भागसूचना
सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) उन चारोंके ज्ञानसे मुक्तिका कथन तथा परमात्मप्राप्तिके अन्य साधनोंका भी वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स वेद परं ब्रह्म यो न वेद चतुष्टयम्।
व्यक्ताव्यक्तं च यत् तत्त्वं सम्प्रोक्तं परमर्षिणा ॥ १ ॥
व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम्।
प्रवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् ॥ २ ॥
तत्रैवावस्थितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
निवृत्तिलक्षणं धर्ममव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
न स वेद परं ब्रह्म यो न वेद चतुष्टयम्।
व्यक्ताव्यक्तं च यत् तत्त्वं सम्प्रोक्तं परमर्षिणा ॥ १ ॥
व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम्।
प्रवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् ॥ २ ॥
तत्रैवावस्थितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
निवृत्तिलक्षणं धर्ममव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! जो मनुष्य सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग तथा प्रकृति और पुरुष—इन चारोंको नहीं जानता है, वह परब्रह्म परमात्माको नहीं जानता है। परम ऋषि नारायणने जिस व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वका प्रतिपादन किया है, उसमें व्यक्त (दृश्यवर्ग) को मृत्युके मुखमें पड़नेवाला जाने और अव्यक्तको अमृतपद समझे तथा नारायण ऋषिने जिस प्रवृत्तिरूप धर्मका प्रतिपादन किया है, उसीपर चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी प्रतिष्ठित है। निवृत्तिरूप जो धर्म है, वह अव्यक्त सनातन ब्रह्मस्वरूप है॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरथाब्रवीत् ।
प्रवृत्तिः पुनरावृत्तिर्निवृत्तिः परमा गतिः ॥ ४ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरथाब्रवीत् ।
प्रवृत्तिः पुनरावृत्तिर्निवृत्तिः परमा गतिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति ब्रह्माजीने प्रवृत्तिरूप धर्मका उपदेश दिया है; परंतु प्रवृत्तिरूप धर्म पुनरावृत्तिका कारण है। उसके आचरणसे संसारमें बारंबार जन्म लेना पड़ता है और निवृत्तिरूप धर्म परमगतिकी प्राप्ति करानेवाला है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां गतिं परमामेति निवृत्तिपरमो मुनिः।
ज्ञानतत्त्वपरो नित्यं शुभाशुभनिदर्शकः ॥ ५ ॥
मूलम्
तां गतिं परमामेति निवृत्तिपरमो मुनिः।
ज्ञानतत्त्वपरो नित्यं शुभाशुभनिदर्शकः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा ज्ञानतत्त्वके चिन्तनमें संलग्न रहनेवाला, शुभ और अशुभको (ज्ञाननेत्रोंके द्वारा तत्त्वसे) देखनेवाला तथा निवृत्तिपरायण मुनि है, वही उस परमगतिको प्राप्त होता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेवमेतौ विज्ञेयावव्यक्तपुरुषावुभौ ।
अव्यक्तपुरुषाभ्यां तु यत् स्यादन्यन्महत्तरम् ॥ ६ ॥
तं विशेषमवेक्षेत विशेषेण विचक्षणः।
मूलम्
तदेवमेतौ विज्ञेयावव्यक्तपुरुषावुभौ ।
अव्यक्तपुरुषाभ्यां तु यत् स्यादन्यन्महत्तरम् ॥ ६ ॥
तं विशेषमवेक्षेत विशेषेण विचक्षणः।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विचारशील पुरुषको चाहिये कि वह पहले अव्यक्त1 (प्रकृति) और पुरुष (जीवात्मा)—इन दोनोंका ज्ञान प्राप्त करे; फिर इन दोनोंसे श्रेष्ठ जो परम महान् पुरुषोत्तम तत्त्व है, उसका विशेषरूपसे ज्ञान प्राप्त करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाद्यन्तावुभावेतावलिङ्गौ चाप्युभावपि ॥ ७ ॥
