भागसूचना
चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्मचर्य तथा वैराग्यसे मुक्ति
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोपायं प्रवक्ष्यामि यथावच्छास्त्रचक्षुषा ।
तत्त्वज्ञानाच्चरन् राजन् प्राप्नुयात्परमां गतिम् ॥ १ ॥
मूलम्
अत्रोपायं प्रवक्ष्यामि यथावच्छास्त्रचक्षुषा ।
तत्त्वज्ञानाच्चरन् राजन् प्राप्नुयात्परमां गतिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! अब मैं तुम्हें शास्त्र-दृष्टिसे मोक्षका यथावत् उपाय बताता हूँ। शास्त्रविहित कर्मोंका निष्कामभावसे आचरण करता हुआ मनुष्य तत्त्वज्ञानसे परमगतिको प्राप्त कर लेता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषामेव भूतानां पुरुषः श्रेष्ठ उच्यते।
पुरुषेभ्यो द्विजानाहुर्द्विजेभ्यो मन्त्रदर्शिनः ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वेषामेव भूतानां पुरुषः श्रेष्ठ उच्यते।
पुरुषेभ्यो द्विजानाहुर्द्विजेभ्यो मन्त्रदर्शिनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंमें मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है। मनुष्योंमें द्विजोंको और द्विजोंमें भी मन्त्रद्रष्टा (वेदज्ञ) ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ बताया गया है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूतास्ते सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः ।
ब्राह्मणा वेदशास्त्रज्ञास्तत्त्वार्थगतनिश्चयाः ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूतास्ते सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः ।
ब्राह्मणा वेदशास्त्रज्ञास्तत्त्वार्थगतनिश्चयाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-शास्त्रोंके यथार्थ ज्ञाता ब्राह्मण समस्त भूतोंके आत्मा, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। उन्हें परमार्थतत्त्वका पूर्ण निश्चय होता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्रहीनो यथा ह्येकः कृच्छ्राणि लभतेऽध्वनि।
ज्ञानहीनस्तथा लोके तस्माज्ज्ञानविदोऽधिकाः ॥ ४ ॥
मूलम्
नेत्रहीनो यथा ह्येकः कृच्छ्राणि लभतेऽध्वनि।
ज्ञानहीनस्तथा लोके तस्माज्ज्ञानविदोऽधिकाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नेत्रहीन पुरुष मार्गमें अकेला होनेपर तरह-तरहके दुःख पाता है, उसी प्रकार संसारमें ज्ञानहीन मनुष्यको भी अनेक प्रकारके कष्ट भोगने पड़ते हैं; इसलिये ज्ञानी पुरुष ही सबसे श्रेष्ठ है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तानुपासते धर्मान् धर्मकामा यथागमम्।
न त्वेषामर्थसामान्यमन्तरेण गुणानिमान् ॥ ५ ॥
मूलम्
तांस्तानुपासते धर्मान् धर्मकामा यथागमम्।
न त्वेषामर्थसामान्यमन्तरेण गुणानिमान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य शास्त्रके अनुसार उन-उन यज्ञादि सकाम धर्मोंका अनुष्ठान करते हैं; किंतु आगे बताये जानेवाले गुणोंके बिना इन्हें सबके लिये समानरूपसे अभीष्ट मोक्ष नामक पुरुषार्थकी प्राप्ति नहीं होती॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाग्देहमनसां शौचं क्षमा सत्यं धृतिः स्मृतिः।
सर्वधर्मेषु धर्मज्ञा ज्ञापयन्ति गुणान् शुभान् ॥ ६ ॥
मूलम्
वाग्देहमनसां शौचं क्षमा सत्यं धृतिः स्मृतिः।
सर्वधर्मेषु धर्मज्ञा ज्ञापयन्ति गुणान् शुभान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाणी, शरीर और मनकी पवित्रता, क्षमा, सत्य, धैर्य और स्मृति—इन गुणोंको प्रायः सभी धर्मोंके धर्मज्ञ पुरुष कल्याणकारी बताते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम्।
