२१३ वार्ष्णेयाध्यात्मकथने

भागसूचना

त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जीवोत्पत्तिका वर्णन करते हुए दोषों और बन्धनोंसे मुक्त होनेके लिये विषयासक्तिके त्यागका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजसा साध्यते मोहस्तमसा भरतर्षभ।
क्रोधलोभौ भयं दर्प एतेषां सादनाच्छुचिः ॥ १ ॥

मूलम्

रजसा साध्यते मोहस्तमसा भरतर्षभ।
क्रोधलोभौ भयं दर्प एतेषां सादनाच्छुचिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! रजोगुण और तमोगुणसे मोहकी उत्पत्ति होती है, तथा उससे क्रोध, लोभ, भय एवं दर्प उत्पन्न होते हैं। इन सबका नाश करनेसे ही मनुष्य शुद्ध होता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमं परमात्मानं देवमक्षयमव्ययम् ।
विष्णुमव्यक्तसंस्थानं विदुस्तं देवसत्तमम् ॥ २ ॥

मूलम्

परमं परमात्मानं देवमक्षयमव्ययम् ।
विष्णुमव्यक्तसंस्थानं विदुस्तं देवसत्तमम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे शुद्धात्मा पुरुष ही उस अक्षय, अविनाशी, परमदेव, अव्यक्तस्वरूप, देवप्रवर परमात्मा विष्णुका तत्त्व जान पाते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मायापिनद्धाङ्गा नष्टज्ञाना विचेतसः।
मानवा ज्ञानसम्मोहात् ततः क्रोधं प्रयान्ति वै ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्य मायापिनद्धाङ्गा नष्टज्ञाना विचेतसः।
मानवा ज्ञानसम्मोहात् ततः क्रोधं प्रयान्ति वै ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी ईश्वरकी मायासे आवृत हो जानेपर मनुष्योंके ज्ञान और विवेकका नाश हो जाता है, तथा वे बुद्धिके व्यामोहसे क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधात् काममवाप्याथ लोभमोहौ च मानवाः।
मानदर्पावहङ्कारमहङ्कारात् ततः क्रियाः ॥ ४ ॥

मूलम्

क्रोधात् काममवाप्याथ लोभमोहौ च मानवाः।
मानदर्पावहङ्कारमहङ्कारात् ततः क्रियाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधसे काम उत्पन्न होता है और फिर कामसे मनुष्य लोभ, मोह, मान, दर्प एवं अहंकारको प्राप्त होते हैं। तत्पश्चात् अहंकारसे प्रेरित होकर ही उनकी सारी क्रियाएँ होने लगती हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियाभिः स्नेहसम्बन्धात्स्नेहाच्छोकमनन्तरम् ।
सुखदुःखक्रियारम्भाज्जन्माजन्मकृतक्षणाः ॥ ५ ॥

मूलम्

क्रियाभिः स्नेहसम्बन्धात्स्नेहाच्छोकमनन्तरम् ।
सुखदुःखक्रियारम्भाज्जन्माजन्मकृतक्षणाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी क्रियाओंद्वारा मनुष्य आसक्तिसे युक्त हो जाता है। आसक्तिसे शोक होता है। फिर सुख-दुःखयुक्त कार्य आरम्भ करनेसे मनुष्यको जन्म और मृत्युके कष्ट स्वीकार करने पड़ते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसम्भवम्।
पुरीषमूत्रविक्लेदं शोणितप्रभवाविलम् ॥ ६ ॥

मूलम्

जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसम्भवम्।
पुरीषमूत्रविक्लेदं शोणितप्रभवाविलम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्मके निमित्तसे गर्भवासका कष्ट भोगना पड़ता है। रज और वीर्यके परस्पर संयुक्त होनेपर गर्भवासका अवसर आता है, जहाँ मल और मूत्रसे भीगे तथा रक्तके विकारसे मलिन स्थानमें रहना पड़ता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृष्णाभिभूतस्तैर्बद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन् ।
संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुद्ध्येत योषितः ॥ ७ ॥

