भागसूचना
पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरन्तेष्विन्द्रियार्थेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः।
ये त्वसक्ता महात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥
मूलम्
दुरन्तेष्विन्द्रियार्थेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः।
ये त्वसक्ता महात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इन्द्रियोंके विषयोंका पार पाना बहुत कठिन है। जो प्राणी उनमें आसक्त होते हैं वे दुःख भोगते रहते हैं; और जो महात्मा उनमें आसक्त नहीं होते वे परम गतिको प्राप्त होते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्ममृत्युजरादुःखैर्व्याधिभिर्मानसक्लमैः ।
दृष्ट्वैव संततं लोकं घटेन्मोक्षाय बुद्धिमान् ॥ २ ॥
मूलम्
जन्ममृत्युजरादुःखैर्व्याधिभिर्मानसक्लमैः ।
दृष्ट्वैव संततं लोकं घटेन्मोक्षाय बुद्धिमान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जगत् जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थाके दुःखों, नाना प्रकारके रोगों तथा मानसिक चिन्ताओंसे व्याप्त है; ऐसा समझकर बुद्धिमान् पुरुषको मोक्षके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाङ्मनोभ्यां शरीरेण शुचिः स्यादनहंकृतः।
प्रशान्तो ज्ञानवान् भिक्षुर्निरपेक्षश्चरेत् सुखम् ॥ ३ ॥
मूलम्
वाङ्मनोभ्यां शरीरेण शुचिः स्यादनहंकृतः।
प्रशान्तो ज्ञानवान् भिक्षुर्निरपेक्षश्चरेत् सुखम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मन, वाणी और शरीरसे पवित्र रहकर अहंकारशून्य, शान्तचित्त, ज्ञानवान् एवं निःस्पृह होकर भिक्षावृत्तिसे निर्वाह करता हुआ सुखपूर्वक विचरे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मनसः सङ्गं पश्येद् भूतानुकम्पया।
तत्राप्युपेक्षां कुर्वीत ज्ञात्वा कर्मफलं जगत् ॥ ४ ॥
मूलम्
अथवा मनसः सङ्गं पश्येद् भूतानुकम्पया।
तत्राप्युपेक्षां कुर्वीत ज्ञात्वा कर्मफलं जगत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा प्राणियोंपर दया करते रहनेसे भी मोहवश उनके प्रति मनमें आसक्ति हो जाती है। इस बातपर दृष्टिपात करे और यह समझकर कि सारा जगत् अपने-अपने कर्मोंका फल भोग रहा है, सबके प्रति उपेक्षाभाव रखे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् कृतं स्याच्छुभं कर्म पापं वा यदि वाश्नुते।
तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद् वा बुद्धिकर्मभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
यत् कृतं स्याच्छुभं कर्म पापं वा यदि वाश्नुते।
तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद् वा बुद्धिकर्मभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है उसका फल उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है; इसलिये मन, बुद्धि और क्रियाके द्वारा सदा शुभ कर्मोंका ही आचरण करे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम्।
क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम्।
क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा, सत्यभाषण, समस्त प्राणियोंके प्रति सरलतापूर्ण बर्ताव, क्षमा तथा प्रमादशून्यता—ये गुण जिस पुरुषमें विद्यमान हों, वही सुखी होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैनं परमं धर्मं सर्वभूतसुखावहम्।
दुःखान्निःसरणं वेद सर्वज्ञः स सुखी भवेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
यश्चैनं परमं धर्मं सर्वभूतसुखावहम्।
दुःखान्निःसरणं वेद सर्वज्ञः स सुखी भवेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इस अहिंसा आदि परम धर्मको समस्त प्राणियोंके लिये सुखद और दुःखनिवारक जानता है, वही सर्वज्ञ है और वही सुखी होता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् समाहितं बुद्ध्या मनो भूतेषु धारयेत्।
