भागसूचना
षडधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
परमात्मतत्त्वका निरूपण—मनु-बृहस्पति-संवादकी समाप्ति
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तैः पञ्चभिः पञ्च युक्तानि मनसा सह।
अथ तद् रक्ष्यते ब्रह्म मणौ सूत्रमिवापितम् ॥ १ ॥
मूलम्
यदा तैः पञ्चभिः पञ्च युक्तानि मनसा सह।
अथ तद् रक्ष्यते ब्रह्म मणौ सूत्रमिवापितम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजी कहते हैं— बृहस्पते! जिस समय मनुष्य शब्द आदि पाँच विषयोंसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और मनको काबूमें कर लेता है, उस समय वह मणियोंमें ओतप्रोत तागेके समान सर्वत्र व्याप्त परब्रह्मका साक्षात्कार कर लेता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेव च यथा सूत्रं सुवर्णे वर्तते पुनः।
मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृन्मये राजते तथा ॥ २ ॥
तद्वद् गोऽश्वमनुष्येषु तद्वद्धस्तिमृगादिषु ।
तद्वत् कीटपतङ्गेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः ॥ ३ ॥
मूलम्
तदेव च यथा सूत्रं सुवर्णे वर्तते पुनः।
मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृन्मये राजते तथा ॥ २ ॥
तद्वद् गोऽश्वमनुष्येषु तद्वद्धस्तिमृगादिषु ।
तद्वत् कीटपतङ्गेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वही तागा सोनेकी लड़ियोंमें, मोतियोंमें, मूँगोंमें और मिट्टीकी मालाके दानोंमें ओतप्रोत होकर सुशोभित होता है, उसी प्रकार एक ही परमात्मा गौ, अश्व, मनुष्य, हाथी, मृग और कीट-पतंग आदि समस्त शरीरोंमें व्याप्त है! विषयासक्त जीवात्मा अपने-अपने कर्मके अनुसार भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम्।
तेन तेन शरीरेण तत् तत् फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥
मूलम्
येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम्।
तेन तेन शरीरेण तत् तत् फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मनुष्य जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है, उस-उस शरीरसे उसी-उसी कर्मका फल भोगता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ह्येकरसा भूमिरोषध्यर्थानुसारिणी ।
तथा कर्मानुगा बुद्धिरन्तरात्मानुदर्शिनी ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा ह्येकरसा भूमिरोषध्यर्थानुसारिणी ।
तथा कर्मानुगा बुद्धिरन्तरात्मानुदर्शिनी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भूमिमें एक ही रस होता है तो भी उसमें जैसा बीज बोया जाता है, उसीके अनुसार वह उसमें रस उत्पन्न करती है, उसी तरह अन्तरात्मासे ही प्रकाशित बुद्धि पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार ही एक शरीरसे दूसरे शरीरको प्राप्त होती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानपूर्वा भवेल्लिप्सा लिप्सापूर्वाभिसंधिता ।
अभिसंधिपूर्वकं कर्म कर्ममूलं ततः फलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ज्ञानपूर्वा भवेल्लिप्सा लिप्सापूर्वाभिसंधिता ।
अभिसंधिपूर्वकं कर्म कर्ममूलं ततः फलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको पहले तो विषयका ज्ञान होता है; फिर उसके मनमें उसे पानेकी इच्छा उत्पन्न होती है। उसके बाद ‘इस कार्यको सिद्ध करूँ’ यह निश्चय और प्रयत्न आरम्भ होता है। फिर कर्म सम्पन्न होता और उसका फल मिलता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलं कर्मात्मकं विद्यात् कर्म ज्ञेयात्मकं तथा।
ज्ञेयं ज्ञानात्मकं विद्याज्ज्ञानं सदसदात्मकम् ॥ ७ ॥
मूलम्
फलं कर्मात्मकं विद्यात् कर्म ज्ञेयात्मकं तथा।
