भागसूचना
एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संसारचक्र और जीवात्माकी स्थितिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
गुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
अव्यक्तप्रभवान्याहुरव्यक्तनिधनानि च ।
अव्यक्तलक्षणं विद्यादव्यक्तात्मात्मकं मनः ॥ १ ॥
मूलम्
चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
अव्यक्तप्रभवान्याहुरव्यक्तनिधनानि च ।
अव्यक्तलक्षणं विद्यादव्यक्तात्मात्मकं मनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुजी कहते हैं— वत्स! जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके जो स्थावर और जङ्गम प्राणी हैं, वे सब अव्यक्तसे उत्पन्न हुए बताये गये हैं और अव्यक्तमें ही उन सबका लय होता है। जिसका कोई लक्षण व्यक्त न हो उसे अव्यक्त समझना चाहिये। मन अव्यक्त प्रकृतिके समान ही त्रिगुणात्मक है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाश्वत्थकणीकायामन्तर्भूतो महाद्रुमः ।
निष्पन्नो दृश्यते व्यक्तमव्यक्तात् सम्भवस्तथा ॥ २ ॥
मूलम्
यथाश्वत्थकणीकायामन्तर्भूतो महाद्रुमः ।
निष्पन्नो दृश्यते व्यक्तमव्यक्तात् सम्भवस्तथा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पीपलके छोटे-से बीजमें एक विशाल वृक्ष अव्यक्तरूपसे समाया हुआ है, जो बीजके उगनेपर वृक्षरूपमें परिणत हो प्रत्यक्ष दिखायी देता है, उसी प्रकार अव्यक्तसे व्यक्त जगत्की उत्पत्ति होती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिद्रवत्ययस्कान्तमयो निश्चेतनं यथा ।
स्वभावहेतुजा भावा यद्वदन्यदपीदृशम् ॥ ३ ॥
मूलम्
अभिद्रवत्ययस्कान्तमयो निश्चेतनं यथा ।
स्वभावहेतुजा भावा यद्वदन्यदपीदृशम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार लोहा अचेतन होनेपर भी चुम्बककी ओर खिंच जाता है, वैसे ही शरीरके उत्पन्न होनेपर प्राणीके स्वाभाविक संस्कार तथा अविद्या, काम, कर्म आदि दूसरे गुण उसकी ओर खिंच आते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वदव्यक्तजा भावाः कर्तुः कारणलक्षणाः।
अचेतनाश्चेतयितुः कारणादभिसंहताः ॥ ४ ॥
मूलम्
तद्वदव्यक्तजा भावाः कर्तुः कारणलक्षणाः।
अचेतनाश्चेतयितुः कारणादभिसंहताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार उस अव्यक्तसे उत्पन्न हुए उपर्युक्त कारणस्वरूप भाव अचेतन होनेपर भी चेतनकर्ताके सम्बन्धसे चेतन-से होकर जानना आदि क्रियाके हेतु बन जाते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भूर्न खं द्यौर्भूतानि नर्षयो न सुरासुराः।
नान्यदासीदृते जीवमासेदुर्न तु संहतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
न भूर्न खं द्यौर्भूतानि नर्षयो न सुरासुराः।
नान्यदासीदृते जीवमासेदुर्न तु संहतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, भूतगण, ऋषिगण तथा देवता और असुरगण इनमेंसे कोई नहीं था। चेतनके सिवा दूसरी किसी वस्तुकी सत्ता ही नहीं थी। जड-चेतनका संयोग भी नहीं था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं नित्यं सर्वगतं मनोहेतुमलक्षणम्।
अज्ञानकर्म निर्दिष्टमेतत् कारणलक्षणम् ॥ ६ ॥
मूलम्
पूर्वं नित्यं सर्वगतं मनोहेतुमलक्षणम्।
अज्ञानकर्म निर्दिष्टमेतत् कारणलक्षणम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा सबके पहले विद्यमान था। वह नित्य, सर्वगत, मनका भी हेतु और लक्षणरहित है। यह कारणस्वरूप समस्त जगत् अज्ञानका कार्य बताया गया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्कारणैर्हि संयुक्तं कार्यसंग्रहकारकम् ।
येनैतद् वर्तते चक्रमनादिनिधनं महत् ॥ ७ ॥
मूलम्
तत्कारणैर्हि संयुक्तं कार्यसंग्रहकारकम् ।
येनैतद् वर्तते चक्रमनादिनिधनं महत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन कारणोंसे युक्त होकर जीव कर्मोंका संग्रह करता है। कर्मोंसे वासना और वासनाओंसे पुनः कर्म होते हैं। इस प्रकार यह अनादि, अनन्त महान् संसार-चक्र चलता रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तनाभं व्यक्तारं विकारपरिमण्डलम् ।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं चक्रं स्निग्धाक्षं वर्तते ध्रुवम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अव्यक्तनाभं व्यक्तारं विकारपरिमण्डलम् ।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं चक्रं स्निग्धाक्षं वर्तते ध्रुवम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जन्म-मरणका प्रवाहरूप संसार चक्रके समान घूम रहा है। अव्यक्त उसकी नाभि है। व्यक्त (देह और इन्द्रिय आदि) उसके अरे हैं। सुख-दुःख, इच्छा आदि विकार इसकी नेमि हैं। आसक्ति धुरा है। यह चक्र निश्चितरूपसे घूमता रहता है। क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) इस चक्रपर चालक बनकर बैठा हुआ है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्निग्धत्वात् तिलवत् सर्वं चक्रेऽस्मिन् पीड्यते जगत्।