मूलम्

तृष्णाभिभूतस्तैर्बद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन् ।
संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुद्ध्येत योषितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तृष्णासे अभिभूत तथा काम, क्रोध आदि दोषोंसे बद्ध होकर उन्हींका अनुसरण करता हुआ मनुष्य (महान् दुःख उठाता रहता है। यदि उनसे छूटनेकी इच्छा हो तो) स्त्रियोंको संसाररूपी वस्त्रको बुननेवाली तन्तुवाहिनी समझे और उनसे दूर रहे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्या क्षेत्रभूतास्ता नसः क्षेत्रज्ञलक्षणाः।
तस्मादेवाविशेषेण नरोऽतीयाद् विशेषतः ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रकृत्या क्षेत्रभूतास्ता नसः क्षेत्रज्ञलक्षणाः।
तस्मादेवाविशेषेण नरोऽतीयाद् विशेषतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ प्रकृतिके तुल्य हैं; अतः क्षेत्रस्वरूपा हैं और पुरुष क्षेत्रज्ञरूप हैं (जैसे प्रकृति अज्ञानी पुरुषको बाँधती है, उसी प्रकार ये स्त्रियाँ पुरुषोंको अपने मोहजालमें बाँध लेती हैं), इसलिये सामान्यतः प्रत्येक पुरुषको विशेष प्रयत्नपूर्वक स्त्रीके संसर्गसे दूर रहना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान्।
रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातनी ॥ ९ ॥

मूलम्

कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान्।
रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातनी ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये स्त्रियाँ भयानक कृत्याके समान हैं; अतः अज्ञानी मनुष्योंको मोहमें डाल देती हैं। इन्द्रियोंमें विकार उत्पन्न करनेवाली यह सनातन नारीमूर्ति रजोगुणसे तिरोहित है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ तदात्मकाद् रागाद् बीजाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वदेहजानस्वसंज्ञान् यद्वदङ्गात् कृमींस्त्यजेत् ।
स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्‌ सुतसंज्ञान्‌ कृमींस्त्यजेत् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मात्‌ तदात्मकाद् रागाद् बीजाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वदेहजानस्वसंज्ञान् यद्वदङ्गात् कृमींस्त्यजेत् ।
स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्‌ सुतसंज्ञान्‌ कृमींस्त्यजेत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः स्त्रीसम्बन्धी अनुरागके कारण पुरुषके वीर्यसे जीवोंकी उत्पत्ति होती है, जैसे मनुष्य अपनी ही देहसे उत्पन्न हुए जूँ और लीख आदि स्वेदज कीटोंको अपना न मानकर त्याग देता है, उसी प्रकार अपने कहलानेवाले जो अनात्मा पुत्रनामधारी कीट हैं, उन्हें भी त्याग देना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रतो रसतश्चैव देहाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वभावात्‌ कर्मयोगाद् वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान् ॥ ११ ॥

मूलम्

शुक्रतो रसतश्चैव देहाज्जायन्ति जन्तवः।
स्वभावात्‌ कर्मयोगाद् वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शरीरसे वीर्यद्वारा अथवा पसीनोंद्वारा स्वभावसे अथवा प्रारब्धके अनुसार जन्तुओंका जन्म होता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषोंको उनकी उपेक्षा करनी चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्तमसि पर्यस्तं सत्त्वं च रजसि स्थितम्।
ज्ञानाधिष्ठानमव्यक्तं बुद्ध्यहङ्कारलक्षणम् ॥ १२ ॥

मूलम्

रजस्तमसि पर्यस्तं सत्त्वं च रजसि स्थितम्।
ज्ञानाधिष्ठानमव्यक्तं बुद्ध्यहङ्कारलक्षणम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तमोगुणमें स्थित रजोगुण तथा रजोगुणमें स्थित सत्त्वगुण जब रजोगुण-तमोगुणमें स्थित हो जाता है और सत्त्वगुण रजोगुणमें स्थित हो जाता है, तब ज्ञानका अधिष्ठानभूत अव्यक्त आत्मा बुद्धि और अहंकारसे युक्त हो जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् बीजं देहिनामाहुस्तद् बीजं जीवसंज्ञितम्।
कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तद् बीजं देहिनामाहुस्तद् बीजं जीवसंज्ञितम्।
कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अव्यक्त आत्मा ही देहधारी प्राणियोंका बीज है और वह बीजभूत आत्मा ही गुणोंके संगके कारण जीव कहलाता है। वही कालसे युक्त कर्मसे प्रेरित हो संसार-चक्रमें घूमता रहता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव।
कर्मगर्भैर्गुणैर्देही गर्भे तदुपलभ्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव।
कर्मगर्भैर्गुणैर्देही गर्भे तदुपलभ्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्वप्नावस्थामें यह जीव मनके द्वारा ही दूसरा शरीर धारण करके क्रीडा करता है, उसी प्रकार वह कर्मगर्भित गुणोंद्वारा गर्भमें उपलब्ध होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद् यदिन्द्रियम्।
जायते तदहङ्काराद् रागयुक्तेन चेतसा ॥ १५ ॥

