२१० वार्ष्णेयाध्यात्मकथने

भागसूचना

दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

गुरु-शिष्यके संवादका उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण-सम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगं मे परमं तात मोक्षस्य वद भारत।
तमहं तत्त्वतो ज्ञातुमिच्छामि वदतां वर ॥ १ ॥

मूलम्

योगं मे परमं तात मोक्षस्य वद भारत।
तमहं तत्त्वतो ज्ञातुमिच्छामि वदतां वर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ तात भरतनन्दन! आप मुझे मोक्षके साधनभूत परम योगका उपदेश कीजिये। मैं उसे यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— राजन्! इस विषयमें एक शिष्यका गुरुके साथ जो मोक्षसम्बन्धी संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चिद् ब्राह्मणमासीनमाचार्यमृषिसत्तमम् ।
तेजोराशिं महात्मानं सत्यसंधं जितेन्द्रियम् ॥ ३ ॥
शिष्यः परममेधावी श्रेयोऽर्थी सुसमाहितः।
चरणावुपसंगृह्य स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत् ॥ ४ ॥

मूलम्

कश्चिद् ब्राह्मणमासीनमाचार्यमृषिसत्तमम् ।
तेजोराशिं महात्मानं सत्यसंधं जितेन्द्रियम् ॥ ३ ॥
शिष्यः परममेधावी श्रेयोऽर्थी सुसमाहितः।
चरणावुपसंगृह्य स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी समयकी बात है, एक विद्वान् ब्राह्मण श्रेष्ठ आसनपर विराजमान थे। वे आचार्यकोटिके पण्डित और श्रेष्ठतम महर्षि थे। देखनेमें महान् तेजकी राशि जान पड़ते थे। बड़े महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। एक दिन उनकी सेवामें कोई परम मेधावी कल्याणकामी एवं समाहितचित्त शिष्य आया (जो चिरकालतक उनकी शुश्रूषा कर चुका था), वह उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़ सामने खड़ा हो इस प्रकार बोला—॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपासनात् प्रसन्नोऽसि यदि वै भगवन् मम।
संशयो मे महान् कश्चित् तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत् सम्यग्ब्रूहि यत्परम् ॥ ५ ॥

मूलम्

उपासनात् प्रसन्नोऽसि यदि वै भगवन् मम।
संशयो मे महान् कश्चित् तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत् सम्यग्ब्रूहि यत्परम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! यदि आप मेरी सेवासे प्रसन्न हैं तो मेरे मनमें जो एक बड़ा भारी संदेह है, उसे दूर करनेकी कृपा करें—मेरे प्रश्नकी विशद व्याख्या करें। मैं इस संसारमें कहाँसे आया हूँ और आप भी कहाँसे आये हैं? यह भलीभाँति समझाकर बताइये। इसके सिवा जो परम तत्त्व है, उसका भी विवेचन कीजिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च सर्वभूतेषु समेषु द्विजसत्तम।
सम्यग्वृत्ता निवर्तन्ते विपरीताः क्षयोदयाः ॥ ६ ॥

मूलम्

कथं च सर्वभूतेषु समेषु द्विजसत्तम।
सम्यग्वृत्ता निवर्तन्ते विपरीताः क्षयोदयाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ! पृथ्वी आदि सम्पूर्ण महाभूत सर्वत्र समान हैं; सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर उन्हींसे निर्मित हुए हैं तो भी उनमें क्षय और वृद्धि—ये दोनों विपरीतभाव क्यों होते हैं?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदेषु चापि यद् वाक्यं लौकिकं व्यापकं च यत्।
एतद् विद्वन् यथातत्त्वं सर्वं व्याख्यातुमर्हसि ॥ ७ ॥

मूलम्

वेदेषु चापि यद् वाक्यं लौकिकं व्यापकं च यत्।
एतद् विद्वन् यथातत्त्वं सर्वं व्याख्यातुमर्हसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वेदों और स्मृतियोंमें भी जो लौकिक और व्यापक धर्मोंका वर्णन है, उनमें भी विषमता है। अतः विद्वन्! इन सबकी आप यथार्थरूपसे व्याख्या करें’॥७॥