परं तत् सर्वधर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम् ॥ ७ ॥
मूलम्
यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम्।
परं तत् सर्वधर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो ब्रह्मचर्य नामक गुण है, इसे तो शास्त्रोंमें ब्रह्मका स्वरूप ही बताया गया है। यह सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्यके पालनसे मनुष्य परमपदको प्राप्त कर लेते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिङ्गसंयोगहीनं यच्छब्दस्पर्शविवर्जितम् ।
श्रोत्रेण श्रवणं चैव चक्षुषा चैव दर्शनम् ॥ ८ ॥
वाक्सम्भाषाप्रवृत्तं यत् तन्मनःपरिवर्जितम् ।
बुद्ध्या चाध्यवसीयीत ब्रह्मचर्यमकल्मषम् ॥ ९ ॥
मूलम्
लिङ्गसंयोगहीनं यच्छब्दस्पर्शविवर्जितम् ।
श्रोत्रेण श्रवणं चैव चक्षुषा चैव दर्शनम् ॥ ८ ॥
वाक्सम्भाषाप्रवृत्तं यत् तन्मनःपरिवर्जितम् ।
बुद्ध्या चाध्यवसीयीत ब्रह्मचर्यमकल्मषम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह परमपद पाँच प्राण, मन, बुद्धि और दसों इन्द्रियोंके संघातरूप शरीरके संयोगसे शून्य है, शब्द और स्पर्शसे रहित है। जो कानसे सुनता नहीं, आँखसे देखता नहीं और वाणीद्वारा कुछ बोलता नहीं है, तथा जो मनसे भी रहित है, वही वह परमपद या ब्रह्म है। मनुष्य बुद्धिके द्वारा उसका निश्चय करे और उसकी प्राप्तिके लिये निष्कलंक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग्वृत्तिर्ब्रह्मलोकं प्राप्नुयान्मध्यमः सुरान् ।
द्विजाग्य्रो जायते विद्वान् कन्यसीं वृत्तिमास्थितः ॥ १० ॥
मूलम्
सम्यग्वृत्तिर्ब्रह्मलोकं प्राप्नुयान्मध्यमः सुरान् ।
द्विजाग्य्रो जायते विद्वान् कन्यसीं वृत्तिमास्थितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इस व्रतका अच्छी तरह पालन करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है। मध्यम श्रेणीके ब्रह्मचारीको देवताओंका लोक प्राप्त होता है और कनिष्ठ श्रेणीका विद्वान् ब्रह्मचारी श्रेष्ठ ब्राह्मणके रूपमें जन्म लेता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदुष्करं ब्रह्मचर्यमुपायं तत्र मे शृणु।
सम्प्रदीप्तमुदीर्णं च निगृह्णीयाद् द्विजो रजः ॥ ११ ॥
मूलम्
सुदुष्करं ब्रह्मचर्यमुपायं तत्र मे शृणु।
सम्प्रदीप्तमुदीर्णं च निगृह्णीयाद् द्विजो रजः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचर्यका पालन अत्यन्त कठिन है। उसके लिये जो उपाय है, वह मुझसे सुनो। ब्राह्मणको चाहिये कि जब रजोगुणकी वृत्ति प्रकट होने और बढ़ने लगे तो उसे रोक दे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योषितां न कथा श्राव्या न निरीक्ष्या निरम्बराः।
कथञ्चिद् दर्शनादासां दुर्बलानां विशेद्रजः ॥ १२ ॥
मूलम्
योषितां न कथा श्राव्या न निरीक्ष्या निरम्बराः।
कथञ्चिद् दर्शनादासां दुर्बलानां विशेद्रजः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंकी चर्चा न सुने। उन्हें नंगी अवस्थामें न देखे; क्योंकि यदि किसी प्रकार नग्नावस्थाओंमें उनपर दृष्टि चली जाती है तो दुर्बल हृदयवाले पुरुषोंके मनमें रजोगुण—राग या कामभावका प्रवेश हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागोत्पन्नश्चरेत् कृच्छ्रं महार्तिः प्रविशेदपः।
