२०९ अन्तर्भूमिविक्रीडनम्

भागसूचना

नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् विष्णुका वराहरूपमें प्रकट होकर देवताओंकी रक्षा और दानवोंका विनाश कर देना तथा नारदको अनुस्मृतिस्तोत्रका उपदेश और नारदद्वारा भगवान्‌की स्तुति

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामह महाप्राज्ञ युधि सत्यपराक्रम।
श्रोतुमिच्छामि कार्त्स्न्येन कृष्णमव्ययमीश्वरम् ॥ १ ॥

मूलम्

पितामह महाप्राज्ञ युधि सत्यपराक्रम।
श्रोतुमिच्छामि कार्त्स्न्येन कृष्णमव्ययमीश्वरम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— युद्धमें सच्चा पराक्रम प्रकट करनेवाले महाप्राज्ञ पितामह! भगवान् श्रीकृष्ण अविनाशी ईश्वर हैं; मैं पूर्णरूपसे इनके महत्त्वका वर्णन सुनना चाहता हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चास्य तेजः सुमहद् यच्च कर्म पुरा कृतम्।
तन्मे सर्वं यथातत्त्वं ब्रूहि त्वं पुरुषर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

यच्चास्य तेजः सुमहद् यच्च कर्म पुरा कृतम्।
तन्मे सर्वं यथातत्त्वं ब्रूहि त्वं पुरुषर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! इनका जो महान् तेज है, इन्होंने पूर्वकालमें जो महान् कर्म किया है, वह सब आप मुझे यथार्थरूपसे बताइये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योनिगतं रूपं कथं धारितवान् प्रभुः।
केन कार्यनिसर्गेण तमाख्याहि महाबल ॥ ३ ॥

मूलम्

तिर्यग्योनिगतं रूपं कथं धारितवान् प्रभुः।
केन कार्यनिसर्गेण तमाख्याहि महाबल ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली पितामह! सम्पूर्ण जगत्‌के प्रभु होकर भी इन्होंने किस निमित्तसे तिर्यग्योनिमें जन्म ग्रहण किया; यह मुझे बताइये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराहं मृगयां यातो मार्कण्डेयाश्रमे स्थितः।
तत्रापश्यं मुनिगणान् समासीनान् सहस्रशः ॥ ४ ॥

मूलम्

पुराहं मृगयां यातो मार्कण्डेयाश्रमे स्थितः।
तत्रापश्यं मुनिगणान् समासीनान् सहस्रशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! पहलेकी बात है, मैं शिकार खेलनेके लिये वनमें गया और मार्कण्डेय मुनिके आश्रमपर ठहरा। वहाँ मैंने सहस्रों मुनियोंको बैठे देखा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते मधुपर्केण पूजां चक्रुरथो मयि।
प्रतिगृह्य च तां पूजां प्रत्यनन्दमृषीनहम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततस्ते मधुपर्केण पूजां चक्रुरथो मयि।
प्रतिगृह्य च तां पूजां प्रत्यनन्दमृषीनहम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे जानेपर उन महर्षियोंने मधुपर्क समर्पित करके मेरा आतिथ्य-सत्कार किया। मैंने भी उनका सत्कार ग्रहण करके उन सभी महर्षियोंका अभिनन्दन किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथैषा कथिता तत्र कश्यपेन महर्षिणा।
मनःप्रह्लादिनीं दिव्यां तामिहैकमनाः शृणु ॥ ६ ॥

मूलम्

कथैषा कथिता तत्र कश्यपेन महर्षिणा।
मनःप्रह्लादिनीं दिव्यां तामिहैकमनाः शृणु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर महर्षि कश्यपने मनको आनन्द प्रदान करनेवाली यह दिव्य कथा मुझे सुनायी। मैं उसे कहता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा दानवमुख्या हि क्रोधलोभसमन्विताः।
बलेन मत्ताः शतशो नरकाद्या महासुराः ॥ ७ ॥

मूलम्

पुरा दानवमुख्या हि क्रोधलोभसमन्विताः।
बलेन मत्ताः शतशो नरकाद्या महासुराः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें नरकासुर आदि सैकड़ों मुख्य-मुख्य दानव क्रोध और लोभके वशीभूत हो बलके मदसे मतवाले हो गये थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव चान्ये बहवो दानवा युद्धदुर्मदाः।
न सहन्ते स्म देवानां समृद्धिं तामनुत्तमाम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तथैव चान्ये बहवो दानवा युद्धदुर्मदाः।
न सहन्ते स्म देवानां समृद्धिं तामनुत्तमाम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा और भी बहुत-से रणदुर्मद दानव थे, जो देवताओंकी उत्तम समृद्धिको सहन नहीं कर पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानवैरर्द्यमानास्तु देवा देवर्षयस्तथा ।
न शर्म लेभिरे राजन् विशमानास्ततस्ततः ॥ ९ ॥

मूलम्

दानवैरर्द्यमानास्तु देवा देवर्षयस्तथा ।
न शर्म लेभिरे राजन् विशमानास्ततस्ततः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन दानवोंसे पीड़ित हो देवता और देवर्षि कहीं चैन नहीं पाते थे। वे इधर-उधर लुकते-छिपते फिरते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवीमार्तरूपां ते समपश्यन् दिवौकसः।
दानवैरभिसंस्तीर्णां घोररूपैर्महाबलैः ॥ १० ॥

मूलम्

पृथिवीमार्तरूपां ते समपश्यन् दिवौकसः।
दानवैरभिसंस्तीर्णां घोररूपैर्महाबलैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समूचे भूमण्डलमें भयानक रूपधारी महाबली दानव फैल गये थे। देवताओंने देखा, यह पृथ्वी दानवोंके पापभारसे पीड़ित एवं आर्त हो उठी है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारार्तामप्रहृष्टां च दुःखितां संनिमज्जतीम्।
अथादितेयाः संत्रस्ता ब्रह्माणमिदमब्रुवन् ॥ ११ ॥

मूलम्

भारार्तामप्रहृष्टां च दुःखितां संनिमज्जतीम्।
अथादितेयाः संत्रस्ता ब्रह्माणमिदमब्रुवन् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह भारसे व्याकुल, हर्ष और उल्लाससे शून्य तथा दुखी हो रसातलमें डूब रही है। यह देखकर अदितिके सभी पुत्र भयसे थर्रा उठे और ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं शक्ष्यामहे ब्रह्मन् दानवैरभिमर्दनम्।
स्वयम्भूस्तानुवाचेदं निसृष्टोऽत्र विधिर्मया ॥ १२ ॥

मूलम्

कथं शक्ष्यामहे ब्रह्मन् दानवैरभिमर्दनम्।
स्वयम्भूस्तानुवाचेदं निसृष्टोऽत्र विधिर्मया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! दानवलोग जो हमें इस प्रकार रौंद रहे हैं, इसे हम किस प्रकार सह सकेंगे?’ तब स्वयम्भू ब्रह्माने उनसे इस प्रकार कहा—‘देवताओ! इस विपत्तिको दूर करनेके लिये मैंने उपाय कर दिया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वरेणाभिसम्पन्ना बलेन च मदेन च।
नावबुध्यन्ति सम्मूढा विष्णुमव्यक्तदर्शनम् ॥ १३ ॥
वराहरूपिणं देवमधृष्यममरैरपि ।

मूलम्

ते वरेणाभिसम्पन्ना बलेन च मदेन च।
नावबुध्यन्ति सम्मूढा विष्णुमव्यक्तदर्शनम् ॥ १३ ॥
वराहरूपिणं देवमधृष्यममरैरपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे दानव वर पाकर बल और अभिमानसे मत्त हो उठे हैं। वे मूढ़ दैत्य अव्यक्तस्वरूप भगवान् विष्णुको नहीं जानते, जो देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष हैं। उन्होंने वाराह रूप धारण कर रखा है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वेगेन गत्वा हि यत्र ते दानवाधमाः ॥ १४ ॥
अन्तर्भूमिगता घोरा निवसन्ति सहस्रशः।
शमयिष्यति तच्छ्रुत्वा जहृषुः सुरसत्तमाः ॥ १५ ॥

मूलम्

एष वेगेन गत्वा हि यत्र ते दानवाधमाः ॥ १४ ॥
अन्तर्भूमिगता घोरा निवसन्ति सहस्रशः।
शमयिष्यति तच्छ्रुत्वा जहृषुः सुरसत्तमाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सहस्रों घोर दैत्य और दानवाधम भूमिके भीतर पाताललोकमें निवास करते हैं; भगवान् वाराह वेगपूर्वक वहीं जाकर उन सबका विनाश कर देंगे। यह सुनकर सभी श्रेष्ठ देवता हर्षसे खिल उठे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विष्णुर्महातेजा वाराहं रूपमास्थितः।
अन्तर्भूमिं सम्प्रविश्य जगाम दितिजान् प्रति ॥ १६ ॥