मूलम् (वचनम्)

गुरुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु शिष्य महाप्राज्ञ ब्रह्मगुह्यमिदं परम्।
अध्यात्मं सर्वविद्यानामागमानां च यद्वसु ॥ ८ ॥

मूलम्

शृणु शिष्य महाप्राज्ञ ब्रह्मगुह्यमिदं परम्।
अध्यात्मं सर्वविद्यानामागमानां च यद्वसु ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुने कहा— वत्स! सुनो। महामते! तुमने जो बात पूछी है, वह वेदोंका उत्तम एवं गूढ़ रहस्य है। यही अध्यात्मतत्त्व है तथा यही समस्त विद्याओं और शास्त्रोंका सर्वस्व है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवः परमिदं विश्वस्य ब्रह्मणो मुखम्।
सत्यं ज्ञानमथो यज्ञस्तितिक्षा दम आर्जवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

वासुदेवः परमिदं विश्वस्य ब्रह्मणो मुखम्।
सत्यं ज्ञानमथो यज्ञस्तितिक्षा दम आर्जवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण वेदका मुख जो प्रणव है वह तथा सत्य, ज्ञान, यज्ञ, तितिक्षा, इन्द्रिय-संयम, सरलता और परम तत्त्व—यह सब कुछ वासुदेव ही है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषं सनातनं विष्णुं यं तं वेदविदो विदुः।
स्वर्गप्रलयकर्तारमव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ १० ॥

मूलम्

पुरुषं सनातनं विष्णुं यं तं वेदविदो विदुः।
स्वर्गप्रलयकर्तारमव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदज्ञजन उसीको सनातन पुरुष और विष्णु भी मानते हैं। वही संसारकी सृष्टि और प्रलय करनेवाला अव्यक्त एवं सनातन ब्रह्म है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं ब्रह्म वार्ष्णेयमितिहासं शृणुष्व मे।
ब्राह्मणो ब्राह्मणैः श्राव्यो राजन्यः क्षत्रियैस्तथा ॥ ११ ॥
वैश्यो वैश्यैस्तथा श्राव्यः शूद्रः शूद्रैर्महामनाः।
माहात्म्यं देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः ॥ १२ ॥

मूलम्

तदिदं ब्रह्म वार्ष्णेयमितिहासं शृणुष्व मे।
ब्राह्मणो ब्राह्मणैः श्राव्यो राजन्यः क्षत्रियैस्तथा ॥ ११ ॥
वैश्यो वैश्यैस्तथा श्राव्यः शूद्रः शूद्रैर्महामनाः।
माहात्म्यं देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही ब्रह्म वृष्णिकुलमें श्रीकृष्णरूपमें अवतीर्ण हुआ, इस कथाको तुम मुझसे सुनो। ब्राह्मण ब्राह्मणको, क्षत्रिय क्षत्रियको, वैश्य वैश्यको तथा शूद्र महामनस्वी शूद्रको, अमित तेजस्वी देवाधिदेव विष्णुका माहात्म्य सुनावे॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्हस्त्वमसि कल्याणं वार्ष्णेयं शृणु यत्परम्।
कालचक्रमनाद्यन्तं भावाभावस्वलक्षणम् ॥ १३ ॥
त्रैलोक्यं सर्वभूतेशे चक्रवत्परिवर्तते ।

