भागसूचना
पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखोपघाते शारीरे मानसे चाप्युपस्थिते।
यस्मिन् न शक्यते कर्तुं यत्नस्तं नानुचिन्तयेत् ॥ १ ॥
मूलम्
दुःखोपघाते शारीरे मानसे चाप्युपस्थिते।
यस्मिन् न शक्यते कर्तुं यत्नस्तं नानुचिन्तयेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजी कहते हैं— बृहस्पते! जब मनुष्यपर कोई ऐसा शारीरिक या मानसिक दुःख आ पड़े, जिसके रहते हुए साधन करना अशक्य हो जाय, तब उस दुःखका चिन्तन करना छोड़ दे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् ।
चिन्त्यमानं हि चाभ्येति भूयश्चापि प्रवर्तते ॥ २ ॥
मूलम्
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् ।
चिन्त्यमानं हि चाभ्येति भूयश्चापि प्रवर्तते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुःखको दूर करनेके लिये सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिन्तन छोड़ दिया जाय; क्योंकि चिन्तन करनेसे वह सामने आता है और अधिकाधिक बढ़ता रहता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद् विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद् विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मानसिक दुःखको बुद्धि एवं विचारद्वारा तथा शारीरिक कष्टको ओषधियोंद्वारा दूर करे, यही विज्ञानकी सामर्थ्य है, जिससे मनुष्य दुःखमें पड़नेपर बच्चोंके समान बैठकर रोये नहीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ ४ ॥
मूलम्
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यौवन, रूप, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनोंका समागम—ये सब अनित्य हैं। विवेकशील पुरुषोंको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति।
अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम् ॥ ५ ॥
मूलम्
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति।
अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दुःख सारे देशपर है, उसके लिये किसी एक व्यक्तिको शोक नहीं करना चाहिये। यदि उसे टालनेका कोई उपाय दिखायी दे तो शोक न करके उस दुःखके निवारणका प्रयत्न करना चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखाद् बहुतरं दुःखं जीविते नास्ति संशयः।
स्निग्धस्य चेन्द्रियार्थेषु मोहान्मरणमप्रियम् ॥ ६ ॥
मूलम्
सुखाद् बहुतरं दुःखं जीविते नास्ति संशयः।
स्निग्धस्य चेन्द्रियार्थेषु मोहान्मरणमप्रियम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि जीवनमें सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक है। जो पुरुष विषयोंमें अधिक आसक्त होता है, वह मोहवश मरणरूप अप्रिय कष्ट भोगता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नरः।
अभ्येति ब्रह्म सोऽत्यन्तं न ते शोचन्ति पण्डिताः ॥ ७ ॥
मूलम्
परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नरः।
अभ्येति ब्रह्म सोऽत्यन्तं न ते शोचन्ति पण्डिताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सुख और दुःख दोनोंको छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मको प्राप्त होता है, अतः वे ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखमर्था हि युज्यन्ते पालनेन च ते सुखम्।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाशमेषां न चिन्तयेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
दुःखमर्था हि युज्यन्ते पालनेन च ते सुखम्।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाशमेषां न चिन्तयेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंके उपार्जनमें दुःख है। उनकी रक्षामें भी तुम्हें सुख नहीं मिल सकता। दुःखसे ही उनकी उपलब्धि होती है; अतः उनका नाश हो जाय तो चिन्ता नहीं करनी चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं ज्ञेयाभिनिर्वृत्तं विद्धि ज्ञानगुणं मनः।
प्रज्ञाकरणसंयुक्तं ततो बुद्धिः प्रवर्तते ॥ ९ ॥
मूलम्
ज्ञानं ज्ञेयाभिनिर्वृत्तं विद्धि ज्ञानगुणं मनः।
प्रज्ञाकरणसंयुक्तं ततो बुद्धिः प्रवर्तते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पते! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि ज्ञेयरूपमें परमात्मासे ज्ञान प्रकट होता है और मन ज्ञानका गुण (कार्य) है। जब वह ज्ञानेन्द्रियोंसे युक्त होता है, तब बुद्धि कर्मोंमें प्रवृत्त होती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा कर्मगुणैर्हीना बुद्धिर्मनसि वर्तते।