मूलम्

ततो विष्णुर्महातेजा वाराहं रूपमास्थितः।
अन्तर्भूमिं सम्प्रविश्य जगाम दितिजान् प्रति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर महातेजस्वी भगवान् विष्णु वाराहरूप धारण कर बड़े वेगसे भूमिके भीतर प्रविष्ट हुए और दैत्योंके पास जा पहुँचे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा च सहिताः सर्वे दैत्याः सत्त्वममानुषम्।
प्रसह्य तरसा सर्वे संतस्थुः कालमोहिताः ॥ १७ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा च सहिताः सर्वे दैत्याः सत्त्वममानुषम्।
प्रसह्य तरसा सर्वे संतस्थुः कालमोहिताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अलौकिक जन्तुको देखकर सब दैत्य एक साथ हो वेगपूर्वक उसका सामना करनेके लिये हठात् खड़े हो गये; क्योंकि वे कालसे मोहित हो रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते समभिद्रुत्य वराहं जगृहुः समम्।
संक्रुद्धाश्च वराहं तं व्यकर्षन्त समन्ततः ॥ १८ ॥

मूलम्

ततस्ते समभिद्रुत्य वराहं जगृहुः समम्।
संक्रुद्धाश्च वराहं तं व्यकर्षन्त समन्ततः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबने कुपित होकर भगवान् वाराहपर एक साथ धावा बोल दिया और उन्हें हाथोंहाथ पकड़ लिया। पकड़कर वे वाराहदेवको चारों ओरसे खींचने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानवेन्द्रा महाकाया महावीर्यबलोच्छ्रिताः ।
नाशक्नुवंश्च किंचित्‌ ते तस्य कर्तुं तदा विभो ॥ १९ ॥

मूलम्

दानवेन्द्रा महाकाया महावीर्यबलोच्छ्रिताः ।
नाशक्नुवंश्च किंचित्‌ ते तस्य कर्तुं तदा विभो ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! यद्यपि वे विशालकाय दानवराज महान् बल और वीर्यसे सम्पन्न थे, तो भी उन भगवान्‌का कुछ बिगाड़ न सके॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽगच्छत् विस्मयं ते दानवेन्द्रा भयं तथा।
संशयं गतमात्मानं मेनिरे च सहस्रशः ॥ २० ॥

मूलम्

ततोऽगच्छत् विस्मयं ते दानवेन्द्रा भयं तथा।
संशयं गतमात्मानं मेनिरे च सहस्रशः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे उन दानवेन्द्रोंको बड़ा विस्मय और भय प्राप्त हुआ। वे सहस्रों दैत्य अपने आपको जीवनके संशयमें पड़ा हुआ मानने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवाधिदेवः स योगात्मा योगसारथिः।
योगमास्थाय भगवांस्तदा भरतसत्तम ॥ २१ ॥
विननाद महानादं क्षोभयन् दैत्यदानवान्।
संनादिता येन लोकाः सर्वाश्चैव दिशो दश ॥ २२ ॥

मूलम्

ततो देवाधिदेवः स योगात्मा योगसारथिः।
योगमास्थाय भगवांस्तदा भरतसत्तम ॥ २१ ॥
विननाद महानादं क्षोभयन् दैत्यदानवान्।
संनादिता येन लोकाः सर्वाश्चैव दिशो दश ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इसके बाद योगस्वरूप योगके नियन्ता देवाधिदेव भगवान् वाराह दैत्यों और दानवोंको क्षोभमें डालनेके लिये योगका आश्रय ले बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। उस भीषण गर्जनासे तीनों लोक और ये सारी दसों दिशाएँ गूँज उठीं॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन संनादशब्देन लोकानां क्षोभ आगमत्।
संत्रस्ताश्च भृशं लोके देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ २३ ॥

मूलम्

तेन संनादशब्देन लोकानां क्षोभ आगमत्।
संत्रस्ताश्च भृशं लोके देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भीषण गर्जनासे समस्त लोकोंमें हलचल मच गयी। स्वर्गलोकमें इन्द्र आदि देवता भी अत्यन्त भयभीत हो उठे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्विचेष्टं जगच्चापि बभूवातिभृशं तदा।
स्थावरं जङ्गमं चैव तेन नादेन मोहितम् ॥ २४ ॥

मूलम्

निर्विचेष्टं जगच्चापि बभूवातिभृशं तदा।
स्थावरं जङ्गमं चैव तेन नादेन मोहितम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सिंहनादसे मोहित होकर समस्त चराचर जगत् अत्यन्त चेष्टारहित हो गया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते दानवाः सर्वे तेन नादेन भीषिताः।
पेतुर्गतासवश्चैव विष्णुतेजःप्रमोहिताः ॥ २५ ॥

मूलम्

ततस्ते दानवाः सर्वे तेन नादेन भीषिताः।
पेतुर्गतासवश्चैव विष्णुतेजःप्रमोहिताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे सब दानव भगवान्‌की उस गर्जनासे भयभीत हो प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। वे सब-के-सब भगवान् विष्णुके तेजसे मोहित हो अपनी सुध-बुध खो बैठे थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसातलगतश्चापि वराहस्त्रिदशद्विषाम् ।
खुरैर्विदारयामास मांसमेदोऽस्थिसंचयान् ॥ २६ ॥

मूलम्

रसातलगतश्चापि वराहस्त्रिदशद्विषाम् ।
खुरैर्विदारयामास मांसमेदोऽस्थिसंचयान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रसातलमें जाकर भी भगवान् वाराहने देवद्रोही असुरोंको अपने खुरोंसे विदीर्ण कर दिया। उनके मांस, मेदा और हड्डियोंके ढेर लग गये थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नादेन तेन महता सनातन इति स्मृतः।
पद्मनाभो महायोगी भूताचार्यः स भूतराट् ॥ २७ ॥

मूलम्

नादेन तेन महता सनातन इति स्मृतः।
पद्मनाभो महायोगी भूताचार्यः स भूतराट् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण प्राणियोंके आचार्य और स्वामी महायोगी वे भगवान् पद्मनाभ अपने महान् सिंहनादके कारण ‘सनातन[^*]’ माने गये हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवगणाः सर्वे पितामहमुपाद्रवन्।
तत्र गत्वा महात्मानमूचुश्चैव जगत्पतिम् ॥ २८ ॥
नादोऽयं कीदृशो देव नैतं विद्म वयं प्रभो।
कोऽसौ हि कस्य वा नादो येन विह्वलितं जगत्॥२९॥
देवाश्च दानवाश्चैव मोहितास्तस्य तेजसा।

मूलम्

ततो देवगणाः सर्वे पितामहमुपाद्रवन्।
तत्र गत्वा महात्मानमूचुश्चैव जगत्पतिम् ॥ २८ ॥
नादोऽयं कीदृशो देव नैतं विद्म वयं प्रभो।
कोऽसौ हि कस्य वा नादो येन विह्वलितं जगत्॥२९॥
देवाश्च दानवाश्चैव मोहितास्तस्य तेजसा।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके उस सिंहनादको सुनकर सब देवता जगदीश्वर भगवान् ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर वे इस प्रकार बोले—‘देव! प्रभो! यह कैसा सिंहनाद है? इसे हमलोग नहीं जानते। वह कौन वीर है? अथवा किसकी गर्जना है? जिसने इस जगत्‌को व्याकुल कर दिया है। देवता और दानव सभी उसके तेजसे मोहित हो रहे हैं’॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुर्वाराहं रूपमास्थितः ।
उदतिष्ठन्महाबाहो स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ३० ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुर्वाराहं रूपमास्थितः ।
उदतिष्ठन्महाबाहो स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! इसी बीचमें वाराहरूपधारी भगवान् विष्णु जलसे ऊपर उठे। उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति कर रहे थे॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

पितामह उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहत्य दानवपतीन् महावर्ष्मा महाबलः।
एष देवो महायोगी भूतात्मा भूतभावनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

निहत्य दानवपतीन् महावर्ष्मा महाबलः।
एष देवो महायोगी भूतात्मा भूतभावनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— देवताओ! ये महाकाय महाबली महायोगी भूतभावन भूतात्मा भगवान् विष्णु हैं, जो दानवराजोंका वध करके आ रहे हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतेश्वरो योगी मुनिरात्मा तथाऽऽत्मनः।
स्थिरीभवत कृष्णोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