उभौ नित्यावविचलौ महद्भ्यश्च महत्तरौ।
सामान्यमेतदुभयोरेवं ह्यन्यद्विशेषणम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अनाद्यन्तावुभावेतावलिङ्गौ चाप्युभावपि ॥ ७ ॥
उभौ नित्यावविचलौ महद्भ्यश्च महत्तरौ।
सामान्यमेतदुभयोरेवं ह्यन्यद्विशेषणम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों ही अनादि और अनन्त हैं2। दोनों ही अलिंग निराकार हैं तथा दोनों ही नित्य, अविचल और महान्से भी महान् हैं। ये सब बातें इन दोनोंमें समानरूपसे पायी जाती हैं; परंतु इनमें जो अन्तर या वैलक्षण्य है, वह दूसरा ही है, जिसे बताया जाता है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत्या सर्गधर्मिण्या तथा त्रिगुणधर्मया।
विपरीतमतो विद्यात् क्षेत्रज्ञस्य स्वलक्षणम् ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रकृत्या सर्गधर्मिण्या तथा त्रिगुणधर्मया।
विपरीतमतो विद्यात् क्षेत्रज्ञस्य स्वलक्षणम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति त्रिगुणमयी है। ब्रह्मके सकाशसे सृष्टि करना उसका सहज धर्म है, किंतु क्षेत्रज्ञ अथवा पुरुषके स्वरूपको प्रकृतिसे सर्वथा विपरीत (विलक्षण) जानना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतेश्च विकाराणां द्रष्टारमगुणान्वितम् ।
अग्राह्यौ पुरुषावेतावलिङ्गत्वादसंहतौ ॥ १० ॥
मूलम्
प्रकृतेश्च विकाराणां द्रष्टारमगुणान्वितम् ।
अग्राह्यौ पुरुषावेतावलिङ्गत्वादसंहतौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह स्वयं गुणोंसे रहित तथा प्रकृतिके विकारों (कार्यों) का द्रष्टा है। ये दोनों प्रकृति और पुरुष सम्पूर्णतः इन्द्रियोंके विषय नहीं हैं। दोनों ही आकाररहित तथा एक-दूसरेसे विलक्षण हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संयोगलक्षणोत्पत्तिः कर्मणा गृह्यते यथा।
करणैः कर्मनिर्वृत्तिः कर्ता यद् यद् विचेष्टते।
कीर्त्यते शब्दसंज्ञाभिः कोऽहमेषोऽप्यसाविति ॥ ११ ॥
मूलम्
संयोगलक्षणोत्पत्तिः कर्मणा गृह्यते यथा।
करणैः कर्मनिर्वृत्तिः कर्ता यद् यद् विचेष्टते।
कीर्त्यते शब्दसंज्ञाभिः कोऽहमेषोऽप्यसाविति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति और पुरुषके संयोगसे चराचर जगत्की उत्पत्ति होती है, जो कर्मसे ही जानी जाती है। जीव मन-इन्द्रियोंद्वारा कर्म करता है। वह जिस-जिस कर्मको करता है, उस-उसका कर्ता कहलाता है। ‘कौन’ ‘मैं’ ‘यह’ और ‘वह’—इन शब्दों एवं संज्ञाओंद्वारा उसीका वर्णन किया जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उष्णीषवान् यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः।
संवृतोऽयं तथा देही सत्त्वराजसतामसैः ॥ १२ ॥
मूलम्
उष्णीषवान् यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः।
संवृतोऽयं तथा देही सत्त्वराजसतामसैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पगड़ी बाँधनेवाला पुरुष तीन वस्त्रों (पगड़ी, ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र) से परिवेष्टित होता है, उसी प्रकार यह देहाभिमानी जीव सत्त्व, रज और तम—तीन गुणोंसे आवृत होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्चतुष्टयं वेद्यमेतैर्हेतुभिरावृतम् ।
यथासंज्ञो ह्ययं सम्यगन्तकाले न मुह्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्माच्चतुष्टयं वेद्यमेतैर्हेतुभिरावृतम् ।
यथासंज्ञो ह्ययं सम्यगन्तकाले न मुह्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इन्हीं हेतुओंसे आवृत हुई इन चार वस्तुओं (सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग, प्रकृति और पुरुष) को जानना चाहिये। इन्हें भलीभाँति तत्त्वसे जान लेनेपर मनुष्य मृत्युके समय मोहमें नहीं पड़ता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियं दिव्यामभिप्रेप्सुर्वर्ष्मवान् मनसा शुचिः।