ज्ञेयं ज्ञानात्मकं विद्याज्ज्ञानं सदसदात्मकम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार फलको कर्मस्वरूप समझे। कर्मको जाननेमें आनेवाले पदार्थोंका रूप समझे और ज्ञेयको ज्ञानरूप समझे तथा ज्ञानका स्वरूप कार्य और कारण जाने॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानानां च फलानां च ज्ञेयानां कर्मणां तथा।
क्षयान्ते यत् फलं विद्याज्ज्ञानं ज्ञेयप्रतिष्ठितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ज्ञानानां च फलानां च ज्ञेयानां कर्मणां तथा।
क्षयान्ते यत् फलं विद्याज्ज्ञानं ज्ञेयप्रतिष्ठितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान, फल, ज्ञेय और कर्म—इन सबका अन्त होनेपर जो प्राप्तव्य फलरूपसे शेष रहता है, उसको ही तुम ज्ञेयमात्रमें व्याप्त होकर स्थित हुआ ज्ञानस्वरूप परमात्मा समझो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महद्धि परमं भूतं यत् प्रपश्यन्ति योगिनः।
अबुधास्तं न पश्यन्ति ह्यात्मस्थं गुणबुद्धयः ॥ ९ ॥
मूलम्
महद्धि परमं भूतं यत् प्रपश्यन्ति योगिनः।
अबुधास्तं न पश्यन्ति ह्यात्मस्थं गुणबुद्धयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस परम महान् तत्त्वको योगिजन ही देख पाते हैं। विषयोंमें आसक्त अज्ञानी मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान उस परब्रह्म परमात्माको नहीं देख सकते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीरूपतो रूपमपामिह महत्तरम् ।
अद्ध्यो महत्तरं तेजस्तेजसः पवनो महान् ॥ १० ॥
पवनाच्च महद् व्योम तस्मात् परतरं मनः।
मनसो महती बुद्धिर्बुद्धेः कालो महान् स्मृतः ॥ ११ ॥
कालात् स भगवान् विष्णुर्यस्य सर्वमिदं जगत्।
नादिर्न मध्यं नैवान्तस्तस्य देवस्य विद्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
पृथिवीरूपतो रूपमपामिह महत्तरम् ।
अद्ध्यो महत्तरं तेजस्तेजसः पवनो महान् ॥ १० ॥
पवनाच्च महद् व्योम तस्मात् परतरं मनः।
मनसो महती बुद्धिर्बुद्धेः कालो महान् स्मृतः ॥ ११ ॥
कालात् स भगवान् विष्णुर्यस्य सर्वमिदं जगत्।
नादिर्न मध्यं नैवान्तस्तस्य देवस्य विद्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में पृथ्वीके रूपसे जलका ही रूप महान् है। जलसे तेज अति महान् है, तेजसे पवन महान् है, पवनसे आकाश महान् है, आकाशसे मन परतर है अर्थात् सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान् है। मनसे बुद्धि महान् है, बुद्धिसे काल अर्थात् प्रकृति महान् है और कालसे भगवान् विष्णु अनन्त, सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान् हैं। यह सारा जगत् उन्हींकी सृष्टि है। उन भगवान् विष्णुका न कोई आदि है, न मध्य है और न अन्त ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादित्वादमध्यत्वादनन्तत्वाच्च सोऽव्ययः ।
अत्येति सर्वदुःखानि दुःखं ह्यन्तवदुच्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
अनादित्वादमध्यत्वादनन्तत्वाच्च सोऽव्ययः ।
अत्येति सर्वदुःखानि दुःखं ह्यन्तवदुच्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे आदि, मध्य और अन्तसे रहित होनेके कारण ही अविनाशी हैं; अतएव सम्पूर्ण दुःखोंसे परे हैं, क्योंकि विनाशशील वस्तु ही दुःखरूप हुआ करती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् ब्रह्म परमं प्रोक्तं तद्धाम परमं पदम्।
तद् गत्वा कालविषयाद् विमुक्ता मोक्षमाश्रिताः ॥ १४ ॥
मूलम्
तद् ब्रह्म परमं प्रोक्तं तद्धाम परमं पदम्।
तद् गत्वा कालविषयाद् विमुक्ता मोक्षमाश्रिताः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविनाशी विष्णु ही परब्रह्म कहे जाते हैं। वे ही परमधाम और परमपद हैं। उन्हें प्राप्त कर लेनेपर जीव कालके राज्यसे मुक्त हो मोक्षधाममें स्थित हो जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणेष्वेते प्रकाशन्ते निर्गुणत्वात् ततः परम्।
निवृत्तिलक्षणो धर्मस्तथाऽऽनन्त्याय कल्पते ॥ १५ ॥
मूलम्
गुणेष्वेते प्रकाशन्ते निर्गुणत्वात् ततः परम्।