सर्वभूतेश्वरो योगी मुनिरात्मा तथाऽऽत्मनः।
स्थिरीभवत कृष्णोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर, योगी, मुनि तथा आत्माके भी आत्मा हैं, ये ही समस्त विघ्नोंका विनाश करनेवाले श्रीकृष्ण हैं; अतः तुमलोग धैर्य धारण करो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा कर्मातिसाध्वेतदशक्यममितप्रभः ।
समायातः स्वमात्मानं महाभागो महाद्युतिः ॥ ३३ ॥

मूलम्

कृत्वा कर्मातिसाध्वेतदशक्यममितप्रभः ।
समायातः स्वमात्मानं महाभागो महाद्युतिः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त प्रभासे परिपूर्ण, महातेजस्वी एवं महान् सौभाग्यके आश्रयभूत ये भगवान् अत्यन्त उत्तम और दूसरोंके लिये असम्भव कार्य करके आ रहे हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मनाभो महायोगी महात्मा भूतभावनः।
न संतापो न भीः कार्या शोको वा सुरसत्तमाः॥३४॥

मूलम्

पद्मनाभो महायोगी महात्मा भूतभावनः।
न संतापो न भीः कार्या शोको वा सुरसत्तमाः॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरश्रेष्ठगण! ये महायोगी भूतभावन महात्मा पद्मनाभ हैं; अतः तुम्हें अपने मनसे संताप, भय एवं शोकको दूर कर देना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिरेष प्रभावश्च कालः संक्षयकारकः।
लोकान् धारयता तेन नादो मुक्तो महात्मना ॥ ३५ ॥

मूलम्

विधिरेष प्रभावश्च कालः संक्षयकारकः।
लोकान् धारयता तेन नादो मुक्तो महात्मना ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये ही विधि हैं, ये ही प्रभाव हैं और ये ही संहारकारी काल हैं, इन्हीं परमात्माने सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षा करते हुए यह भीषण सिंहनाद किया है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष हि महाबाहुः सर्वलोकनमस्कृतः।
अच्युतः पुण्डरीकाक्षः सर्वभूतादिरीश्वरः ॥ ३६ ॥

मूलम्

स एष हि महाबाहुः सर्वलोकनमस्कृतः।
अच्युतः पुण्डरीकाक्षः सर्वभूतादिरीश्वरः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सम्पूर्ण भूतोंके आदि कारण, सर्वलोकवन्दित ईश्वर महाबाहु कमलनयन अच्युत हैं॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

(युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
प्रयाणकाले किं जप्यं मोक्षिभिस्तत्त्वचिन्तकैः॥

मूलम्

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
प्रयाणकाले किं जप्यं मोक्षिभिस्तत्त्वचिन्तकैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले तत्त्व-चिन्तकोंको मृत्युकालमें किस मन्त्रका जप करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमनुस्मरन् कुरुश्रेष्ठ मरणे पर्युपस्थिते।
प्राप्नुयात् परमां सिद्धिं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥

मूलम्

किमनुस्मरन् कुरुश्रेष्ठ मरणे पर्युपस्थिते।
प्राप्नुयात् परमां सिद्धिं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! मृत्युका समय उपस्थित होनेपर किसका चिन्तन करनेवाला पुरुष परम सिद्धिको प्राप्त हो सकता है? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्युक्तिसहितः सूक्ष्म उक्तः प्रश्नस्त्वयानघ।
शृणुष्वावहितो राजन् नारदेन पुरा श्रुतम्॥

मूलम्

सद्युक्तिसहितः सूक्ष्म उक्तः प्रश्नस्त्वयानघ।
शृणुष्वावहितो राजन् नारदेन पुरा श्रुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! निष्पाप नरेश! तुमने जो प्रश्न उपस्थित किया है, वह उत्तम युक्तियुक्त और सूक्ष्म है। उसे सावधान होकर सुनो। जो पूर्वकालमें मैंने नारदजीसे सुना था, वहीं मैं तुमसे कहता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीवत्साङ्कं जगद्‌बीजमनन्तं लोकसाक्षिणम् ।
पुरा नारायणं देवं नारदः परिपृष्टवान्॥

मूलम्

श्रीवत्साङ्कं जगद्‌बीजमनन्तं लोकसाक्षिणम् ।
पुरा नारायणं देवं नारदः परिपृष्टवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित है, जो इस जगत्‌के बीज (मूल कारण) हैं, जिनका कहीं अन्त नहीं है तथा जो इस जगत्‌के साक्षी हैं, उन्हीं भगवान् नारायणसे पूर्वकालमें नारदजीने इस प्रकार प्रश्न किया॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामक्षरं परं ब्रह्म निर्गुणं तमसः परम्।
आहुर्वेद्यं परं धाम ब्रह्मादिकमलोद्भवम्॥
भगवन् भूतभव्येश श्रद्दधानैर्जितेन्द्रियैः ।
कथं भक्तैर्विचिन्त्योऽसि योगिभिर्मोक्षकांक्षिभिः ॥

मूलम्

त्वामक्षरं परं ब्रह्म निर्गुणं तमसः परम्।
आहुर्वेद्यं परं धाम ब्रह्मादिकमलोद्भवम्॥
भगवन् भूतभव्येश श्रद्दधानैर्जितेन्द्रियैः ।
कथं भक्तैर्विचिन्त्योऽसि योगिभिर्मोक्षकांक्षिभिः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने पूछा— भगवन्! महर्षिगण कहते हैं, आप अविनाशी (नित्य), परब्रह्म, निर्गुण, अज्ञानान्धकार एवं तमोगुणसे अतीत, विद्याके अधिपति, परम धामस्वरूप, ब्रह्मा तथा उनकी प्राकट्यभूमि—आदिकमलके उत्पत्ति-स्थान हैं। भूत और भविष्यके स्वामी परमेश्वर! श्रद्धालु और जितेन्द्रिय भक्तों तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले योगियोंको आपके स्वरूपका किस प्रकार चिन्तन करना चाहिये?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं च जप्यं जपेन्नित्यं कल्यमुत्थाय मानवः।
कथं युञ्जन् सदा ध्यायेद् ब्रूहि तत्त्वं सनातनम्॥

मूलम्

किं च जप्यं जपेन्नित्यं कल्यमुत्थाय मानवः।
कथं युञ्जन् सदा ध्यायेद् ब्रूहि तत्त्वं सनातनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य प्रतिदिन सबेरे उठकर किस जपनीय मन्त्रका जप करे और योगी पुरुष किस प्रकार निरन्तर ध्यान करे? आप इस सनातन तत्त्वका वर्णन कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तस्य तु देवर्षेर्वाक्यं वाचस्पतिः स्वयम्।
प्रोवाच भगवान् विष्णुर्नारदं वरदः प्रभुः॥

मूलम्

श्रुत्वा तस्य तु देवर्षेर्वाक्यं वाचस्पतिः स्वयम्।
प्रोवाच भगवान् विष्णुर्नारदं वरदः प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदका यह वचन सुनकर वाणीके अधिपति वरदायक भगवान् विष्णुने नारदजीसे इस प्रकार कहा॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि इमां दिव्यामनुस्मृतिम्।
यामधीत्य प्रयाणे तु मद्भावायोपपद्यते॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि इमां दिव्यामनुस्मृतिम्।
यामधीत्य प्रयाणे तु मद्भावायोपपद्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— देवर्षे! मैं हर्षपूर्वक तुम्हारे सामने इस दिव्य अनुस्मृतिका वर्णन करता हूँ। मृत्युकालमें जिसका अध्ययन और श्रवण करके मनुष्य मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओङ्कारमग्रतः कृत्वा मां नमस्कृत्य नारद।
एकाग्रः प्रयतो भूत्वा इमं मन्त्रमुदीरयेत्॥
ओं नमो भगवते वासुदेवायेति।

मूलम्

ओङ्कारमग्रतः कृत्वा मां नमस्कृत्य नारद।
एकाग्रः प्रयतो भूत्वा इमं मन्त्रमुदीरयेत्॥
ओं नमो भगवते वासुदेवायेति।

अनुवाद (हिन्दी)

नारद! आदिमें ओंकारका उच्चारण करके मुझे नमस्कार करे। अर्थात् एकाग्र एवं पवित्रचित्त होकर इस मन्त्रका उच्चारण करे—‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इति॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो नारदः प्राह प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः॥
सर्वदेवेश्वरं विष्णुं सर्वात्मानं हरिं प्रभुम्।