नापध्यायेन्न स्पृहयेन्नाबद्धं चिन्तयेदसत् ॥ ८ ॥
अथामोघप्रयत्नेन मनो ज्ञाने निवेशयेत्।
वाचामोघप्रयासेन मनोज्ञं तत् प्रवर्तते ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्मात् समाहितं बुद्ध्या मनो भूतेषु धारयेत्।
नापध्यायेन्न स्पृहयेन्नाबद्धं चिन्तयेदसत् ॥ ८ ॥
अथामोघप्रयत्नेन मनो ज्ञाने निवेशयेत्।
वाचामोघप्रयासेन मनोज्ञं तत् प्रवर्तते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये बुद्धिके द्वारा मनको समाहित करके समस्त प्राणियोंमें स्थित परमात्मामें लगावे। किसीका अहित न सोचे, असम्भव वस्तुकी कामना न करे, मिथ्या पदार्थोंकी चिन्ता न करे और सफल प्रयत्न करके मनको ज्ञानके साधनमें लगा दे। वेदान्त-वाक्योंके श्रवण तथा सुदृढ़ प्रयत्नसे उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवक्षता च सद्वाक्यं धर्मं सूक्ष्ममवेक्षता।
सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम् ॥ १० ॥
कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनाम् ।
ईदृगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा ॥ ११ ॥
मूलम्
विवक्षता च सद्वाक्यं धर्मं सूक्ष्ममवेक्षता।
सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम् ॥ १० ॥
कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनाम् ।
ईदृगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सूक्ष्म धर्मको देखता और उत्तम वचन बोलना चाहता हो, उसको ऐसी बात कहनी चाहिये जो सत्य होनेके साथ ही हिंसा और परनिन्दासे रहित हो। जिसमें शठता, कठोरता, क्रूरता और चुगली आदि दोषोंका सर्वथा अभाव हो, ऐसी वाणी भी बहुत थोड़ी मात्रामें और सुस्थिर चित्तसे बोलनी चाहिये॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्प्रबद्धो हि संसारो विरागाद् व्याहरेद् यदि।
बुद्ध्याप्यनुगृहीतेन मनसा कर्म तामसम् ॥ १२ ॥
मूलम्
वाक्प्रबद्धो हि संसारो विरागाद् व्याहरेद् यदि।
बुद्ध्याप्यनुगृहीतेन मनसा कर्म तामसम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारका सारा व्यवहार वाणीसे ही बँधा हुआ है, अतः सदा उत्तम वाणी ही बोले और यदि वैराग्य हो तो बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके अपने किये हुए हिंसादि तामस कर्मोंको भी लोगोंसे कह दे (क्योंकि प्रकाशित कर देनेसे पापकी मात्रा घट जाती है)॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजोभूतैर्हि करणैः कर्मणि प्रतिपद्यते।
स दुःखं प्राप्य लोकेऽस्मिन् नरकायोपपद्यते।
तस्मान्मनोवाक्शरीरैराचरेद् धैर्यमात्मनः ॥ १३ ॥
मूलम्
रजोभूतैर्हि करणैः कर्मणि प्रतिपद्यते।
स दुःखं प्राप्य लोकेऽस्मिन् नरकायोपपद्यते।
तस्मान्मनोवाक्शरीरैराचरेद् धैर्यमात्मनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणसे प्रभावित हुई इन्द्रियोंकी प्रेरणासे मनुष्य विषयभोगरूप कर्मोंमें प्रवृत्त होता है और इस लोकमें दुःख भोगकर अन्तमें नरकगामी होता है। अतः मन, वाणी और शरीरद्वारा ऐसा कार्य करे जिससे अपनेको धैर्य प्राप्त हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकीर्णमेष भारं हि यद्वद् धार्येत दस्युभिः।
प्रतिलोमां दिशं बुद्ध्वा संसारमबुधास्तथा ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रकीर्णमेष भारं हि यद्वद् धार्येत दस्युभिः।
