भागसूचना
षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्थामें मनकी स्थिति तथा गुणातीत ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छता चरितुं सदा।
निद्रा सर्वात्मना त्याज्या स्वप्नदोषानवेक्षता ॥ १ ॥
मूलम्
निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छता चरितुं सदा।
निद्रा सर्वात्मना त्याज्या स्वप्नदोषानवेक्षता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! सदा निष्कलंक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको स्वप्नके दोषोंपर दृष्टि रखते हुए सब प्रकारसे निद्राका परित्याग कर देना चाहिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्ने हि रजसा देही तमसा चाभिभूयते।
देहान्तरमिवापन्नश्चरत्युपगतस्पृहः ॥ २ ॥
मूलम्
स्वप्ने हि रजसा देही तमसा चाभिभूयते।
देहान्तरमिवापन्नश्चरत्युपगतस्पृहः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वप्नमें जीवको प्रायः रजोगुण और तमोगुण दबा लेते हैं। वह कामनायुक्त होकर दूसरे शरीरको प्राप्त हुएकी भाँति विचरता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानाभ्यासाज्जागरणं जिज्ञासार्थमनन्तरम् ।
विज्ञानाभिनिवेशात्तु स जागर्त्यनिशं सदा ॥ ३ ॥
मूलम्
ज्ञानाभ्यासाज्जागरणं जिज्ञासार्थमनन्तरम् ।
विज्ञानाभिनिवेशात्तु स जागर्त्यनिशं सदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यमें पहले तो ज्ञानका अभ्यास करनेसे जागनेकी आदत होती है, तत्पश्चात् विचार करनेके लिये जागना अनिवार्य हो जाता है तथा जो तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह तो ब्रह्ममें निरन्तर जागता ही रहता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राह को न्वयं भावः स्वप्ने विषयवानिव।
प्रलीनैरिन्द्रियैर्देही वर्तते देहवानिव ॥ ४ ॥
मूलम्
अत्राह को न्वयं भावः स्वप्ने विषयवानिव।
प्रलीनैरिन्द्रियैर्देही वर्तते देहवानिव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ पूर्व पक्ष यह प्रश्न उठाता है कि स्वप्नमें जो यह देहादि पदार्थ दिखायी देता है, क्या है? (सत्य है या असत्य? यदि कहें कि सत्य है तो ठीक नहीं; क्योंकि) स्वप्नावस्थामें सब कुछ विषयोंसे सम्पन्न-सा दिखायी देनेपर भी वास्तवमें वहाँ कोई विषय नहीं होता, सारी इन्द्रियाँ उस समय मनमें विलीन हो जाती हैं। उन्हीं इन्द्रियोंसे देहाभिमानी जीव देहधारी-जैसा बर्ताव करता है। और यदि कहें कि स्वप्नके पदार्थ असत्य हैं तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जो सर्वथा असत् है, (जैसे आकाशका पुष्प) उसकी प्रतीति ही नहीं होती॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोच्यते यथा ह्येतद् वेद योगेश्वरो हरिः।
तथैतदुपपन्नार्थं वर्णयन्ति महर्षयः ॥ ५ ॥
मूलम्
अत्रोच्यते यथा ह्येतद् वेद योगेश्वरो हरिः।
तथैतदुपपन्नार्थं वर्णयन्ति महर्षयः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब यहाँ सिद्धान्तका प्रतिपादन किया जाता है। यह स्वप्न-जगत् जैसा है, उसे ठीक-ठीक योगेश्वर श्रीहरि ही जानते हैं; पर जैसा श्रीहरि जानते हैं, वैसा ही महर्षि भी उसका वर्णन करते हैं, उनका वह वर्णन युक्तिसंगत भी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां श्रमात् स्वप्नमाहुः सर्वगतं बुधाः।
मनसस्त्वप्रलीनत्वात् तत् तदाहुर्निदर्शनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां श्रमात् स्वप्नमाहुः सर्वगतं बुधाः।
मनसस्त्वप्रलीनत्वात् तत् तदाहुर्निदर्शनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् महर्षियोंका कहना है कि जाग्रत्-अवस्थामें निरन्तर शब्द आदि विषयोंको ग्रहण करते-करते श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ जब थक जाती हैं, तब सभी प्राणियोंके अनुभवमें आनेवाला स्वप्न दिखायी देने लगता है। उस समय इन्द्रियोंके लय होनेपर भी मनका लय नहीं होता है; इसलिये वह समस्त विषयोंका जो मनसे अनुभव करता है, वही स्वप्न कहलाता है। इस विषयमें प्रसिद्ध दृष्टान्त बताया जाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्ये व्यासक्तमनसः संकल्पो जाग्रतो ह्यपि।