तदा प्रज्ञायते ब्रह्म ध्यानयोगसमाधिना ॥ १० ॥
मूलम्
यदा कर्मगुणैर्हीना बुद्धिर्मनसि वर्तते।
तदा प्रज्ञायते ब्रह्म ध्यानयोगसमाधिना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय बुद्धि कर्म-संस्कारोंसे रहित होकर हृदयमें स्थित हो जाती है, उसी समय ध्यानयोगजनित समाधिके द्वारा ब्रह्मका भलीभाँति ज्ञान हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेयं गुणवती बुद्धिर्गुणेष्वेवाभिवर्तते ।
अपरादभिनिःसृत्य गिरेः शृङ्गादिवोदकम् ॥ ११ ॥
मूलम्
सेयं गुणवती बुद्धिर्गुणेष्वेवाभिवर्तते ।
अपरादभिनिःसृत्य गिरेः शृङ्गादिवोदकम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्यथा जैसे जलकी धारा पर्वतके शिखरसे निकलकर ढालकी ओर बहती है, उसी प्रकार यह गुणवती बुद्धि अज्ञानके कारण परमात्मासे नियुक्त होकर रूप आदि गुणोंकी ओर बहने लग जाती है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा निर्गुणमाप्नोति ध्यानं मनसि पूर्वजम्।
तदा प्रज्ञायते ब्रह्म निकषं निकषे यथा ॥ १२ ॥
मूलम्
यदा निर्गुणमाप्नोति ध्यानं मनसि पूर्वजम्।
तदा प्रज्ञायते ब्रह्म निकषं निकषे यथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब साधक सबके आदिकारण निर्गुण ध्येयतत्त्वको ध्यानद्वारा अन्तःकरणमें प्राप्त कर लेता है, तब कसौटीपर कसे हुए सुवर्णके समान ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनस्त्वपहृतं पूर्वमिन्द्रियार्थनिदर्शकम् ।
न समक्षगुणापेक्षि निर्गुणस्य निदर्शकम् ॥ १३ ॥
मूलम्
मनस्त्वपहृतं पूर्वमिन्द्रियार्थनिदर्शकम् ।
न समक्षगुणापेक्षि निर्गुणस्य निदर्शकम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु इन्द्रियोंके विषयोंको दिखानेवाला मन जब पहलेसे ही विषयोंकी ओर अपहृत हो जाता है, तब वह विषयरूप गुणोंकी अपेक्षा रखनेवाला मन निर्गुण तत्त्वका दर्शन करानेमें समर्थ नहीं होता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाण्येतानि संवार्य द्वाराणि मनसि स्थितः।
मनस्येकाग्रतां कृत्वा तत्परं प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
सर्वाण्येतानि संवार्य द्वाराणि मनसि स्थितः।
मनस्येकाग्रतां कृत्वा तत्परं प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त इन्द्रियोंको रोककर संकल्पमात्रसे मनमें स्थित हो उन सबको हृदयमें एकत्र करके साधक उससे भी परे विद्यमान परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा महान्ति भूतानि निवर्तन्ते गुणक्षये।
तथेन्द्रियाण्युपादाय बुद्धिर्मनसि वर्तते ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा महान्ति भूतानि निवर्तन्ते गुणक्षये।
तथेन्द्रियाण्युपादाय बुद्धिर्मनसि वर्तते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार गुणोंका क्षय होनेपर पञ्चमहाभूत निवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार बुद्धि समस्त इन्द्रियोंको लेकर हृदयमें स्थित हो जाती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मनसि सा बुद्धिर्वर्ततेऽन्तरचारिणी।
व्यवसायगुणोपेता तदा सम्पद्यते मनः ॥ १६ ॥
मूलम्
यदा मनसि सा बुद्धिर्वर्ततेऽन्तरचारिणी।
व्यवसायगुणोपेता तदा सम्पद्यते मनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब निश्चयात्मिका बुद्धि अन्तर्मुखी होकर हृदयमें स्थित होती है, तब मन विशुद्ध हो जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणवद्भिर्गुणोपेतं यदा ध्यानगुणं मनः।
तदा सर्वान् गुणान् हित्वा निर्गुणं प्रतिपद्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
गुणवद्भिर्गुणोपेतं यदा ध्यानगुणं मनः।
तदा सर्वान् गुणान् हित्वा निर्गुणं प्रतिपद्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्दादि गुणोंसे युक्त इन्द्रियोंके सम्बन्धसे उन गुणोंसे घिरा हुआ मन जब ध्यानजनित गुणोंसे सम्पन्न होता है, तब उन समस्त गुणोंको त्यागकर निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तस्येह विज्ञाने नास्ति तुल्यं निदर्शनम्।
यत्र नास्ति पदन्यासः कस्तं विषयमाप्नुयात् ॥ १८ ॥
मूलम्
अव्यक्तस्येह विज्ञाने नास्ति तुल्यं निदर्शनम्।
यत्र नास्ति पदन्यासः कस्तं विषयमाप्नुयात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अव्यक्त ब्रह्मका बोध करानेके लिये इस संसारमें कोई योग्य दृष्टान्त नहीं है। जहाँ वाणीका व्यापार ही नहीं है, उस वस्तुको कौन वर्णनका विषय बना सकता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा चानुमानेन गुणैर्जात्या श्रुतेन च।