मूलम्

अर्हस्त्वमसि कल्याणं वार्ष्णेयं शृणु यत्परम्।
कालचक्रमनाद्यन्तं भावाभावस्वलक्षणम् ॥ १३ ॥
त्रैलोक्यं सर्वभूतेशे चक्रवत्परिवर्तते ।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम भी यह सब सुननेके योग्य अधिकारी हो; अतः भगवान् श्रीकृष्णका जो कल्याणमय उत्कृष्ट माहात्म्य है, उसे सुनो। यह जो सृष्टि-प्रलयरूप अनादि, अनन्त कालचक्र है, वह श्रीकृष्णका ही स्वरूप है। सर्वभूतेश्वर श्रीकृष्णमें ये तीनों लोक चक्रकी भाँति घूम रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तदक्षरमव्यक्तममृतं ब्रह्म शाश्वतम् ।
वदन्ति पुरुषव्याघ्र केशवं पुरुषर्षभम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यत्तदक्षरमव्यक्तममृतं ब्रह्म शाश्वतम् ।
वदन्ति पुरुषव्याघ्र केशवं पुरुषर्षभम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! पुरुषोत्तम श्रीकृष्णको ही अक्षर, अव्यक्त, अमृत एवं सनातन परब्रह्म कहते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितॄन देवानृषींश्चैव तथा वै यक्षराक्षसान्।
नागासुरमनुष्यांश्च सृजते परमोऽव्ययः ॥ १५ ॥

मूलम्

पितॄन देवानृषींश्चैव तथा वै यक्षराक्षसान्।
नागासुरमनुष्यांश्च सृजते परमोऽव्ययः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये अविनाशी परमात्मा श्रीकृष्ण ही पितर, देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस, नाग, असुर और मनुष्य आदिकी रचना करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव वेदशास्त्राणि लोकधर्मांश्च शाश्वतान्।
प्रलयं प्रकृतिं प्राप्य युगादौ सृजते पुनः ॥ १६ ॥

मूलम्

तथैव वेदशास्त्राणि लोकधर्मांश्च शाश्वतान्।
प्रलयं प्रकृतिं प्राप्य युगादौ सृजते पुनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार प्रलयकाल बीतनेपर कल्पके आरम्भमें प्रकृतिका आश्रय ले भगवान् श्रीकृष्ण ही ये वेद-शास्त्र और सनातन लोक-धर्मोंको पुनः प्रकट करते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥ १७ ॥

मूलम्

यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ऋतु-परिवर्तनके साथ ही भिन्न-भिन्न ऋतुओंके नाना प्रकारके वे-ही-वे लक्षण प्रकट होते रहते हैं, वैसे ही प्रत्येक कल्पके आरम्भमें पूर्व कल्पोंके अनुसार तदनुरूप भावोंकी अभिव्यक्ति होती रहती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यद्यद् यदा भाति कालयोगाद् युगादिषु।
तत् तदुत्पद्यते ज्ञानं लोकयात्राविधानजम् ॥ ८ ॥

मूलम्

अथ यद्यद् यदा भाति कालयोगाद् युगादिषु।
तत् तदुत्पद्यते ज्ञानं लोकयात्राविधानजम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल-क्रमसे युगादिमें जब-जब जो-जो वस्तु भासित होती है, लोक-व्यवहारवश तब-तब उसी-उसी विषयका ज्ञान प्रकट होता रहता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयम्भुवा ॥ १९ ॥

मूलम्

युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयम्भुवा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्पके अन्तमें लुप्त हुए वेदों और इतिहासोंको कल्पके आरम्भमें स्वयम्भू ब्रह्माके आदेशसे महर्षियोंने तपस्याद्वारा सबसे पहले उपलब्ध किया था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदविद् वेद भगवान् वेदाङ्गानि बृहस्पतिः।
भार्गवो नीतिशास्त्रं तु जगाद जगतो हितम् ॥ २० ॥

मूलम्

वेदविद् वेद भगवान् वेदाङ्गानि बृहस्पतिः।
भार्गवो नीतिशास्त्रं तु जगाद जगतो हितम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय स्वयं भगवान् ब्रह्माको वेदोंका, बृहस्पतिजीको वेदांगोंका और शुक्राचार्यको नीति-शास्त्रका ज्ञान हुआ तथा उन लोगोंने जगत्‌के हितके लिये उन सब विषयोंका उपदेश किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धर्वं नारदो वेद भरद्वाजो धनुर्ग्रहम्।
देवर्षिचरितं गार्ग्यः कृष्णात्रेयश्चिकित्सितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