मग्नः स्वप्ने च मनसा त्रिर्जपेदघमर्षणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
रागोत्पन्नश्चरेत् कृच्छ्रं महार्तिः प्रविशेदपः।
मग्नः स्वप्ने च मनसा त्रिर्जपेदघमर्षणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारीके मनमें यदि राग या काम-विकार उत्पन्न हो जाय तो वह आत्मशुद्धिके लिये कृच्छ्रव्रतका1 आचरण करे। यदि वीर्यकी वृद्धि होनेसे उसे कामवेदना अधिक सता रही हो तो वह नदी या सरोवरके जलमें प्रवेश करके स्नान करे। यदि स्वप्नावस्थामें वीर्यपात हो जाय तो जलमें गोता लगाकर मन-ही-मन तीन बार अघमर्षण2 सूक्तका जप करे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप्मानं निर्दहेदेवमन्तर्भूतरजोमयम् ।
ज्ञानयुक्तेन मनसा संततेन विचक्षणः ॥ १४ ॥
मूलम्
पाप्मानं निर्दहेदेवमन्तर्भूतरजोमयम् ।
ज्ञानयुक्तेन मनसा संततेन विचक्षणः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विवेकी पुरुषको इस प्रकार ज्ञानयुक्त एवं संयमशील मनके द्वारा अपने अन्तःकरणमें प्रकट हुए पापमय कामविकारको दग्ध कर देना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुणपामेध्यसंयुक्तं यद्वदच्छिद्रबन्धनम् ।
तद्वद् देहगतं विद्यादात्मानं देहबन्धनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
कुणपामेध्यसंयुक्तं यद्वदच्छिद्रबन्धनम् ।
तद्वद् देहगतं विद्यादात्मानं देहबन्धनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुर्देके समान अपवित्र एवं मलयुक्त नाड़ियाँ जिस प्रकार देहके भीतर दृढ़तापूर्वक बँधी हुई हैं, उसी प्रकार (अज्ञानसे) उसके भीतर जीवात्मा भी दृढ़ बन्धनमें बँधा हुआ है, ऐसा जानना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वातपित्तकफाद् रक्तं त्वङ्मांसं स्नायुमस्थि च।
मज्जां देहं शिराजालैस्तर्पयन्ति रसा नृणाम् ॥ १६ ॥
मूलम्
वातपित्तकफाद् रक्तं त्वङ्मांसं स्नायुमस्थि च।
मज्जां देहं शिराजालैस्तर्पयन्ति रसा नृणाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोजनसे प्राप्त हुए रस नाड़ीसमूहोंद्वारा संचरित होकर मनुष्योंके वात, पित्त, कफ, रक्त, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, चर्बी एवं सम्पूर्ण शरीरको तृप्त एवं पुष्ट करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दश विद्याद् धमन्योऽत्र पञ्चेन्द्रियगुणावहाः।
याभिः सूक्ष्माः प्रतायन्ते धमन्योऽन्याः सहस्रशः ॥ १७ ॥
मूलम्
दश विद्याद् धमन्योऽत्र पञ्चेन्द्रियगुणावहाः।
याभिः सूक्ष्माः प्रतायन्ते धमन्योऽन्याः सहस्रशः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस शरीरके भीतर उपर्युक्त वात, पित्त आदि दस वस्तुओंको वहन करनेवाली दस ऐसी नाड़ियाँ हैं जो पाँचों इन्द्रियोंके शब्द आदि गुणोंको ग्रहण करनेकी शक्ति प्राप्त करानेवाली हैं। उन्हींके साथ अन्य सहस्रों सूक्ष्म नाड़ियाँ सारे शरीरमें फैली हुई हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेताः शिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्।
तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम् ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेताः शिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्।
तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नदियाँ अपने जलसे यथासमय समुद्रको तृप्त करती रहती हैं, उसी प्रकार रसको बहानेवाली ये नाड़ीरूप नदियाँ इस देह-सागरको तृप्त किया करती हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्ये च हृदयस्यैका शिरा तत्र मनोवहा।