मूलम्

इत्युक्तो नारदः प्राह प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः॥
सर्वदेवेश्वरं विष्णुं सर्वात्मानं हरिं प्रभुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान्‌के ऐसा कहनेपर नारदजी हाथ जोड़ प्रणाम करके खड़े हो गये और उन सर्वदेवेश्वर सर्वात्मा एवं पापहारी प्रभु श्रीविष्णुसे बोले॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तं शाश्वतं देवं प्रभवं पुरुषोत्तमम्॥
प्रपद्ये प्राञ्जलिर्विष्णुमक्षरं परमं पदम्।

मूलम्

अव्यक्तं शाश्वतं देवं प्रभवं पुरुषोत्तमम्॥
प्रपद्ये प्राञ्जलिर्विष्णुमक्षरं परमं पदम्।

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— प्रभो! जो अव्यक्त सनातन देवता, सबकी उत्पत्तिके कारण, पुरुषोत्तम, अविनाशी और परम पदस्वरूप हैं, उन भगवान् विष्णुकी मैं हाथ जोड़कर शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणं प्रभवं नित्यमक्षयं लोकसाक्षिणम्॥
प्रपद्ये पुण्डरीकाक्षमीशं भक्तानुकम्पिनम् ।

मूलम्

पुराणं प्रभवं नित्यमक्षयं लोकसाक्षिणम्॥
प्रपद्ये पुण्डरीकाक्षमीशं भक्तानुकम्पिनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुराणपुरुष, सबकी उत्पत्तिके कारण, नित्य, अक्षय और सम्पूर्ण जगत्‌के साक्षी हैं, जिनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं, उन भक्तवत्सल भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकनाथं सहस्राक्षमद्भुतं परमं पदम्॥
भगवन्तं प्रपन्नोऽस्मि भूतभव्यभवत्प्रभुम् ।

मूलम्

लोकनाथं सहस्राक्षमद्भुतं परमं पदम्॥
भगवन्तं प्रपन्नोऽस्मि भूतभव्यभवत्प्रभुम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी तथा संरक्षक हैं, जिनके सहस्रों नेत्र हैं; तथा जो भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी हैं, उन अद्‌भुत परमपदरूप भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रष्टारं सर्वलोकानामनन्तं विश्वतोमुखम् ॥
पद्मनाथं हृषीकेशं प्रपद्ये सत्यमच्युतम्।

मूलम्

स्रष्टारं सर्वलोकानामनन्तं विश्वतोमुखम् ॥
पद्मनाथं हृषीकेशं प्रपद्ये सत्यमच्युतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त लोकोंके स्रष्टा और सब ओर मुखवाले, अनन्त, सत्य, अच्युत एवं सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् पद्‌मनाभकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यगर्भममृतं भूगर्भं परतः परम्॥
प्रभोः प्रभुमनाद्यन्तं प्रपद्ये तं रविप्रभम्।

मूलम्

हिरण्यगर्भममृतं भूगर्भं परतः परम्॥
प्रभोः प्रभुमनाद्यन्तं प्रपद्ये तं रविप्रभम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो हिरण्यगर्भ, अमृतस्वरूप, पृथ्वीको गर्भमें धारण करनेवाले, परात्पर तथा प्रभुओंके भी प्रभु हैं, उन अनादि, अनन्त तथा सूर्यके समान कान्तिवाले भगवान् श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रशीर्षं पुरुषं महर्षिं तत्त्वभावनम्॥
प्रपद्ये सूक्ष्ममचलं वरेण्यमभयप्रदम् ।

मूलम्

सहस्रशीर्षं पुरुषं महर्षिं तत्त्वभावनम्॥
प्रपद्ये सूक्ष्ममचलं वरेण्यमभयप्रदम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके सहस्रों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामी आत्मा हैं, तत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले महर्षि कपिलस्वरूप हैं, उन सूक्ष्म, अचल, वरेण्य और अभयप्रद भगवान् श्रीहरिकी शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं पुराणर्षिं योगात्मानं सनातनम्॥
संस्थानं सर्वतत्त्वानां प्रपद्ये ध्रुवमीश्वरम्।

मूलम्

नारायणं पुराणर्षिं योगात्मानं सनातनम्॥
संस्थानं सर्वतत्त्वानां प्रपद्ये ध्रुवमीश्वरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरातन ऋषि नारायण हैं, योगात्मा हैं, सनातन पुरुष हैं, सम्पूर्ण तत्त्वोंके अधिष्ठान एवं अविनाशी ईश्वर हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः प्रभुः सर्वभूतानां येन सर्वमिदं ततम्॥
चराचरगुरुर्विष्णुः स मे देवः प्रसीदतु।

मूलम्

यः प्रभुः सर्वभूतानां येन सर्वमिदं ततम्॥
चराचरगुरुर्विष्णुः स मे देवः प्रसीदतु।

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण भूतोंके प्रभु हैं, जिन्होंने इस समस्त संसारको व्याप्त कर रखा है; तथा जो चर और अचर प्राणियोंके गुरु हैं, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मादुत्पद्यते ब्रह्मा पद्मयोनिः पितामहः॥
ब्रह्मयोनिर्हि विश्वात्मा स मे विष्णुः प्रसीदतु।

मूलम्

यस्मादुत्पद्यते ब्रह्मा पद्मयोनिः पितामहः॥
ब्रह्मयोनिर्हि विश्वात्मा स मे विष्णुः प्रसीदतु।

अनुवाद (हिन्दी)

जिनसे पद्‌मयोनि पितामह ब्रह्माकी उत्पत्ति होती है; तथा जो वेद और ब्राह्मणोंकी योनि हैं, वे विश्वात्मा विष्णु मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पुरा प्रलये प्राप्ते नष्टे स्थावरजङ्गमे।
ब्रह्मादिषु प्रलीनेषु नष्टे लोके परावरे॥
आभूतसम्प्लवे चैव प्रलीने प्रकृतौ महान्।
एकस्तिष्ठति विश्वात्मा स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

मूलम्

यः पुरा प्रलये प्राप्ते नष्टे स्थावरजङ्गमे।
ब्रह्मादिषु प्रलीनेषु नष्टे लोके परावरे॥
आभूतसम्प्लवे चैव प्रलीने प्रकृतौ महान्।
एकस्तिष्ठति विश्वात्मा स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कालमें महाप्रलय प्राप्त होनेपर जब सभी चराचर प्राणी नष्ट हो जाते हैं, ब्रह्मा आदि देवताओंका भी लय हो जाता है और संसारकी छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ लुप्त हो जाती हैं; तथा सम्पूर्ण भूतोंका क्रमशः लय होकर जब प्रकृतिमें महत्तत्त्व भी विलीन हो जाता है, उस समय जो एकमात्र शेष रह जाते हैं, वे विश्वात्मा विष्णु मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चभिरेव च।
हूयते च पुनर्द्वाभ्यां स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

मूलम्

चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चभिरेव च।
हूयते च पुनर्द्वाभ्यां स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार1, चार[^२], दो[^३], पाँच[^४] तथा दो[^५]—इन सत्रह अक्षरोंवाले मन्त्रोंद्वारा जिन्हें आहुति दी जाती है, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्जन्यः पृथिवी सस्यं कालो धर्मः क्रियाक्रिये।
गुणाकरः स मे बभ्रुर्वासुदेवः प्रसीदतु॥

मूलम्

पर्जन्यः पृथिवी सस्यं कालो धर्मः क्रियाक्रिये।
गुणाकरः स मे बभ्रुर्वासुदेवः प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघ, पृथ्वी, सस्य, काल, धर्म, कर्म और कर्मका अभाव—ये सब जिनके स्वरूप हैं, गुणोंके भण्डाररूप वे श्यामवर्ण भगवान् वासुदेव मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नीषोमार्कताराणां ब्रह्मरुद्रेन्द्रयोगिनाम् ।
यस्तेजयति तेजांसि स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

मूलम्

अग्नीषोमार्कताराणां ब्रह्मरुद्रेन्द्रयोगिनाम् ।
यस्तेजयति तेजांसि स मे विष्णुः प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, तारागण, ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र तथा योगियोंके भी तेजको जीत लेते हैं, वे भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगावास नमस्तुभ्यं सर्वावास वरप्रद।
यज्ञगर्भ हिरण्याङ्ग पञ्चयज्ञ नमोऽस्तु ते॥

मूलम्

योगावास नमस्तुभ्यं सर्वावास वरप्रद।
यज्ञगर्भ हिरण्याङ्ग पञ्चयज्ञ नमोऽस्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगके आवासस्थान! आपको नमस्कार है। सबके निवासस्थान, वरदायक, यज्ञगर्भ, सुनहरे रंगोंवाले पञ्चयज्ञमय परमेश्वर! आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्मूर्ते परं धाम लक्ष्म्यावास परार्चित।
सर्वावास नमस्तेऽस्तु वासुदेव प्रधानकृत्॥