निवृत्तिलक्षणो धर्मस्तथाऽऽनन्त्याय कल्पते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये वध्य जीव गुणोंमें अर्थात् गुणोंके कार्यरूप शरीर आदिके सम्बन्धसे व्यक्त हो रहे हैं; परंतु परमात्मा निर्गुण होनेके कारण उनसे अत्यन्त परे हैं। जो निवृत्तिरूप धर्म (निष्काम कर्म) है, वह अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्ति करानेमें समर्थ है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋचो यजूंषि सामानि शरीराणि व्यपाश्रिताः।
जिह्वाग्रेषु प्रवर्तन्ते यत्नसाध्या विनाशिनः ॥ १६ ॥
मूलम्
ऋचो यजूंषि सामानि शरीराणि व्यपाश्रिताः।
जिह्वाग्रेषु प्रवर्तन्ते यत्नसाध्या विनाशिनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद—ये अध्ययनकालमें शरीरके आश्रित रहते हैं और जिह्वाके अग्रभागपर प्रकट होते हैं; इसीलिये वे यत्नसाध्य और विनाशशील हैं अर्थात् इनका लुप्त होना स्वाभाविक है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैवमिष्यते ब्रह्म शरीराश्रयसम्भवम्।
न यत्नसाध्यं तद् ब्रह्म नादिमध्यं न चान्तवत् ॥ १७ ॥
मूलम्
न चैवमिष्यते ब्रह्म शरीराश्रयसम्भवम्।
न यत्नसाध्यं तद् ब्रह्म नादिमध्यं न चान्तवत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु परब्रह्म परमात्मा इस प्रकार शरीरका आश्रय लेकर प्रकट होनेपर भी वेदाध्ययनकी भाँति यत्नसाध्य नहीं है; क्योंकि उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋचामादिस्तथा साम्नां यजुषामादिरुच्यते ।
अन्तश्चादिमतां दृष्टो न त्वादिर्ब्रह्मणः स्मृतः ॥ १८ ॥
मूलम्
ऋचामादिस्तथा साम्नां यजुषामादिरुच्यते ।
अन्तश्चादिमतां दृष्टो न त्वादिर्ब्रह्मणः स्मृतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदका आदि कहलाता है। जिनका कोई आदि होता है, उन पदार्थोंका अन्त होता देखा गया है। ब्रह्मका कोई भी आदि नहीं बताया गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादित्वादनन्तत्वात्तदनन्तमथाव्ययम् ।
अव्ययत्वाच्च निर्दुःखं द्वन्द्वाभावस्ततः परम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अनादित्वादनन्तत्वात्तदनन्तमथाव्ययम् ।
अव्ययत्वाच्च निर्दुःखं द्वन्द्वाभावस्ततः परम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अनादि और अनन्त होनेके कारण अक्षय और अविनाशी है। अविनाशी होनेसे ही दुःखरहित है। उसमें हर्ष और शोक आदि द्वन्द्वोंका अभाव है; अतएव वह सबसे परे है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टतोऽनुपायाच्च प्रतिसंधेश्च कर्मणः ।
न तेन मर्त्याः पश्यन्ति येन गच्छन्ति तत् पदम्॥२०॥
मूलम्
अदृष्टतोऽनुपायाच्च प्रतिसंधेश्च कर्मणः ।
न तेन मर्त्याः पश्यन्ति येन गच्छन्ति तत् पदम्॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु दुर्भाग्य, साधनहीनता और कर्मफलविषयक आसक्तिके कारण जिससे परमात्माकी प्राप्ति होती है, मनुष्य उस मार्गका दर्शन नहीं कर पाते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयेषु च संसर्गाच्छाश्वतस्य च दर्शनात्।
मनसा चान्यदाकांक्षन् परं न प्रतिपद्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
विषयेषु च संसर्गाच्छाश्वतस्य च दर्शनात्।
मनसा चान्यदाकांक्षन् परं न प्रतिपद्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंकी विषयोंमें आसक्ति है; क्योंकि विषय-सुख सदा रहनेवाले हैं; ऐसी उनकी भावना है तथा वे अपने मनसे सांसारिक पदार्थोंको पानेकी इच्छा रखते हैं; इसीलिये उन्हें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणान् यदिह पश्यन्ति तदिच्छन्त्यपरे जनाः।
परं नैवाभिकांक्षन्ति निर्गुणत्वाद् गुणार्थिनः ॥ २२ ॥
मूलम्
गुणान् यदिह पश्यन्ति तदिच्छन्त्यपरे जनाः।