गान्धर्वं नारदो वेद भरद्वाजो धनुर्ग्रहम्।
देवर्षिचरितं गार्ग्यः कृष्णात्रेयश्चिकित्सितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीको गान्धर्व वेदका, भरद्वाजको धनुर्वेदका, महर्षि गार्ग्यको देवर्षियोंके चरित्रका तथा कृष्णात्रेयको चिकित्साशास्त्रका ज्ञान हुआ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभिः ।
हेत्वागमसदाचारैर्यदुक्तं तदुपास्यताम् ॥ २२ ॥

मूलम्

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभिः ।
हेत्वागमसदाचारैर्यदुक्तं तदुपास्यताम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तर्कशील विद्वानोंने तर्कशास्त्रके अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन किया। उन महर्षियोंने युक्तियुक्त शास्त्र और सदाचारके द्वारा जिस ब्रह्मका उपदेश किया है, उसीकी तुम भी उपासना करो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यं तत्परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः।
एकस्तद् वेद भगवान् धाता नारायणः प्रभुः ॥ २३ ॥

मूलम्

अनाद्यं तत्परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः।
एकस्तद् वेद भगवान् धाता नारायणः प्रभुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परब्रह्म अनादि और सबसे परे है। उसे न देवता जानते हैं न ऋषि। उसे तो एकमात्र जगत्पालक नारायण ही जानते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणादृषिगणास्तथा मुख्याः सुरासुराः ।
राजर्षयः पुराणाश्च परमं दुःखभेषजम् ॥ २४ ॥

मूलम्

नारायणादृषिगणास्तथा मुख्याः सुरासुराः ।
राजर्षयः पुराणाश्च परमं दुःखभेषजम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारायणसे ही ऋषियों, मुख्य-मुख्य देवताओं, असुरों तथा प्राचीन राजर्षियोंने उस ब्रह्मको जाना है; वह ब्रह्म-ज्ञान ही समस्त दुःखोंका परम औषध है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषाधिष्ठितान् भावान् प्रकृतिः सूयते यदा।
हेतुयुक्तमतः पूर्वं जगत् सम्परिवर्तते ॥ २५ ॥

मूलम्

पुरुषाधिष्ठितान् भावान् प्रकृतिः सूयते यदा।
हेतुयुक्तमतः पूर्वं जगत् सम्परिवर्तते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषद्वारा संकल्पमें लाये गये विविध पदार्थोंकी रचना प्रकृति ही करती है। इस प्रकृतिसे सर्वप्रथम कारणसहित जगत् उत्पन्न होता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीपादन्ये यथा दीपाः प्रवर्तन्ते सहस्रशः।
प्रकृतिः सूयते तद्वदानन्त्यान् नापचीयते ॥ २६ ॥

मूलम्

दीपादन्ये यथा दीपाः प्रवर्तन्ते सहस्रशः।
प्रकृतिः सूयते तद्वदानन्त्यान् नापचीयते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे एक दीपकसे दूसरे सहस्रों दीप जला लिये जाते हैं और पहले दीपकको कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार एक प्रकृति ही असंख्य पदार्थोंको उत्पन्न करती है और अनन्त होनेके कारण उसका क्षय नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तकर्मजा बुद्धिरहंकारं प्रसूयते ।
आकाशं चाप्यहंकाराद् वायुराकाशसम्भवः ॥ २७ ॥