मूलम्

चतुर्मूर्ते परं धाम लक्ष्म्यावास परार्चित।
सर्वावास नमस्तेऽस्तु वासुदेव प्रधानकृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इन चार रूपोंवाले, परमधामस्वरूप, लक्ष्मीनिवास, परमपूजित, सबके आवासस्थान और प्रकृतिके भी प्रवर्तक हैं। वासुदेव! आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजस्त्वमगमः पन्था ह्यमूर्तिर्विश्वमूर्तिधृक् ।
विकर्तः पञ्चकालज्ञ नमस्ते ज्ञानसागर॥

मूलम्

अजस्त्वमगमः पन्था ह्यमूर्तिर्विश्वमूर्तिधृक् ।
विकर्तः पञ्चकालज्ञ नमस्ते ज्ञानसागर॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अजन्मा हैं, अगम्य मार्ग हैं, निराकार हैं अथवा जगत्‌के सम्पूर्ण आकार आप ही धारण करते हैं, आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आप प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्ण और सायाह्न—इन पाँच कालोंको जाननेवाले हैं। ज्ञानसागर! आपको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्ताद् व्यक्तमुत्पन्नं व्यक्ताद्‌ यस्तु परोऽक्षरः।
यस्मात् परतरं नास्ति तमस्मि शरणं गतः॥

मूलम्

अव्यक्ताद् व्यक्तमुत्पन्नं व्यक्ताद्‌ यस्तु परोऽक्षरः।
यस्मात् परतरं नास्ति तमस्मि शरणं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन अव्यक्त परमात्मासे इस व्यक्त जगत्‌की उत्पत्ति हुई है, जो व्यक्तसे परे और अविनाशी हैं, जिनसे उत्कृष्ट दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उन भगवान् विष्णुकी मैं शरणमें आया हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न प्रधानो न च महान् पुरुषश्चेतनो ह्यजः।
अनयोर्यः परतरः तमस्मि शरणं गतः॥

मूलम्

न प्रधानो न च महान् पुरुषश्चेतनो ह्यजः।
अनयोर्यः परतरः तमस्मि शरणं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृति और महत्तत्त्व—ये दोनों जड हैं। पुरुष चेतन और अजन्मा है। इन दोनों क्षर और अक्षर पुरुषोंसे जो उत्कृष्ट और विलक्षण हैं, उन भगवान् पुरुषोत्तमकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयन्तो हि यं नित्यं ब्रह्मेशानादयः प्रभुम्।
निश्चयं नाधिगच्छन्ति तमस्मि शरणं गतः॥

मूलम्

चिन्तयन्तो हि यं नित्यं ब्रह्मेशानादयः प्रभुम्।
निश्चयं नाधिगच्छन्ति तमस्मि शरणं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा और शिव आदि देवता जिन भगवान्‌का सदा चिन्तन करते रहनेपर भी उनके स्वरूपके सम्बन्धमें किसी निश्चयतक नहीं पहुँच पाते, उन परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितेन्द्रिया महात्मानो ज्ञानध्यानपरायणाः ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तमस्मि शरणं गतः॥

मूलम्

जितेन्द्रिया महात्मानो ज्ञानध्यानपरायणाः ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तमस्मि शरणं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी और ध्यानपरायण जितेन्द्रिय महात्मा जिन्हें पाकर फिर इस संसारमें नहीं लौटते हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकांशेन जगत् सर्वमवष्टभ्य विभुः स्थितः।
अग्राह्यो निर्गुणो नित्यस्तमस्मि शरणं गतः॥

मूलम्

एकांशेन जगत् सर्वमवष्टभ्य विभुः स्थितः।
अग्राह्यो निर्गुणो नित्यस्तमस्मि शरणं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सर्वव्यापी परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत्‌को अपने एक अंशसे धारण करके स्थित हैं, जो किसी इन्द्रियविशेषके द्वारा ग्रहण नहीं किये जाते तथा जो निर्गुण एवं नित्य हैं, उन परमात्माकी मैं शरणमें जाता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमार्काग्निमयं तेजो या च तारामयी द्युतिः।
दिवि संजायते योऽयं स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

सोमार्काग्निमयं तेजो या च तारामयी द्युतिः।
दिवि संजायते योऽयं स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें जो सूर्य और चन्द्रमाका तेज प्रकाशित होता है तथा तारगणोंकी जो ज्योति जगमगाती रहती है, वह सब जिनका ही स्वरूप है, वे परमात्मा मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणादिर्निर्गुणश्चाद्यो लक्ष्मीवांश्चेतनो ह्यजः ।
सूक्ष्मः सर्वगतो योगी स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

गुणादिर्निर्गुणश्चाद्यो लक्ष्मीवांश्चेतनो ह्यजः ।
सूक्ष्मः सर्वगतो योगी स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समस्त गुणोंके आदि कारण और स्वयं निर्गुण हैं, आदि पुरुष, लक्ष्मीवान्, चेतन, अजन्मा, सूक्ष्म, सर्वव्यापी तथा योगी हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्ययोगाश्च ये चान्ये सिद्धाश्च परमर्षयः।
यं विदित्वा विमुच्यन्ते स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

सांख्ययोगाश्च ये चान्ये सिद्धाश्च परमर्षयः।
यं विदित्वा विमुच्यन्ते स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानयोगी, कर्मयोगी तथा जो दूसरे-दूसरे सिद्ध और महर्षि हैं, वे जिन्हें जानकर इस संसारसे मुक्त हो जाते हैं, वे परमात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तः समधिष्ठाता ह्यचिन्त्यः सदसत्परः।
आस्थितिः प्रकृतिश्रेष्ठः स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

अव्यक्तः समधिष्ठाता ह्यचिन्त्यः सदसत्परः।
आस्थितिः प्रकृतिश्रेष्ठः स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अव्यक्त, सबके अधिष्ठाता, अचिन्त्य और सत्-असत्‌से विलक्षण हैं, आधाररहित एवं प्रकृतिसे श्रेष्ठ हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्रज्ञः पञ्चधा भुङ्‌क्ते प्रकृतिं पञ्चभिर्मुखैः।
महान् गुणांश्च यो भुङ्‌क्ते स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

क्षेत्रज्ञः पञ्चधा भुङ्‌क्ते प्रकृतिं पञ्चभिर्मुखैः।
महान् गुणांश्च यो भुङ्‌क्ते स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जीवात्मारूपसे पाँच ज्ञानेन्द्रियरूपी मुखोंद्वारा शब्द आदि पाँच विषयोंका उपभोग करते हैं तथा स्वयं महान् होकर भी जो गुणोंका अनुभव करते हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यमध्ये स्थितः सोमस्तस्य मध्ये च या स्थिता।
भूतबाह्या च या दीप्तिः स महात्मा प्रसीदतु॥

मूलम्

सूर्यमध्ये स्थितः सोमस्तस्य मध्ये च या स्थिता।
भूतबाह्या च या दीप्तिः स महात्मा प्रसीदतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सूर्यमण्डलमें सोमरूपसे स्थित होते हैं, उस सोमके भीतर जो अलौकिक दीप्ति है, वह जिनका स्वरूप है, वे परमात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते सर्वतः सर्व सर्वतोऽक्षिशिरोमुख।
निर्विकार नमस्तेऽस्तु साक्षी क्षेत्रे व्यवस्थितः॥

मूलम्

नमस्ते सर्वतः सर्व सर्वतोऽक्षिशिरोमुख।
निर्विकार नमस्तेऽस्तु साक्षी क्षेत्रे व्यवस्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वस्वरूप परमेश्वर! आपको सब ओरसे नमस्कार है, आपके सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। निर्विकार परमात्मन्! आपको नमस्कार है। आप प्रत्येक क्षेत्र (शरीर)-में साक्षीरूपसे स्थित हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीन्द्रिय नमस्तुभ्यं लिङ्गैर्व्यक्तैर्न मीयसे।
ये च त्वां नाभिजानन्ति संसारे संसरन्ति ते॥

मूलम्

अतीन्द्रिय नमस्तुभ्यं लिङ्गैर्व्यक्तैर्न मीयसे।
ये च त्वां नाभिजानन्ति संसारे संसरन्ति ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियातीत परमेश्वर! आपको नमस्कार है। व्यक्त लिंगोंद्वारा आपका ज्ञान होना असम्भव है। संसारमें जो आपको नहीं जानते, वे जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामक्रोधविनिर्मुक्ता रागद्वेषविवर्जिताः ।
नान्यभक्ता विजानन्ति न पुनर्नारका द्विजाः॥