मूलम्

कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद् यदिन्द्रियम्।
जायते तदहङ्काराद् रागयुक्तेन चेतसा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बीजभूत कर्मसे जिस-जिस इन्द्रियको उत्पत्तिके लिये प्रेरणा प्राप्त होती है, रागयुक्त चित्त एवं अहंकारसे वही-वही इन्द्रिय प्रकट हो जाती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः ।
रूपरागात् तथा चक्षुर्घ्राणं गन्धचिकीर्षया ॥ १६ ॥

मूलम्

शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः ।
रूपरागात् तथा चक्षुर्घ्राणं गन्धचिकीर्षया ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्दके प्रति राग होनेसे उस भावितात्मा पुरुषकी श्रवणेन्द्रिय प्रकट होती है। रूपके प्रति राग होनेसे नेत्र और गन्ध ग्रहण करनेकी इच्छा होनेसे नासिकाका प्राकट्य होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पर्शने त्वक् तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः।
व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापनम् ॥ १७ ॥

मूलम्

स्पर्शने त्वक् तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः।
व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापनम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्पर्शके प्रति राग होनेसे त्वगिन्द्रिय और वायुका प्राकट्य होता है। वायु प्राण और अपानका आश्रय है। वही उदान, व्यान तथा समान है। इस प्रकार वह पाँच रूपोंमें प्रकट हो शरीर-यात्राका निर्वाह करती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैर्वर्ष्मणा वृतः।
दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः ॥ १८ ॥

मूलम्

संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैर्वर्ष्मणा वृतः।
दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जन्मकालमें पूर्णतः उत्पन्न हुए कर्मजनित अंगों और सम्पूर्ण शरीरसे युक्त होकर जन्म ग्रहण करता है। वह मनुष्य आदि, मध्य और अन्तमें भी शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे पीड़ित रहता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते ।
त्यागात्‌ तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते ।
त्यागात्‌ तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरके ग्रहणमात्रसे दुःखकी प्राप्ति निश्चित समझनी चाहिये। शरीरमें अभिमान करनेसे उस दुःखकी वृद्धि होती है। अभिमानके त्यागसे उन दुःखोंका अन्त होता है। जो दुःखोंके अन्त होनेकी इस कलाको जानता है, वह मुक्त हो जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणां रजस्येव प्रलयप्रभवावुभौ ।
परीक्ष्य संचरेद् विद्वान् यथावच्छास्त्रचक्षुषा ॥ २० ॥

मूलम्

इन्द्रियाणां रजस्येव प्रलयप्रभवावुभौ ।
परीक्ष्य संचरेद् विद्वान् यथावच्छास्त्रचक्षुषा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंकी उत्पत्ति और लय—ये दोनों कार्य रजोगुणमें ही होते हैं। विद्वान् पुरुष शास्त्रदृष्टिसे इन बातोंकी भलीभाँति परीक्षा करके यथोचित आचरण करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्षुलम् ।
हीनैश्च करणैर्देही न देहं पुनरर्हति ॥ २१ ॥

मूलम्

ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्षुलम् ।
हीनैश्च करणैर्देही न देहं पुनरर्हति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें तृष्णाका अभाव है उस पुरुषको ये ज्ञानेन्द्रियाँ विषयोंकी प्राप्ति नहीं करातीं। इन्द्रियोंके विषयासक्तिसे रहित हो जानेपर देही पुनः शरीरको धारण नहीं करता॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१३॥