शारीरैर्नियमैरुग्रैश्चरेन्निष्कल्मषं तपः ॥ १४ ॥
मूलम्
श्रियं दिव्यामभिप्रेप्सुर्वर्ष्मवान् मनसा शुचिः।
शारीरैर्नियमैरुग्रैश्चरेन्निष्कल्मषं तपः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दिव्य सम्पत्ति अर्थात् ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहे, उस देहधारी पुरुषको अपना मन शुद्ध रखना चाहिये और शरीरसे कठोर नियमोंका पालन करते हुए निर्दोष तपका अनुष्ठान करना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यं तपसा व्याप्तमन्तर्भूतेन भास्वता।
सूर्यश्व चन्द्रमाश्चैव भासतस्तपसा दिवि ॥ १५ ॥
मूलम्
त्रैलोक्यं तपसा व्याप्तमन्तर्भूतेन भास्वता।
सूर्यश्व चन्द्रमाश्चैव भासतस्तपसा दिवि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आन्तरिक तप चैतन्यमय प्रकाशसे युक्त है। उसके द्वारा तीनों लोक व्याप्त हैं। आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा भी तपसे ही प्रकाशित हो रहे हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशस्तपसो ज्ञानं लोके संशब्दितं तपः।
रजस्तमोघ्नं यत् कर्म तपसस्तत् स्वलक्षणम् ॥ १६ ॥
मूलम्
प्रकाशस्तपसो ज्ञानं लोके संशब्दितं तपः।
रजस्तमोघ्नं यत् कर्म तपसस्तत् स्वलक्षणम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकमें तप शब्द विख्यात है। उस तपका फल है, ज्ञानस्वरूप प्रकाश। रजोगुण और तमोगुणका नाश करनेवाला जो निष्काम कर्म है, वही तपस्याका स्वरूपबोधक लक्षण है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।
वाङ्मनोनियमः सम्यङ्मानसं तप उच्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।
वाङ्मनोनियमः सम्यङ्मानसं तप उच्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचर्य और अहिंसाको शारीरिक तप कहते हैं। मन और वाणीका भलीभाँति किया हुआ संयम मानसिक तप कहलाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधिज्ञेभ्यो द्विजातिभ्यो ग्राह्यमन्नं विशिष्यते।
आहारनियमेनास्य पाप्मा शाम्यति राजसः ॥ १८ ॥
मूलम्
विधिज्ञेभ्यो द्विजातिभ्यो ग्राह्यमन्नं विशिष्यते।
आहारनियमेनास्य पाप्मा शाम्यति राजसः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैदिक विधिको जानने और उनके अनुसार चलनेवाले द्विजातियोंसे ही अन्न ग्रहण करना उत्तम माना गया है। ऐसे अन्नका नियमपूर्वक भोजन करनेसे रजोगुणसे उत्पन्न होनेवाला पाप शान्त हो जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैमनस्यं च विषये यान्त्यस्य करणानि च।
तस्मात् तन्मात्रमादद्याद् यावदत्र प्रयोजनम् ॥ १९ ॥
मूलम्
वैमनस्यं च विषये यान्त्यस्य करणानि च।
तस्मात् तन्मात्रमादद्याद् यावदत्र प्रयोजनम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे साधककी इन्द्रियाँ भी विषयोंकी ओरसे विरक्त हो जाती हैं। इसलिये उतना ही अन्न ग्रहण करना चाहिये, जितना जीवन-रक्षाके लिये वाञ्छनीय हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तकाले बलोत्कर्षाच्छनैः कुर्यादनातुरः ।
एवं युक्तेन मनसा ज्ञानं यदुपपद्यते ॥ २० ॥
मूलम्
अन्तकाले बलोत्कर्षाच्छनैः कुर्यादनातुरः ।
एवं युक्तेन मनसा ज्ञानं यदुपपद्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार योगयुक्त मनके द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे जीवनके अन्त समयतक पूरी शक्ति लगाकर धीरे-धीरे प्राप्त ही कर लेना चाहिये। इस कार्यमें धैर्य नहीं छोड़ना चाहिये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजोवर्ज्योऽप्ययं देही देहवाञ्छब्दवच्चरेत् ।