मूलम्

अव्यक्तकर्मजा बुद्धिरहंकारं प्रसूयते ।
आकाशं चाप्यहंकाराद् वायुराकाशसम्भवः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अव्यक्त प्रकृतिमें क्षोभ होनेपर जिस बुद्धि (महत्तत्त्व) की उत्पत्ति होती है, वह बुद्धि अहंकारको जन्म देती है। अहंकारसे आकाश और आकाशसे वायुकी उत्पत्ति होती है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायोस्तेजस्ततश्चाप अद्‌भ्योऽथ वसुधोद्‌गता ।
मूलप्रकृतयो ह्यष्टौ जगदेतास्ववस्थितम् ॥ २८ ॥

मूलम्

वायोस्तेजस्ततश्चाप अद्‌भ्योऽथ वसुधोद्‌गता ।
मूलप्रकृतयो ह्यष्टौ जगदेतास्ववस्थितम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुसे अग्निकी, अग्निसे जलकी और जलसे पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार ये आठ मूल-प्रकृतियाँ बतायी गयी हैं। इन्हींमें सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानेन्द्रियाण्यतः पञ्च पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि।
विषयाः पञ्च चैकं च विकारे षोडशं मनः ॥ २९ ॥

मूलम्

ज्ञानेन्द्रियाण्यतः पञ्च पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि।
विषयाः पञ्च चैकं च विकारे षोडशं मनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय और एक मन—ये सोलह विकार कहे गये हैं। (इनमें मन तो अहंकारका विकार है और अन्य पन्द्रह अपने-अपने कारणरूप सूक्ष्म महाभूतोंके विकार हैं)॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रं त्वक्‌चक्षुषी जिह्वा घ्राणं ज्ञानेन्द्रियाण्यथ।
पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाक्कर्मणी अपि ॥ ३० ॥

मूलम्

श्रोत्रं त्वक्‌चक्षुषी जिह्वा घ्राणं ज्ञानेन्द्रियाण्यथ।
पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाक्कर्मणी अपि ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ (लिंग) और वाक्—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
विज्ञेयं व्यापकं चित्तं तेषु सर्वगतं मनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
विज्ञेयं व्यापकं चित्तं तेषु सर्वगतं मनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय हैं तथा इनमें व्यापक जो चित्त है, उसीको मन समझना चाहिये। मन सर्वगत कहा गया है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसज्ञाने तु जिह्वेयं व्याहृते वाक् तथोच्यते।
इन्द्रियैर्विविधैर्युक्तं सर्वं व्यक्तं मनस्तथा ॥ ३२ ॥

मूलम्

रसज्ञाने तु जिह्वेयं व्याहृते वाक् तथोच्यते।
इन्द्रियैर्विविधैर्युक्तं सर्वं व्यक्तं मनस्तथा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रस-ज्ञानके समय मन ही यह रसना (जिह्वा)-रूप हो जाता है तथा बोलनेके समय वह मन ही वागिन्द्रिय कहलाता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंके साथ मिलकर उन सबके रूपमें मन ही व्यका होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यात् तु षोडशैतानि दैवतानि विभागशः।
देहेषु ज्ञानकर्तारमुपासीनमुपासते ॥ ३३ ॥

मूलम्

विद्यात् तु षोडशैतानि दैवतानि विभागशः।
देहेषु ज्ञानकर्तारमुपासीनमुपासते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दस इन्द्रिय, पञ्च महाभूत और एक मन—ये सोलह तत्त्व इस शरीरमें विभागपूर्वक रहते हैं। इनको देवतारूप जानना चाहिये। शरीरके भीतर जो ज्ञान प्रकट करनेवाला परमात्माके निकटस्थ जीवात्मा है, उसकी ये सोलहों देवता उपासना करते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वत् सोमगुणा जिह्वा गन्धस्तु पृथिवीगुणः।
श्रोत्रं नभोगुणं चैव चक्षुरग्नेर्गुणस्तथा।
स्पर्शं वायुगुणं विद्यात् सर्वभूतेषु सर्वदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

