भागसूचना
द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
निषिद्ध आचरणके त्याग, सत्त्व, रज और तमके कार्य एवं परिणामका तथा सत्त्वगुणके सेवनका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो यथा समुपलभ्यते।
तेषां विज्ञाननिष्ठानामन्यत्तत्त्वं न रोचते ॥ १ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो यथा समुपलभ्यते।
तेषां विज्ञाननिष्ठानामन्यत्तत्त्वं न रोचते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! कर्मनिष्ठ पुरुषोंको जिस प्रकार प्रवृत्तिधर्मकी उपलब्धि होती है—वही उन्हें अच्छा लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानमें निष्ठा रखनेवाले हैं, उन्हें ज्ञानके सिवा दूसरी कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्लभा वेदविद्वांसो वेदोक्तेषु व्यवस्थिताः।
प्रयोजनं महत्त्वात्तु मार्गमिच्छन्ति संस्तुतम् ॥ २ ॥
मूलम्
दुर्लभा वेदविद्वांसो वेदोक्तेषु व्यवस्थिताः।
प्रयोजनं महत्त्वात्तु मार्गमिच्छन्ति संस्तुतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंके विद्वान् और वेदोक्त कर्मोंमें निष्ठा रखनेवाले पुरुष प्रायः दुर्लभ हैं। जो अत्यन्त बुद्धिमान् हैं, वे पुरुष वेदोक्त दोनों मार्गोंमेंसे जो अधिक महत्त्वपूर्ण होनेके कारण सबके द्वारा प्रशंसित है, उस मोक्षमार्गको ही चाहते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्भिराचरितत्वात्तु वृत्तमेतदगर्हितम् ।
इयं सा बुद्धिरभ्येत्य यया याति परां गतिम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सद्भिराचरितत्वात्तु वृत्तमेतदगर्हितम् ।
इयं सा बुद्धिरभ्येत्य यया याति परां गतिम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्पुरुषोंने सदा इसी मार्गको ग्रहण किया है; अतः यही अनिन्द्य एवं निर्दोष है। यह वह बुद्धि है जिसके द्वारा चलकर मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरवानुपादत्ते मोहात् सर्वान् परिग्रहान्।
क्रोधलोभादिभिर्भावैर्युक्तो राजसतामसैः ॥ ४ ॥
मूलम्
शरीरवानुपादत्ते मोहात् सर्वान् परिग्रहान्।
क्रोधलोभादिभिर्भावैर्युक्तो राजसतामसैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देहाभिमानी है, वह मोहवश क्रोध, लोभ आदि राजस, तामस भावोंसे युक्त होकर सब प्रकारकी वस्तुओंके संग्रहमें लग जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाशुद्धमाचरेत् तस्मादभीप्सन् देहयापनम् ।
कर्मणा विवरं कुर्वन्न लोकानाप्नुयाच्छुभान् ॥ ५ ॥
मूलम्
नाशुद्धमाचरेत् तस्मादभीप्सन् देहयापनम् ।
कर्मणा विवरं कुर्वन्न लोकानाप्नुयाच्छुभान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो देह-बन्धनसे मुक्त होना चाहता हो, उसे कभी अशुद्ध (अवैध) आचरण नहीं करना चाहिये। वह निष्काम कर्मद्वारा मोक्षका द्वार खोले और स्वर्ग आदि पुण्यलोक पानेकी कदापि इच्छा न करे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोहयुक्तं यथा हेम विपक्वं न विराजते।
तथापक्वकषायाख्यं विज्ञानं न प्रकाशते ॥ ६ ॥
मूलम्
लोहयुक्तं यथा हेम विपक्वं न विराजते।
तथापक्वकषायाख्यं विज्ञानं न प्रकाशते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे लोहयुक्त सुवर्ण आगमें पकाकर शुद्ध किये बिना अपने स्वरूपसे प्रकाशित नहीं होता, उसी प्रकार चित्तके राग आदि दोषोंका नाश हुए बिना उसमें ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित नहीं होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चाधर्मं चरेल्लोभात् कामक्रोधावनुप्लवन् ।
धर्म्यं पन्थानमाक्रम्य सानुबन्धो विनश्यति ॥ ७ ॥
मूलम्