शुक्रं संकल्पजं नॄणां सर्वगात्रैर्विमुञ्चति ॥ १९ ॥
मूलम्
मध्ये च हृदयस्यैका शिरा तत्र मनोवहा।
शुक्रं संकल्पजं नॄणां सर्वगात्रैर्विमुञ्चति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृदयके मध्यभागमें एक मनोवहा नामकी नाड़ी है जो पुरुषोंके कामविषयक संकल्पके द्वारा सारे शरीरसे वीर्यको खींचकर बाहर निकाल देती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वगात्रप्रतायिन्यस्तस्या ह्यनुगताः शिराः ।
नेत्रयोः प्रतिपद्यन्ते वहन्त्यस्तैजसं गुणम् ॥ २० ॥
मूलम्
सर्वगात्रप्रतायिन्यस्तस्या ह्यनुगताः शिराः ।
नेत्रयोः प्रतिपद्यन्ते वहन्त्यस्तैजसं गुणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस नाड़ीके पीछे चलनेवाली और सम्पूर्ण शरीरमें फैली हुई अन्य नाड़ियाँ तैजस-गुणरूप ग्रहणकी शक्तिको वहन करती हुई नेत्रोंतक पहुँचती हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पयस्यन्तर्हितं सर्पिर्यद्वन्निर्मथ्यते खजैः ।
शुक्रं निर्मथ्यते तद्वत् देहसंकल्पजैः खजैः ॥ २१ ॥
मूलम्
पयस्यन्तर्हितं सर्पिर्यद्वन्निर्मथ्यते खजैः ।
शुक्रं निर्मथ्यते तद्वत् देहसंकल्पजैः खजैः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार दूधमें छिपे हुए घीको मथानीसे मथकर अलग किया जाता है, उसी प्रकार देहस्थ संकल्प और इन्द्रियोंसे होनेवाले स्त्रियोंके दर्शन एवं स्पर्श आदिसे मथित होकर पुरुषका वीर्य बाहर निकल जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नेऽप्येवं यथाभ्येति मनःसंकल्पजं रजः।
शुक्रं संकल्पजं देहात् सृजत्यस्य मनोवहा ॥ २२ ॥
मूलम्
स्वप्नेऽप्येवं यथाभ्येति मनःसंकल्पजं रजः।
शुक्रं संकल्पजं देहात् सृजत्यस्य मनोवहा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे स्वप्नमें संसर्ग न होनेपर भी मनके संकल्पसे उत्पन्न हुआ स्त्रीविषयक राग उपस्थित हो जाता है, उसी प्रकार मनोवहा नाड़ी पुरुषके शरीरसे संकल्पजनित वीर्यका निःसारण कर देती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षिर्भगवानत्रिर्वेद तच्छ्रुक्रसम्भवम् ।
त्रिबीजमिन्द्रदैवत्यं तस्मादिन्द्रियमुच्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
महर्षिर्भगवानत्रिर्वेद तच्छ्रुक्रसम्भवम् ।
त्रिबीजमिन्द्रदैवत्यं तस्मादिन्द्रियमुच्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् महर्षि अत्रि वीर्यकी उत्पत्ति और गतिको जानते हैं, तथा ऐसा कहते हैं कि मनोवहा नाड़ी, संकल्प और अन्न—ये तीन ही वीर्यके कारण हैं। इस वीर्यका देवता इन्द्र है; इसलिये इसे इन्द्रिय कहते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये वै शुक्रगतिं विद्युर्भूतसंकरकारिकाम्।
विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसम्भवम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ये वै शुक्रगतिं विद्युर्भूतसंकरकारिकाम्।
विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसम्भवम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यह जानते हैं कि वीर्यकी गति ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें वर्णसंकरता उत्पन्न करनेवाली है, वे विरक्त हो अपने सारे दोषोंको भस्म कर डालते हैं; इसलिये वे पुनः देहके बन्धनमें नहीं पड़ते॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणानां साम्यमागम्य मनसैव मनोवहम्।