कार्यैरव्याहतमतिर्वैराग्यात् प्रकृतौ स्थितः ॥ २१ ॥
मूलम्
रजोवर्ज्योऽप्ययं देही देहवाञ्छब्दवच्चरेत् ।
कार्यैरव्याहतमतिर्वैराग्यात् प्रकृतौ स्थितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगपरायण योगीकी बुद्धि कार्योंद्वारा व्याहत नहीं होती। वह वैराग्यवश अपने स्वभावमें स्थित रहता है, रजोगुणसे रहित होता है तथा देहधारी होकर भी शब्दकी भाँति अबाध गतिसे सर्वत्र विचरण करता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आ देहादप्रमादाच्च देहान्ताद् विप्रमुच्यते।
हेतुयुक्तः सदा सर्गो भूतानां प्रलयस्तथा ॥ २२ ॥
मूलम्
आ देहादप्रमादाच्च देहान्ताद् विप्रमुच्यते।
हेतुयुक्तः सदा सर्गो भूतानां प्रलयस्तथा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देह-त्यागपर्यन्त प्रमाद न होनेपर योगी देहावसानके पश्चात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है और जो बन्धनके कारणभूत अज्ञानसे युक्त होते हैं, उन प्राणियोंके सदा जन्म और मरण होते रहते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परप्रत्ययसर्गे तु नियतिर्नानुवर्तते ।
भावान्तप्रभवप्रज्ञा आसते ये विपर्ययम् ॥ २३ ॥
मूलम्
परप्रत्ययसर्गे तु नियतिर्नानुवर्तते ।
भावान्तप्रभवप्रज्ञा आसते ये विपर्ययम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है, उनका प्रारब्ध अनुसरण नहीं करता है अर्थात् वे प्रारब्धके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो इसके विपरीत स्थितिमें हैं अर्थात् जिनका अज्ञान दूर नहीं हुआ है, वे प्रारब्धवश जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े रहते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृत्या देहान् धारयन्तो बुद्धिसंक्षिप्तचेतसः।
स्थानेभ्यो ध्वंसमानाश्च सूक्ष्मत्वात् तदुपासते ॥ २४ ॥
मूलम्
धृत्या देहान् धारयन्तो बुद्धिसंक्षिप्तचेतसः।
स्थानेभ्यो ध्वंसमानाश्च सूक्ष्मत्वात् तदुपासते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ योगीजन बुद्धिके द्वारा अपने चित्तको विषयोंकी ओरसे हटाकर आसनकी दृढ़तासे स्थिरता-पूर्वक देहको धारण करते हुए इन्द्रिय-गोलकोंसे सम्बन्ध त्यागकर सूक्ष्म बुद्धि होनेके कारण ब्रह्मकी उपासना करते हैं[^*]॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथागमं च गत्वा वै बुद्ध्या तत्रैव बुद्ध्यते।
देहान्तं कश्चिदन्वास्ते भावितात्मा निराश्रयम् ॥ २५ ॥
मूलम्
यथागमं च गत्वा वै बुद्ध्या तत्रैव बुद्ध्यते।
देहान्तं कश्चिदन्वास्ते भावितात्मा निराश्रयम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई शास्त्रमें बताये हुए क्रमसे (उत्तरोत्तर उत्कृष्ट तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करते हुए पराकाष्ठातक पहुँचकर वहीं) बुद्धिके द्वारा ब्रह्मका अनुभव करते हैं। जिसने योगके द्वारा अपनी बुद्धिको शुद्ध कर लिया है, ऐसा कोई-कोई योगी ही देहस्थितिपर्यन्त आश्रयरहित—अपनी ही महिमामें प्रतिष्ठित ब्रह्ममें स्थित रहता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तं धारणया सम्यक् सतः केचिदुपासते।
अभ्यस्यन्ति परं देवं विद्युत्संशब्दिताक्षरम् ॥ २६ ॥
मूलम्
युक्तं धारणया सम्यक् सतः केचिदुपासते।