तद्वत् सोमगुणा जिह्वा गन्धस्तु पृथिवीगुणः।
श्रोत्रं नभोगुणं चैव चक्षुरग्नेर्गुणस्तथा।
स्पर्शं वायुगुणं विद्यात् सर्वभूतेषु सर्वदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिह्वा जलका कार्य है, घ्राणेन्द्रिय पृथ्वीका कार्य है, श्रवणेन्द्रिय आकाशका और नेत्रेन्द्रिय अग्निका कार्य है तथा सम्पूर्ण भूतोंमें त्वचा नामकी इन्द्रियको सदा वायुका कार्य समझना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनः सत्त्वगुणं प्राहुः सत्त्वमव्यक्तजं तथा।
सर्वभूतात्मभूतस्थं तस्माद् बुद्ध्येत बुद्धिमान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

मनः सत्त्वगुणं प्राहुः सत्त्वमव्यक्तजं तथा।
सर्वभूतात्मभूतस्थं तस्माद् बुद्ध्येत बुद्धिमान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनको महत्तत्त्वका कार्य कहा है और महत्तत्त्वको अव्यक्त प्रकृतिका कार्य कहा है। अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह समस्त भूतोंके आत्मारूप परमेश्वरको समस्त प्राणियोंमें स्थित जाने॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते भावा जगत् सर्वं वहन्ति सचराचरम्।
श्रिता विरजसं देवं यमाहुः प्रकृतेः परम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

एते भावा जगत् सर्वं वहन्ति सचराचरम्।
श्रिता विरजसं देवं यमाहुः प्रकृतेः परम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ये सम्पूर्ण पदार्थ समस्त चराचर जगत्‌का भार वहन करते हैं। ये सब जो प्रकृतिसे अतीत रजोगुणरहित हैं, उस परमदेव परमात्माके आश्रित हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैर्भावैः समन्वितम्।
व्याप्य शेते महानात्मा तस्मात् पुरुष उच्यते ॥ ३७ ॥

मूलम्

नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैर्भावैः समन्वितम्।
व्याप्य शेते महानात्मा तस्मात् पुरुष उच्यते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हीं चौबीस पदार्थोंसे सम्पन्न इस नौ द्वारोंवाले पवित्र पुर (शरीर)-को व्याप्त करके इसमें इन सबसे जो महान् है वह आत्मा शयन करता है; इसलिये उसे ‘पुरुष’ कहते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजरः सोऽमरश्चैव व्यक्ताव्यक्तोपदेशवान् ।
व्यापकः सगुणः सूक्ष्मः सर्वभूतगुणाश्रयः ॥ ३८ ॥

मूलम्

अजरः सोऽमरश्चैव व्यक्ताव्यक्तोपदेशवान् ।
व्यापकः सगुणः सूक्ष्मः सर्वभूतगुणाश्रयः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरुष जरा-मरणसे रहित, व्यापक, समस्त स्थूल-सूक्ष्म तत्त्वोंका प्रेरक, सर्वज्ञत्व आदि गुणोंसे युक्त, सूक्ष्म तथा सम्पूर्ण भूतों और उनके गुणोंका आश्रय है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा दीपः प्रकाशात्मा ह्रस्वो वा यदि वा महान्।
ज्ञानात्मानं तथा विद्यात् पुरुषं सर्वजन्तुषु ॥ ३९ ॥

मूलम्

यथा दीपः प्रकाशात्मा ह्रस्वो वा यदि वा महान्।
ज्ञानात्मानं तथा विद्यात् पुरुषं सर्वजन्तुषु ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दीपक छोटा हो या बड़ा, प्रकाशस्वरूप ही है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंमें स्थित जीवात्मा ज्ञानस्वरूप है, ऐसा समझे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रं वेदयते वेद्यं स शृणोति स पश्यति।
कारणं तस्य देहोऽयं स कर्ता सर्वकर्मणाम् ॥ ४० ॥