निनीषेत् परमं ब्रह्म विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ १९ ॥
मूलम्
तपसा चानुमानेन गुणैर्जात्या श्रुतेन च।
निनीषेत् परमं ब्रह्म विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तपसे, अनुमानसे, शम आदि गुणोंसे, जातिगत धर्मोंके पालनसे तथा शास्त्रोंके स्वाध्यायसे अन्तःकरणको विशुद्ध करके उसके द्वारा परब्रह्मको प्राप्त करनेकी इच्छा करे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणहीनो हि तं मार्गं बहिः समनुवर्तते।
गुणाभावात् प्रकृत्या वा निस्तर्क्यं ज्ञेयसम्मितम् ॥ २० ॥
मूलम्
गुणहीनो हि तं मार्गं बहिः समनुवर्तते।
गुणाभावात् प्रकृत्या वा निस्तर्क्यं ज्ञेयसम्मितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उक्त तपस्या आदि गुणोंसे रहित मनुष्य बाहर रहकर बाह्य मार्गका ही अनुसरण करता है। वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा गुणोंसे अतीत होनेके कारण स्वभावसे ही तर्कका विषय नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैर्गुण्याद् ब्रह्म चाप्नोति सगुणत्वान्निवर्तते।
गुणप्रचारिणी बुद्धिर्हुताशन इवेन्धने ॥ २१ ॥
मूलम्
नैर्गुण्याद् ब्रह्म चाप्नोति सगुणत्वान्निवर्तते।
गुणप्रचारिणी बुद्धिर्हुताशन इवेन्धने ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अग्नि सूखे काठमें विचरण करती है, उसी प्रकार बुद्धि भी शब्द, स्पर्श आदि गुणोंमें विचरती रहती है। जब वह उन गुणोंका सम्बन्ध छोड़ देती है, तब निर्गुण होनेके कारण ब्रह्मको प्राप्त होती है और जबतक गुणोंमें आसक्त रहती है, तबतक गुणोंसे सम्बन्धित होनेके कारण ब्रह्मको न पाकर लौट आती है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा पञ्च विमुक्तानि इन्द्रियाणि स्वकर्मभिः।
तथा हि परमं ब्रह्म विमुक्तं प्रकृतेः परम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा पञ्च विमुक्तानि इन्द्रियाणि स्वकर्मभिः।
तथा हि परमं ब्रह्म विमुक्तं प्रकृतेः परम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पाँचों इन्द्रियाँ अपने कार्यरूप शब्द आदि गुणोंसे भिन्न हैं, उसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा भी प्रकृतिसे सर्वथा परे है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रकृतितः सर्वे प्रवर्तन्ते शरीरिणः।
निवर्तन्ते निवृत्तौ च स्वर्गं चैवोपयान्ति च ॥ २३ ॥
मूलम्
एवं प्रकृतितः सर्वे प्रवर्तन्ते शरीरिणः।
निवर्तन्ते निवृत्तौ च स्वर्गं चैवोपयान्ति च ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार समस्त प्राणी प्रकृतिसे उत्पन्न होते और यथासमय उसीमें लयको प्राप्त होते हैं। उस लय अथवा मृत्युके पश्चात् वे पुण्य और पापके फलस्वरूप स्वर्ग और नरकमें जाते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषः प्रकृतिर्बुद्धिर्विषयाश्चेन्द्रियाणि च ।
अहंकारोऽभिमानश्च समूहो भूतसंज्ञकः ॥ २४ ॥
मूलम्
पुरुषः प्रकृतिर्बुद्धिर्विषयाश्चेन्द्रियाणि च ।
अहंकारोऽभिमानश्च समूहो भूतसंज्ञकः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, पाँच विषय, दस इन्द्रियाँ, अहंकार, मन और पंच महाभूत—इन पचीस तत्त्वोंका समूह ही प्राणी नामसे कहा जाता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्याद्या प्रवृत्तिस्तु प्रधानात् सम्प्रवर्तते।
द्वितीया मिथुनव्यक्तिमविशेषान्नियच्छति ॥ २५ ॥
मूलम्
एतस्याद्या प्रवृत्तिस्तु प्रधानात् सम्प्रवर्तते।
द्वितीया मिथुनव्यक्तिमविशेषान्नियच्छति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि आदि तत्त्वसमूहकी प्रथम सृष्टि प्रकृतिसे ही हुई है। तदनन्तर दूसरी बारसे उनकी सामान्यतः मैथून-धर्मसे नियमपूर्वक अभिव्यक्ति होने लगी है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मादुत्कृष्यते श्रेयस्तथाश्रेयोऽप्यधर्मतः ।
रागवान् प्रकृतिं ह्येति विरक्तो ज्ञानवान् भवेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
धर्मादुत्कृष्यते श्रेयस्तथाश्रेयोऽप्यधर्मतः ।
रागवान् प्रकृतिं ह्येति विरक्तो ज्ञानवान् भवेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म करनेसे श्रेयकी वृद्धि होती है और अधर्म करनेसे मनुष्यका अकल्याण होता है। विषयासक्त पुरुष प्रकृतिको प्राप्त होता है और विरक्त आत्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०५॥