यद्वन्मनोरथैश्वर्यं स्वप्ने तद्वन्मनोगतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
कार्ये व्यासक्तमनसः संकल्पो जाग्रतो ह्यपि।
यद्वन्मनोरथैश्वर्यं स्वप्ने तद्वन्मनोगतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जाग्रत्-अवस्थामें विभिन्न कार्योंमें आसक्त-चित्त हुए मनुष्यके संकल्प मनोराज्यकी ही विभूति हैं, उसी प्रकार स्वप्नके भाव भी मनसे ही सम्बन्ध रखते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्काराणामसंख्यानां कामात्मा तदवाप्नुयात् ।
मनस्यन्तर्हितं सर्वं स वेदोत्तमपूरुषः ॥ ८ ॥
मूलम्
संस्काराणामसंख्यानां कामात्मा तदवाप्नुयात् ।
मनस्यन्तर्हितं सर्वं स वेदोत्तमपूरुषः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामनाओंमें जिसका मन आसक्त है, वह पुरुष स्वप्नमें असंख्य संस्कारोंके अनुसार अनेक दृश्योंको देखता है। वे समस्त संस्कार उसके मनमें ही छिपे रहते हैं, जिन्हें वह सर्वश्रेष्ठ अन्तर्यामी पुरुष परमात्मा जानता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणानामपि यद्येतत् कर्मणा चाप्युपस्थितम्।
तत् तत् शंसन्ति भूतानि मनो यद्भावितं यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
गुणानामपि यद्येतत् कर्मणा चाप्युपस्थितम्।
तत् तत् शंसन्ति भूतानि मनो यद्भावितं यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मोंके अनुसार सत्त्वादि गुणोंमेंसे यदि यह सत्त्व, रज या तम जो कोई भी गुण प्राप्त होता है, उससे मनपर जब जैसे संस्कार पड़ते हैं अथवा जब जिस कर्मसे मन भावित होता है, उस समय सूक्ष्मभूत स्वप्नमें वैसे ही आकार प्रकट कर देते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तमुपसर्पन्ति गुणा राजसतामसाः ।
सात्त्विका वा यथायोगमानन्तर्यफलोदयम् ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्तमुपसर्पन्ति गुणा राजसतामसाः ।
सात्त्विका वा यथायोगमानन्तर्यफलोदयम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस स्वप्नका दर्शन होते ही सात्त्विक, राजस अथवा तामस गुण यथायोग्य सुख-दुःखरूप फलका अनुभव करानेके लिये उसके पास आ पहुँचते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पश्यन्त्यसम्बुद्ध्या वातपित्तकफोत्तरान् ।
रजस्तमोगतैर्भावैस्तदप्याहुर्दुरत्ययम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ततः पश्यन्त्यसम्बुद्ध्या वातपित्तकफोत्तरान् ।
रजस्तमोगतैर्भावैस्तदप्याहुर्दुरत्ययम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मनुष्य स्वप्नमें अज्ञानवश वात, पित्त या कफकी प्रधानतासे युक्त तथा काम, मोह आदि राजस, तामस भावोंसे व्याप्त नाना प्रकारके शरीरोंका दर्शन करते हैं। तत्त्वज्ञान हुए बिना उस स्वप्नदर्शनको लाँघना अत्यन्त कठिन बताया गया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नैरिन्द्रियैर्यद् यत् संकल्पयति मानसम्।
तत् तत् स्वप्नेऽप्युपगते मनो हृष्यन्निरीक्षते ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रसन्नैरिन्द्रियैर्यद् यत् संकल्पयति मानसम्।
तत् तत् स्वप्नेऽप्युपगते मनो हृष्यन्निरीक्षते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाग्रत्-अवस्थामें प्रसन्न इन्द्रियोंके द्वारा मनुष्य अपने मनमें जो-जो संकल्प करता है, स्वप्नावस्था आनेपर भी उसका वह मन हर्षपूर्वक उसी-उसी संकल्पको पूर्ण होता देखा करता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यापकं सर्वभूतेषु वर्ततेऽप्रतिघं मनः।
आत्मप्रभावात् तं विद्यात् सर्वा ह्यात्मनि देवताः ॥ १३ ॥
मूलम्
व्यापकं सर्वभूतेषु वर्ततेऽप्रतिघं मनः।
आत्मप्रभावात् तं विद्यात् सर्वा ह्यात्मनि देवताः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनकी सर्वत्र अबाध गति है। वह अपने अधिष्ठान-भूत आत्माके ही प्रभावसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त है; अतः आत्माको अवश्य जानना चाहिये; क्योंकि सभी देवता आत्मामें ही स्थित हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनस्यन्तर्हितं द्वारं देहमास्थाय मानुषम्।