यश्चाधर्मं चरेल्लोभात् कामक्रोधावनुप्लवन् ।
धर्म्यं पन्थानमाक्रम्य सानुबन्धो विनश्यति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोभवश काम-क्रोधका अनुसरण करते हुए धर्ममार्गका उल्लंघन करके अधर्मका आचरण करने लगता है, वह सगे-सम्बन्धियोंसहित नष्ट हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दादीन् विषयांस्तस्मान्न संरागादयं व्रजेत्।
क्रोधो हर्षो विषादश्च जायन्तेह परस्परात् ॥ ८ ॥
मूलम्
शब्दादीन् विषयांस्तस्मान्न संरागादयं व्रजेत्।
क्रोधो हर्षो विषादश्च जायन्तेह परस्परात् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको कभी रागके वशमें होकर शब्द आदि विषयोंका सेवन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वैसा करनेपर हर्ष, क्रोध और विषाद—इन सात्त्विक, राजस और तामस भावोंकी एक-दूसरेसे उत्पत्ति होती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभूतात्मके देहे सत्त्वे राजसतामसे।
कमभिष्टुवते चायं कं वाऽऽक्रोशति किं वदन् ॥ ९ ॥
मूलम्
पञ्चभूतात्मके देहे सत्त्वे राजसतामसे।
कमभिष्टुवते चायं कं वाऽऽक्रोशति किं वदन् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर पाँच भूतोंका विकार है और सत्त्व, रज एवं तम—तीन गुणोंसे युक्त है। इसमें रहकर यह निर्विकार आत्मा क्या कहकर किसकी निन्दा और किसकी स्तुति करे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पर्शरूपरसाद्येषु सङ्गं गच्छन्ति बालिशाः।
नावगच्छन्त्यविज्ञानादात्मानं पार्थिवं गुणम् ॥ १० ॥
मूलम्
स्पर्शरूपरसाद्येषु सङ्गं गच्छन्ति बालिशाः।
नावगच्छन्त्यविज्ञानादात्मानं पार्थिवं गुणम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानी पुरुष स्पर्श, रूप और रस आदि विषयोंमें आसक्त होते हैं। वे विशिष्ट ज्ञानसे रहित होनेके कारण यह नहीं जानते हैं कि यह शरीर पृथ्वीका विकार है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृन्मयं शरणं यद्वन्मृदैव परिलिप्यते।
पार्थिवोऽयं तथा देहो मृद्विकारान्न नश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
मृन्मयं शरणं यद्वन्मृदैव परिलिप्यते।
पार्थिवोऽयं तथा देहो मृद्विकारान्न नश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मिट्टीका घर मिट्टीसे ही लीपा जाता है तो सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर पृथ्वीके ही विकारभूत अन्न और जलके सेवनसे ही नष्ट नहीं होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधु तैलं पयः सर्पिर्मांसानि लवणं गुडः।
धान्यानि फलमूलानि मृद्विकाराः सहाम्भसा ॥ १२ ॥
मूलम्
मधु तैलं पयः सर्पिर्मांसानि लवणं गुडः।
धान्यानि फलमूलानि मृद्विकाराः सहाम्भसा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधु, तेल, दूध, घी, मांस, लवण, गुड़, धान्य, फल-मूल और जल—ये सभी पृथ्वीके ही विकार हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्वत् कान्तारमातिष्ठन्नौत्सुक्यं समनुव्रजेत् ।
ग्राम्यमाहारमादद्यादस्वाद्वपि हि यापनम् ॥ १३ ॥
तद्वत् संसारकान्तारमातिष्ठन् श्रमतत्परः ।
यात्रार्थमद्यादाहारं व्याधितो भेषजं यथा ॥ १४ ॥
मूलम्
यद्वत् कान्तारमातिष्ठन्नौत्सुक्यं समनुव्रजेत् ।
ग्राम्यमाहारमादद्यादस्वाद्वपि हि यापनम् ॥ १३ ॥
तद्वत् संसारकान्तारमातिष्ठन् श्रमतत्परः ।