देहकर्मा नुदन् प्राणानन्तकाले विमुच्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
गुणानां साम्यमागम्य मनसैव मनोवहम्।
देहकर्मा नुदन् प्राणानन्तकाले विमुच्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो केवल शरीरकी रक्षाके लिये भोजन आदि कर्म करता है, वह अभ्यासके बलसे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विकल्प समाधि प्राप्त करके मनके द्वारा मनोवहा नाड़ीको संयममें रखते हुए अन्तकालमें प्राणोंको सुषुम्णा मार्गसे ले जाकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भविता मनसो ज्ञानं मन एव प्रजायते।
ज्योतिष्मद्विरजो नित्यं मन्त्रसिद्धं महात्मनाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
भविता मनसो ज्ञानं मन एव प्रजायते।
ज्योतिष्मद्विरजो नित्यं मन्त्रसिद्धं महात्मनाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्माओंके मनमें तत्त्वज्ञानका उदय हो जाता है; क्योंकि प्रणवोपासनासे परिशुद्ध हुआ उनका मन नित्य प्रकाशमय और निर्मल हो जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तदभिघाताय कर्म कुर्यादकल्मषम्।
रजस्तमश्च हित्वेह यथेष्टां गतिमाप्नुयात् ॥ २७ ॥
मूलम्
तस्मात् तदभिघाताय कर्म कुर्यादकल्मषम्।
रजस्तमश्च हित्वेह यथेष्टां गतिमाप्नुयात् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मनको वशमें करनेके लिये मनुष्यको निर्दोष एवं निष्काम कर्म करने चाहिये। ऐसा करनेसे वह रजोगुण और तमोगुणसे छूटकर इच्छानुसार गति प्राप्त कर लेता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणाधिगतं ज्ञानं जरादुर्बलतां गतम्।
विपक्वबुद्धिः कालेन आदत्ते मानसं बलम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तरुणाधिगतं ज्ञानं जरादुर्बलतां गतम्।
विपक्वबुद्धिः कालेन आदत्ते मानसं बलम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवावस्थामें प्राप्त किया हुआ ज्ञान प्रायः बुढ़ापेमें क्षीण हो जाता है, परंतु परिपक्वबुद्धि मनुष्य समयानुसार ऐसा मानसिक बल प्राप्त कर लेता है, जिससे उसका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदुर्गमिव पन्थानमतीत्य गुणबन्धनम् ।
यथा पश्येत् तथा दोषानतीत्यामृतमश्नुते ॥ २९ ॥
मूलम्
सुदुर्गमिव पन्थानमतीत्य गुणबन्धनम् ।
यथा पश्येत् तथा दोषानतीत्यामृतमश्नुते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह परिपक्व बुद्धिवाला मनुष्य अत्यन्त दुर्गम मार्गके समान गुणोंके बन्धनको पार करके जैसे-जैसे अपने दोष देखता है, वैसे-ही-वैसे उन्हें लाँघकर अमृतमय परमात्मपदको प्राप्त कर लेता है॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मकथनविषयक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
-
. ‘कृच्छ्र’ शब्दसे प्राजापत्यकृच्छ्रका ग्रहण किया जाता है। प्राजापत्यकृच्छ्रका विधान इस प्रकार है—‘‘‘त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्। त्र्यहं परं च नाश्नीयात् प्राजापत्योऽयमुच्यते॥’’’[[(मनुस्मृति ११।२१२)]]तीन दिन केवल प्रातःकाल, तीन दिन केवल सायंकाल तथा तीन दिनतक केवल अयाचित अन्नका भोजन करे। फिर तीन दिनतक उपवास रखे। इसे प्राजापत्यकृच्छ्र कहा जाता है। ↩︎
-
. अघमर्षणसूक्त निम्नलिखित है—ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः। समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः। ↩︎