अभ्यस्यन्ति परं देवं विद्युत्संशब्दिताक्षरम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह कोई तो योगधारणाके द्वारा सगुण ब्रह्मकी उपासना करते हैं और कोई उस परम देवका चिन्तन करते हैं, जो विद्युत्के समान ज्योतिर्मय और अविनाशी कहा गया है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तकाले ह्युपासन्ते तपसा दग्धकिल्विषाः।
सर्व एते महात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ २७ ॥
मूलम्
अन्तकाले ह्युपासन्ते तपसा दग्धकिल्विषाः।
सर्व एते महात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग तपस्यासे अपने पापोंको दग्ध करके अन्तकालमें ब्रह्मकी प्राप्ति करते हैं। इन सभी महात्माओंको उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मं विशेषणं तेषामवेक्षेच्छास्त्रचक्षुषा ।
देहान्तं परमं विद्याद् विमुक्तमपरिग्रहम्।
अन्तरिक्षादन्यतरं धारणासक्तमानसम् ॥ २८ ॥
मूलम्
सूक्ष्मं विशेषणं तेषामवेक्षेच्छास्त्रचक्षुषा ।
देहान्तं परमं विद्याद् विमुक्तमपरिग्रहम्।
अन्तरिक्षादन्यतरं धारणासक्तमानसम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रीय दृष्टिसे उन महात्माओंकी सूक्ष्म विशेषताको देखे। देहत्यागपर्यन्त नित्यमुक्त, अपरिग्रह, आकाशसे भी विलक्षण उस परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त करे, जिसमें योगधारणाद्वारा मनको स्थापित किया जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्त्यलोकाद् विमुच्यन्ते विद्यासंसक्तचेतसः ।
ब्रह्मभूता विरजसस्ततो यान्ति परां गतिम् ॥ २९ ॥
मूलम्
मर्त्यलोकाद् विमुच्यन्ते विद्यासंसक्तचेतसः ।
ब्रह्मभूता विरजसस्ततो यान्ति परां गतिम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका मन ज्ञानके साधनमें लगा हुआ है, वे मर्त्यलोकके बन्धनसे छूट जाते हैं और रजोगुणसे रहित एवं ब्रह्मस्वरूप हो परम गतिको प्राप्त कर लेते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेकायनं धर्ममाहुर्वेदविदो जनाः ।
यथाज्ञानमुपासन्तः सर्वे यान्ति परां गतिम् ॥ ३० ॥
मूलम्
एवमेकायनं धर्ममाहुर्वेदविदो जनाः ।
यथाज्ञानमुपासन्तः सर्वे यान्ति परां गतिम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदके ज्ञाता विद्वान् पुरुषोंने इस प्रकार एकमात्र ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाले साधनरूप धर्मका वर्णन किया है। अपने-अपने ज्ञानके अनुसार उपासना करनेवाले सभी साधक परम गतिको प्राप्त होते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कषायवर्जितं ज्ञानं येषामुत्पद्यते चलम्।
यान्ति तेऽपि पराल्ँलोकान् विमुच्यन्ते यथाबलम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
कषायवर्जितं ज्ञानं येषामुत्पद्यते चलम्।
यान्ति तेऽपि पराल्ँलोकान् विमुच्यन्ते यथाबलम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें राग आदि दोषोंसे रहित अस्थायी ज्ञान प्राप्त होता है, वे भी उत्तम लोकोंको प्राप्त होते हैं। तदनन्तर साधन-बलसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्तमजं दिव्यं विष्णुमव्यक्तसंज्ञितम् ।
भावेन यान्ति शुद्धा ये ज्ञानतृप्ता निराशिषः ॥ ३२ ॥
मूलम्
भगवन्तमजं दिव्यं विष्णुमव्यक्तसंज्ञितम् ।
भावेन यान्ति शुद्धा ये ज्ञानतृप्ता निराशिषः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे युक्त, अजन्मा, दिव्य एवं अव्यक्त नामवाले भगवान् विष्णुकी भक्तिभावसे शरण लेते हैं, वे ज्ञानानन्दसे तृप्त, विशुद्ध और कामनारहित हो जाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वाऽऽत्मस्थं हरिं चैव न निवर्तन्ति तेऽव्ययाः।
प्राप्य तत् परमं स्थानं मोदन्तेऽक्षरमव्ययम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ज्ञात्वाऽऽत्मस्थं हरिं चैव न निवर्तन्ति तेऽव्ययाः।