मूलम्

श्रोत्रं वेदयते वेद्यं स शृणोति स पश्यति।
कारणं तस्य देहोऽयं स कर्ता सर्वकर्मणाम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही श्रवणेन्द्रियको उसके ज्ञेयभूत शब्दका बोध कराता है। तात्पर्य यह कि श्रवण और नेत्रोंद्वारा वही सुनता और देखता है। यह शरीर उसके शब्द आदि विषयोंके अनुभवमें निमित्त है। वह जीवात्मा ही समस्त कर्मोंका कर्ता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निर्दारुगतो यद्वद् भिन्ने दारौ न दृश्यते।
तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवानुदृश्यते ॥ ४१ ॥
अग्निर्यथा ह्युपायेन मथित्वा दारु दृश्यते।
तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवात्र दृश्यते ॥ ४२ ॥

मूलम्

अग्निर्दारुगतो यद्वद् भिन्ने दारौ न दृश्यते।
तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवानुदृश्यते ॥ ४१ ॥
अग्निर्यथा ह्युपायेन मथित्वा दारु दृश्यते।
तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवात्र दृश्यते ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें व्याप्त रहनेपर भी काष्ठके चीरनेपर भी उसमें दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार आत्मा शरीरमें रहता है, परंतु दिखायी नहीं देता—योगसे ही उसका दर्शन होता है। जैसे मन्थन आदि उपायोंद्वारा काष्ठको मथकर उनमें अग्निको प्रत्यक्ष किया जाता है, उसी प्रकार योगके द्वारा शरीरस्थ आत्माका साक्षात्कार किया जा सकता है॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीष्वापो यथा युक्ता यथा सूर्ये मरीचयः।
संततत्वाद् यथा यान्ति तथा देहाः शरीरिणाम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

नदीष्वापो यथा युक्ता यथा सूर्ये मरीचयः।
संततत्वाद् यथा यान्ति तथा देहाः शरीरिणाम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नदियोंमें जल रहता ही है और सूर्यमें किरणें भी रहती ही हैं तथा वे जल और किरणें नदी और सूर्यसे नित्य सम्बद्ध होनेके कारण उनके साथ-साथ जाती हैं, उसी प्रकार देहधारियोंके सूक्ष्म शरीर भी जीवात्माके साथ ही रहते हैं और उसे साथ लेकर ही आते-जाते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्नयोगे यथैवात्मा पञ्चेन्द्रियसमायुतः ।
देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्मोपलभ्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

स्वप्नयोगे यथैवात्मा पञ्चेन्द्रियसमायुतः ।
देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्मोपलभ्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्वप्नमें पाँच ज्ञानेन्द्रियोंसहित जीवात्मा इस शरीरको छोड़कर अन्यत्र चला जाता है, वैसे ही मृत्युके बाद भी वह इस शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण कर लेता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा बाध्यते रूपं कर्मणा चोपलभ्यते।
कर्मणा नीयतेऽन्यत्र स्वकृतेन बलीयसा ॥ ४५ ॥

मूलम्

कर्मणा बाध्यते रूपं कर्मणा चोपलभ्यते।
कर्मणा नीयतेऽन्यत्र स्वकृतेन बलीयसा ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मके द्वारा ही इस देहका बाध होता है; कर्मसे ही अन्य देहकी उपलब्धि होती है तथा अपने किये हुए प्रबल कर्मके द्वारा ही वह अन्य शरीरमें ले जाया जाता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु देहाद् यथा देहं त्यक्त्वान्यं प्रतिपद्यते।
तथान्यं सम्प्रवक्ष्यामि भूतग्रामं स्वकर्मजम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

स तु देहाद् यथा देहं त्यक्त्वान्यं प्रतिपद्यते।
तथान्यं सम्प्रवक्ष्यामि भूतग्रामं स्वकर्मजम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जीवात्मा जिस प्रकार एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करता है तथा अपने कर्मोंसे उत्पन्न हुआ प्राणिसमुदाय जिस प्रकार अन्य देह धारण करता है, वह सब मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥४६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वार्ष्णेयाध्यात्मकथने दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका निरूपणविषयक दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१०॥