैं कि आपके मतमें जो यह सादृश्य या सजातीय विज्ञान उत्पन्न होता है, उसका उपादान क्या है? यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञानको ही उपादान बताया जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि वह विज्ञान नष्ट हो चुका और यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञानका नाश ही उत्तरक्षणवर्ती सजातीय विज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण है, तब तो यदि कुछ लोग किसीके शरीरको मूसलोंसे मार डालें तो उस मरे हुए शरीरसे भी दूसरे शरीरकी पुनः उत्पत्ति हो सकती है (अतः यह मत ठीक नहीं है)॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुसंवत्सरौ तिष्यः शीतोष्णेऽथ प्रियाप्रिये।
यथातीतानि पश्यन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ऋतुसंवत्सरौ तिष्यः शीतोष्णेऽथ प्रियाप्रिये।
यथातीतानि पश्यन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋतु, संवत्सर, युग, सर्दी, गर्मी तथा प्रिय और अप्रिय—ये सब वस्तुएँ आकर चली जाती हैं और जाकर फिर आ जाती हैं, यह सब लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। उसी प्रकार सत्त्वसंक्षयरूप मोक्ष भी फिर आकर निवृत्त हो सकता है (क्योंकि विज्ञानधाराका कहीं अन्त नहीं है)॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरयाभिपरीतस्य मृत्युना च विनाशिना।
दुर्बलं दुर्बलं पूर्वं गृहस्येव विनश्यति ॥ ४० ॥
मूलम्
जरयाभिपरीतस्य मृत्युना च विनाशिना।
दुर्बलं दुर्बलं पूर्वं गृहस्येव विनश्यति ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मकानके दुर्बल-दुर्बल अंग पहले नष्ट होने लगते हैं और फिर क्रमशः सारा मकान ही गिर जाता है, उसी प्रकार वृद्धावस्था और विनाशकारी मृत्युसे आक्रान्त हुए शरीरके दुर्बल-दुर्बल अंग क्षीण होते-होते एक दिन सम्पूर्ण शरीरका नाश हो जाता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनो वायुः शोणितं मांसमस्थि च।
आनुपूर्व्या विनश्यन्ति स्वं धातुमुपयान्ति च ॥ ४१ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनो वायुः शोणितं मांसमस्थि च।
आनुपूर्व्या विनश्यन्ति स्वं धातुमुपयान्ति च ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रिय, मन, प्राण, रक्त, मांस और हड्डी—ये सब क्रमशः नष्ट होते और अपने कारणमें मिल जाते हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकयात्राविघातश्च दानधर्मफलागमे ।
तदर्थं वेदशब्दाश्च व्यवहाराश्च लौकिकाः ॥ ४२ ॥
मूलम्
लोकयात्राविघातश्च दानधर्मफलागमे ।
तदर्थं वेदशब्दाश्च व्यवहाराश्च लौकिकाः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आत्माकी सत्ता न मानी जाय तो लोकयात्राका निर्वाह नहीं होगा। दान और दूसरे धर्मोंके फलकी प्राप्तिके लिये कोई आस्था नहीं रहेगी; क्योंकि वैदिक शब्द और लौकिक व्यवहार सब आत्माको ही सुख देनेके लिये हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सम्यङ्मनस्येते बहवः सन्ति हेतवः।
एतदस्तीदमस्तीति न किञ्चित्प्रतिदृश्यते ॥ ४३ ॥
मूलम्
इति सम्यङ्मनस्येते बहवः सन्ति हेतवः।
एतदस्तीदमस्तीति न किञ्चित्प्रतिदृश्यते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनमें अनेक प्रकारके तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियोंसे आत्माकी सत्ता या असत्ताका निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां विमृशतामेव तत् तत्समभिधावताम्।
क्वचिन्निविशते बुद्धिस्तत्र जीर्यति वृक्षवत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
तेषां विमृशतामेव तत् तत्समभिधावताम्।
क्वचिन्निविशते बुद्धिस्तत्र जीर्यति वृक्षवत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह विचार करते हुए भिन्न-भिन्न मतोंकी ओर दौड़नेवाले लोगोंकी बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्षकी भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमर्थैरनर्थैश्च दुःखिताः सर्वजन्तवः ।
आगमैरपकृष्यन्ते हस्तिपैर्हस्तिनो यथा ॥ ४५ ॥
मूलम्
एवमर्थैरनर्थैश्च दुःखिताः सर्वजन्तवः ।
आगमैरपकृष्यन्ते हस्तिपैर्हस्तिनो यथा ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अर्थ और अनर्थसे सभी प्राणी दुखी रहते हैं। केवल शास्त्रके वचन ही उन्हें खींचकर राहपर लाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथीपर अंकुश रखकर उन्हें काबूमें किये रहते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थांस्तथात्यन्तसुखावहांश्च