यात्रार्थमद्यादाहारं व्याधितो भेषजं यथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वनमें रहनेवाला संन्यासी स्वादिष्ट अन्न (मिठाई आदि)-के लिये उत्सुक नहीं होता। वह शरीर-निर्वाहके लिये स्वाधीन रूखा-सूखा ग्रामीण आहार भी ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार संसाररूपी वनमें रहनेवाला गृहस्थ परिश्रममें संलग्न हो जीवन-निर्वाहमात्रके लिये शुद्ध सात्त्विक आहार ग्रहण करे। ठीक उसी तरह, जैसे रोगी जीवनरक्षाके लिये औषध सेवन करता है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यशौचार्जवत्यागैर्वर्चसा विक्रमेण च ।
क्षान्त्या धृत्या च बुद्ध्या च मनसा तपसैव च॥१५॥
भावान् सर्वानुपावृत्तान् समीक्ष्य विषयात्मकान्।
शान्तिमिच्छन्नदीनात्मा संयच्छेदिन्द्रियाणि च ॥ १६ ॥
मूलम्
सत्यशौचार्जवत्यागैर्वर्चसा विक्रमेण च ।
क्षान्त्या धृत्या च बुद्ध्या च मनसा तपसैव च॥१५॥
भावान् सर्वानुपावृत्तान् समीक्ष्य विषयात्मकान्।
शान्तिमिच्छन्नदीनात्मा संयच्छेदिन्द्रियाणि च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदारचित्त पुरुष सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तेज, पराक्रम, क्षमा, धैर्य, बुद्धि, मन और तपके प्रभावसे समस्त विषयात्मक भावोंपर आलोचनात्मक दृष्टि रखते हुए शान्तिकी इच्छासे अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वेन रजसा चैव तमसा चैव मोहिताः।
चक्रवत् परिवर्तन्ते ह्यज्ञानाज्जन्तवो भृशम् ॥ १७ ॥
मूलम्
सत्त्वेन रजसा चैव तमसा चैव मोहिताः।
चक्रवत् परिवर्तन्ते ह्यज्ञानाज्जन्तवो भृशम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अजितेन्द्रिय जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज और तमसे मोहित हो निरन्तर चक्रकी तरह घूमते रहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सम्यक् परीक्षेत दोषानज्ञानसम्भवान्।
अज्ञानप्रभवं दुःखमहंकारं परित्यजेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मात् सम्यक् परीक्षेत दोषानज्ञानसम्भवान्।
अज्ञानप्रभवं दुःखमहंकारं परित्यजेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह अज्ञानजनित दोषोंकी भलीभाँति परीक्षा करे तथा उस अज्ञानसे उत्पन्न हुए दुःख और अहंकारको त्याग दे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतानीन्द्रियाणि गुणाः सत्त्वं रजस्तमः।
त्रैलोक्यं सेश्वरं सर्वमहंकारे प्रतिष्ठितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
महाभूतानीन्द्रियाणि गुणाः सत्त्वं रजस्तमः।
त्रैलोक्यं सेश्वरं सर्वमहंकारे प्रतिष्ठितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पञ्चमहाभूत, इन्द्रियाँ, शब्द आदि गुण, सत्त्व, रज और तम तथा लोकपालोंसहित तीनों लोक—यह सब कुछ अहंकारमें ही प्रतिष्ठित है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेह नियतः कालो दर्शयत्यार्तवान् गुणान्।
तद्वद्भूतेष्वहंकारं विद्यात् कर्मप्रवर्तकम् ॥ २० ॥
मूलम्
यथेह नियतः कालो दर्शयत्यार्तवान् गुणान्।
तद्वद्भूतेष्वहंकारं विद्यात् कर्मप्रवर्तकम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इस जगत्में नियत काल यथासमय ऋतु-सम्बन्धी गुणोंको प्रकट कर दिखाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंमें अहंकारको ही उनके कर्मोंका प्रवर्तक जानना चाहिये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मोहकं तमो विद्यात् कृष्णमज्ञानसम्भवम्।
प्रीतिदुःखनिबद्धांश्च समस्तांस्त्रीनथो गुणान् ॥ २१ ॥
मूलम्
सम्मोहकं तमो विद्यात् कृष्णमज्ञानसम्भवम्।
प्रीतिदुःखनिबद्धांश्च समस्तांस्त्रीनथो गुणान् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहंकार सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकारका होता है। तमोगुण मोहमें डालनेवाला तथा अन्धकारके समान काला है। उसे अज्ञानसे उत्पन्न हुआ समझना चाहिये। प्रीति उत्पन्न करनेवाले भाव सात्त्विक हैं और दुःख देनेवाले राजस। इस प्रकार इन समस्त त्रिविध गुणोंका स्वरूप जानना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च निबोध तान्।