तिलपीडैरिवाक्रम्य भोगैरज्ञानसम्भवैः ॥ ९ ॥
मूलम्
स्निग्धत्वात् तिलवत् सर्वं चक्रेऽस्मिन् पीड्यते जगत्।
तिलपीडैरिवाक्रम्य भोगैरज्ञानसम्भवैः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे तेली लोग तेलसे युक्त होनेके कारण तिलोंको कोल्हूमें पेरते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आसक्तिग्रस्त होनेके कारण अज्ञानजनित भोगोंद्वारा दबा-दबाकर इस संसारचक्रमें पेरा जा रहा है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म तत् कुरुते तर्षादहंकारपरिग्रहात्।
कार्यकारणसंयोगे स हेतुरुपपादितः ॥ १० ॥
मूलम्
कर्म तत् कुरुते तर्षादहंकारपरिग्रहात्।
कार्यकारणसंयोगे स हेतुरुपपादितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव अहंकारके अधीन होकर तृष्णाके कारण कर्म करता है और वह कर्म आगामी कार्य-कारण-संयोगमें हेतु बन जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभ्येति कारणं कार्यं न कार्यं कारणं तथा।
कार्याणां तूपकरणे कालो भवति हेतुमान् ॥ ११ ॥
मूलम्
नाभ्येति कारणं कार्यं न कार्यं कारणं तथा।
कार्याणां तूपकरणे कालो भवति हेतुमान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न तो कारण कार्यमें प्रवेश करता है और न कार्य कारणमें। कार्य करते समय काल ही उनकी सिद्धि और असिद्धिमें हेतु होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतुयुक्ताः प्रकृतयो विकाराश्चः परस्परम्।
अन्योन्यमभिवर्तन्ते पुरुषाधिष्ठिताः सदा ॥ १२ ॥
मूलम्
हेतुयुक्ताः प्रकृतयो विकाराश्चः परस्परम्।
अन्योन्यमभिवर्तन्ते पुरुषाधिष्ठिताः सदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हेतुसहित आठों प्रकृतियाँ और सोलह विकार—ये पुरुषसे अधिष्ठित हो सदा एक-दूसरेसे मिलते और सृष्टिका विस्तार करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसैस्तामसैर्भावैर्युतो हेतुबलान्वितः ।
क्षेत्रज्ञमेवानुयाति पांसुर्वातेरितो यथा ॥ १३ ॥
मूलम्
राजसैस्तामसैर्भावैर्युतो हेतुबलान्वितः ।
क्षेत्रज्ञमेवानुयाति पांसुर्वातेरितो यथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजस और तामसभावोंसे युक्त हेतुबलसे प्रेरित सूक्ष्मशरीर क्षेत्रज्ञ जीवात्माके साथ-साथ ठीक उसी तरह दूसरे स्थूल शरीरमें चला जाता है, जैसे वायुद्वारा उड़ायी हुई धूल उसीके साथ-साथ एक स्थानसे दूसरे स्थानको जाती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च तैः स्पृश्यते भावैर्न ते तेन महात्मना।
सरजस्कोऽरजस्कश्च नैव वायुर्भवेद् यथा ॥ १४ ॥
मूलम्
न च तैः स्पृश्यते भावैर्न ते तेन महात्मना।
सरजस्कोऽरजस्कश्च नैव वायुर्भवेद् यथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धूलके उड़नेसे वायु न तो धूलसे लिप्त होती है और न अलिप्त ही रहती है। उसी प्रकार न तो उन राजस, तामस आदि भावोंसे जीवात्मा लिप्त होता है और न अलिप्त ही रहता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैतदन्तरं विद्यात् सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्बुधः ।
अभ्यासात् स तथा युक्तो न गच्छेत् प्रकृतिं पुनः॥१५॥
मूलम्
तथैतदन्तरं विद्यात् सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्बुधः ।
अभ्यासात् स तथा युक्तो न गच्छेत् प्रकृतिं पुनः॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः विवेकी पुरुषको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका यह अन्तर जान लेना चाहिये। इन दोनोंके तादात्म्यका-सा अभ्यास हो जानेसे जीव ऐसा हो गया है कि उसे अपने शुद्ध स्वरूपका पता ही नहीं लगता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संदेहमेतमुत्पन्नमच्छिनद् भगवानृषिः ।
तथा वार्तां समीक्षेत कृतलक्षणसम्मिताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
संदेहमेतमुत्पन्नमच्छिनद् भगवानृषिः ।
तथा वार्तां समीक्षेत कृतलक्षणसम्मिताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(भीष्मजी कहते हैं—) इस प्रकार उन महर्षि भगवान् गुरुदेवने शिष्यके उत्पन्न हुए इस संदेहको काट डाला। अतः विद्वान् पुरुष ऐसे उपायोंपर दृष्टि रखे, जो क्रियाद्वारा उद्देश्यकी सिद्धिमें सहायक हों॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीजान्यग्न्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः।
ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा सम्पद्यते पुनः ॥ १७ ॥
मूलम्
बीजान्यग्न्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः।
ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा सम्पद्यते पुनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आगमें भूने हुए बीज नहीं उगते, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्निसे अविद्यादि सब क्लेशोंके दग्ध हो जानेपर जीवात्माको फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२११॥