मूलम्

कामक्रोधविनिर्मुक्ता रागद्वेषविवर्जिताः ।
नान्यभक्ता विजानन्ति न पुनर्नारका द्विजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काम और क्रोधसे मुक्त, राग-द्वेषसे रहित तथा आपके अनन्य भक्त हैं, वे ही आपको जान पाते हैं। जो विषयोंके नरकमें पड़े हुए द्विज हैं, वे आपको नहीं जानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकान्तिनो हि निर्द्वन्द्वा निराशीःकर्मकारिणः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणस्त्वां विशन्ति विनिश्चिताः ॥

मूलम्

एकान्तिनो हि निर्द्वन्द्वा निराशीःकर्मकारिणः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणस्त्वां विशन्ति विनिश्चिताः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आपके अनन्य भक्त, द्वन्द्वोंसे रहित तथा निष्काम कर्म करनेवाले हैं, जिन्होंने ज्ञानमयी अग्निसे अपने समस्त कर्मोंको दग्ध कर दिया है, वे आपके प्रति दृढ़ निष्ठा रखनेवाले पुरुष आपमें ही प्रवेश करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशरीरं शरीरस्थं समं सर्वेषु देहिषु।
पुण्यपापविनिर्मुक्ता भक्तास्त्वां प्रविशन्त्युत ॥

मूलम्

अशरीरं शरीरस्थं समं सर्वेषु देहिषु।
पुण्यपापविनिर्मुक्ता भक्तास्त्वां प्रविशन्त्युत ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप शरीरमें रहते हुए भी उससे रहित हैं तथा सम्पूर्ण देहधारियोंमें समभावसे स्थित हैं। जो पुण्य और पापसे मुक्त हैं, वे भक्तजन आपमें ही प्रवेश करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तं बुद्ध्यहङ्कारमनोभूतेन्द्रियाणि च ।
त्वयि तानि च तेषु त्वं न तेषु त्वं न ते त्वयि॥

मूलम्

अव्यक्तं बुद्ध्यहङ्कारमनोभूतेन्द्रियाणि च ।
त्वयि तानि च तेषु त्वं न तेषु त्वं न ते त्वयि॥

अनुवाद (हिन्दी)

अव्यक्त प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), अहंकार, मन, पञ्च महाभूत तथा सम्पूर्ण इन्द्रियाँ सभी आपमें हैं और उन सबमें आप हैं, किंतु वास्तवमें न उनमें आप हैं, न आपमें वे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकत्वान्यत्वनानात्वं ये विदुर्यान्ति ते परम्।
समोऽसि सर्वभूतेषु न ते द्वेष्योऽस्ति न प्रियः॥
समत्वमभिकांक्षेऽहं भक्त्या वै नान्यचेतसा।

मूलम्

एकत्वान्यत्वनानात्वं ये विदुर्यान्ति ते परम्।
समोऽसि सर्वभूतेषु न ते द्वेष्योऽस्ति न प्रियः॥
समत्वमभिकांक्षेऽहं भक्त्या वै नान्यचेतसा।

अनुवाद (हिन्दी)

एकत्व, अन्यत्व और नानात्वका रहस्य जो लोग अच्छी तरह जानते हैं, वे आप परमात्माको प्राप्त होते हैं। आप सम्पूर्ण भूतोंमें सम हैं। आपका न कोई द्वेषपात्र है और न प्रिय। मैं अनन्य चित्तसे आपकी भक्तिके द्वारा समत्व पाना चाहता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चराचरमिदं सर्वं भूतग्रामं चतुर्विधम्॥
त्वया त्वय्येव तत् प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।

मूलम्

चराचरमिदं सर्वं भूतग्रामं चतुर्विधम्॥
त्वया त्वय्येव तत् प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।

अनुवाद (हिन्दी)

चार प्रकारका जो यह चराचर प्राणिसमुदाय है, वह सब आपसे व्याप्त है। जैसे सूतमें मणियाँ पिरोये होते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आपमें ही ओत-प्रोत है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रष्टा भोक्तासि कूटस्थो ह्यतत्त्वस्तत्त्वसंज्ञितः॥
अकर्महेतुरचलः पृथगात्मन्यवस्थितः ।

मूलम्

स्रष्टा भोक्तासि कूटस्थो ह्यतत्त्वस्तत्त्वसंज्ञितः॥
अकर्महेतुरचलः पृथगात्मन्यवस्थितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

आप जगत्‌के स्रष्टा, भोक्ता और कूटस्थ हैं। तत्त्वरूप होकर भी उससे सर्वथा विलक्षण हैं। आप कर्मके हेतु नहीं हैं। अविचल परमात्मा हैं। प्रत्येक शरीरमें पृथक्-पृथक् जीवात्मारूपसे आप ही विद्यमान हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते भूतेषु संयोगो भूततत्त्वगुणातिगः॥
अहङ्कारेण बुद्ध्या वा न ते योगस्त्रिभिर्गुणैः।

मूलम्

न ते भूतेषु संयोगो भूततत्त्वगुणातिगः॥
अहङ्कारेण बुद्ध्या वा न ते योगस्त्रिभिर्गुणैः।

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें प्राणियोंसे आपका संयोग नहीं है। आप भूत, तत्त्व और गुणोंसे परे हैं। अहंकार, बुद्धि और तीनों गुणोंसे आपका कोई सम्बन्ध नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते धर्मोऽस्त्यधर्मो वा नारम्भो जन्म वा पुनः॥
जरामरणमोक्षार्थं त्वां प्रपन्नोऽस्मि सर्वशः।

मूलम्

न ते धर्मोऽस्त्यधर्मो वा नारम्भो जन्म वा पुनः॥
जरामरणमोक्षार्थं त्वां प्रपन्नोऽस्मि सर्वशः।

अनुवाद (हिन्दी)

न आपका कोई धर्म है और न कोई अधर्म। न कोई आरम्भ है न जन्म। मैं जरा-मृत्युसे छुटकारा पानेके लिये सब प्रकारसे आपकी शरणमें आया हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरोऽसि जगन्नाथ ततः परम उच्यसे॥
भक्तानां यद्धितं देव तद् ध्याहि त्रिदशेश्वर।

मूलम्

ईश्वरोऽसि जगन्नाथ ततः परम उच्यसे॥
भक्तानां यद्धितं देव तद् ध्याहि त्रिदशेश्वर।

अनुवाद (हिन्दी)

जगन्नाथ! आप ईश्वर हैं, इसीलिये परमात्मा कहलाते हैं। देव! सुरेश्वर! भक्तोंके लिये जो हितकी बात हो, उसका मेरे लिये चिन्तन कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयैरिन्द्रियैर्वापि न मे भूयः समागमः॥
पृथिवीं यातु मे घ्राणं यातु मे रसना जलम्।
रूपं हुताशनं यातु स्पर्शो यातु च मारुतम्॥
श्रोत्रमाकाशमप्येतु मनो वैकारिकं पुनः।

मूलम्

विषयैरिन्द्रियैर्वापि न मे भूयः समागमः॥
पृथिवीं यातु मे घ्राणं यातु मे रसना जलम्।
रूपं हुताशनं यातु स्पर्शो यातु च मारुतम्॥
श्रोत्रमाकाशमप्येतु मनो वैकारिकं पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

विषयों और इन्द्रियोंके साथ फिर मेरा कभी समागम न हो। मेरी घ्राणेन्द्रिय पृथ्वी-तत्त्वमें मिल जाय और रसना जलमें, रूप (नेत्र) अग्निमें, स्पर्श (त्वचा) वायुमें, श्रोत्रेन्द्रिय आकाशमें और मन वैकारिक अहंकारमें मिल जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाण्यपि संयान्तु स्वासु स्वासु च योनिषु॥
पृथिवी यातु सलिलमापोऽग्निमनलोऽनिलम् ।
वायुराकाशमप्येतु मनश्चाकाश एव च॥
अहङ्कारं मनो यातु मोहनं सर्वदेहिनाम्।
अहङ्कारस्ततो बुद्धिं बुद्धिरव्यक्तमच्युत ॥

मूलम्

इन्द्रियाण्यपि संयान्तु स्वासु स्वासु च योनिषु॥
पृथिवी यातु सलिलमापोऽग्निमनलोऽनिलम् ।
वायुराकाशमप्येतु मनश्चाकाश एव च॥
अहङ्कारं मनो यातु मोहनं सर्वदेहिनाम्।
अहङ्कारस्ततो बुद्धिं बुद्धिरव्यक्तमच्युत ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्युत! इन्द्रियाँ अपनी-अपनी योनियोंमें मिल जायँ, पृथ्वी जलमें, जल अग्निमें, अग्नि वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश मनमें, मन समस्त प्राणियोंको मोहनेवाले अहंकारमें, अहंकार बुद्धि (महत्तत्त्व)-में और बुद्धि अव्यक्त प्रकृतिमें मिल जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधाने प्रकृतिं याते गुणसाम्ये व्यवस्थिते।
वियोगः सर्वकरणैर्गुणभूतैश्च मे भवेत्॥