प्रसादो हर्षजा प्रीतिरसंदेहो धृतिः स्मृतिः।
एतान् सत्त्वगुणान् विद्यादिमान् राजसतामसान् ॥ २२ ॥
कामक्रोधौ प्रमादश्च लोभमोहौ भयं क्लमः।
विषादशोकावरतिर्मानदर्पावनार्यता ॥ २३ ॥
मूलम्
सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च निबोध तान्।
प्रसादो हर्षजा प्रीतिरसंदेहो धृतिः स्मृतिः।
एतान् सत्त्वगुणान् विद्यादिमान् राजसतामसान् ॥ २२ ॥
कामक्रोधौ प्रमादश्च लोभमोहौ भयं क्लमः।
विषादशोकावरतिर्मानदर्पावनार्यता ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं तुम्हें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणके कार्य बताता हूँ, सुनो। प्रसन्नता, हर्षजनित प्रीति, संदेहका अभाव, धैर्य और स्मृति—इन सबको सत्त्वगुणके कार्य समझो। काम, क्रोध, प्रमाद, लोभ, मोह, भय, क्लान्ति, विषाद, शोक, अप्रसन्नता, मान, दर्प और अनार्यता—इन्हें रजोगुण और तमोगुणके कार्य समझना चाहिये॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोषाणामेवमादीनां परीक्ष्य गुरुलाघवम् ।
विमृशेदात्मसंस्थानमेकैकमनुसंततम् ॥ २४ ॥
मूलम्
दोषाणामेवमादीनां परीक्ष्य गुरुलाघवम् ।
विमृशेदात्मसंस्थानमेकैकमनुसंततम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके तथा ऐसे ही दूसरे दोषोंके बड़े-छोटेका विचार करके फिर इस बातकी परीक्षा करे कि इनमेंसे एक-एक दोष मुझमें है या नहीं। यदि है तो कितनी मात्रामें है (इस तरह विचार करते हुए सभी दोषोंसे छूटनेका प्रयत्न करे)॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
के दोषा मनसा त्यक्ताः के बुद्ध्या शिथिलीकृताः।
के पुनः पुनरायान्ति के मोहादफला इव ॥ २५ ॥
मूलम्
के दोषा मनसा त्यक्ताः के बुद्ध्या शिथिलीकृताः।
के पुनः पुनरायान्ति के मोहादफला इव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पूर्वकालके मुमुक्षुओंने किन-किन दोषोंका मनके द्वारा त्याग किया है और किन्हें बुद्धिके द्वारा शिथिल किया है? कौन दोष बारंबार आते हैं और कौन मोहवश फल देनेमें असमर्थ-से प्रतीत होते हैं?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केषां बलाबलं बुद्ध्या हेतुभिर्विमृशेद् बुधः।
एष मे संशयस्तात तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २६ ॥
मूलम्
केषां बलाबलं बुद्ध्या हेतुभिर्विमृशेद् बुधः।
एष मे संशयस्तात तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धि तथा युक्तियोंद्वारा किन दोषोंके बलाबलका विचार करे। तात! पितामह! यह मेरा संशय है। आप मुझसे इसका विवेचन कीजिये॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोषैर्मूलादवच्छिन्नैर्विशुद्धात्मा विमुच्यते ।
विनाशयति सम्भूतमयस्मयमयो यथा ।
तथा कृतात्मा सहजैर्दोषैर्नश्यति तामसैः ॥ २७ ॥
मूलम्
दोषैर्मूलादवच्छिन्नैर्विशुद्धात्मा विमुच्यते ।
विनाशयति सम्भूतमयस्मयमयो यथा ।
तथा कृतात्मा सहजैर्दोषैर्नश्यति तामसैः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इन दोषोंका मूल कारण है अज्ञान। अतः मूलसहित इन दोषोंका नाश हो जानेपर मनुष्यका अन्तःकरण विशुद्ध होता है और वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। जैसे लोहेकी बनी हुई छेनीकी धार लोहमयी साँकलको काटकर स्वयं भी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार शुद्ध हुई बुद्धि तमोगुणजनित सहज दोषोंको नष्ट करके उनके साथ ही स्वयं भी शान्त हो जाती है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसं तामसं चैव शुद्धात्मकमकल्मषम्।