प्रतिलोमां दिशं बुद्ध्वा संसारमबुधास्तथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चोर या लुटेरे किसीकी भेड़को मारकर उसे कंधेपर उठाये हुए जबतक भागते हैं तबतक उन्हें सारी दिशाओंमें पकड़े जानेका भय बना रहता है; और जब मार्गको प्रतिकूल समझकर उस भेड़के बोझको अपने कंधेसे उतार फेंकते हैं तब अपनी अभीष्ट दिशाको सुखपूर्वक चले जाते हैं। उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य जबतक सांसारिक कर्मरूप बोझको ढोते हैं तबतक उन्हें सर्वत्र भय बना रहता है; और जब उसे त्याग देते हैं, तब शान्तिके भागी हो जाते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव च यथा दस्युः क्षिप्त्वा गच्छेच्छिवां दिशम्।
तथा रजस्तमः कर्माण्युत्सृज्य प्राप्नुयाच्छुभम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तमेव च यथा दस्युः क्षिप्त्वा गच्छेच्छिवां दिशम्।
तथा रजस्तमः कर्माण्युत्सृज्य प्राप्नुयाच्छुभम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चोर या डाकू जब उस चोरीके मालका बोझ उतार फेंकता है तब जहाँ उसे सुख मिलनेकी आशा होती है, उस दिशामें अनायास चला जाता है। उसी प्रकार मनुष्य राजस और तामस कर्मोंको त्यागकर शुभ गति प्राप्त कर लेता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसंदिग्धमनीहो वै मुक्तः सर्वपरिग्रहैः।
विविक्तचारी लघ्वाशी तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ १६ ॥
ज्ञानदग्धपरिक्लेशः प्रयोगरतिरात्मवान् ।
निष्प्रचारेण मनसा परं तदधिगच्छति ॥ १७ ॥
मूलम्
निःसंदिग्धमनीहो वै मुक्तः सर्वपरिग्रहैः।
विविक्तचारी लघ्वाशी तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ १६ ॥
ज्ञानदग्धपरिक्लेशः प्रयोगरतिरात्मवान् ।
निष्प्रचारेण मनसा परं तदधिगच्छति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारके संग्रहसे रहित, निरीह, एकान्त-वासी, अल्पाहारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय है, जिसके सम्पूर्ण क्लेश ज्ञानाग्निसे दग्ध हो गये हैं; तथा जो योगानुष्ठानका प्रेमी और मनको वशमें रखनेवाला है, वह अपने निश्चल चित्तके द्वारा उस परब्रह्म परमात्माको निःसंदेह प्राप्त कर लेता है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतिमानात्मवान् बुद्धिं निगृह्णीयादसंशयम् ।
मनो बुद्ध्या निगृह्णीयाद् विषयान्मनसाऽऽत्मनः ॥ १८ ॥
मूलम्
धृतिमानात्मवान् बुद्धिं निगृह्णीयादसंशयम् ।
मनो बुद्ध्या निगृह्णीयाद् विषयान्मनसाऽऽत्मनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् एवं धीर पुरुषको चाहिये कि वह बुद्धिको निश्चय ही अपने वशमें करे; फिर बुद्धिके द्वारा मनको और मनके द्वारा अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे रोककर अपने अधीन करे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगृहीतेन्द्रियस्यास्य कुर्वाणस्य मनो वशे।
देवतास्तत् प्रकाशन्ते हृष्टा यान्ति तमीश्वरम् ॥ १९ ॥
मूलम्
निगृहीतेन्द्रियस्यास्य कुर्वाणस्य मनो वशे।
देवतास्तत् प्रकाशन्ते हृष्टा यान्ति तमीश्वरम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जिसने इन्द्रियोंको वशमें करके मनको अपने अधीन कर लिया है, उस अवस्थामें उसकी इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवता प्रसन्नतासे प्रकाशित होने लगते हैं; और ईश्वरकी ओर प्रवृत्त हो जाते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिः संयुक्तमनसो ब्रह्म तत् सम्प्रकाशते।
शनैश्चोपगते सत्त्वे ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २० ॥
मूलम्
ताभिः संयुक्तमनसो ब्रह्म तत् सम्प्रकाशते।
शनैश्चोपगते सत्त्वे ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन इन्द्रियदेवताओंसे जिसका मन संयुक्त हो गया है, उसके अन्तःकरणमें परब्रह्म परमात्मा प्रकाशित हो उठता है; फिर धीरे-धीरे सत्त्वगुण प्राप्त होनेपर वह मनुष्य ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा न प्रवर्तेत योगतन्त्रैरुपक्रमेत्।
येन तन्त्रयतस्तन्त्रं वृत्तिः स्यात् तत् तदाचरेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