परं नैवाभिकांक्षन्ति निर्गुणत्वाद् गुणार्थिनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारी मनुष्य इस संसारमें जिन-जिन विषयोंको देखते हैं, उन्हींको पाना चाहते हैं। सर्वश्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें पानेके लिये उनके मनमें इच्छा नहीं होती है; क्योंकि वे गुणार्थी (विषयाभिलाषी) होते हैं और परमात्मा निर्गुण (गुणातीत) हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणैर्यस्त्ववरैर्युक्तः कथं विद्यात् परान् गुणान्।
अनुमानाद्धि गन्तव्यं गुणैरवयवैः परम् ॥ २३ ॥
मूलम्
गुणैर्यस्त्ववरैर्युक्तः कथं विद्यात् परान् गुणान्।
अनुमानाद्धि गन्तव्यं गुणैरवयवैः परम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भला, जो इन तुच्छ विषयोंमें फँसा हुआ है, वह परमदिव्य गुणोंको कैसे जान सकता है? जैसे धूमसे अग्निका अनुमान होता है, उसी प्रकार नित्यत्व आदि स्वरूपभूत दिव्य गुणोंद्वारा परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका दिग्दर्शन हो सकता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मेण मनसा विद्मो वाचा वक्तुं न शक्नुमः।
मनो हि मनसा ग्राह्यं दर्शनेन च दर्शनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
सूक्ष्मेण मनसा विद्मो वाचा वक्तुं न शक्नुमः।
मनो हि मनसा ग्राह्यं दर्शनेन च दर्शनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम ध्यानद्वारा शुद्ध और सूक्ष्म हुए मनसे परमात्माके स्वरूपका अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु वाणीद्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते; क्योंकि मनके द्वारा ही मानसिक विषयका ग्रहण हो सकता है और ज्ञानके द्वारा ही ज्ञेयको जाना जा सकता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानेन निर्मलीकृत्य बुद्धिं बुद्ध्या मनस्तथा।
मनसा चेन्द्रियग्राममक्षरं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
ज्ञानेन निर्मलीकृत्य बुद्धिं बुद्ध्या मनस्तथा।
मनसा चेन्द्रियग्राममक्षरं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये ज्ञानके द्वारा बुद्धिको, बुद्धिके द्वारा मनको तथा मनके द्वारा इन्द्रिय-समुदायको निर्मल एवं शुद्ध करके अविनाशी परमात्माको प्राप्त किया जा सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिप्रवीणो मनसा समृद्धो
निराशिषं निर्गुणमभ्युपैति ।
परं त्यजन्तीह विलोड्यमाना
हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् ॥ २६ ॥
मूलम्
बुद्धिप्रवीणो मनसा समृद्धो
निराशिषं निर्गुणमभ्युपैति ।
परं त्यजन्तीह विलोड्यमाना
हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमें प्रवीण अर्थात् विशुद्ध और सूक्ष्म बुद्धिसे सम्पन्न एवं मानसिक बलसे युक्त हुआ पुरुष, समस्त इच्छासे अतीत निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होता है। जैसे वायु काठमें रहनेवाले अदृश्य अग्निको बिना प्रज्वलित किये ही छोड़ देता है, वैसे ही कामनाओंसे विकल हुए पुरुष भी अपने शरीरके भीतर स्थित परमात्माका त्याग कर देते हैं अर्थात् उसे जानने और पानेकी चेष्टा नहीं करते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणादाने विप्रयोगे च तेषां
मनः सदा बुद्धिपरावराभ्याम् ।
अनेनैव विधिना सम्प्रवृत्तो
गुणापाये ब्रह्म शरीरमेति ॥ २७ ॥
मूलम्
गुणादाने विप्रयोगे च तेषां
मनः सदा बुद्धिपरावराभ्याम् ।
अनेनैव विधिना सम्प्रवृत्तो
गुणापाये ब्रह्म शरीरमेति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब साधक साधनरूप गुणोंको धारण कर लेता है और उन सांसारिक पदार्थोंसे मनको हटा लेता है, तब उसका मन बुद्धिजन्य अच्छे-बुरे भावोंसे रहित होकर निरन्तर निर्मल रहता है। इस प्रकार साधनमें लगा हुआ साधक जब गुणोंसे अतीत हो जाता है, तब ब्रह्मके स्वरूपका साक्षात् कर लेता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तात्मा पुरुषो व्यक्तकर्मा