प्राप्य तत् परमं स्थानं मोदन्तेऽक्षरमव्ययम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने अन्तःकरणमें श्रीहरिको स्थित जानकर अव्यय-स्वरूप हो जाते हैं। उन्हें फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता। वे उस अविनाशी और अविकारी परमपदको पाकर परमानन्दमें निमग्न हो जाते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेतद् विज्ञानमेतदस्ति च नास्ति च।
तृष्णाबद्धं जगत् सर्वं चक्रवत् परिवर्तते ॥ ३४ ॥
मूलम्
एतावदेतद् विज्ञानमेतदस्ति च नास्ति च।
तृष्णाबद्धं जगत् सर्वं चक्रवत् परिवर्तते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही यह विज्ञान है—यह जगत् है भी और नहीं भी है (अर्थात् व्यावहारिक अवस्थामें यह जगत् है और पारमार्थिक अवस्थामें नहीं है)। सम्पूर्ण जगत् तृष्णामें बँधकर चक्रके समान घूम रहा है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसतन्तुर्यथैवायमन्तःस्थः सर्वतो बिसे ।
तृष्णातन्तुरनाद्यन्तस्तथा देहगतः सदा ॥ ३५ ॥
मूलम्
बिसतन्तुर्यथैवायमन्तःस्थः सर्वतो बिसे ।
तृष्णातन्तुरनाद्यन्तस्तथा देहगतः सदा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कमलकी नालमें रहनेवाला तन्तु उसके सभी अंशोंमें फैला रहता है, उसी प्रकार अनादि एवं अनन्त तृष्णातन्तु सदा देहधारीके चित्तमें स्थित रहता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूच्या सूत्रं यथा वस्त्रे संसारयति वायकः।
तद्वत् संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या निबद्ध्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
सूच्या सूत्रं यथा वस्त्रे संसारयति वायकः।
तद्वत् संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या निबद्ध्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कपड़ा बुननेवाला बुनकर सूईसे वस्त्रमें सूतको पिरो देता है, उसी प्रकार तृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्र ग्रथित होता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम्।
यो यथावद् विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते ॥ ३७ ॥
मूलम्
विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम्।
यो यथावद् विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रकृतिको, उसके कार्यको, पुरुष (जीवात्मा) को और सनातन परमात्माको यथार्थ रूपसे जानता है, वह तृष्णासे रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशं भगवानेतदृषिर्नातयणोऽमृतम् ।
भूतानामनुकम्पार्थं जगाद जगतो गतिः ॥ ३८ ॥
मूलम्
प्रकाशं भगवानेतदृषिर्नातयणोऽमृतम् ।
भूतानामनुकम्पार्थं जगाद जगतो गतिः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारको शरण देनेवाले ऋषिश्रेष्ठ भगवान् नारायणने जीवोंपर दया करनेके लिये ही इस अमृतमय ज्ञानको प्रकाशित किया॥३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका वर्णनविषयक दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
- ‘पुराणान्तरमें बताया गया है कि इन्द्रियोंका आत्मभावसे चिन्तन करनेवाले योगी दस मन्वन्तरोंतक ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। यथा—’’’‘दशमन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकाः।’’''
मूलम्
- ‘पुराणान्तरमें बताया गया है कि इन्द्रियोंका आत्मभावसे चिन्तन करनेवाले योगी दस मन्वन्तरोंतक ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। यथा—’’’‘दशमन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकाः।’’''