मूलम्

प्रधाने प्रकृतिं याते गुणसाम्ये व्यवस्थिते।
वियोगः सर्वकरणैर्गुणभूतैश्च मे भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब प्रधान प्रकृतिको प्राप्त हो जाय और गुणोंकी साम्यावस्थारूप महाप्रलय उपस्थित हो जाय, तब मेरा समस्त इन्द्रियों और उनके विषयोंसे वियोग हो जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्कैवल्यपदं तात काङ्क्षेऽहं परमं तव।
एकीभावस्त्वया मेऽस्तु न मे जन्म भवेत् पुनः॥

मूलम्

निष्कैवल्यपदं तात काङ्क्षेऽहं परमं तव।
एकीभावस्त्वया मेऽस्तु न मे जन्म भवेत् पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैं तुम्हारे लिये परम मोक्षकी आकांक्षा रखता हूँ। आपके साथ मेरा एकीभाव हो जाय। इस संसारमें फिर मेरा जन्म न हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्‌बुद्धिस्त्वद्‌गतप्राणस्त्वद्भक्तस्त्वत्परायणः ।
त्वामेवाहं स्मरिष्यामि मरणे पर्युपस्थिते॥

मूलम्

त्वद्‌बुद्धिस्त्वद्‌गतप्राणस्त्वद्भक्तस्त्वत्परायणः ।
त्वामेवाहं स्मरिष्यामि मरणे पर्युपस्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मेरी बुद्धि आपमें ही लगी रहे। मेरे प्राण आपमें ही लीन रहें। मेरा आपमें ही भक्तिभाव बना रहे और मैं सदा आपकी ही शरणमें पड़ा रहूँ। इस प्रकार मैं निरन्तर आपका ही स्मरण करता रहूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वदेहकृता ये मे व्याधयः प्रविशन्तु माम्।
अर्दयन्तु च दुःखानि ऋणं मे प्रतिमुञ्चतु॥

मूलम्

पूर्वदेहकृता ये मे व्याधयः प्रविशन्तु माम्।
अर्दयन्तु च दुःखानि ऋणं मे प्रतिमुञ्चतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व शरीरमें मैंने जो दुष्कर्म किये हों, उनके फलस्वरूप रोग-व्याधि मेरे शरीरमें प्रवेश करें और नाना प्रकारके दुःख मुझे आकर सतावें। इन सबका जो मेरे ऊपर ऋण है, वह उतर जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुध्यातोऽसि देवेश न मे जन्म भवेत् पुनः।
तस्माद् ब्रवीमि कर्माणि ऋणं मे न भवेदिति॥

मूलम्

अनुध्यातोऽसि देवेश न मे जन्म भवेत् पुनः।
तस्माद् ब्रवीमि कर्माणि ऋणं मे न भवेदिति॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! मैंने इसलिये आपका स्मरण किया है कि फिर मेरा जन्म न हो; अतः फिर कहता हूँ कि मेरे कर्म नष्ट हो जायँ और मुझपर किसीका ऋण बाकी न रह जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपतिष्ठन्तु मां सर्वे व्याधयः पूर्वसंचिताः।
अनृणो गन्तुमिच्छामि तद् विष्णोः परमं पदम्॥

मूलम्

उपतिष्ठन्तु मां सर्वे व्याधयः पूर्वसंचिताः।
अनृणो गन्तुमिच्छामि तद् विष्णोः परमं पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व जन्ममें जिन कर्मोंका मेरे द्वारा संचय किया गया है, वे सभी रोग मेरे शरीरमें उपस्थित हो जायँ। मैं सबसे उऋण होकर भगवान् विष्णुके परम धामको जाना चाहता हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं भगवतस्तस्य मम चासौ सनातनः।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

मूलम्

अहं भगवतस्तस्य मम चासौ सनातनः।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— नारद! मैं उस सौभाग्यशाली भक्तका हूँ और वह भक्त भी मेरा सनातन सखा है। मैं उसके लिये कभी अदृश्य नहीं होता और न वही कभी मेरी दृष्टिसे ओझल होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि च।
दशेन्द्रियाणि मनसि अहङ्कारे तथा मनः॥
अहङ्कारं तथा बुद्धौ बुद्धिमात्मनि योजयेत्।

मूलम्

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि च।
दशेन्द्रियाणि मनसि अहङ्कारे तथा मनः॥
अहङ्कारं तथा बुद्धौ बुद्धिमात्मनि योजयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

साधक पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंको संयममें रखकर उन दसों इन्द्रियोंको मनमें विलीन करे। मनको अहंकारमें, अहंकारको बुद्धिमें और बुद्धिको आत्मामें लगावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतबुद्धीन्द्रियः पश्यन् बुद्ध्या बुद्ध्येत् परात्परम्।
ममायमिति यस्याहं येन सर्वमिदं ततम्।

मूलम्

यतबुद्धीन्द्रियः पश्यन् बुद्ध्या बुद्ध्येत् परात्परम्।
ममायमिति यस्याहं येन सर्वमिदं ततम्।

अनुवाद (हिन्दी)

पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको संयममें रखकर बुद्धिके द्वारा परात्पर परमात्माका अनुभव करे कि यह परमेश्वर मेरा है और मैं इसका हूँ, तथा इसीने इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनाऽऽत्मनि संयोज्य परमात्मन्यनुस्मरेत् ॥
ततो बुद्धेः परं बुद्ध्वा लभते न पुनर्भवम्।
मरणे समनुप्राप्ते यश्चैवं मामनुस्मरेत्॥
अपि पापसमाचारः स याति परमां गतिम्।

मूलम्

आत्मनाऽऽत्मनि संयोज्य परमात्मन्यनुस्मरेत् ॥
ततो बुद्धेः परं बुद्ध्वा लभते न पुनर्भवम्।
मरणे समनुप्राप्ते यश्चैवं मामनुस्मरेत्॥
अपि पापसमाचारः स याति परमां गतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं ही अपने-आपको परमात्माके ध्यानमें लगाकर निरन्तर उनका स्मरण करे, तदनन्तर बुद्धिसे भी परे परमात्माको जानकर मनुष्य फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता। जो मृत्युकाल आनेपर इस प्रकार मेरा स्मरण करता है, वह पुरुष पहलेका पापाचारी रहा हो तो भी परम गतिको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओं नमो भगवते तस्मै देहिनां परमात्मने॥
नारायणाय भक्तानामेकनिष्ठाय शाश्वते ।

मूलम्

ओं नमो भगवते तस्मै देहिनां परमात्मने॥
नारायणाय भक्तानामेकनिष्ठाय शाश्वते ।

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त देहधारियोंके परमात्मा तथा भक्तोंके प्रति एकमात्र निष्ठा रखनेवाले उन सनातन भगवान् नारायणको नमस्कार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमामनुस्मृतिं दिव्यां वैष्णवीं सुसमाहितः॥
स्वपन् विबुध्यंश्च पठन् यत्र तत्र समभ्यसेत्।

मूलम्

इमामनुस्मृतिं दिव्यां वैष्णवीं सुसमाहितः॥
स्वपन् विबुध्यंश्च पठन् यत्र तत्र समभ्यसेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

यह दिव्य वैष्णवी-अनुस्मृति विद्या है। मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सोते, जागते और स्वाध्याय करते समय जहाँ कहीं भी इसका जप करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौर्णमास्याममायां च द्वादश्यां च विशेषतः॥
श्रावयेच्छ्रद्दधानांश्च मद्भक्तांश्च विशेषतः ।

मूलम्

पौर्णमास्याममायां च द्वादश्यां च विशेषतः॥
श्रावयेच्छ्रद्दधानांश्च मद्भक्तांश्च विशेषतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्णिमा, अमावास्या तथा विशेषतः द्वादशी तिथिको मेरे श्रद्धालु भक्तोंको इसका श्रवण करावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यहङ्कारमाश्रित्य यज्ञदानतपःक्रियाः ॥
कुर्वंस्तत्फलमाप्नोति पुनरावर्तनं तु तत्।