सोऽव्यक्तत्वं गच्छति ह्यन्तकाले ।
तैरेवायं चेन्द्रियैर्वर्धमानै-
र्ग्लायद्भिर्वाऽऽवर्ततेऽकामरूपः ॥ २८ ॥
मूलम्
अव्यक्तात्मा पुरुषो व्यक्तकर्मा
सोऽव्यक्तत्वं गच्छति ह्यन्तकाले ।
तैरेवायं चेन्द्रियैर्वर्धमानै-
र्ग्लायद्भिर्वाऽऽवर्ततेऽकामरूपः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषका आत्मा (वास्तविक स्वरूप) अव्यक्त है और उसके कर्म शरीररूपमें व्यक्त हैं। अतः वह अन्तकालमें अव्यक्तभावको प्राप्त हो जाता है। परंतु कामनाओंसे तद्रूप हुआ वह जीव उन बढ़ी हुई विषयप्रबल इन्द्रियोंसे युक्त होकर पुनः संसारमें आ जाता है अर्थात् पुनः शरीरको धारण कर लेता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैरयं चेन्द्रियैः सम्प्रयुक्तो
देहं प्राप्तः पञ्चभूताश्रयः स्यात्।
नासामर्थ्याद् गच्छति कर्मणेह
हीनस्तेन परमेणाव्ययेन ॥ २९ ॥
मूलम्
सर्वैरयं चेन्द्रियैः सम्प्रयुक्तो
देहं प्राप्तः पञ्चभूताश्रयः स्यात्।
नासामर्थ्याद् गच्छति कर्मणेह
हीनस्तेन परमेणाव्ययेन ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे संयुक्त होकर यह देहधारी जीव पंचभूतस्वरूप शरीरके आश्रित हो जाता है। ज्ञान और उपासना आदिकी शक्तिके बिना वह केवल कर्मोंद्वारा परमात्माको नहीं पाता। अतः वह उस अविनाशी परमेश्वरसे वंचित रह जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथ्व्यां नरः पश्यति नान्तमस्या
ह्यन्तश्चास्या भविता चेति विद्धि।
परं नयन्तीह विलोड्यमानं
यथा प्लवं वायुरिवार्णवस्थम् ॥ ३० ॥
मूलम्
पृथ्व्यां नरः पश्यति नान्तमस्या
ह्यन्तश्चास्या भविता चेति विद्धि।
परं नयन्तीह विलोड्यमानं
यथा प्लवं वायुरिवार्णवस्थम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भूतलपर रहनेवाला मनुष्य यद्यपि इस पृथ्वीका अन्त नहीं देखता है तो भी कहीं-न-कहीं इसका अन्त अवश्य है, ऐसा समझो। जैसे समुद्रमें लहरोंद्वारा ऊपर-नीचे होते हुए जहाजको प्रवाहके अनुकूल बहती हुई हवा तटपर लगा देती है, उसी प्रकार संसारसमुद्रमें गोता लगाते हुए मनुष्यको अनुकूल वातावरण संसारसागरसे पार कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवाकरो गुणमुपलभ्य निर्गुणो
यथा भवेदपगतरश्मिमण्डलः ।
तथा ह्यसौ मुनिरिह निर्विशेषवान्
स निर्गुणं प्रविशति ब्रह्म चाव्ययम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
दिवाकरो गुणमुपलभ्य निर्गुणो
यथा भवेदपगतरश्मिमण्डलः ।
तथा ह्यसौ मुनिरिह निर्विशेषवान्
स निर्गुणं प्रविशति ब्रह्म चाव्ययम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण जगत्का प्रकाशक सूर्य प्रकाशरूपी गुणको पाकर भी अस्ताचलको जाते समय अपने किरणसमूहको समेटकर जैसे निर्गुण हो जाता है, उसी प्रकार भेदभावसे रहित हुआ मुनि यहाँ अविनाशी निर्गुण ब्रह्ममें प्रवेश कर जाता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागतं सुकृतवतां परां गतिं
स्वयम्भुवं प्रभवनिधानमव्ययम् ।
सनातनं यदमृतमव्ययं ध्रुवं
निचाय्य तत् परममृतत्वमश्नुते ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनागतं सुकृतवतां परां गतिं
स्वयम्भुवं प्रभवनिधानमव्ययम् ।
सनातनं यदमृतमव्ययं ध्रुवं
निचाय्य तत् परममृतत्वमश्नुते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कहींसे आया हुआ नहीं है, नित्य विद्यमान है, पुण्यवानोंकी परमगति है, स्वयम्भू (अजन्मा) है, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका स्थान है, अविनाशी एवं सनातन है, अमृत, अविकारी एवं अचल है, उस परमात्माका ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य परममोक्षको प्राप्त कर लेता है॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे षडधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादरूप दो सौ छठा अध्याय पूरा हुआ॥२०६॥