तत् सर्वं देहिनां बीजं सत्त्वमात्मवतः समम् ॥ २८ ॥
मूलम्
राजसं तामसं चैव शुद्धात्मकमकल्मषम्।
तत् सर्वं देहिनां बीजं सत्त्वमात्मवतः समम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि रजोगुण, तमोगुण तथा काम, मोह आदि दोषोंसे रहित शुद्ध सत्त्वगुण—ये तीनों ही देहधारियोंकी देहकी उत्पत्तिके मूल कारण हैं, तथापि जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, उस पुरुषके लिये सत्त्वगुण ही समताका साधन है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादात्मवता वर्ज्यं रजश्च तम एव च।
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं सत्त्वं निर्मलतामियात् ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्मादात्मवता वर्ज्यं रजश्च तम एव च।
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं सत्त्वं निर्मलतामियात् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जितात्मा पुरुषको रजोगुण और तमोगुणका त्याग ही करना चाहिये। इन दोनोंसे छूट जानेपर बुद्धि निर्मल हो जाती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मन्त्रवद्ब्रूयुरात्मादानाय दुष्कृतम् ।
स वै हेतुरनादाने शुद्धधर्मानुपालने ॥ ३० ॥
मूलम्
अथवा मन्त्रवद्ब्रूयुरात्मादानाय दुष्कृतम् ।
स वै हेतुरनादाने शुद्धधर्मानुपालने ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा बुद्धिको वशमें करनेके लिये शास्त्रविहित मन्त्रयुक्त यज्ञादि कर्मको कुछ लोग दोषयुक्त बताते हैं; परंतु वह मन्त्रयुक्त यज्ञादि धर्म भी निष्कामभावसे किये जानेपर वैराग्यका हेतु है। तथा शुद्ध धर्म—शम, दम आदिके निरन्तर पालनमें भी वही निमित्त बनता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजसाधर्मयुक्तानि कार्याण्यपि समाप्नुते ।
अर्थयुक्तानि चात्यर्थं कामान् सर्वांश्च सेवते ॥ ३१ ॥
मूलम्
रजसाधर्मयुक्तानि कार्याण्यपि समाप्नुते ।
अर्थयुक्तानि चात्यर्थं कामान् सर्वांश्च सेवते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य रजोगुणके अधीन होनेपर उसके द्वारा भाँति-भाँतिके अधर्मयुक्त एवं अर्थयुक्त कर्म करने लगता है, तथा वह सम्पूर्ण भोगोंका अत्यन्त आसक्तिपूर्वक सेवन करता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमसा लोभयुक्तानि क्रोधजानि च सेवते।
हिंसाविहाराभिरतस्तन्द्रीनिद्रासमन्वितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तमसा लोभयुक्तानि क्रोधजानि च सेवते।
हिंसाविहाराभिरतस्तन्द्रीनिद्रासमन्वितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तमोगुणद्वारा मनुष्य लोभ और क्रोधजनित कर्मोंका सेवन करता है, हिंसात्मक कर्मोंमें उसकी विशेष आसक्ति हो जाती है, तथा वह हर समय निद्रा-तन्द्रासे घिरा रहता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वस्थः सात्त्विकान् भावान् शुद्धान् पश्यति संश्रितः।
स देही विमलः श्रीमान् श्रद्धाविद्यासमन्वितः ॥ ३३ ॥
मूलम्
सत्त्वस्थः सात्त्विकान् भावान् शुद्धान् पश्यति संश्रितः।
स देही विमलः श्रीमान् श्रद्धाविद्यासमन्वितः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणमें स्थित हुआ पुरुष शुद्ध सात्त्विक भावोंको ही देखता और उन्हींका आश्रय लेता है। वह अत्यन्त निर्मल और कान्तिमान् होता है। उसमें श्रद्धा और विद्याकी प्रधानता होती है॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मकथनविषयक दो सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१२॥