मूलम्

यद्यहङ्कारमाश्रित्य यज्ञदानतपःक्रियाः ॥
कुर्वंस्तत्फलमाप्नोति पुनरावर्तनं तु तत्।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई अहंकारका आश्रय लेकर यज्ञ, दान और तपरूप कर्म करे तो उसका फल उसे मिलता है। परंतु वह आवागमनके चक्करमें डालनेवाला होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यर्चयन् पितॄन् देवान् पठन् जुह्वन् बलिं ददत्॥
ज्वलन्नग्निं स्मरेद् यो मां स याति परमां गतिम्।

मूलम्

अभ्यर्चयन् पितॄन् देवान् पठन् जुह्वन् बलिं ददत्॥
ज्वलन्नग्निं स्मरेद् यो मां स याति परमां गतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवताओं और पितरोंकी पूजा, पाठ, होम और बलिवैश्वदेव करते तथा अग्निमें आहुति देते समय मेरा स्मरण करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
यज्ञं दानं तपस्तस्मात् कुर्यादाशीर्विवर्जितः।

मूलम्

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
यज्ञं दानं तपस्तस्मात् कुर्यादाशीर्विवर्जितः।

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ, दान और तप—ये मनीषी पुरुषोंको पवित्र करनेवाले हैं; अतः यज्ञ, दान और तपका निष्कामभावसे अनुष्ठान करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नम इत्येव यो ब्रूयान्मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः॥
तस्याक्षयो भवेल्लोकः श्वपाकस्यापि नारद।

मूलम्

नम इत्येव यो ब्रूयान्मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः॥
तस्याक्षयो भवेल्लोकः श्वपाकस्यापि नारद।

अनुवाद (हिन्दी)

नारद! जो मेरा भक्त श्रद्धापूर्वक मेरे लिये केवल नमस्कारमात्र बोल देता है, वह चाण्डाल ही क्यों न हो, उसे अक्षयलोककी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनर्ये यजन्ते मां साधका विधिपूर्वकम्॥
श्रद्धावन्तो यतात्मानस्ते मां यान्ति मदाश्रिताः।

मूलम्

किं पुनर्ये यजन्ते मां साधका विधिपूर्वकम्॥
श्रद्धावन्तो यतात्मानस्ते मां यान्ति मदाश्रिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जो साधक मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर मेरे आश्रित हो श्रद्धा और विधिके साथ मेरी आराधना करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्माण्याद्यन्तवन्तीह मद्भक्तो नान्तमश्नुते ॥
मामेव तस्माद् देवर्षे ध्याहि नित्यमतन्द्रितः।
अवाप्स्यसि ततः सिद्धिं द्रक्ष्यस्येव पदं मम॥

मूलम्

कर्माण्याद्यन्तवन्तीह मद्भक्तो नान्तमश्नुते ॥
मामेव तस्माद् देवर्षे ध्याहि नित्यमतन्द्रितः।
अवाप्स्यसि ततः सिद्धिं द्रक्ष्यस्येव पदं मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षे! सारे कर्म और उनके फल आदि-अन्तवाले हैं; परंतु मेरा भक्त अन्तवान् (विनाशशील) फलका उपभोग नहीं करता; अतः तुम सदा आलस्यरहित होकर मेरा ही ध्यान करो। इससे तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त होगी और तुम मेरे परमधामका दर्शन कर लोगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानाय च यो ज्ञानं दद्याद् धर्मोपदेशतः।
कृत्स्नां वा पृथिवीं दद्यात्‌ तेन तुल्यं च तत्फलम्॥

मूलम्

अज्ञानाय च यो ज्ञानं दद्याद् धर्मोपदेशतः।
कृत्स्नां वा पृथिवीं दद्यात्‌ तेन तुल्यं च तत्फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मोपदेशके द्वारा अज्ञानी पुरुषको ज्ञान प्रदान करता है अथवा जो किसीको समूची पृथ्वीका दान कर देता है तो उस ज्ञानदानका फल इस पृथ्वीदानके बराबर ही माना जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्रदेयं साधुभ्यो जन्मबन्धभयापहम्।
एवं दत्त्वा नरश्रेष्ठ श्रेयो वीर्यं च विन्दति॥

मूलम्

तस्मात् प्रदेयं साधुभ्यो जन्मबन्धभयापहम्।
एवं दत्त्वा नरश्रेष्ठ श्रेयो वीर्यं च विन्दति॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ नारद! इसलिये साधु पुरुषोंको जन्म और बन्धनके भयको दूर करनेवाला ज्ञान ही देना चाहिये। इस प्रकार ज्ञान देकर मनुष्य कल्याण और बल प्राप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत्।
नासौ पदमवाप्नोति मद्भक्तैर्यदवाप्यते ॥

मूलम्

अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत्।
नासौ पदमवाप्नोति मद्भक्तैर्यदवाप्यते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दस लाख अश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान कर ले, वह भी उस पदको नहीं पा सकता, जो मेरे भक्तोंको प्राप्त हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पृष्टः पुरा तेन नारदेन सुरर्षिणा।
यदुवाच तदा शम्भुस्तदुक्तं तव सुव्रत॥

मूलम्

एवं पृष्टः पुरा तेन नारदेन सुरर्षिणा।
यदुवाच तदा शम्भुस्तदुक्तं तव सुव्रत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— सुव्रत! इस प्रकार पूर्वकालमें देवर्षि नारदके पूछनेपर कल्याणमय भगवान् विष्णुने उस समय जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हें बता दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमप्येकमना भूत्वा ध्याहि ध्येयं गुणातिगम्।
भजस्व सर्वभावेन परमात्मानमव्ययम् ॥

मूलम्

त्वमप्येकमना भूत्वा ध्याहि ध्येयं गुणातिगम्।
भजस्व सर्वभावेन परमात्मानमव्ययम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम भी एकचित्त होकर उन गुणातीत परमात्माका ध्यान करो और सम्पूर्ण भक्तिभावसे उन्हीं अविनाशी परमात्माका भजन करो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैतन्नारदो वाक्यं दिव्यं नारायणेरितम्।
अत्यन्तभक्तिमान् देव एकान्तत्वमुपेयिवान् ॥

मूलम्

श्रुत्वैतन्नारदो वाक्यं दिव्यं नारायणेरितम्।
अत्यन्तभक्तिमान् देव एकान्तत्वमुपेयिवान् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् नारायणका कहा हुआ यह दिव्य वचन सुनकर अत्यन्त भक्तिमान् देवर्षि नारद भगवान्‌के प्रति एकाग्रचित्त हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणमृषिं देवं दशवर्षाण्यनन्यभाक् ।
इदं जपन् वै प्राप्नोति तद् विष्णोः परमं पदम्॥

मूलम्

नारायणमृषिं देवं दशवर्षाण्यनन्यभाक् ।
इदं जपन् वै प्राप्नोति तद् विष्णोः परमं पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अनन्यभावसे दस वर्षोंतक ऋषि-प्रवर नारायणदेवका ध्यान करते हुए इस मन्त्रका जप करता है, वह भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैर्भक्तिर्यस्य जनार्दने।
नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः॥

मूलम्

किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैर्भक्तिर्यस्य जनार्दने।
नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी भगवान् जनार्दनमें भक्ति है, उसे बहुत-से मन्त्रोंद्वारा क्या लेना है? ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह एकमात्र मन्त्र ही सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां रहस्यां परमामनुस्मृति-
मधीत्य बुद्धिं लभते च नैष्ठिकीम्।
विहाय दुःखान्यवमुच्य सङ्कटात्
स वीतरागो विचरेन्महीमिमाम् ॥)

मूलम्

इमां रहस्यां परमामनुस्मृति-
मधीत्य बुद्धिं लभते च नैष्ठिकीम्।
विहाय दुःखान्यवमुच्य सङ्कटात्
स वीतरागो विचरेन्महीमिमाम् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

इस परम गोपनीय अनुस्मृति विद्याका स्वाध्याय करके मनुष्य भगवान्‌के प्रति दृढ़ निष्ठा रखनेवाली बुद्धि प्राप्त कर लेता है। वह सारे दुःखोंको दूर करके संकटसे मुक्त एवं वीतराग हो इस पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करता है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अन्तर्भूमिविक्रीडनं नाम नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भूमिके भीतर भगवान् वाराहकी क्रीड़ानामक दो सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८६ श्लोक मिलाकर कुल १२२ श्लोक हैं)

  • इस श्लोकमें वर्णित भावके अनुसार सनातन शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये—नादनेन सहितः सनादनः। दकारस्थाने तकारो छान्दसः। जो नादके साथ हो, वह ‘सनादन’ कहलाता है। सनादनके दकारके स्थानमें तकार हो जानेसे ‘सनातन’ बनता है।

  1. आश्रावय, [^२]:अस्तु श्रौषट्, [^३]:यज, [^४]:ये यजामहे, [^५]:वषट्। ↩︎