अथवा न प्रवर्तेत योगतन्त्रैरुपक्रमेत्।
येन तन्त्रयतस्तन्त्रं वृत्तिः स्यात् तत् तदाचरेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि पूर्वोक्तरूपसे उसके भीतर ब्रह्म प्रकाशित न हो तो वह योगी योगप्रधान उपायोंद्वारा अभ्यास आरम्भ करे। जिस हेतुसे योगाभ्यास करते हुए योगीकी ब्रह्ममें ही स्थिति हो, वह उसी-उसीका अनुष्ठान करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कणकुल्माषपिण्याकशाकयावकसक्तवः ।
तथा मूलफलं भैक्ष्यं पर्यायेणोपयोजयेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
कणकुल्माषपिण्याकशाकयावकसक्तवः ।
तथा मूलफलं भैक्ष्यं पर्यायेणोपयोजयेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्नके दाने, उड़द, तिलकी खली, साग, जौकी लप्सी, सत्तू, मूल और फल जो कुछ भी भिक्षामें मिल जाय, क्रमशः उसी अन्नसे योगी अपने जीवनका निर्वाह करे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहारनियमं चैव देशे काले च सात्त्विकम्।
तत् परीक्ष्यानुवर्तेत तत्प्रवृत्त्यनुपूर्वकम् ॥ २३ ॥
मूलम्
आहारनियमं चैव देशे काले च सात्त्विकम्।
तत् परीक्ष्यानुवर्तेत तत्प्रवृत्त्यनुपूर्वकम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देश और कालके अनुसार सात्त्विक आहार ग्रहण करनेका नियम रखे। उस आहारके दोष-गुणकी परीक्षा करके यदि वह योगसिद्धिके अनुकूल हो तो उसे उपयोगमें ले॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तं नोपरुन्धेत शनैरग्निमिवेन्धयेत् ।
ज्ञानान्वितं तथा ज्ञानमर्कवत् सम्प्रकाशते ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रवृत्तं नोपरुन्धेत शनैरग्निमिवेन्धयेत् ।
ज्ञानान्वितं तथा ज्ञानमर्कवत् सम्प्रकाशते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधन आरम्भ कर देनेपर उसे बीचमें न रोके। जैसे आग धीरे-धीरे तेज की जाती है, उसी प्रकार ज्ञानके साधनको शनैः-शनैः उद्दीपित करे। ऐसा करनेसे ज्ञान सूर्यके समान प्रकाशित होने लगता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं त्रील्ँलोकानधितिष्ठति ।
विज्ञानानुगतं ज्ञानमज्ञानेनापकृष्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं त्रील्ँलोकानधितिष्ठति ।
विज्ञानानुगतं ज्ञानमज्ञानेनापकृष्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानका अधिष्ठान भी ज्ञान ही है जो तीनों लोकोंमें व्याप्त है। अज्ञानके द्वारा विज्ञानयुक्त ज्ञानका ह्रास होता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथक्त्वात् सम्प्रयोगाच्च नासूयुर्वेद शाश्वतम्।
स तयोरपवर्गज्ञो वीतरागो विमुच्यते ॥ २६ ॥
मूलम्
पृथक्त्वात् सम्प्रयोगाच्च नासूयुर्वेद शाश्वतम्।
स तयोरपवर्गज्ञो वीतरागो विमुच्यते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रोंमें कहीं जीवात्मा और परमात्माकी पृथक्ताका प्रतिपादन करनेवाले वचन उपलब्ध होते हैं और कहीं उनकी एकताका। यह परस्पर विरोध देखकर दोषदृष्टि न करते हुए सनातन ज्ञानको प्राप्त करे। जो उन दोनों प्रकारके वचनोंका तात्पर्य समझकर मोक्षके तत्त्वको जान लेता है, वह वीतराग पुरुष संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वीतजरामृत्युर्ज्ञात्वा ब्रह्म सनातनम्।
अमृतं तदवाप्नोति यत् तदक्षरमव्ययम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो वीतजरामृत्युर्ज्ञात्वा ब्रह्म सनातनम्।
अमृतं तदवाप्नोति यत् तदक्षरमव्ययम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा पुरुष जरा और मृत्युका उल्लंघनकर सनातन ब्रह्मको जानकर उस अक्षर, अविकारी एवं अमृत ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका वर्णनविषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१५॥