लिप्सन्त एते बहवो विशुष्काः।
महत्तरं दुःखमनुप्रपन्ना
हित्वाऽऽमिषं मृत्युवशं प्रयान्ति ॥ ४६ ॥
मूलम्
अर्थांस्तथात्यन्तसुखावहांश्च
लिप्सन्त एते बहवो विशुष्काः।
महत्तरं दुःखमनुप्रपन्ना
हित्वाऽऽमिषं मृत्युवशं प्रयान्ति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से शुष्क हृदयवाले लोग ऐसे विषयोंकी लिप्सा रखते हैं, जो अत्यन्त सुखदायक हों; किंतु इस लिप्सामें उन्हें भारी-से-भारी दुःखोंका ही सामना करना पड़ता है और अन्तमें वे भोगोंको छोड़कर मृत्युके ग्रास बन जाते हैं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनाशिनो ह्यध्रुवजीवितस्य
किं बन्धुभिर्भिन्नपरिग्रहैश्च ।
विहाय यो गच्छति सर्वमेव
क्षणेन गत्वा न निवर्तते च ॥ ४७ ॥
मूलम्
विनाशिनो ह्यध्रुवजीवितस्य
किं बन्धुभिर्भिन्नपरिग्रहैश्च ।
विहाय यो गच्छति सर्वमेव
क्षणेन गत्वा न निवर्तते च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक दिन नष्ट होनेवाला है, जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्य शरीरको पाकर इन बन्धु-बान्धवों तथा स्त्री-पुत्र आदिसे क्या लाभ है? यह सोचकर जो मनुष्य इन सबको क्षणभरमें वैराग्यपूर्वक त्यागकर चल देता है, उसे मृत्युके पश्चात् फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूव्योमतोयानलवायवोऽपि
सदा शरीरं प्रतिपालयन्ति ।
इतीदमालक्ष्य रतिः कुतो भवेद्
विनाशिनोऽप्यस्य न शर्म विद्यते ॥ ४८ ॥
मूलम्
भूव्योमतोयानलवायवोऽपि
सदा शरीरं प्रतिपालयन्ति ।
इतीदमालक्ष्य रतिः कुतो भवेद्
विनाशिनोऽप्यस्य न शर्म विद्यते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु—ये सदा शरीरकी रक्षा करते रहते हैं। इस बातको अच्छी तरह समझ लेनेपर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है? जो एक दिन मृत्युके मुखमें पड़नेवाला है, ऐसे शरीरसे सुख कहाँ है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमनुपधिवाक्यमच्छलं
परमनिरामयमात्मसाक्षिकम् ।
नरपतिरभिवीक्ष्य विस्मितः
पुनरनुयोक्तुमिदं प्रचक्रमे ॥ ४९ ॥
मूलम्
इदमनुपधिवाक्यमच्छलं
परमनिरामयमात्मसाक्षिकम् ।
नरपतिरभिवीक्ष्य विस्मितः
पुनरनुयोक्तुमिदं प्रचक्रमे ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंचशिखका यह उपदेश जो भ्रम और वंचनासे रहित, सर्वथा निर्दोष तथा आत्माका साक्षात्कार करानेवाला था, सुनकर राजा जनकको बड़ा विस्मय हुआ; अतः उन्होंने पुनः प्रश्न करनेका विचार किया॥४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चशिखवाक्ये पाषण्डखण्डनं नामाष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पंचशिखके उपदेशके प्रसंगमें पाखण्डखण्डन नामक दो सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१८॥
- जाति कहते हैं जन्मको। जैसे गुड़ या महुवे आदिसे अनेक द्रव्योंके संयोगद्वारा जो मद्य तैयार किया जाता है, उसमें उपादानकी अपेक्षा विलक्षण मादकशक्तिका जन्म हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु—इन चार द्रव्योंके संयोगसे इस शरीरमें ही जीव चैतन्य प्रकट हो जाता है। जैसे जड मनसे अजड स्मृति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार जड शरीरसे चेतन जीवकी उत्पत्ति हो जाती है। जैसे अयस्कान्तमणि (चुम्बक) जड होकर भी लोहको खींच लेती है, उसी प्रकार जड शरीर भी इन्द्रियोंका संचालन और नियन्त्रण कर लेता है; अतः आत्मा उससे भिन्न नहीं है। जैसे सूर्यकान्तमणि शीतल होकर भी सूर्यकी किरणोंके संयोगसे आग प्रकट करने लगती है, उसी प्रकार वीर्य शीतल होकर भी रस और रक्तके संयोगसे जठरानलका आविष्कार करता है और जैसे जलसे उत्पन्न हुआ बडवानल जलको ही भक्षण करता है, उसी प्रकार वीर्यसे उत्पन्न हुआ यह शरीर स्वयं भी वीर्यका आधान एवं धारण करता है। अतः शरीरसे भिन्न आत्माकी सत्ता माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
-
जन्मके समय गर्भवास आदिके कारण जो कष्ट होता है, उसपर विचार करके शरीरसे वैराग्य होना ‘जातिनिर्वेद’ है। ↩︎
-
कर्मजनित क्लेश—नाना योनियोंकी प्राप्ति एवं नरकादि यातनाका विचार करके पाप तथा काम्य-कर्मोंसे विरत होना ‘कर्मनिर्वेद’ है। ↩︎
-
इस जगत्की छोटी-से-छोटी वस्तुओंसे लेकर ब्रह्मलोकतकके भोगोंकी क्षणभंगुरता और दुःखरूपताका विचार करके सब ओरसे विरक्त होना ‘सर्वनिर्वेद’ कहलाता है। ↩︎