यद् यत् सदसदव्यक्तं स्वपित्यस्मिन्निदर्शनम्।
सर्वभूतात्मभूतस्थं तमध्यात्मगुणं विदुः ॥ १४ ॥
मूलम्
मनस्यन्तर्हितं द्वारं देहमास्थाय मानुषम्।
यद् यत् सदसदव्यक्तं स्वपित्यस्मिन्निदर्शनम्।
सर्वभूतात्मभूतस्थं तमध्यात्मगुणं विदुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वप्न-दर्शनका द्वारभूत जो स्थूल मानव देह है, वह सुषुप्ति-अवस्थामें मनमें लीन हो जाता है। उसी देहका आश्रय ले मन अव्यक्त सदसत्स्वरूप एवं साक्षीभूत आत्माको प्राप्त होता है। वह आत्मा सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत है। ज्ञानी पुरुष उसे अध्यात्मगुणसे युक्त मानते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिप्सेत मनसा यश्च संकल्पादैश्वरं गुणम्।
आत्मप्रसादं तं विद्यात् सर्वा ह्यात्मनि देवताः ॥ १५ ॥
मूलम्
लिप्सेत मनसा यश्च संकल्पादैश्वरं गुणम्।
आत्मप्रसादं तं विद्यात् सर्वा ह्यात्मनि देवताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी मनके द्वारा संकल्पसे ही ईश्वरीय गुणको पाना चाहता है, वह उस आत्मप्रसादको प्राप्त कर लेता है; क्योंकि सम्पूर्ण देवता आत्मामें ही स्थित हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि तपसा युक्तमर्कवत् तमसः परम्।
त्रैलोक्यप्रकृतिर्देही तमसोऽन्ते महेश्वरः ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं हि तपसा युक्तमर्कवत् तमसः परम्।
त्रैलोक्यप्रकृतिर्देही तमसोऽन्ते महेश्वरः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार तपस्यासे युक्त हुआ मन अज्ञानान्धकारसे ऊपर उठकर सूर्यके समान ज्ञानमय प्रकाशसे प्रकाशित होने लगता है। जीवात्मा तीनों लोकोंका कारणभूत ब्रह्म ही है। वह अज्ञान निवृत्तिके पश्चात् महेश्वर (विशुद्ध परमात्मा) रूपसे प्रतिष्ठित होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपो ह्यधिष्ठितं देवैस्तपोघ्नमसुरैस्तमः ।
एतद् देवासुरैर्गुप्तं तदाहुर्ज्ञानलक्षणम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तपो ह्यधिष्ठितं देवैस्तपोघ्नमसुरैस्तमः ।
एतद् देवासुरैर्गुप्तं तदाहुर्ज्ञानलक्षणम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने तपका आश्रय लिया है और असुरोंने तपस्यामें विघ्न डालनेवाले दम्भ, दर्प आदि तमको अपनाया है; परंतु ब्रह्मतत्त्व देवताओं और असुरोंसे छिपा हुआ है; तत्वज्ञ पुरुष इसे ज्ञानस्वरूप बताते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान् विदुः।
सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ ॥ १८ ॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान् विदुः।
सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण—इन्हें देवताओं और असुरोंका गुण माना गया है। इनमें सत्त्व तो देवताओंका गुण और शेष दोनों असुरोंके गुण हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म तत् परमं ज्ञानममृतं ज्योतिरक्षरम्।
ये विदुर्भावितात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्रह्म तत् परमं ज्ञानममृतं ज्योतिरक्षरम्।
ये विदुर्भावितात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्म इन सभी गुणोंसे अतीत, अक्षर, अमृत, स्वयंप्रकाश और ज्ञानस्वरूप है। जो शुद्ध अन्तःकरणवाले महात्मा उसे जानते हैं, वे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतुमच्छक्यमाख्यातुमेतावज्ज्ञानचक्षुषा ।
प्रत्याहारेण वा शक्यमक्षरं ब्रह्म वेदितुम् ॥ २० ॥
मूलम्
हेतुमच्छक्यमाख्यातुमेतावज्ज्ञानचक्षुषा ।
प्रत्याहारेण वा शक्यमक्षरं ब्रह्म वेदितुम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानमयी दृष्टि रखनेवाले महापुरुष ही ब्रह्मके विषयमें युक्तिसंगत बात कह सकते हैं अथवा मन और इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाकर एकाग्रचित्त हो चिन्तन करनेसे भी ब्रह्मका साक्षात्कार हो सकता है॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१६॥